‘दावत-ए-इफ्तार’ के जरिए वोटबैंक साधने की सियासत
रोजा इफ्तार राजनीति चमकाने व नये समीकरण बनाने का जरिया बन गया है। जबकि इफ्तार रोजेदारों के लिए होता है और इसे राजनीतिक रंग देना गलत है। बावजूद इसके देश के अलग-अलग इलाकों में रहने वाले तकरीबन 17 से 22 फीसदी मुस्लिम आबादी को इफ्तार के जरिए साधने की भरपूर कोशिश होती है। अभी तक कांग्रेस, सपा-बसपा सहित मुस्लिम परस्त पार्टियां ही परदे के पीछे से इफ्तार पार्टियां आयोजित कराकर जालीदार टोपी पहनकर शरीक होती रही है, लेकिन अब भाजपा भी इस होड़ में शामिल हो गयी है। खासकर जब मौका चुनावी हो। हालांकि तरीका थोड़ा अलग है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि क्या इफ्तार अब वोट बैंक की राजनीति का नया हथियार बन गया है?
सुरेश गांधी
रमज़ान के आखिरी अशरों में ‘दावत-ए-इफ्तार’ का शोर सुनाई देने लगता है। खासकर बिहार व यूपी में यह आयोजन आस्था का नहीं बल्कि राजनीतिक हो चला है। हर साल की तरह इस बार भी सत्ताधारी और विपक्षी दलों द्वारा भव्य इफ्तार पार्टियों का आयोजन किया गया। लेकिन इस बार के इफ्तार आयोजन में केवल दुआओं और रोज़ेदारों की मेहमाननवाज़ी नहीं बल्कि बिहार में चुनाव के मद्देनजर सियासी बिसात भी बिछाई गयी। मामला तब और चटख हो गया जब जमीयत प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने दो टूक कहा, सत्ता खातिर मुस्लिम समुदाय के साथ हो रहे अन्याय को नजरअंदाज किया जा रहा है। जबकि हकीकत तो यह है कि इफ्तार रोजेदारों के लिए होता है और इसे राजनीतिक मंच देना कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। लेकिन मुस्लिमपरस्त पार्टियां सियासी फायदे के लिए ऐसे आयोजनों का सहारा लेती रही है।
और जब विपक्ष इस तरह के आयोजनों से अपना वोठबैंक साध रही है तो भाजपा भला कैसे पीछे रह सकती है। इसी कड़ी में सबका साथ सबका विश्वास के जरिए मुस्लिमों में अपनी पैठ बनाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी सौगात-ए-मोदी कैंपेन के तहत 32 लाख गरीब मुसलमानों को ईद के मौके पर ईदी भेजवाई है। राजनीतिक विश्लेषक इसे मोदी का मास्टरस्ट्रोक बता रहे है।
बता दें, भारत
की राजनीति में हिन्दू (या
जो अपने आप को
हिन्दू बताते हों) नेताओं की
इफ्तार में जाने की
तस्वीरे 2014 से पहले आम
थीं। इसे वोटबैंक राजनीति
का एक बड़ा हथियार
माना जाता था। यह
‘इफ्तार राजनीति’ राष्ट्रपति भवन तक पहुंच
गई थी। हालांकि, 2014 में
जब मुस्लिम तुष्टिकरण से त्रस्त भारत
की जनता ने भाजपा
को बहुमत दिया तो इससे
देश की राजनीति 180 डिग्री
घूम गई। इसके बाद
‘टोपी’ पहनने-पहनाने वालों की संख्या में
भारी गिरावट आई और उसी
अनुपात में धीमे-धीमे
इफ्तार पार्टी में कमी आने
लगी। लेकिन 2025 में इफ्तार राजनीति
की वापसी हुई है। इस
बार भी ‘इफ्तार राजनीति’
की झंडाबरदार कांग्रेस, राजद मुखिया लालू
यादव व सपा मुखिया
अखिलेश यादव ही रहे।
खासकर जालीदार टोपी के साथ
जब इन नेताओं की
तस्वीरें सामने आईं तो लोगों
के मन में एक
ही सवाल कौंधा। इस
