‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ : फायदेमंद है, लेकिन चुनौतियां हजार
एक देश, एक चुनाव’ के लिए मंगलवार को सरकार संसद में ’संविधान (129वां संशोधन) विधेयक 2024’ और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक 2024 पेश हो गया। कांग्रेस से लेकर तमाम विरोधी पार्टियों ने इस बिल का विरोध किया. शिवसेना और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) जैसे एनडीए के घटक दल खुलकर बिल के पक्ष में खड़े नजर आए. लेकिन यह है कि इससे न सिर्फ खर्च, बल्कि अन्य कई दृष्टि से भी ‘एक देश एक चुनाव’ काफी फायदेमंद है। इसमें प्रशासनिक तंत्र और सुरक्षा बलों पर बार-बार पड़ने वाला बोझ तो कम होगा ही, चुनावी गतिविधियों से बचते हुए समय को दूसरे उपयोगी कामों में दे सकते हैं। सांसदों और विधायकों का कार्यकाल एक ही होने के कारण उनके बीच समन्वय बढ़ेगा। लेकिन भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस राह में बहुत सारी चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या तो लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल के बीच सामंजस्य स्थापित करने की होगी। अगर 2024 के आम चुनावों को ही लें तो देश के करीब आधे राज्यों की विधानसभाएं इन चुनावों के दौरान ऐसी होंगी, जिन्होंने अपना आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं किया होगा। ऐसे में उन्हें बीच में भंग कर नए चुनाव कराना बहुत सारे राजनीतिक विवादों का सबब बन सकता है। खासकर संकट वहां ज्यादा होगा, जहां त्रिशंकु विधानसभा की संभावना होगी। क्योंकि ये लोग ऐनकेन प्रकारेण सरकार तो बना लेंगे, लेकिन जब कुछ दलें मनमाफिक न होने पर समर्थन वापस लेंगी तो सरकार का गिरेगी, तब गठन में दलबदल कानून तो आड़े आयेगी ही जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और संसदीय प्रक्रिया में भी बदलाव करना होगा। लेकिन, अगर इरादा पक्का हो और राजनीतिक इच्छाशक्ति मजबूत हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। यह खुशी की बात है कि इंदिरा गांधी की गलती से खत्म हुआ एक देश-एक चुनाव, को पीएम मोदी सुधार करने में जुटे है
सुरेश गांधी
फिरहाल, अब ये बिल
जेपीसी के पास है
और जेपीसी में इस बिल
पर विस्तृत चर्चा होगी, लेकिन चर्चा के बाद भी
ये बिल कानून बन
ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी
नहीं है. क्योंकि ये
बिल सामान्य बिल न होकर
संविधान संशोधन विधेयक है, जिसके लिए
सरकार को लोकसभा और
राज्यसभा दोनों ही सदनों में
दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी
और ये नंबर फिलहाल
बीजेपी के साथ नहीं
है, तो आशंका इस
बात की है कि
इस बार भी एक
देश-एक चुनाव की
बात सिर्फ बात ही रह
जाएगी और ये बिल
भी ठंडे बस्ते में
ही चला जाएगा. अगर
विधेयक 2026 में पास होता
है तो चुनाव आयोग
को साल 2029 तक तैयारी करनी
होगी। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है
कि एक देश-एक
चुनाव पूरी तरह लागू
होने में 2034 तक का समय
लग सकता है। क्योंकि
इसके लिए पूरी प्रक्रिया
को लामबंद करना होगा। संयुक्त
संसदीय समिति (जेपीसी) में लोकसभा के
21 और राज्यसभा के 10 सदस्य शामिल होंगे। किस पार्टी के
कितने सदस्य होंगे, यह संख्या संसद
में पार्टियों की ताकत के
हिसाब से तय होगी।
ऐसे में सबसे बड़ी
पार्टी होने से सबसे
