जहां जीवंत लीला में टूटता है कालियानाग का दर्प...
भगवान
विष्णु
के
आठवें
अवतार
श्रीकृष्ण
की
लीला
अपरंपार
है।
हर
रूप
में
श्रीकृष्ण
की
माया
ने
सभी
को
अचंभित
किया।
बाल
रूप
में
‘पूतना
का
संहार‘
तो
नटखट
कान्हा
रुप
में
कालिया
नाग
का
किया
काम
तमाम,
तो
बांके
बिहारी
रुप
में
‘द्रौपदी
की
लाज‘
बचाई
और
कुरुक्षेत्र
में
विराट
रूप
में
पूरी
सृष्टि
को
दिखाया।
मुरलीधर
के
इन्हीं
चमत्कारी
रुप
है
‘नाग
नथैया
यानी
कालिया
नाग‘
के
फन
पर
श्रीकृष्ण
का
बांसुरी
नृत्य।
इसी
का
मंचन
धर्म
एवं
आस्था
की
नगरी
काशी
के
तुलसी
घाट
पर
तकरीबन
साढ़े
चार
सौ
साल
से
भी
अधिक
समय
से
होता
चला
आ
रहा
है।
खास
यह
है
कि
भगवान
भोलेनाथ
की
नगरी
में
श्रीकृष्ण
की
लीला
का
शुभारंभ
स्वयं
संत
शिरोमणि
गोस्वामी
तुलसी
दास
ने
की
है।
उनके
द्वारा
शुरू
की
गयी
इस
कृष्ण
लीला
को
‘नाग
नथैया‘
के
नाम
से
जाना
जाता
है।
इस
जीवंत
लीला
में
बालरुप
में
भगवान
श्रीकृष्ण
गोधूली
बेला
में
मां
गंगा
में
छलांग
लगाते
है
और
पांच
मिनट
बाद
कालिया
नाग
के
फन
पर
नृत्य
करते
हुए
बाहर
निकलते
है।
जबकि
अच्छे
से
अच्छे
तैराक
भी
दो
मिनट
से
ज्यादा
डूबकी
नहीं
लगा
सकते।
यही
समयांतराल
लाखों
भक्तों
को
अपनी
ओर
आकर्षित
करने
के
लिए
काफी
है
और
बिना
किसी
आमंत्रण
या
प्रचार
के
भगवान
श्रीकृष्ण
की
जीवंत
लीला
देखने
के
लिए
लाखों
की
भीड़
जमा
हो
जाती
है।
प्रस्तुत
है
सीनियर
रिपोर्टर
सुरेश
गांधी
की
तुलसी
घाट
से
जीवंत
रिपोर्ट,
जो
लीला
भारत
ही
नहीं
पूरी
दुनिया
में
ख्यातिलब्ध
तो
है
ही,
तीनों
लोकों
में
भी
अनोखी
है।
कहते
है
श्रीकृष्ण
के
इस
जीवंत
लीला
को
देखने
देवताओं
की
टोली
आती
है,
ठीक
उसी
तर्ज
पर
जैसे
लक्खा
मेलों
में
शुमार
नाटी
इमली
के
भरत
मिलाप
में
गोधूली
बेला
में
मर्यादा
पुरुषोत्तम
श्रीराम
सहित
चारों
भाईयों
के
मिलन
के
दौरान
जब
सूरज
डूबता
है
तब
भगवान
का
अंश
यहां
के
राम
लक्ष्मण
में
आ
जाता
है।
इसकी
प्रमाणिकता
गोधूली
बेला
की
टाइमिंग
4.40 बजे
देती
है
जब
भगवान
सूर्य
की
किरणें
चारों
भाईयों
के
चेहरे
पड़ता
है।
ठीक
उसी
तरह
तुलसी
घाट
की
नाग
नथैया
में
देखने
को
मिलता
है,
जब
लीला
के
दौरान
बालरुप
श्रीकृष्ण
के
चेहरे
पर
भगवान
सूर्य
की
किरणें
दिखती
है
सुरेश गांधी
बात 1608 से 1611 के बीच उस वक्त की है जब महान कवि गोस्वमी तुलसीदास अपने ही उपासक भगवान श्रीराम की पटकथा लिख रहे थे। वह जगह आज भी धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में तुलसी आश्रम व घाट के रुप में स्थापित है। मान्यता है कि काशीवासियों के रग-रग में समा चुके भगवान भोलेनाथ की भक्ति के बीच श्रीराम लीला के साथ-साथ श्रीकृष्ण लीला का भी बोध कराना चाहते थे। उसी कड़ी में तुलसीदास जी ने तुलसी घाट पर श्रीकृष्ण के नटखट रुप में कालिया नाग मर्दन की जीवंत लीला का मंचन कराई, जिसे नाग नथैया के नाम से जाना जाता है। शुरुआती दौर में श्रीमद्भागवत ही इसका आधार था। बाद में ‘ब्रज विलास’ ग्रंथ के अनुसार इसका मंचन किया जाने लगा। ब्रज विलास की रचना 18वीं शताब्दी में ब्रज के प्रसिद्ध संत ब्रजवासी दास ने की। उन्होंने काशी प्रवास के दौरान तुलसीघाट की श्रीकृष्ण लीला देखी। स्वयं तत्कालीन महंत पंडित धनीरामजी से मिलकर ‘श्री रामलीला’ की ही तरह ‘ब्रज विलास’ को भी झांझ-मृदंग पर गाकर श्रीकृष्ण लीला की नई पद्धति चलाई। इस पद्धति से कार्तिक कृष्ण द्वादशी से मार्ग शीर्ष प्रतिपदा तक यह लीला होती है।