इफ्तार से मात्र 2 माह
पहले ही 144 वर्षों के बाद प्रयागराज
में हिन्दुओं का सबसे बड़ा
समागम ‘महाकुंभ’ हुआ था। महाकुंभ
में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी
और सिलचर से लेकर पोरबंदर
तक के हिन्दू आए।
ट्रेनें-बसें भरी रहीं।
प्रयागराज से 200-400 किमी दूर तक
के शहर महाकुंभ आने
वाले श्रद्धालुओं से जाम हो
गए। लेकिन इस 60 करोड़ की संख्या
में 2 नाम गायब मिले
थे। इनमें से एक नाम
इफ्तार पार्टी में शामिल होने
वाली कांग्रेस की डी-फैक्टो
मुखिया सोनिया गांधी का था। दूसरा
नाम ‘दत्तात्रेय ब्राह्मण‘ राहुल गांधी का था। इन
दोनों मनुष्यों को कोई महाकुंभ
में नहीं देख सका।
सक्रिय राजनीति में 2024 में कदम रखने
वाली प्रियंका गांधी भी इससे दूर
रहीं। यानी इफ्तार पार्टी
में एक बुलावे पर
पहुंचने वाले कांग्रेस नेता
प्रयागराज नहीं जा पाए।
विडंबना यह है कि
प्रयागराज वही शहर है
जहां से यह परिवार
निकला है।
मुस्लिमों से गलबहियां और
हिन्दू आयोजनों से दूरी का
गांधी परिवार का यह कोई
पहला मामला नहीं है। यह
परंपरा जवाहर लाल नेहरू ने
तभी शुरू की थी,
जब उन्होंने हिन्दुओं द्वारा खंडहर से वापस तैयार
किए गए सोमनाथ मंदिर
में जाने से मना
किया था। खुद तो
नेहरू इस कार्यक्रम में
नहीं ही गए थे,
उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को भी जाने
से रोकने की कोशिश की
थी। उसी ‘क्षद्म धर्मनिरपेक्षता’
की परंपरा का निर्वहन गांधी
परिवार एकदम मन लगाकर
कर रहा है। महाकुंभ
से पहले ठीक एक
वर्ष पहले भी गांधी
परिवार ने स्पष्ट कर
दिया था कि उनकी
प्राथमिकताएं क्या हैं। 500 वर्षों
के संघर्ष के बाद हिन्दुओं
को मिले राम मंदिर
प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण कांग्रेस
ने ठुकरा दिया था। सोनिया
गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और अधीर
रंजन चौधरी ने इस कार्यक्रम
में शामिल होने से मना
किया था। इस कार्यक्रम
में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व
की तरफ से कोई
शामिल नहीं हुआ था।
हास्यास्पद ये है कि
इफ्तार पार्टी में शामिल होने
वाले कांग्रेस व अन्य ने
राम मंदिर का न्योता इसलिए
ठुकराया था क्योंकि उसके
हिसाब से यह भाजपा
का कार्यक्रम था। बिहार में
सियासी दलों द्वारा इफ्तार
पार्टियों का आयोजन लंबे
समय से एक राजनीतिक
रणनीति रही है. राज्य
में मुसलमान राजद का मुख्य
वोट बैंक हैं, यही
वजह है कि लालू
प्रसाद ऐसे आयोजनों का
कोई मौका नहीं छोड़ते.
मुसलमान और यादव वोट
बैंक जिसे शॉर्ट में
एमवाई समीकरण कहते हैं, इसी
के बल पर राजद
बिहार में एक बड़ी
राजनीतिक ताकत बनी हुई
है.
कांग्रेस को पता है
कि अगर उसे बिहार
की राजनीति में खुद को
फिर से स्थापित करना
है तो उसे भी
एक सॉलिड वोट बैंक क्रिएट
करना होगा. इसलिए कांग्रेस दलितों और मुसलमानों को
अपने पाले में करना
चाहती है. कांग्रेस अगर
राजद की पिछलग्गू बनी
रहती है, तो वह
बिहार में अपना खोया
जनाधार कभी वापस नहीं
पा सकती. इसीलिए शायद वह अपनी
रणनीति बदल रही है.