ज्यादा सदस्य और अध्यक्ष भाजपा
से हो सकता है।
एक देश-एक चुनाव
से संबंधित आठ पेज के
इस बिल में जेपीसी
को अच्छा खासा होमवर्क करना
होगा। संविधान के तीन अनुच्छेदों
में परिवर्तन करने और एक
नया प्रावधान जोड़ने की पेशकश की
गई है। दरअसल, अनुच्छेद
82 में नया प्रावधान जोड़कर
राष्ट्रपति द्वारा अपॉइंटेड तारीख पर फैसले की
बात कही गई है।
बता दें कि
अनुच्छेद 82 जनगणना के बाद परिसीमन
के बारे में है।
संविधान का 129वां संशोधन और
केंद्र शासित प्रदेश कानून संशोधन विधेयकों को अंतिम रूप
देने में करीब-करीब
पूरा 2025 लग सकता है।
ऐसा होता है तो
ये दोनों बिल सदन में
2026 में फिर जाएंगे। अगर
विशेष बहुमत जुटाकर बिल पास करवा
लिए गए तो निर्वाचन
आयोग के पास 2029 की
तैयारी के लिए सिर्फ
दो साल साल बचेंगे।
एक देश-एक चुनाव
के तहत सभी राज्यों
और पूरे देश में
एक साथ चुनाव कराने
के लिए यह समय
पर्याप्त नहीं है। खास
यह है कि अभी
तक विधेयक में इस बात
का कोई जिक्र नहीं
है कि यह कब
से लागू होना है।
केंद्र सरकार ने इसे लागू
करने का अधिकार अपने
पास रखा है। राष्ट्रपति
की अधिसूचना का समय भी
स्पष्ट नहीं किया है।
सबसे अहम सवाल है
कि साल 2029 के चुनाव के
बाद राष्ट्रपति अधिसूचना जारी कर लोकसभा
की पहली बैठक की
तारीख तय करेंगी। चुनाव
होंगे और फिर पांच
साल लोकसभा का फुल टर्म
2034 में पूरा होगा। इसके
साथ ही सभी विधानसभाओं
का कार्यकाल पूरा मान लिया
जाएगा, तब जाकर चुनाव
एक साथ कराए जा
सकेंगे। अगर अभी तक
की प्रक्रिया देखी जाए तो
बुनियादी जरूरतों के हिसाब से
2034 की टाइमलाइन मेल खाती है।
चुनाव आयोग को एक
देश एक चुनाव के
लिए कम से कम
46 लाख ईवीएम चाहिए। अभी चुनाव आयोग
के पास सिर्फ 25 लाख
मशीनें हैं। मशीनों की
एक्सपायरी 15 साल है। ऐसे
में दस साल में
15 लाख मशीनों की उम्र पूरी
हो
न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी
की अध्यक्षता वाले विधि आयोग
ने मई 1999 में अपनी 170वीं
रिपोर्ट में कहा थाः
“हर साल और सत्र
के बाहर चुनावों के
चक्र को सममाप्त किया
जाना चाहिए. हमें उस स्थिति
में वापस जाना चाहिए
जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं
के चुनाव एक साथ होते
हैं. नियम यह होना
चाहिए कि लोकसभा और
सभी विधानसभाओं के लिए पांच
साल में एक बार
एक चुनाव हो. लेकिन मामला
तब अटकेगा जब किसी दल
को बहुमत नहीं मिलता है।
ऐसे में बड़ा सवाल
तो यही है एक
राष्ट्र, एक चुनाव के
मामले में मुख्यमंत्री कैसे
चुना जाएगा? दुसरा बड़ा सवाल है
एक राष्ट्र, एक चुनाव ’ऑपरेशन
लोटस’ को वैध बनाने
और विधायकों की खरीद-फरोख्त
को वैध बनाने के
मोर्चे को कैसे रोका
जायेगा? दल-बदल विरोधी
कानूनों के बिना, एक
मुख्यमंत्री का चुनाव किया
जाएगा, ठीक एक अध्यक्ष
के चुनाव की तरह. मतलब
साफ है किसी भी
पार्टी के विधायक किसी
भी पार्टी को वोट दे
सकते हैं. बता दें
कि आजादी के बाद देश
में पहली बार 1951-52 में
चुनाव हुए थे. तब
लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों
में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए
गए थे. इसके बाद
1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव
एक साथ कराए गए,
लेकिन फिर ये सिलसिला
टूटा. जब 1968-69 में कुछ राज्यों
की विधानसभा कई कारणों से
समय से पहले भंग
कर दी गई थीं.
वहीं 1971 में लोकसभा चुनाव
समय से पहले हुए
थे.
