जन जन के नाथ हैं भगवान जगन्नाथ
जन
के
नाथ
हैं
जगन्नाथ,
केवल
एक
पंक्ति
नहीं,
यह
भगवान
के
उस
सार्वभौमिक
स्वरूप
का
जीवंत
प्रमाण
है
जिसमें
कोई
दीवार
नहीं,
कोई
भेद
नहीं,
केवल
प्रेम
और
अपनापन
है।
पुरी
की
धरती
से
उठने
वाला
यह
संदेश
पूरी
मानवता
के
लिए
है.
“भगवान
को
सीमाओं
में
मत
बांधो,
वे
सबके
हैं,
वे
तुम्हारे
भी
हैं।
जी
हां,
जब
भगवान
के
स्वरूप
की
बात
होती
है
तो
सामान्यतः
हम
विशिष्टताओं,
भव्यता
और
सीमितताओं
में
उलझ
जाते
हैं,
लेकिन
भगवान
जगन्नाथ
का
स्वरूप
हर
सीमा
से
परे
है।
वे
किसी
एक
संप्रदाय,
एक
वर्ग
या
एक
क्षेत्र
के
भगवान
नहीं
हैं।
वे
जन
के
नाथ
हैं,
सभी
के
साथ
हैं।
भगवान
जगन्नाथ
का
दरबार
सबके
लिए
खुला
है.
जाति,
धर्म,
संप्रदाय
का
कोई
भेद
नहीं
हैं.
रथयात्रा
में
हर
कोई
खींचता
है
रथ,
राजा
भी,
रंक
भी।
भगवान
स्वयं
भक्तों
के
बीच
आते
हैं।
जी
हां,
जगन्नाथ
पूरे
जगत
के
स्वामी
है।
मंदिर
के
ध्वज
का
विपरीत
दिशा
में
लहराना,
को
विज्ञान
आज
भी
इस
रहस्य
को
स्पष्ट
नहीं
कर
सका
है।
जो
यह
संकेत
देता
है
कि
भगवान
की
मर्ज़ी
संसार
के
नियमों
से
भी
ऊपर
होती
है
सुरेश गांधी
कर्मकांड की जटिलताओं से
परे, जगन्नाथ मंदिर में सेवा के
अधिकार में समाज के
वंचित वर्गों को भी स्थान
है। सर्वधर्म समभावः बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव,
सभी परंपराओं के लोग भगवान
जगन्नाथ में अपनी झलक
पाते हैं। भाषा और
जाति से परे, ओडिशा
ही नहीं, पूरे भारत और
विदेशों में भगवान जगन्नाथ
के भक्त मिलते हैं।
समानता का प्रतीक रथयात्रा
में कोई ऊँच-नीच
नहीं, सभी मिलकर रथ
खींचते हैं। मतलब साफ
है भगवान जगन्नाथ केवल मंदिर के
नहीं, वे जन-जन
के हैं। उनके ध्वज
की तरह उनकी करुणा
भी सदैव ऊँची रहती
है, चाहे हवा किसी
भी दिशा में बहे,
उनके मंदिर का ध्वज सदैव
विपरीत दिशा में ही
लहराता है। मानो भगवान
जगन्नाथ संदेश देते हों कि
जब पूरी दुनिया एक
दिशा में चल रही
हो, तब भी सत्य
और करुणा की राह अलग
हो सकती है। मंदिर
के शिखर के ऊपर
से कभी कोई पक्षी
उड़ता नहीं दिखाई देता।
न ही कोई विमान
इस मार्ग से गुजरता है।
विज्ञान भी आज तक
इसका स्पष्ट कारण नहीं बता
सका है। इसके अलावा
पुरी समुद्र तट पर स्थित
है, लेकिन मंदिर के सिंहद्वार (मुख्य
द्वार) में प्रवेश करते
ही समुद्र की गर्जना सुनाई
देना बंद हो जाती
है। जैसे ही बाहर
आते हैं, समुद्र फिर
गूंजने लगता है।
मंदिर की अद्भुत वास्तु
संरचना व मंदिर का
सुदर्शन चक्र का हर
दिशा से दिखता है
आगे की ओर, ये
ऐसा चमत्कार है, जिसे भक्त
भी कहने से नहीं
चुकते, यह भगवान श्रीकृष्ण
का जीवंत स्थल है. श्रद्धालुओ
का कहना है मंदिर
के शिखर पर स्थित
सुदर्शन चक्र को आप
किसी भी दिशा से
देखें, वह ऐसा प्रतीत
होता है जैसे वह
आपकी ओर ही देख
रहा हो। मंदिर में
प्रतिदिन हजारों लोगों के लिए महाप्रसाद
(खिचड़ी, दाल आदि) बनाया
जाता है। चाहे 10,000 लोग
आएं या 1 लाख, महाप्रसाद
न कभी कम पड़ता
है, न कभी बर्बाद
होता है। भक्त इसे
भगवान जगन्नाथ की कृपा मानते
हैं। मंदिर की रसोई में
7 बर्तन एक-दूसरे के
ऊपर रखे जाते हैं
और सबसे ऊपर का
बर्तन सबसे पहले पक
जाता है। आधुनिक विज्ञान
इसके पीछे कोई स्पष्ट
कारण नहीं दे पाया
है। कहा जाता है
कि जब भगवान विष्णु
के आदेश पर विश्वकर्मा
जी इस मंदिर का
निर्माण कर रहे थे,
तो उन्होंने शर्त रखी थी
कि जब तक कार्य
पूरा न हो, कोई
