समाजसेवा के सबसे बड़े प्रेरणास्रोत है श्रीकृष्ण
वृंदावन
में
गोपियों
के
साथ
रास
रचाने
वाले
श्रीकृष्ण
को
पशुओं
और
प्रकृति
से
बेहद
लगाव
था।
उनका
बचपन
गायों
और
गांवों
के
जीवों
के
इर्द-गिर्द
बीता,
लेकिन
जब
मौका
आया
तो
उन्होंने
अपने
नगर
के
लिए
समुद्र
के
करीब
का
इलाके
को
चुना।
जहां
पहाड़,
पशु,
पेड़,
नदी-समुद्र
कृष्ण
की
पूरी
कहानी
का
जरुरी
हिस्सा
हैं।
यानी
श्रीकृष्ण
ने
जिसे
चाहा
टूटकर
चाहा
और
अपने
प्रिय
के
लिए
वे
किसी
भी
हद
से
गुजरे।
साथ
ही
अपने
काम
को
भी
नहीं
भूले।
वे
अपने
सबसे
प्रिय
लोगों
को
किशोवय
में
छोड़कर
मथुरा
आएं,
काम
की
खातिर।
कहा
जा
सकता
है
प्रेम
और
काम
के
बीच
उलझे
आज
के
दौर
में
श्रीकृष्ण
वह
राह
सुझाते
हैं
जहां
दोनों
के
बीच
तार्किक
संतुलन
हैं।
बतौर
दोस्त
श्रीकृष्ण
के
दो
रुप
दिखाई
देते
हैं।
एक
सुदामा
के
दोस्त
है,
दुसरे
अर्जुन
के।
तत्कालीन
परिस्थितियों
में
उन्हें
अर्जुन
जैसे
दोस्त
की
दरकार
थी,
लेकिन
वे
सुदामा
के
प्रति
अपनी
जिम्मेदारी
को
भी
नहीं
भूलते।
यह
श्रीकृष्ण
की
देस्ती
का
फलसफा
हैं।
मतलब
साफ
है
दोस्त
को
जरुरत
से
ज्यादा
खुद
पर
निर्भर
मत
बनाओं।
अर्जुन
को
कृष्ण
लड़ने
लायक
बनाते
है,
उसके
लिए
खुद
नहीं
लड़ते।
सुदामा
को
भी
आर्थिक
मदद
ही
करते
हैं।
यानी
दोस्ती
की
छीजती
सलाहियत
के
बीच
कृष्ण
दोस्त
की
पहचान
पर
जोर
देते
हैं।
समाजसेवा
के
लिए
श्रीकृष्ण
किसी
काम
को
छोटा
नहीं
समझते।
अगर
अर्जुन
के
सारथी
बने
तो
चरवाहा
या
यूं
कहे
ग्वाला
भी
बनें।
सुदामा
के
पैर
धोए
तो
युधिष्ठिर
से
धुलवाया,
तो
उनकी
पत्तल
भी
उठाएं।
कर्म
प्रधानता
का
पूरा
शास्त्र
गीता
इसका
बड़ा
उदाहरण
है।
यानी
काम
करो,
बस
काम,
जो
भी
सामने
हो,
जैसा
भी
हो।
या
यूं
कहे
कृष्ण
अकर्मण्यता
के
खिलाफ
थे।
मतलब
साफ
है
शार्टकट
और
पहले
परिणाम
जानने
की
दौर
में
श्रीकृष्ण
के
मार्ग
ज्यादा
अहम्
हो
जाते
हैं।
वे
परिणाम
से
ज्यादा
कर्म
को
तवज्जों
देते
हैं।
जन्माष्टमी
के
मौके
पर
जब
कोई
भी
भक्त
उनके
आदर्शो
या
बताएं
मार्गो
का
अनुशरण
करता
है
या
उनकी
सच्चे
दिल
से
प्रार्थना
करता
है,
बाल-गोपाल
कन्हैया
उसकी
इच्छा
जरूर
पूरी
करते
हैं
सुरेश गांधी
प्रेम और कर्म का
संदेश एवं योग को
सहज समझने वाले भगवान श्रीकृष्ण
के भक्तों की कमी नहीं
है। कई विदेशी कृष्ण
की भक्ति में इतने लीन
हो गए हैं कि
उन्होंने भारतीय संस्कृति को अपना लिया
है। मतलब साफ है
कृष्ण साधना भी किसी सिद्धि
से कम नहीं है।
श्रीकृष्ण एवं अन्य किशोरों
में यही तो अंतर
है कि उनकी काया
सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई
थी। वे पूर्ण पवित्र
संस्कारों वाले थे। उनका
जन्म काम-वासना के
भोग से नहीं हुआ
था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण
की भक्ति के कारण आजीवन
ब्रह्मचर्य का पालन किया।
इस बात में कोई
दो राय नहीं हैं
की श्रीकृष्ण भारतीयों के रोम-रोम
में बसे हुये हैं,
इसीलिए उनके जन्मोत्सव अर्थात
‘जन्माष्टमी‘ को भारत के
हर शहर-देहात में
बहुत ही उत्साह और
उल्लास के साथ मनाया
जाता है। श्रीकृष्ण सभी