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पूरे
देश में एक साथ
चुनाव कराने का विचार नया
नहीं है. लेकिन एक
बार फिर से प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी इसे वापस
लागू करने के लिए
प्रयासरत हैं जिसके लिए
वो चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि
आयोग आदि से बातचीत
कर चुके हैं. लेकिन
इसे लगू करने के
पक्ष में कुछ ही
पार्टियां हैं और ज्यादातर
पार्टियां इसके विरोध में
हैं. ऐसे में इतना
तो लगभग तय ही
है कि जब तक
इस पर सभी पार्टियों
की सहमति नहीं होगी इसे
अमली जामा पहनाना आसान
नहीं होगा. इन सबके बीच
फायदा यह होगा कि
मतदाता सरकार की नीतियों को
केंद्र व राज्य दोनों
स्तर पर परख सकेंगे।
बार-बार चुनाव होते
रहने से शासन-प्रशासन
के कार्यों में जो बाधाएं
आती हैं, उनसे बचा
जा सकेगा। साथ ही एक
निश्चित अंतराल के बाद चुनाव
कराए जाएंगे तो जनता को
भी राहत मिलेगी और
राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, चुनावों में सुरक्षा व्यवस्था
संभालने वाली एजेंसियों को
इनकी तैयारी के लिए पर्याप्त
समय मिल सकेगा। कुछ
हद तक राजनीतिक दलों
की इस मामले में
आपसी सहमति बन भी गयी
तो सबसे बड़ी चुनौती
होगी, व्यावहारिक धरातल पर उतारने की।
यह तभी संभव
हो पायेगा जब कई विधानसभाओं
के कार्यकाल को घटाना पड़ेगा
और कई के कार्यकाल
को बढ़ाना पड़ेगा। और यह सबकुछ
तब होगा जब संविधान
में एक-दो नहीं
कई संशोधन होंगे। जैसे, अनुच्छेद 83, जो कहता है
कि लोकसभा का कार्यकाल उसकी
पहली बैठक की तिथि
से पांच वर्ष होगा
और अनुच्छेद 172, जो यही प्रावधान
विधानसभा के लिए निर्धारित
करता है। इसके अलावा
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और संसदीय प्रक्रिया
में भी बदलाव करना
होगा। खास यह है
कि कानून में इन बदलावों
के बावजूद चुनाव के बाद कई
गंभीर मुद्दे सामने आ सकते हैं.
जब कोई भी पार्टी
चुनाव में बहुमत हासिल
करने में विफल रहती
है, तो त्रिशंकु विधानसभा
की संभावना हो सकती है.
ऐसे में समय से
पहले चुनाव होने की भी
संभावना होती है. उदाहरण
के लिए दिल्ली में
2015 में समय से पहले
चुनाव हुए थे. तब
2014 में कांग्रेस पार्टी के अपना समर्थन
वापस लेने के बाद
आम आदमी पार्टी की
सरकार अपने कार्यकाल के
49 दिन बाद ही गिर
गई थी. दसवीं अनुसूची
के तहत दलबदल भी
तय समय के बीच
चुनाव कराए जाने के
प्रमुख कारणों में एक है.
जब कोई निर्वाचित सदस्य
अपनी पार्टी बदलता है, तो वह
नए सिरे से चुनाव
लड़ सकता है और
फिर से सदन में
प्रवेश कर सकता है.
किसी भी सदन
के भंग होने पर
उसका कार्यकाल कम किया जा
सकता है, जो तब
हो सकता है जब
सरकार इस्तीफा दे देती है.
जबकि कार्यकाल को बढ़ाने के
लिए संविधान में एक महत्वपूर्ण
संसोधन की जरूरत होगी.
इन प्रावधानों में संशोधन के
लिए संसद के दोनों
सदनों में दो-तिहाई
बहुमत की जरूरत होगी.