श्रीकृष्ण के जीवंत लीला मंचन आज भी लगातार हो रहा है। इस लीला की ख्याति का अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि तुलसी घाट पर आयोजित इस लीला में आज भी विदेशी सैलानियों समेत लाखों भारतीयों का हुजूम उमड़ती है। जहां पतित पावनी गंगा में कालिंदी का रूप लिया और भगवान श्रीकृष्ण ने कालिया का दर्प चूर किया। यह मेला दीपावली के पांचवे दिन होता है। इस बार यह लीला 5 नवंबर को है।इस लीला को देखने के लिए घाट की सीढ़ियों से लगायत छतों-बारजों के साथ ही गंगा की गोद में नौका पर भी आस्थावान स्थान लेने के लिए दोपहर से ही प्रभु लीला की झांकी के लिए तुलसी घाट श्रद्धालु जुटने लगते है। जब लाखों की भीड़ जमा होती है उसी समय सायंकाल गोधूली बेला में ठीक 4.40 बजे नटवर नागर श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ गेंद खेलते हैं। ब्रज विलास के दोहे ‘यह कहि नटवर मदन गोपाला, कूद परे जल में नंदलाला..’ गायन के बीच नंदलाल कदंब की डाल से कालीदह में कूद पड़ते है। भगवान श्रीकृष्ण की बालरुप में मंचन कर रहे बालक के गंगा में छलांग लगाते ही दर्शकों की आंखे खुली की खुली रह जाती है। हर मुख से यही निकलता है बचाओं-बचाओं, लेकिन मां गंगा की गोद में पीपे के संजाल में विशेषज्ञ तैराकों की मदद से इस पांच मिनट में बालक रुपी श्रीकृष्ण को पीपे के अंदर मौजूद कालिया नाग रुपी स्टैच्यू के फन पर श्रीकष्ण को खड़ा किया जाता है, इसके बाद बाहर निकाला जाता है। इसके साथ ही अधीर हुआ लीला स्थल वृंदावन बिहारी लाल व गिरधर नटवर की जय के साथ ही हर-हर महादेव के उद्घोष से गूंज उठता है।
घंट-घड़ियाल, शंखनाद व डमरुओं की थाप व महताबी की जगमग में प्रभु श्रीकृष्ण कालिया नाग को नाथकर उसके फण पर पांव रखे बांसुरी बजाते बाहर निकलते है। चहुंदिशाओं से कपूर की आरती उतारी जाती है और प्रभु श्रद्धालुओं को दर्शन देकर निहाल कर देते हैं। इन अलौकिक पलों को अपने कैमरों और मोबाइल में कैद करने की होड़ मच जाती है।
महाराज काशी नरेश अनंत नारायण सिंह बजड़े से ही लीला झांकी का दर्शन करते है। प्रभु की यह अलौकिक व मनोरम लीला देख वहां मौजूद श्रद्धालुओं की जयजयकार, जय श्रीकृष्ण, हरहर महादेव के गगनभेदी नारो से पूरा आकाश गूंजायमान हो जाता है। माहौल कुछ इस कदर हो जाता है लगता है काशी के तुलसी घाट नहीं बल्कि वृंदावन के यमुना घाट पर मौजूद है। ऐसा लगता है कि मानो धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। प्रभु श्रीकृष्ण की कालिया नाग के दर्प चूर करने की लीला वस्तुतः नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने का संदेश है जो आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो जाता है। लीला आयोजक समिति के कर्ताधर्ता एवं संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वम्भरनाथ मिश्र ने इस परंपरा का जिक्र करते हुए बताया कि ऐसी लीला भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा-वृंदावन में भी नहीं होती है।
जहां तक इसकी जीवंतता का सवाल है तो सब भगवान की कृपा से ही संभव हो पाता है। खास तौर से उस दौर में जब अच्छे से अच्छे तैराक भी दो मिनट से ज्यादा गंगा में डूबकी नहीं लगा सकतें लेकिन उनके पूर्वजों द्वारा शुरु की गयी इस लीला को आज भी जीवंत रुप देने की कोशिश की जाती है। उनका कहना है कि एक बार राज किले के पास भी इस लीला को करने की कोशिश की गयी थी, लेकिन गंगा में छलांग लगाते बालक को नहीं बचाया जा सका था। खास यह है कि लीला स्थल पर कदंब का पेड़ लगाना हो या मां गंगा के अंदर पीपे के अंदर संजाल बिछाने का सब कुछ लीला के कुछ ही घंटे पहले विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। श्री मिश्र ने बताया कि कालिया नाग ने द्वापर में यमुना को प्रदूषित किया था जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने प्रदूषण मुक्त किया। इसी तरह मां गंगा में दर्जनों नालों व कल कारखानों के मलबे के रूप में बहते कालियनाग का दमन करने में इस लीला का संदेश होता है।