को इसलिए इतने प्रिय लगते
हैं क्योंकि उनकी सतोगुणी काया,
सौम्य चितवन, हर्षित मुख और उनका
शीतल स्वभाव सबके मन को
मोहने वाला हैं। उनके
जन्म, किशोरावस्था और बाद के
भी सारे जीवन को
लोग दैवी जीवन मानते
हैं। फिर भी श्रीकृष्ण
के जीवन में जो
मुख्य विशेषतायें थीं और जो
अनोखे प्रकार की महानता थी
उसको लोग आज यथार्थ
रूप में और स्पष्ट
रीति से नहीं जानते।
उदाहरण के तौर पर
वे यह नहीं जानते
कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना
आकर्षक क्यों था और वे
पूज्य श्रेणी में क्यों गिने
जाते हैं? एक बार
फिर, उन्हें यह भी ज्ञात
नहीं है कि श्रीकृष्ण
ने उस उत्तम पदवी
को किस उत्तम पुरूषार्थ
से पाया। अतः जब तक
हम उन रहस्यों को
पुर्णतः जानेंगे नहीं, तब तक श्रीकृष्ण
दर्शन जैसे हमारे लिए
अधुरा ही रह जायेगा।
अमूमन किसी नगर या
देश की जनता जन्मदिन
उसी व्यक्ति का मनाती है,
जिनके जीवन में कुछ
महानता रही हो। परंतु
आप देखेंगे कि महान व्यक्ति
भी दो प्रकार के
हुए हैं। एक तो
वे जिनका जीवन जन-साधारण
से काफी उच्च तो
था परंतु फिर भी उनकी
मनसा पूर्ण अविकारी नहीं थी, उनके
संस्कार पूर्ण पवित्र न थे, वे
विकर्माजीत भी नहीं थे
और उनकी काया सतोप्रधान
तत्वों की बनी हुई
नहीं थी। अब दूसरे
प्रकार के महान व्यक्ति
वे हैं जो पूर्ण
निर्विकारी थे। जिनके संस्कार
सतोप्रधान थे और जिनका
जन्म भी पवित्र एवं
धन्य था अर्थात कामवासना
के परिणामस्वरूप नहीं अपितु योगबल
से हुआ था। श्रीकृष्ण
और श्रीराम ऐसे ही पूजन
योग्य व्यक्ति थे। यहां ध्यान
देने के योग्य बात
यह है कि पहली
प्रकार के व्यक्तियों के
जीवन बाल्यकाल से ही गायन
या पूजने के योग्य नहीं
होते बल्कि वे बाद में
कोई उच्च कार्य करते
हैं जिसके कारण देशवासी या
नगरवासी उनका जन्मदिन मनाते
हैं। परंतु श्रीकृष्ण तथा श्रीराम जैसे
आदि देवता तो बाल्यावस्था से
ही महात्मा थे। वे कोई
संन्यास करने या शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद
पूजने के योग्य नहीं
बने और इसीलिए ही
उनके बाल्यावस्था के चित्रों में
भी उनको प्रभामण्डल से
सुशोभित दिखाया जाता है। जबकि
अन्यान्य महात्मा लोगों को संन्यास करने
के पश्चात अथवा किसी विशेष
कर्तव्य के पश्चात ही
प्रभामण्डल दिया जाता है।
यही वजह हैं की
श्रीकृष्ण की किशोरावस्था को
भी मातायें बहुत याद करती
हैं और ईश्वर से
मन ही मन यही
प्रार्थना करती हैं कि
यदि हमें बच्चा हो
तो श्रीकृष्ण जैसा। श्रीकृष्ण में तथा अन्य
किशोरों में यही तो
अंतर है कि उनकी
काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई
थी, वे पूर्ण पवित्र
संस्कारों वाले थे और
उनका जन्म योगबल द्वारा
हुआ था। उनका जन्म
काम-वासना के भोग से
नहीं हुआ था। मीराबाई
ने तो श्रीकृष्ण की
भक्ति के कारण आजीवन
ब्रह्मचर्य का पालन किया
और इसके लिए विष
का प्याला भी पीना सहर्ष
स्वीकार कर लिया। जबकि
श्रीकृष्ण की भक्ति के
लिए, उनका क्षणिक साक्षात्कार
मात्र करने के लिए
और उनसे कुछ मिनट
रास रचाने के लिए भी
काम-विकार का पूर्ण बहिष्कार
