Saturday, 24 August 2024

पूजा ही नहीं श्रीकृष्ण के उपदेशों को जीवन में ढ़ालना भी चाहिए

पूजा ही नहीं श्रीकृष्ण के उपदेशों को जीवन में ढ़ालना भी चाहिए

श्रीकृष्ण को अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाएं तो वे देश दुनिया के सामाजिक ताने-बाने की एक अहम् कड़ी है। या यूं कहे श्रीकृष्ण सिर्फ भगवान है बल्कि अच्छे सारथी, राजनीतिज्ञ कुटनीतिज्ञ के साथ-साथ हर किसी के सर्वश्रेष्ठ गुरु भी हैं। उनके हर कार्य, हर उपदेश, हर प्राणी के प्रेरणास्रोत है। हम उनकी प्रेरणा लेकर रुढ़ियों और कुरीतियों का त्याग कर स्वस्थ और सुखी समाज की संकल्पना का नया द्वार खोल सकते है। मैं और मेरे की संकीर्णता परिधि से बाहर निकलकर सामजिक जीवन में सृजन पथ की सफल यात्रा संभव है। वे धर्म, समाज अधिकार खातिर डटकर लड़ने के लिए प्रेरित करते है। मतलब साफ है श्रीकृष्ण की पूजा ही नहीं उनके उपदेशों को जीवन में ढालना भी चाहिए। इसके लिए श्रीमद् भागवत गीता सबसे बेहतर माध्यम है। उनके प्रेरणादायी उपदेश हमें जीवन जीने की सीख देते है। खासकर वर्तमान राजनीतिक नेताओं को उनके उपदेशों से सबक लेनी चाहिए। राजनीतिक नेता तो बने लेकिन श्रेय लेने से बचना चाहिए। देखा जाएं तो श्रीकृष्ण ने महाभारत समेत सारी लड़ाइयां लड़ी। वे चाहते तो मथुरा और हस्तिनापुर समेत पूरी पृथ्वी पर राज करते, लेकिन उन्होंने कभी भी पद प्रतिष्ठा की चिंता नहीं की और ना किसी भी जीते युद्ध का श्रेय लिया। जरासंध का वध किया तो उसके बेटे को राजा बनाया, जो चरित्रवान था। या यूं कहे सभी जगह ऐसे लोगों को बैठाया जो धर्म को जानते थे। वह महाभारत के जीत का श्रेय पांडव को देते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि आप जो भी कर्म करें उसमें पूरा मन लगे, रम जाए। अपने काम में ही खुशी ढूंढे और ऐसा करने वाले लोग निश्चित ही सफलता को प्राप्त करते हैं 

                                                         सुरेश गांधी

श्री कृष्णा योगेश्वर हैं। निर्मुक्त भाव से भागेश्वर भी हैं। अर्जुन और सुदामा दोनों उनके मित्र हैं। अर्जुन से वह युद्ध करने की बात कहते हैं और सुदामा से भक्ति की, अर्थात जिसकी जो योग्यता जिस क्षेत्र में हो उस क्षेत्र का वह कर्मयोगी बने। मतलब साफ है इस सत्ता के संघर्ष से बाहर आने और विनम्र होने के लिए हमें कृष्ण के साथ एक प्रेमपूर्ण संबंध अर्थात भक्ति विकसित करने की आवश्यकता है। क्योंकि केवल दिन और विनम्र ही भगवान की कृपा प्राप्त करते हैं। भारत अनंत शक्ति का स्रोत है। यहां के 65 करोड़ युवाओं में बहुतेरे में ज्यादातर शक्तियां सोई हुई हैं। सोने का अंतिम रात्रि प्रहर भी गया है और शक्तियों का अब भी जागरण नहीं हो पा रहा है। आज यह श्री कृष्ण जन्मोत्सव फिर उन्हीं सुषुप्त शक्तियों के जागरण का पर्व है। वह भारत को महाभारत बनाने का घोर निनाद कर रहा है। अर्जुन रूपी युवा शक्ति जो अभी अवसाद ग्रस्त है उसके ऊपर जो तमस है, उसे हटाना होगा और श्री कृष्ण के जीवन चरित्र का जो अहर्निश कर्म वाद्य बज रहा है उसे और जोर से बजाना होगा। 