हालांकि इस संभावित संशोधन
के लिए आधे राज्यों
के समर्थन की जरूरत नहीं
हो सकती है, लेकिन
अगर विधानसभाओं को समय से
पहले भंग करने पर
विचार किया जाता है,
तो सभी राज्यों की
सहमति जरूरी होगी. संविधान का अनुच्छेद 356 किसी
राज्य में राष्ट्रपति शासन
लगाने का प्रावधान करता
है, जो किसी राज्य
में चुनाव में देरी का
एक दुर्लभ अपवाद है. हालांकि राष्ट्रपति
इस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल
की सिफारिश पर तभी कर
सकते हैं जब राज्य
में ‘संवैधानिक मशीनरी खराब’ हो. इसमें भी
संशोधन की जरूरत पड़
सकती है. दक्षिण अफ्रीका,
इंडोनेशिया, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम जैसे दुनिया के
कई ये देश हैं,
जो केंद्र और राज्यों के
चुनाव एक साथ ही
कराते हैं, ताकि उनके
विकास की गति बाधित
न हो। भारत इन
देशों के अनुभवों का
लाभ उठा सकता है।
नुकसान
चुनाव की तारीखें घोषित
होते ही आदर्श आचार
संहिता लागू कर दी
जाती है। इसकी वजह
से सरकारें नए विकास कार्यक्रमों
की दिशा में आगे
नहीं बढ़ पाती हैं।
इससे अस्थिरता बढ़ती है और
देश का आर्थिक विकास
भी प्रभावित होता है। कई
स्तरों पर सरकार की
मौजूदगी के कारण देश
में लगभग प्रत्येक वर्ष
चुनाव कराए जाते हैं।
इसमें काफी मात्रा में
धन और समय दोनों
की बर्बादी होती है। साल
वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव
पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च
हुए और वर्ष 2014 में
यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़
रुपए हो गया। वहीं,
1951-1952 में हुए लोकसभा चुनाव
में 11 करोड़ रुपये खर्च
हुए थे। इस संबंध
में लॉ कमीशन का
कहना था कि अगर
लोकसभा और विधानसभा चुनाव
एक साथ कराए जाते
हैं तो 4,500 करोड़ का खर्चा
बढ़ेगा। ये खर्चा ईवीएम
की खरीद पर होगा
लेकिन 2024 में साथ चुनाव
कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा
बढ़ेगा। इस तरह धीरे-धीरे ये अतिरिक्त
खर्च भी कम होता
जाएगा। इसके अलावा, एक
साथ चुनाव कराने के समर्थकों का
तर्क है कि इससे
पूरे देश में प्रशासनिक
व्यवस्था में दक्षता बढ़ेगी।
इसके अलावा बार-बार चुनाव
कराने से शिक्षा क्षेत्र
के साथ-साथ अन्य
सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज
प्रभावित होते हैं। क्योंकि
चुनाव के काम में
बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित
एक करोड़ से अधिक
सरकारी कर्मचारियों को लगाया जाता
है। लगातार जारी चुनावी रैलियों
के कारण यातायात से
संबंधित समस्याएं होती हैं। साथ
ही साथ मानव संसाधन
की उत्पादकता में भी कमी
आती है।
पहले होते थे एक साथ चुनाव
दरअसल, संविधान में कोई प्रावधान
नहीं है जो यह
कहता हो कि लोकसभा
और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक
साथ कराए जा सकते
हैं। हालांकि, भारत में वर्ष
1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं
के चुनाव एक साथ होते
थे क्योंकि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं
का एक ही समय
पर विघटित होती थीं। वर्तमान
में लोकसभा के साथ सिर्फ
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश
में विधानसभा का चुनाव कराया
जाता है.लोकसभा चुनाव
के 6 महीने पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान,
मध्य प्रदेश और तेलंगाना में
और 6 महीने बाद महाराष्ट्र और
हरियाणा में चुनाव कराया
जाता है.चुनाव आयोग
के मुताबिक एक साथ चुनाव
करने के लिए संविधान
संशोधन की भी आवश्यकता
होगी। बार-बार होने
वाले चुनाव सरकार के लिए एक
नियंत्रण एवं संतुलन की
व्यवस्था बनाते हैं। विधानसभा चुनाव
स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता
है, जबकि लोकसभा चुनाव
राष्ट्रीय मुद्दों पर। ऐसे में
दोनों चुनाव एक साथ कराने
पर जनता के मन
में भ्रम हो सकता
है। चुनावों के दौरान बड़ी
संख्या में लोगों को
वैकल्पिक रोजगार मिलता है, एक साथ
चुनाव न कराए जाने
से बेरोजगारी बढ़ेगी।
क्षेत्रीय मुद्दे नज़रअंदाज हो जाने की आशंका!