जरूरी है।
आजीवन रहे युवा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण
119 वर्ष की आयु तक
जीवित रहे। दिलचस्प बात
यह है कि कृष्ण
119 वर्ष में भी युवा
ही दिखते थे। भगवान के
युवा दिखाई देने का रहस्य
उनके जन्म से लेकर
विष्णुलोक जाने के क्रम
में छिपा हुआ है।
दरअसल कान्हा का जन्म मथुरा
में हुआ। लालन-पालन
और बचपन गोकुल, वृंदावन,
नंदगांव, बरसाना में बीता। जब
वह किशोर हुए तो मथुरा
पहुंचे। वहां उन्होंने अपने
क्रूर मामा कंस का
वध किया। और फिर वह
द्वारिका में रहने लगे।
किंवदंती है कि सोमनाथ
मंदिर के नजदीक ही
उन्होंने अपनी देह त्यागी
थी। उनकी मृत्यु एक
बहेलिया के तीर लगने
के कारण हुई थी।
हुआ यूं था कि
बहेलिया ने उनके पैर
को हिरण का सिर
समझ तीर चलाया और
तीर सीधा उनके पैर
के तलुए में जा
लगा। इस तरह उन्होंने
अपनी देह त्याग दी।
पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता
है कि जब श्रीकृष्ण
विष्णु लोक पहुंच गए
तब उनके मानवीय शरीर
पर न तो झुर्रियां
पड़ीं थीं और न
ही उनके केश सफेद
हुए थे। वह 119 उम्र
में भी एक युवा
की तरह ही दिखाई
देते थे।
गरम दूध कृष्ण ने पीया और छाले पड़े राधा को
एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद, श्री कृष्ण को दूध पीने को दिया। दूध ज्यादा गरम होने के कारण श्री कृष्ण के हृदय में लगा और उनके श्रीमुख से निकला- ‘हे राधे!‘ सुनते ही रुक्मणी बोलीं- प्रभु! ऐसा क्या है राधा जी में, जो आपकी हर सांस पर उनका ही नाम होता है? मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूं... फिर भी, आप हमें नहीं पुकारते!! श्री कृष्ण ने कहा -देवी! आप कभी राधा से मिली हैं? और मंद मंद मुस्काने लगे...अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंचीं। राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा... और, उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि ये ही राधाजी हैं और उनके चरण छुने लगीं! तभी वो बोली -आप कौन हैं ? तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया...तब वो बोली- मैं तो राधा जी की दासी हूं। राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी। रुक्मणी ने सातों द्वार पार किये... और, हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी कि अगर उनकी दासियां इतनी रूपवान हैं... तो, राधारानी स्वयं कैसी होंगी? सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंचीं... कक्ष में राधा जी को देखा- अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था। रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ीं... पर, ये क्या राधा जी के पूरे शरीर पर तो छाले पड़े हुए हैं! रुक्मणी ने पूछा- देवी आपके शरीर पे ये छाले कैसे? तब राधा जी ने कहा- देवी! कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया... वो ज्यादा गरम था! जिससे उनके ह््रदय पर छाले पड गए... और, उनके ह््रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है..!!