झांकेगा नहीं। लेकिन राजा की अधीरता
के कारण कार्य अधूरा
रह गया और तभी
से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की
अद्वितीय (अधूरी) मूर्तियां बनीं, जो आज भी
इसी रूप में पूजी
जाती हैं। यह मंदिर
214 फीट ऊँचा है। यहाँ
हर 12-19 साल में भगवान
की मूर्तियां (दर्शन) ’नवकलेवर’ के तहत बदल
दी जाती हैं। मंदिर
का मुख्य द्वार ’सिंहद्वार’ कहलाता है। मंदिर में
गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित
है। शास्त्रों के अनुसार, जब
तर्क और विज्ञान की
सीमाएं समाप्त हो जाती हैं,
तब आस्था शुरू होती है।
पुरी का ध्वज विपरीत
दिशा में बहना इसी
आस्था का प्रमाण है
कि भगवान जगन्नाथ के धाम में
चमत्कार स्वाभाविक हैं। पुरी के
ध्वज का विपरीत दिशा
में बहना एक अनसुलझा
चमत्कार है, जो आज
भी भक्तों की आस्था को
और मजबूत करता है। चाहे
विज्ञान इसे किसी दिन
समझा पाए या न
पाए, श्रद्धालु इसे सदा भगवान
जगन्नाथ की कृपा और
अद्भुत लीला मानते रहेंगे।
हवा के विपरीत लहराता है जगन्नाथ
का ध्वज : विज्ञान भी है हैरान!
पुरी का श्री
जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर
लहराता ध्वज भी दुनिया
भर के लिए रहस्य
बना हुआ है। इस
ध्वज की सबसे अद्भुत
विशेषता यह है कि
यह सदैव हवा की
विपरीत दिशा में लहराता
है। विज्ञान भी आज तक
इस चमत्कार का सटीक कारण
नहीं खोज पाया है।
जबकि सामान्यतः कोई भी ध्वज
हमेशा हवा के बहाव
के साथ लहराता है।
लेकिन पुरी का यह
ध्वज इस नियम को
तोड़ता है। जब हवा
पूर्व से बह रही
होती है, तब भी
यह ध्वज पश्चिम की
ओर लहराता है। यह घटना
हर समय देखी जा
सकती है, चाहे मौसम
कोई भी हो। वैज्ञानिक
और पर्यटक वर्षों से इस रहस्य
को समझने की कोशिश कर
रहे हैं। कई भौतिक
विज्ञान के नियम, वायु
प्रवाह के सिद्धांत, गुरुत्वाकर्षण
बल और वायुरोध तकनीक
इसमें लगाई गईं, लेकिन
अब तक कोई स्पष्ट
वैज्ञानिक उत्तर नहीं मिल सका
है। यह केवल आस्था
है या कोई अदृश्य
शक्ति, यह आज भी
अनुत्तरित है। श्रद्धालु मानते
हैं कि यह भगवान
जगन्नाथ का ईश्वरीय संकेत
है, जब सारा संसार
एक दिशा में बह
रहा हो, तब भगवान
की मर्ज़ी उससे अलग हो
सकती है। यह एक
आध्यात्मिक संदेश भी देता है,
“सत्य और धर्म की
राह अक्सर दुनिया की हवा के
खिलाफ होती है।“ खास
यह है कि दिन
के किसी भी समय
मंदिर का मुख्य शिखर
अपनी छाया जमीन पर
नहीं डालता। 56 भोग हर दिन
हजारों श्रद्धालुओं के लिए बनते
हैं, लेकिन कभी भी भोग
न कम पड़ता है,
न बर्बाद होता है। मंदिर
की ऊँचाई लगभग 214 फीट है। प्रतिदिन
एक पुजारी 45 मंजिल ऊँचाई तक बिना किसी
सहारे के चढ़कर ध्वजा
बदलते हैं। कहा जाता
है कि यह परंपरा
एक दिन भी न
रुके तो मंदिर बंद
हो जाएगा. मतलब साफ है
पुरी का यह ध्वज
आस्था और रहस्य का
अद्भुत संगम है। चाहे
विज्ञान जवाब दे या
नहीं, श्रद्धालु मानते हैं, “जहाँ तर्क रुक
जाता है, वहाँ से
भगवान की मर्ज़ी शुरू
होती है।“ दुनिया की
हवा चाहे जिस दिशा
में बहती रहे, धर्म
की पताका अपनी राह खुद
तय करती है।
भक्ति, आस्था और परंपरा का महापर्व :
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा
हर वर्ष आषाढ़
शुक्ल पक्ष की द्वितीया
तिथि को ओडिशा के
पुरी नगर में भगवान
जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली
जाती है। यह विश्व
की सबसे विशाल धार्मिक
यात्राओं में से एक
मानी जाती है, जिसमें
न केवल भारत बल्कि