अगर लोकसभा और
राज्यों की विधानसभा के
चुनाव एक साथ करवाए
गए तो राष्ट्रीय मुद्दों
के सामने क्षेत्रीय मुद्दे प्रभावित हो सकते हैं.एक साथ चुनाव
से क्षेत्रीय दलों को नुकसान
पहुंच सकता है. इससे
वोटरों के एक ही
तरफ वोट देने की
अधिक संभावना होगी, जिससे केंद्र सरकार में प्रमुख पार्टी
को ज्यादा फायदा हो सकता है.
अगर लोकसभा और सभी विधानसभा
चुनाव एक साथ कराए
गए, तो इससे निरंकुशता
की आशंका बढ़ जाएगी.
इंदिरा की गलती का खामियाजा भुगत रहा देश
संविधान (129वां) संशोधन बिल
2024, यानी कि एक देश-एक चुनाव विधेयक
को लोकसभा में पेश किया
जा चुका है और
इसे पेश करते हुए
सबसे बड़ी दलील ये
दी गई कि जब
1952 से 1967 तक एक देश-एक चुनाव हो
सकता तो ये अब
क्यों नहीं हो सकता.
अब सवाल ये है
कि आखिर 1967 में ऐसा क्या
हुआ था कि 1952 से
चली आ रही एक
देश-एक चुनाव की
परंपरा ही खत्म हो
गई. आखिर इंदिरा गांधी
की वो कौन सी
गलती थी, जिसका खामियाजा
पूरे देश को उठाना
पड़ा और लोकसभा-राज्यों
की विधानसभा के चुनाव अलग
होने लगे. आखिर क्या
है 1967 की वो कहानी,
जिसे खत्म कर नरेंद्र
मोदी और उनकी सरकार
नया इतिहास बनाना चाहती है. आजादी के
बाद देश में पहली
बार आम चुनाव साल
1951-52 में हुए थे और
तब देश में लोकसभा
के साथ ही राज्यों
की विधानसभाओं के भी चुनाव
हुए थे. ये सिलसिला
साल 1967 तक लगातार चलता
रहा. यानी कि 1957, 1962 और
1967 में भी लोकसभा और
विधानसभाओं के चुनाव एक
साथ ही हुए थे.
हालांकि, इस बीच एक
अपवाद भी था और
वो था केरल. इंदिरा
गांधी ने साल 1959 में
ही केरल की चुनी
हुई सरकार को भंग कर
दिया था. तब 1960 में
केरल में अलग से
विधानसभा के चुनाव हुए.
1962 में जब देश में
आम चुनाव और दूसरे राज्यों
की विधानसभाओं के चुनाव हुए
तब भी केरल में
चुनाव नहीं करवाए गए
क्योंकि तब उस विधानसभा
को काम करते महज
दो साल ही हो
रहे थे.इसके बाद
1964 में केरल में फिर
से राष्ट्रपति शासन लगा दिया
गया. 1965 में फिर से
चुनाव हुए, लेकिन सरकार
का गठन नहीं हुआ
बल्कि राष्ट्रपति शासन ही चलता
रहा और जब 1967 में
फिर से देश में
लोकसभा और विधानसभाओं के
चुनाव हुए तो केरल
में भी साथ ही
चुनाव हुए और पूरा
देश-प्रदेश एक साथ एक
चुनाव में आ गया,
लेकिन चुनाव होने के एक
साल के अंदर ही
इंदिरा गांधी के एक फैसले
से जो सिलसिला टूटा
तो फिर उसे अब
तक कोई भी सरकार
कायम नहीं कर पाई
है. 1968 की शुरुआत में
ही इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश
के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह को
बर्खास्त कर दिया और
प्रदेश में राष्ट्रपति शासन
लगा दिया. इसके बाद विधानसभा
को भी भंग कर
दिया गया. कुछ ऐसा
ही हाल पंजाब का
भी था, जहां सरकार
भंग कर राष्ट्रपति शासन
लगाया गया और फिर
विधानसभा भी भंग कर
दी गई. पश्चिम बंगाल
में भी इंदिरा गांधी
ने यही किया. कुछ
और भी राज्यों में
इंदिरा गांधी ने चुनी हुई
सरकारों को भंग किया,
जिसकी वजह से विधानसभा
के चुनाव लोकसभा से अलग हो
गए. रही सही कसर
लोकसभा में भी इंदिरा
गांधी ने पूरी कर
दी और लोकसभा के
जो चुनाव 1972 में होने चाहिए
थे, उसे भी एक
साल पहले 1971 में ही करवा
दिया. कुल मिलाकर नेहरू
के जमाने से जो सिलसिला
चला आ रहा था
लोकसभा और विधानसभाओं के
एक साथ चुनाव का,
उसे इंदिरा ने तोड़ दिया,
लेकिन चुनाव आयोग ने एक
और कोशिश की 1983 में कि रवायत
को फिर से कायम
किया जाए. चुनाव आयोग
ने 1983 में जो अपनी
वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, उसमें
उसने कहा था कि
लोकसभा और राज्यों की
विधानसभाओं के चुनाव एक
साथ हो सकते हैं,
लेकिन वो हो नहीं
पाया और मामला ठंडे
बस्ते में चला गया.