श्रीकृष्ण के शरीर का नीला रंग
श्रीकृष्ण के शरीर का
रंग आसमान के रंग की
तरह था। जिसे हम
श्याम रंग भी कहते
हैं। यह रंग काला,
नीला और सफेद रंग
का मिश्रिण होता है। जब
श्रीकृष्ण का जन्म हुआ
था तब उनके शरीर
का रंग सामान्य मनुष्य
की तरह ही था।
कहते है जब श्रीकृष्ण
बचपन में अपने ग्वाल
सखाओं के साथ नदी
किनारे गेंद से खेल
रहे थे। तभी उनकी
गेंद नदी में जा
गिरी। गेंद को नदी
से निकालने के लिए उन्होंने
नदी में गए। उस
नदी में कालिया नाग
रहता था जिसके विष
के प्रभाव से उनके शरीर
का रंग श्याम हो
गया था। जबकि कुछ
लोग का मत है
कि पूतना द्वारा बाल रूप में
जब श्रीकृष्ण को स्तनपान करा
रही थी उस वक्त
विष पान करने से
उनके शरीर का रंग
श्याम वर्ण का हो
गया था।
श्रीकृष्ण को पाने की सरल राह है भक्ति
राम जहां जीवन
का आदर्श हमारे सामने उपस्थित करते हैं तो
श्रीकृष्ण की लीलाएं भारतीय
जनमानस को अपनी ओर
खींचती है। यही वजह
है कि प्रत्येक भारतीय
के मन में श्रीकृष्ण
हैं। इस देश में
ऐसा एक भी राज्य
नहीं होगा जहां श्रीकृष्ण
का मंदिर न हो। कीर्ति,
लक्ष्मी, उदारता, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य ये
छः उच्च गुण जिनमें
निवास करते हैं ऐसे
हैं योगेश्वर श्रीकृष्ण। यही वजह है
कि श्रीकृष्ण भारतीयों के मन में
बसते हैं। वे सर्वाधिक
आकर्षित करने वाले भगवान
हैं। योगेश्वर रूप में वे
जीवन का दर्शन देते
हैं तो बाल रूप
में रची उनकी लीलाएं
भक्तों के मन को
लुभाती है। अपने विभिन्न
रूपों में वे भक्तों
का मार्गदर्शन करते हैं। श्रीकृष्ण
भगवान विष्णु के आठवें अवतार
माने जाते हैं। यह
भगवान विष्णु का सोलह कलाओं
से पूर्ण भव्यतम अवतार है। भगवान विष्णु
के दस अवतारों में
श्रीराम सातवें थे और श्रीकृष्ण
आठवें। भारतीय जनमानस को उत्सवप्रिय श्रीकृष्ण
अपने ज्यादा निकट प्रतीत होते
हैं। कृष्ण यानी आकर्षण। वे
जनमानस को अपनी ओर
आकर्षित करते हैं। श्रीकृष्ण
भक्ति पर रीझते हैं
और भक्तों को संतुष्टि प्रदान
करते हैं। भगवदगीता में
भगवत प्राप्ति के तीन योग
बताए हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग
और भक्तियोग। इनमें भक्तियोग श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय
है। उन तक पहुंचने
का यह सबसे सरल
मार्ग है। श्रीकृष्ण कह
गए हैं, कलयुग में
जो भी व्यक्ति माता-पिता को ईश्वर
मान सेवा करेगा मुझे
सबसे प्रिय होगा। कर्मयोग और भक्तियोग एक
ही सिक्के के दो पहलू
हैं। भक्ति मन की वह
सरल अवस्था है। यह व्यक्ति
की आत्मा को आश्वस्त करती
है कि परमात्मा और
आत्मा एक है।
मार्शल आर्ट के जन्मदाता थे श्रीकृष्ण
मार्शल आर्ट युद्ध कला
है। कहते हैं कि
इसका प्रयोग सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने किया था।
कई पौराणिक ग्रंथों में इस बात
की जानकारी मिलती है, लेकिन कई