आज इस पवित्र पावन पर्व पर युवाओं के लिए नवनिर्माण की जिम्मेदारी स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष नहीं हैं। हमें भी अपने जीवन को शक्तिशील और सृजनात्मक बनाने के लिए दुर्बलता नहीं दिखाने हैं बल्कि श्रीकृष्ण की शिक्षाओं से हाथ में अर्जुन की तरह कुदाली, बाण लेकर तब तक खोदना है जब तक की हमारी पूर्णता का जलस्रोत मिल जाएं। लेकिन अफसोस है आज अधिकतर लोग सच्चाई का सामना नहीं करना चाहते। हर इंसान मृत्यु से भयभीत है। जबकि सबको पता है की मृत्यु होनी है। लेकिन श्रीकृष्ण मृत्यु को नए जीवन की शुरुआत कहते हैं। वे कहते हैं की सच्चाई को स्वीकार करें और चुनौतियों से डटकर लड़े। मृत्यु के भय से अपने भविष्य को खराब करें। वे कहते हे मन ही किसी का मित्र है और शत्रु होता है। छोटी-छोटी खराब आदतें ही हमारे विनाश का कारण बनती हैं। वे गीता में कहते हैं कि क्रोध से भ्रम होता और भ्रम से बुद्धि का विनाश होता है। वही जब बुद्धि काम नहीं करती, तब तर्क नष्ट होता है और व्यक्ति का नाश हो जाता है।

श्री कृष्ण का कहना था कि अपना हो या पराया गलत से कोई प्रीति नहीं। अधर्मी को उसके किए की सजा मिलनी ही चाहिए। श्री कृष्ण की मान्यता थी कि रण से पहले स्पष्ट होना चाहिए कि कौन किसकी तरफ है। तटस्थ रहने वालों पर कभी विश्वास ना करें। जबकि आज लोग अपने हित साधने के लिए स्थिति स्पष्ट रखते है। त्याग ही जीवन का सार है। लाभ, लोभ या यश लोलुपता से दूर रहें। कंस को मारने के बाद मथुरा का राजा अग्रसेन को सौंपा। लेकिन आज नेताओं में त्याग जैसा कुछ नहीं। हमेशा सत्ता और कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं। जबकि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। व्यक्ति गुण विचारों के साथ पैदा होता है, जिन्हें कर्म से बदला जा सकता है। आज कर्म के बजाय जन्म ही यानी जाति परिवार ही महत्वपूर्ण हो चला है। 

श्रीकृष्ण का कहना था कि परिवर्तन संसार का नियम है, कल जो किसी और का था, आज तुम्हारा है, कल किसी और का होगा। आज राजनीति में कोई भी धनबल, जातिबल बाहुबल के दायरे से बाहर नहीं आना चाहता। दिव्य दृष्टि में सभी प्राणी समान है। नीतियों और शासन में समावेशिता होनी चाहिए। इसमें ही सबका भला है। आज राजनीति में भाषा जाति, धर्म के आधार पर भेदभाव चरम पर है। समानता के सिद्धांत से हर कोई दूर है। महाभारत नारी के सम्मान के लिए ही लड़ा गया। इसके मूल में श्रीकृष्ण ही तो थे। आज लोग छोटे-छोटे पद पाकर घमंड करते हैं। पद छूट जाने पर दुखी हो जाते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है, जिसे तुम मृत्यु समझते हो वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो दूसरे क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके। श्री कृष्ण सबको जोड़ने के साथ ही मुक्त भी करते हैं। 