इसके बाद 1999 में जस्टिस बीपी
जीवन रेड्डी की अगुवाई में
लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने
अपनी 170वीं रिपोर्ट प्रकाशित
की, जिसका नाम था रिफॉर्म्स
ऑफ इलेक्टोरल लॉ. इस रिपोर्ट
में विधि आयोग ने
एक देश-एक चुनाव
की सिफारिश की थी, लेकिन
इसपर भी अमल नहीं
हो पाया.
कैसे होंगे एक साथ चुनाव?
‘एक राष्ट्र, एक
चुनाव’ दो चरणों में
लागू किया जाएगा. पहला
लोकसभा और विधानसभा चुनावों
के लिए, और दूसरा
आम चुनावों के 100 दिनों के भीतर होने
वाले स्थानीय निकाय चुनावों के लिए. सभी
चुनावों के लिए एक
ही मतदाता सूची होगी. राज्य
चुनाव अधिकारियों की सलाह से
भारत के चुनाव आयोग
(म्ब्प्) द्वारा मतदाता पहचान पत्र तैयार किए
जाएंगे. केंद्र सरकार पूरे देश में
विस्तृत चर्चा शुरू करेगी. कोविंद
समिति की सिफारिशों को
लागू करने के लिए
एक कार्यान्वयन समूह बनाया जाएगा.
क्या हैं कोविंद समिति की सिफारिशें?
उच्च स्तरीय कोविंद
समिति के अनुसार, इस
कदम को अधिसूचित करने
के लिए एक ‘नियत
तिथि’ तय की जानी
चाहिए. नियत तिथि के
बाद राज्य चुनावों द्वारा गठित सभी विधानसभाएं
केवल 2029 में होने वाले
आगामी आम चुनावों तक
की अवधि के लिए
होंगी. इसका मतलब है
कि लोकसभा चुनावों के बाद की
तारीख तय की जाएगी.
उस तिथि के बाद
चुनाव वाले राज्यों में,
आम चुनावों के समानांतर उनका
कार्यकाल कम समय में
समाप्त कर दिया जाएगा.
प्रभावी रूप से, 2024 और
2028 के बीच गठित राज्य
सरकारों का कार्यकाल 2029 के
लोकसभा चुनावों तक ही होगा.
जिसके बाद लोकसभा और
विधानसभा चुनाव स्वतः ही एक साथ
होंगे. उदाहरण के लिए, जिस
राज्य में 2025 में चुनाव होंगे,
वहां चार साल का
कार्यकाल वाली सरकार होगी.
जबकि जिस राज्य में
2027 में चुनाव होंगे, वहां 2029 तक केवल दो
साल के लिए सरकार
होगी. रिपोर्ट में यह भी
सिफारिश की गई है
कि सदन में बहुमत
न होने, अविश्वास प्रस्ताव या ऐसी किसी
अन्य घटना की स्थिति
में, नए सदन के
गठन के लिए नए
चुनाव कराए जा सकते
हैं, चाहे वह लोकसभा
हो या राज्य विधानसभाएं.
इस प्रकार गठित नई सरकार
का कार्यकाल भी केवल लोक
सभा के पूर्ववर्ती पूर्ण
कार्यकाल की शेष अवधि
तक ही होगा तथा
इस अवधि की समाप्ति
सदन के विघटन के
रूप में मानी जाएगी.