दुनियाभर से श्रद्धालु हिस्सा
लेते हैं। रथयात्रा केवल
एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि यह सनातन संस्कृति,
भक्ति और भाईचारे का
भव्य उत्सव है। भगवान जगन्नाथ
को विष्णु जी के अवतार
श्रीकृष्ण का ही रूप
माना जाता है। ‘जगन्नाथ’
यानी ‘जगत के स्वामी’। पुरी में
भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई
बलभद्र और बहन सुभद्रा
के साथ विराजते हैं।
पुरी के श्रीमंदिर को
चारधामों में से एक
माना जाता है। मान्यता
है कि भगवान श्रीकृष्ण
अपने भाई बलराम और
बहन सुभद्रा के साथ कुछ
दिनों के लिए अपनी
मौसी के घर (गुंडिचा
मंदिर) जाते हैं। इसी
यात्रा को ‘रथयात्रा’ कहा
जाता है। यात्रा के
दौरान भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा विशाल
रथों में विराजकर पुरी
नगर भ्रमण करते हैं। भगवान
जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के
लिए तीन अलग-अलग
विशाल रथ बनाए जाते
हैं। हर वर्ष ये
रथ नए बनाए जाते
हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ का
नाम नन्दीघोष, ऊंचाई लगभग 45 फीट, पहिये 16 होते
है। इसी तरह भगवान
बलभद्र के रथ का
नाम तालध्वज, ऊंचाई लगभग 44 फीट, पहिये 14 होते
है। जबकि माता सुभद्रा
के रथ का नाम
दर्पदलन, ऊंचाई लगभग 43 फीट, पहिये 12 होते
है। तीनों रथों को सैकड़ों
श्रद्धालु खींचते हैं। मान्यता है
कि रथ की रस्सी
खींचने मात्र से पाप नष्ट
हो जाते हैं और
मोक्ष प्राप्त होता है। रथयात्रा
श्रीमंदिर से शुरू होकर
लगभग तीन किमी दूर
स्थित गुंडिचा मंदिर तक जाती है।
भगवान वहां नौ दिन
तक विश्राम करते हैं, इसके
बाद ’बहुदा यात्रा’ के दिन वे
पुनः श्रीमंदिर लौटते हैं। इन रथों
का निर्माण विशेष ‘दारुक’ की लकड़ी से
किया जाता है। इन
तीनों विशालकाय रथों को बनाने
में कोई कील, कांटे
या धातु का उपयोग
नहीं किया जाता है।
रथ का निर्माण हर
साल अक्षय तृतीया के दिन से
शुरू होता है। मान्यता
है कि इस रथ
यात्रा का में शामिल
होने या इसका साक्षात
दर्शन करने से हजार
यज्ञों का पुण्य मिलता
है। चार धामों में
से एक पुरी के
जगन्नाथ मंदिर की इस रथ
यात्रा में शामिल होने
से पापों का नाश होता
है। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी
की कृपा से इस
संसार के सुखों को
भोगकर मोक्ष को प्राप्त करता
है।
रथयात्रा से जुड़ी प्रमुख परंपराएं
1. चेरापहड़ा (स्वीपिंग) रस्म
पुरी
के गजपति महाराज (स्थानीय राजा) रथ की सफाई
करते हैं, इसे ‘चेरापहड़ा’
कहा जाता है। यह
विनम्रता का प्रतीक है
कि भगवान के सामने सब
समान हैं।
2. हेरा पंचमी
यह
परंपरा माता लक्ष्मी द्वारा
भगवान जगन्नाथ से नाराज होकर
गुंडिचा मंदिर तक पहुंचने की
कथा को दर्शाती है।
विश्व में रथयात्रा का महत्व
पुरी की रथयात्रा के अलावा, भारत के कई शहरों जैसे अहमदाबाद, कोलकाता, दिल्ली, वाराणसी और मुंबई में भी रथयात्रा भव्य रूप से मनाई जाती है। इसके अलावा अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी ’इस्कॉन’ संगठन द्वारा रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। रथयात्रा यह संदेश देती है कि भगवान स्वयं अपने भक्तों के पास आते हैं। यह पर्व समर्पण, सेवा, भक्ति और समानता की भावना का प्रतीक है। भगवान की रथयात्रा हमें अहंकार त्यागकर प्रेम और करुणा का मार्ग अपनाने की सीख देती है।
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