आजकल रिश्ते तेजी से खत्म हो रहे हैं, परिवार बिखर रहे हैं। ऐसे में श्रीकृष्ण से सीख लेनी चाहिए कि उन्होंने जिनकों भी मन से अपना माना, उन्हें जीवन भर नहीं छोड़ा। अर्जुन, सुदामा या उद्धव उदाहरण है। अधिकतर लड़ाइयां श्रीकृष्ण ने संबंधों के निर्माण के लिए लड़ी। उनका सीधा संदेश है सबसे बड़ी धरोहर रिश्ते ही है। अगर किसी के पास रिश्तो की थाती नहीं है तो वह इंसान संसार के लिए गैर जरूरी है। रिश्तो को दिल से जिएं, दिमाग से नहीं। हमारे प्राचीन दर्शन आधुनिक विज्ञान भी कहता है भविष्य और व्यर्थ की चिंता सब कुछ नष्ट कर देते हैं। श्रीकृष्ण ने भविष्य की चिंता व्यर्थ बताइ है। वर्तमान में जीने को सर्वोचित कहा है। वे चिंता करने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? तुम क्या लेकर आए थे, जो खो गया है? कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, फल पर नहीं। अतः हमें चिंता से उभरने के लिए उस चिंता के विषय में चिंतन करना चाहिए। जीवन को सकारात्मक गति देने के लिए चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। चिंता से जहां मन अशांत रहता है, वही चिंतन से मन में एकाग्रता, शांति, उत्साह और प्रेम का भाव उत्पन्न होता है। वास्तव में चिंता ही चिंतन को जन्म देती है। जब व्यक्ति किसी समस्या से ग्रस्त होता है तब वह उसे समस्या के बारे में चिंतन करता है। वे कहते हैं व्यर्थ की चिंता, डर, लोभ, क्रोध, भय, घृणा को जन्म देती है। इनसे बाहर निकले। श्री कृष्ण को पाना है तो नारी सम्मान जरूरी है। राक्षस नरकासुर ने जब 16,100 महिलाओं को महल में कैद कर रखा था, तब श्रीकृष्ण राक्षस को मार कर उन्हें मुक्त कराया। उन महिलाओं के घर वालों ने उन्हें दूषित मानकर त्याग दिया। तब श्रीकृष्ण ने सभी महिलाओं को पत्नी के रूप में स्वीकारा है।

वैसे भी भारतीय दर्शन परंपरा में श्रीराम और श्रीकृष्ण के ईश्वरीय रुप दो किनारों पर हैं। एक ओर श्रीराम हैं, जो साधन की पवित्रता पर यकीन करते हैं। यानी लक्ष्य हासिल करने के लिए अपनाया गया रास्ता सही होना चाहिए, चाहे अंतिम परिणाम कुछ भी हो। वहीं श्रीकृष्ण लक्ष्य को ज्यादा तरजीह देते हैं। मौजूदा दौर में यह ज्यादा व्यावहारिक भी है। दिलचस्प यह है कि लक्ष्य हासिल करने में रास्ते चयन की नैतिक बाधाओं को श्रीकृष्ण अपने अकाट्य तर्को से नेस्तनाबूद कर देते हैं। यही वजह हैं कि भारतीय मिथकीय पात्रों में श्रीकृष्ण सर्वाधिक अपने से प्रतीत होने वाले देवता या नायक माने जाते है। श्रीकृष्ण अकेले ऐसे अवतार हैं, जो पूरे देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब जगह समान रुप से पूज्य हैं। यह प्रतिष्ठा भारतीय मिथकीय पात्रों में से किसी को नहीं मिली। कहा जा सकता है बाकी के सभी अवतारों में एक अभिजात्य मर्यादा है। उनके साथ इतने किन्तु-परन्तु हैं कि आमजन उनके समीप जाने से डरता है, पर श्रीकृष्ण सबके लिए हैं और सबके हैं। इसीलिए लोग श्रीकृष्ण के साथ जुड़ता है। श्रीकृष्ण अवतार भगवान विष्णु का पूर्णावतार है। ये रूप जहां धर्म और न्याय का सूचक है वहीं इसमें अपार प्रेम भी है। वे भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने अर्जुन को कायरता से वीरता, विषाद से प्रसाद की ओर जाने का दिव्य संदेश श्रीमदभगवदगीता के माध्यम से दिया। तो कालिया नाग के फन पर नृत्य किया, विदुराणी का साग खाया और गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरिधारी कहलाये। समय पड़ने पर उन्होंने दुर्योधन की जंघा पर भीम से प्रहार करवाया, शिशुपाल की गालियां सुनी, पर क्रोध आने पर सुदर्शन चक्र भी उठाया। और अर्जुन के सारथी बनकर उन्होंने पाण्डवों को महाभारत के संग्राम में जीत दिलवायी। सोलह कलाओं से पूर्ण वह भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह के लिए गरीब सुदामा के पोटली के कच्चे चावलों को खाया और बदले में उन्हें राज्य दिया। इन्हीं वजहों से श्रीकृष्ण को संपूर्ण अवतार माना जाता है। संपूर्ण कभी गलत नहीं हो सकता कर सकता है, क्योंकि उसके बाहर है क्या जो उसकी समीक्षा करे? इसीलिए संपूर्ण में अच्छा-बुरा, सृजन-विध्वंस और धर्म-अधर्म सबकुछ शामिल होता है। कृष्ण का चरित्र भी ऐसा ही है। मतलब साफ है संपूर्ण को संपूर्ण ही समझ सकता है और स्वीकार कर सकता है। हममें से कोई संपूर्ण नहीं है, जो कृष्ण गाथा के मर्म तक पहुंच सके। हम तो अपना-अपना कृष्ण ही चुन सकते हैं। असल में लोगों ने ऐसा ही किया है।