बिहार में 17 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं. ऐसा माना
जाता है कि मुस्लिम
समुदाय सामूहिक रूप से वोट
देता है. इतने बड़े
वोट बैंक को कांग्रेस
यूं ही राजद के
पाले मे नहीं जाने
देना चाहेगी. वैसे भी राष्ट्रीय
स्तर पर कांग्रेस को
बड़ी मात्रा में मुस्लिम वोट
मिलते रहे हैं. बिहार
की 32 सीटें ऐसी हैं, जिन
पर 30 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम
मतदाता हैं. इनमें से
ज्यादातर सीटें नेपाल और बंगाल की
सीमा से लगे उत्तर
पूर्वी बिहार की हैं. कांग्रेस
बिहार में 70 से कम सीटों
पर चुनाव लड़ने पर राजी
नहीं हैं. बिहार कांग्रेस
के कई वरिष्ठ नेता
कह चुके हैं कि
महागठबंधन में शामिल कोई
दल बड़ा और छोटा
नहीं है. समान विचारधारा
वाले दल इसमें शामिल
हैं. कांग्रेस इस बार सीट
मुस्लिम बाहुल्य सीटों में आरजेडी के
बराबर हिस्सेदारी चाहती है. सच तो
यह है कि रमज़ान
के अंतिम दस दिनों में
बहुत से इबादत करने
वाले मुसलमान मस्जिद में ऐतकाफ़ (एकांत
में ईश्वर की तपस्या) में
बैठ जाते हैं और
वह मस्जिद से बाहर नहीं
निकलते. बहुत से मुसलमान
क़ुरआन की तिलावत में
लगे होते हैं ताकि
वह रमज़ान के पवित्र महीने
में अधिक से अधिक
क़ुरआन पढ़ने का पुण्य
कमा लें. उनके पास
किसी इफ़्तार में जाने का
समय ही नहीं होता.
सियासी इफ़्तार में सियासत से
नज़दीकियां बनाने वाले मुसलमान ही
जाते हैं और उन
पर बायकॉट अधिक असर नहीं
कर पाता है.
योगीराज में नहीं होते सरकारी इफ्तार
देश के कई
राजनेताओं ने रमजान के
महीने में इफ्तार पार्टी
देने की परंपरा की
शुरुआत की। देश के
प्रधानमंत्रियों से लेकर राष्ट्रपति
और मुख्यमंत्रियों ने अपने वक्त
में ऐसी पार्टियों का
आयोजन किया, जिसने खासी सुर्खियां बटोरी।
देखा जाएं तो सियासत
में इफ्तार पार्टी की एंट्री आजादी
के बाद से ही
शुरू हो गई थी।
हालांकि इस पार्टी के
पीछे उनका मकसद मुस्लिमों
को विभाजन के दर्द से
उबारना और उनमें आत्मविश्वास
जगाना था। पंडित नेहरू
ने 7 जंतर मंतर रोड,
फिर एआईसीसी मुख्यालय में अपने करीबी
मुस्लिम दोस्तों के लिए इफ्तार
की मेजबानी की थी। इन
वर्षों में इफ्तार ने
राजनीतिक महत्व प्राप्त किया, न केवल राजनीतिक
कौशल का प्रतीक बन
गया बल्कि मुस्लिम नेताओं और पूरे समुदाय
के लिए एक व्यक्तिगत
और सामाजिक पहुंच का प्रतीक बन
गया। हालांकि नेहरू के उत्तराधिकारी लाल
बहादुर शास्त्री ने इस अभ्यास
को बंद कर दिया।
इसके बाद इंदिरा गांधी
को मुस्लिम समर्थन का आधार बरकरार
रखने की सलाह दी
गई। इसलिए उन्होंने एक बार फिर
इफ्तार पार्टी का आयोजन शुरू
किया। उत्तर प्रदेश में ये पूर्व
मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा थे
जिन्होंने इफ्तार को एक आधिकारिक
मामला बना दिया। एक
ऐसी प्रथा जो उनके उत्तराधिकारियों
द्वारा और भी अधिक
जोश के साथ जारी
रखी गई थी, जिसमें
मुलायम सिंह यादव, मायावती,
राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह और अखिलेश
यादव शामिल होते गए। मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ ने हालांकि दशकों
पुरानी परंपरा को तोड़ा है।
आदित्यनाथ, जिन्होंने अतीत में नवरात्रि
उपवास अवधि के दौरान
अपने आधिकारिक सीएम आवास पर
’कन्या पूजन’ का आयोजन किया
था और ’फलाहारी भोज’
की मेजबानी की थी, उन्होंने
2017 में राज्य की बागडोर संभालने
के बाद से कभी
भी रोजा इफ्तार की
मेजबानी नहीं की। हालाँकि,
भाजपा कभी भी इस
अवधारणा के खिलाफ नहीं
थी। 2019 के अंत तक,
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल
राम नाइक ने राजभवन
में एक इफ्तार का
आयोजन किया, हालांकि योगी ने कभी
इसमें भाग नहीं लिया।
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