बताते है मुगलकाल में भी इस लीला का मंचन थमा नहीं और बादशाह अकबर भी लीला देखने पहुंचे थे। खास यह है कि इसका मंचन ब्रजबिलास की चौपाइयों पर आधारित श्रीकृष्ण लीला के आधार पर की जाती है। इसका आयोजन संकट मोचन मंदिर का महंत परिवार सालों से कराता रहा है। हालांकि बीच में कुछ लोगों ने अपने तरीके से लीला का मंचन करने का प्रयास किया, पर दैविय बाधाओं के चलते सफल नहीं हो सके।
संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वंभरनाथ मिश्र ने बताया कि आठ-नौ वह स्वयं श्रीकृष्ण बनकर लीला का मंचन कर चुके है। पहली बार वह 1983 में श्री कृष्ण बने थे। इसके अलावा उनके पुत्र बंगलूरू से इंजीनियरिंग कर रहे पुष्कर मिश्र सात बार श्रीकृष्ण का रूप धारण कर चुके हैं। श्री मिश्र ने बताया कि नाग नथैया लीला के श्रीकृष्ण अवतार का चयन लीला के दिन ही किया जाता है। चयन खुद संकट मोचन मंदिर के महंत और व्यास जी करते हैं। इसके लिए श्री कृष्ण बनने के वाले किशोरों के बीच प्रतियोगिता होती है। उन्हें कई बार पेड़ की डाल से यमुना रूपी गंगा जल में छलांग लगवा कर अभ्यास कराया जाता है। इसके बाद चयन होता है, वह भी काफी गोपनीय होता है। लीला शुरू होने से कुछ देर पहले ही श्रीकृष्ण बनने वाले नाम की घोषणा होती है।
कहते है नाग नथैया का मूल महाभारत में वर्णित हैं। बताते है कालिया नाग को ‘नागराज‘ भी कहा जाता है। सौभरि मुनि के श्राप और गरुड़ के भय से नागराज रमणक द्वीप से भागकर ब्रजभूमि में आकर रहने लगा था। इसी के नाम से ‘ब्रज‘ में यमुना तट पर ‘कालीदह‘ नामक स्थान आज भी प्रसिद्ध है। ब्रज-मण्डल में ऐसी प्रसिद्धि है कि कृष्ण के उस समय के अंकित यमुना किनारे एक तालाब था।
इस तालाब में कालिया नाग रहता था। आसपास के इलाके में रहने वालों के लिए ये नाग एक तरह का आतंक बन गया था। जो कोई भी तालाब के नजदीक जाता, उसे वह काट लेता। उसके विष से यमुना का पानी भी जहरीला हो गया था। इंसान ही क्या, तालाब में पानी पीने के लिए आने वाले जानवरों को भी कालिया नाग नहीं छोड़ता था। जब भगवान श्रीकृष्ण बाल अवस्था में थे। उसी दौरान वह यमुना नदी के तट पर साथियों के साथ गेंद खेल रहे थे।
खेलते-खेलते गेंद यमुना में चला गया। इसी जगह कालियानाग रहता था। उसके विष का इतना प्रभाव था कि यमुना का पूरा जल काला प्रतीत होता था। श्रीकृष्ण जब गेंद लेने यमुना किनारे पहुंचे तो साथियों के होश उड़ गए। साथियों ने श्रीकृष्ण को नागराज के बारे में विस्तार से बताया। बावजूद इसके श्रीकृष्ण बिना भय यमुना में छलांग लगा दी। श्रीकृष्ण के कूदने की वजह से पानी में जो लहरें पैदा हुईं, उनके चलते नाग तुरंत ही बाहर आ गए और मौका देखकर कृष्ण ने कालिया को दबोच लिया। उसके साथ किनारे तक तैरते हुए आए, कुछ देर तक संघर्ष चलता रहा और अंत में वे उस पर हावी हो गए।
इस तरह
से कृष्ण ने इस तालाब
को जहरीले सांपों से मुक्त कर
दिया, जिसके चलते वहां के
लोग परेशान रहते थे। लोगों
को लगा कि यह
तो जबर्दस्त चमत्कार हो गया। हिन्दी
कृष्ण-भक्त कवियों में
सूरदास, ब्रजवासीदास (ब्रजविलास) तथा भागवत के
भावानुवादों आदि में कालीया
दमन की कथा आयी
है। भक्त कवियों ने
कालिया नाग को कृष्ण
का भक्त एवं कृपाभागी
के रूप में चित्रित
किया है।
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