मुश्किल घड़ी में साथ

होते हैं उनके आदर्श 

श्री कृष्ण व्यक्ति नहीं वरन सद्प्रवृत्तियों के आदर्श के रूप में हमारे सम्मुख हैं। हर विपरीत घड़ी में उनके आदर्श हमारे सामने होते हैं। महाभारत के युद्ध में जीत का श्रेय उन्होंने अर्जुन और भीम को दिया तो प्रत्येक स्त्री को उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग का श्रेय देने से भी वे नहीं चूके। जबकि इस पूरे युद्ध के महानायक श्रीकृष्ण ही थे। अपने मित्र सुदामा के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए बिना ही उन्होंने उसके मन की बात जान ली थी। वे प्रमाण के साथ दूसरों को सबक भी सिखा देते थे। जब बहन सुभद्रा ने द्रौपदी के प्रति उनके विशेष लगाव की बात की तो बात के पीछे छिपे ईर्ष्याभाव की गहराई को वे समझ गए और उसी वक्त उन्होंने सुभद्रा को सीख देने का विचार कर लिया था। एक मौके पर सुभद्रा और द्रौपदी की मौजूदगी में श्रीकृष्ण की उंगली में छोटा-सा घाव हो गया तो पट्टी के लिए कपड़े का टुकडा तलाशते सुभद्रा इधर-उधर देखने लगी जबकि द्रौपदी ने पलभर का विलंब किए बगैर पहनी हुई बेशकीमती साड़ी का पल्लू फाड़ घाव पर बांध दिया। इसी के वशीभूत होकर श्रीकृष्ण ने भरी सभा में द्रौपदी की लाज बचाई। कृष्ण बहुत थोड़े से प्रेम में बंध जाते हैं। श्रीकृष्ण ने भगवदगीता में भगवत प्राप्ति के तीन योग बताए हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। इनमें भक्तियोग उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। जो उन तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग है। श्रीकृष्ण कह गए हैं, कलयुग में जो भी व्यक्ति माता-पिता को ईश्वर मान सेवा करेगा मुझे सबसे प्रिय होगा। कर्मयोग और भक्तियोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति मन की वह सरल अवस्था है जो व्यक्ति की आत्मा को आश्वस्त करती है कि परमात्मा और आत्मा एक है।