पौराणिक ग्रंथ में यह भी
उल्लेख मिलता है कि मार्शल
आर्ट की आरंभ कलरीपायट्टु
नाम से भगवान परशुराम
द्वारा किया गया था।
कलरीपायट्टु शस्त्र विद्या है जिसे आज
के युग में मार्शल
आर्ट के नाम से
जाना जाता है। कलरीपायट्टु
दुनिया का सबसे पुराना
मार्शल आर्ट है और
इसे सभी तरह के
मार्शल आर्ट का जनक
भी कहा जाता है।
इस विद्या के माध्यम से
ही श्रीकृष्ण ने चाणूर और
मुष्टिक जैसे दैत्य मल्लों
का वध किया था
तब उनकी उम्र 16 वर्ष
की थी। मथुरा में
दुष्ट रजक के सिर
को हथेली के प्रहार से
काट दिया था। मान्यताओं
के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट
का विकास ब्रज क्षेत्र के
वनों में किया था।
डांडिया रास उसी का
एक नृत्य रूप है। कालारिपयट्टू
विद्या के प्रथम आचार्य
श्रीकृष्ण को ही माना
जाता है। हालांकि इसके
बाद इस विद्या को
अगस्त्य मुनि ने प्रचारित
किया था। इस विद्या
के कारण ही ‘नारायणी
सेना‘( नारायणी सेना यानी नारायण
श्रीकृष्ण की सेना। द्वापरयुग
में जब दुर्योधन और
अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण से सहायता मांगने
गए, तो श्रीकृष्ण ने
दुर्योधन को पहला अवसर
प्रदान किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि
वह उसमें और उसकी सेना
नारायणी सेना में एक
चुन लें। दुर्योधन ने
नारायणी सेना का चुनाव
किया। अर्जुन ने श्रीकृष्ण का
चुनाव किया था। इसे
चतुरंगिनी सेना भी कहते
हैं।) उस समय यह
सबसे प्रहारक सेना मानी जाती
थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू
की नींव रखी, जो
बाद में बोधिधर्मन से
होते हुए आधुनिक मार्शल
आर्ट में विकसित हुई।
बोधिधर्मन के कारण ही
यह विद्या चीन, जापान आदि
बौद्ध देशों में पहुंची। वर्तमान
में कलरीपायट्टु विद्या विद्या केरल और कर्नाटक
में प्रचलित है।
सबसे प्रिय रहे अर्जुन
भक्तियोग में अर्जुन ने
श्रीकृष्ण से पूछा, श्जो
भक्त आपके प्रेम में
डूब रहकर आपके सगुण
रूप की पूजा करते
हैं वे आपको प्रिय
हैं या फिर जो
आपके शाश्वत, अविनाशी और निराकार रूप
की पूजा करते हैं
वे? दोनों में से कौन
श्रेष्ठ हैं? श्रीकृष्ण बोले,
श्जो लोग मुझमें अपने
मन को एकाग्र करके
निरंतर मेरी पूजा और
भक्ति करते हैं तथा
खुद को मुझे समर्पित
कर देते हैं वे
मेरे परम भक्त होते
हैं। जो मन-बुद्धि
से परे सर्वव्यापी, निराकार
की आराधना करते हैं वे
भी मुझे प्राप्त कर
लेते हैं। मगर जो
भक्त मेरे निराकार स्वरूप
पर आसक्त होते हैं, उन्हें
बहुत मुश्किलों का सामना करना
पड़ता है क्योंकि सशरीर
जीव के लिए उस
रास्ते पर चलना बहुत
कठिन है। मगर हे
अर्जुन, जो भक्त पूरे
विश्वास के साथ अपने
मन को मुझमें लगाते
हैं और मेरी भक्ति
में लीन रहते हैं
उन्हें मैं जन्म और
मृत्यु के चक्र से
मुक्त कर देता हूं।
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