कोविंद समिति ने 18 संवैधानिक संशोधनों की सिफारिश की
है, जिनमें से अधिकांश को
राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदन की आवश्यकता नहीं
होगी. लेकिन, इनके लिए कुछ
संविधान संशोधन विधेयकों की आवश्यकता होगी
जिन्हें संसद द्वारा पारित
किया जाना आवश्यक होगा.
दो अलग-अलग चरणों
के लिए दो संविधान
संशोधन अधिनियम होंगे. इनके तहत नए
प्रावधानों को शामिल करने
और अन्य संशोधनों सहित
कुल 15 संशोधन किए जाएंगे। समिति
के अनुसार, पहला विधेयक संविधान
में एक नया अनुच्छेद
82। उस प्रक्रिया को
स्थापित करेगा जिसके द्वारा देश एक साथ
चुनाव की ओर बढ़ेगा.
दूसरा संविधान संशोधन विधेयकः दूसरा विधेयक संविधान में अनुच्छेद 324।
को शामिल करेगा. यह केंद्र सरकार
को लोकसभा और विधानसभा चुनावों
के साथ नगर पालिकाओं
और पंचायतों के समानांतर चुनाव
सुनिश्चित करने के लिए
कानून बनाने का अधिकार देगा.
दो संशोधन विधेयकों के पेश होने
के बाद, संसद अनुच्छेद
368 के तहत संशोधन प्रक्रियाओं
का पालन करेगी. चूंकि
लोकसभा और विधानसभा से
संबंधित चुनाव कानून बनाने का अधिकार केवल
संसद को है, इसलिए
पहले संशोधन विधेयक को राज्यों से
समर्थन की आवश्यकता नहीं
होगी. लेकिन, स्थानीय निकायों में मतदान से
संबंधित मामले राज्य के विषय के
अंतर्गत आते हैं और
दूसरे संशोधन विधेयक को कम से
कम आधे राज्यों द्वारा
समर्थित करने की आवश्यकता
होगी. दूसरे विधेयक के समर्थन के
बाद, और दोनों सदनों
में निर्धारित बहुमत से पारित होने
के बाद, विधेयक राष्ट्रपति
की स्वीकृति के लिए उनके
पास जाएंगे. एक बार जब
वह विधेयकों पर हस्ताक्षर कर
देंगी, तो वे अधिनियम
बन जाएंगे. इसके बाद, कार्यान्वयन
समूह इन अधिनियमों में
प्रावधानों के आधार पर
इन परिवर्तनों को क्रियान्वित करेगा.
एकल मतदाता सूची और मतदाता
पहचान पत्र के बारे
में कुछ प्रस्तावित बदलावों
को कम से कम
आधे राज्यों द्वारा अनुमोदन की आवश्यकता होगी.
संविधान के अनुच्छेद 325 के
एक नए उप-खंड
में सुझाव दिया जाएगा कि
एक निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदान
के लिए एक ही
मतदाता सूची होनी चाहिए.
इसके अलावा, विधि आयोग भी
शीघ्र ही एक साथ
चुनाव कराने पर अपनी रिपोर्ट
प्रस्तुत कर सकता है,
जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रबल समर्थक
रहे हैं. सूत्रों ने
कहा कि विधि आयोग
सरकार के सभी तीन
स्तरों दृ लोकसभा, राज्य
विधानसभाओं और स्थानीय निकायों
जैसे नगर पालिकाओं और
पंचायतोंके लिए 2029 से एक साथ
चुनाव कराने की सिफारिश कर
सकता है और त्रिशंकु
सदन जैसे मामलों में
मिलीजुली सरकार का प्रावधान कर
सकता है। विशेषज्ञों का
मानना है कि देश
में एक साथ चुनाव
कराने से संबंधित विधेयक
सरकार के लिए गंभीर
कानूनी चुनौतियां खड़ी कर सकते
हैं. पहला तर्क यह
है कि व्छव्म् की
अवधारणा संघवाद के सिद्धांत को
प्रभावित करती है क्योंकि
यह प्रतिनिधियों के कार्यकाल को
सीमित करके राज्य के
लोगों को स्थिर शासन
के उनके अधिकार से
वंचित करती है, जो
केवल ‘अधूरी अवधि’ के लिए चुने
जाएंगे.
No comments:
Post a Comment