जहां धर्म और न्याय वहीं श्रीकृष्ण

वृंदावनवासियों को कृष्ण का बाल रूप और गोपी प्रसंग ज्यादा पसंद है। चौतन्य महाप्रभु को कृष्ण का ईश्वरीय संस्करण ज्यादा नजर आता था। वहां सूफी तत्व ज्यादा दिखाई पड़ता है। गांधी जी ने गीता के निष्काम कर्म योग को अपनाने की कोशिश की। और-और लोगों ने कृष्ण को और-और दृष्टि से देखा होगा। कह सकते हैं हर आदमी के भीतर कृष्ण का कोई--कोई पहलू मौजूद है। उन्हीं परमदयालु प्रभु के जन्म उत्सव को जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक ग्रंथों के मतानुसार श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में मध्यरात्रि के समय हुआ था। अतः भाद्रपद मास में आने वाली कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यदि रोहिणी नक्षत्र का भी संयोग हो तो वह और भी भाग्यशाली माना जाता है। इसे जन्माष्टमी के साथ साथ जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। जन्माष्टमी के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके व्रत कोव्रतराजकहा जाता है। मान्यता है कि इस एक दिन व्रत रखने से कई व्रतों का फल मिल जाता है। अगर भक्त पालने में भगवान को झुला दें, तो उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। संतान, आयु और समृद्धि की प्राप्ति होती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन जो भी व्रत रखता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह मोह-माया के जाल के मुक्त हो जाता है। यदि यह व्रत किसी विशेष कामना के लिए किया जाए तो वह कामना भी शीघ्र ही पूरी हो जाती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आपका आत्मिक सुख जगाने का, आध्यात्मिक बल जगाने का पर्व है। जीव को श्रीकृष्ण-तत्त्व में सराबोर करने का त्यौहार है। श्रीकृष्ण का जीवन सर्वांगसंपूर्ण जीवन है। उनकी हर लीला कुछ नयी प्रेरणा देने वाली है।

उनकी हर घटना, हर लीला निराली

वैसे भी श्रीकृष्ण अवतार से जुड़ी हर घटना और उनकी हर लीला निराली है। श्रीकृष्ण के मोहक रूप का वर्णक कई धार्मिक ग्रंथों में किया गया है। सिर पर मुकुट, मुकुट में मोर पंख, पीतांबर, बांसुरी और वैजयंती की माला। ऐसे अद्भूत रूप को जो एकबार देख लेता था, वो उसी का दास बनकर रह जाता था। श्रीकृष्ण को दूध, दही और माखन बहुत प्रिय था। इसके अलावा भी उन्हें गीत-संगीत, राजनीति, प्रेम, दोस्ती समाजसेवा से विशेष लगाव था। जो आज हमारे लिए प्रेरणाश्रोत और सबक भी है। उनकी बांसुरी के स्वरलहरियों का ही कमाल था कि वे किसी को भी मदहोश करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने कहा भी है, अगर जिंदगी में संगीत नहीं तो आप सुनेपन से बच नहीं सकते। संगीत जीवन की उलझनों और काम के बोझ के बीच वह खुबसूरत लय है जो हमेसा आपको प्रकृति के करीब रखती है। आज के दौर में कर्कश आवाजें ज्यादा है। ऐसे में खुबसूरत ध्वनियों की एक सिंफनी आपकी सबसे बड़ी जरुरत हैं। जहां तक राजनीति का सवाल है श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था में मथुरा आने के बाद अपना पूरा जीवन राजनीतिक हालात सुधारने में लगाया। वे कभी खुद राजा नहीं बने, लेकिन उन्होंने तत्कालीन विश्व राजनीति पर अपना प्रभाव डाला। मिथकीय इतिहास इस बात का गवाह है कि उन्होंने द्वारका में भी खुद सीधे शासन नहीं किया। उनका मानना था कि अपनी भूमिका खुद निर्धारित करो और हालात के मुताबिक कार्रवाई तय करो। महाभारत युद्ध में दर्शक रहते हुए भी वे खुद हर रणनीति बनाते और आगे कार्रवाई तय करते थे। जबकि आज पदो ंके पीछे भागने की दौड़ में राजनीति अपने मूल उद्देश्य को भूल रही है। ऐसे में श्रीकृष्ण की राजनीतिक शिक्षा हमें रोशनी देती हैं।

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