Monday, 18 August 2025

विपक्ष सरकार का विकल्प बने, राष्ट्र का विरोधी नहीं

विपक्ष सरकार का विकल्प बने, राष्ट्र का विरोधी नहीं

लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष, दोनों बराबर के स्तंभ हैं। सरकार जनता की सेवा के लिए नीतियां बनाती है, तो विपक्ष उसकी खामियों पर सवाल उठाता है। परंतु हाल के वर्षों में यह प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि क्या भारत का विपक्ष, खासकर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल, अपनी असली जिम्मेदारी निभा रहे हैं या उन्होंनेभारत को नीचा दिखानेकी राह चुन ली है? दुसरा बड़ा सवाल है जब बीजेपी ने निभाई मर्यादा, तो कांग्रेस क्यों तोड़ रही परंपरा?

सुरेश गांधी

भारत एक जीवंत लोकतंत्र है जहां सत्ता और विपक्ष मिलकर उसकी नींव को मजबूत करते हैं। सत्ता नीतियां बनाती है, जबकि विपक्ष उनका परीक्षण करता है। लेकिन जब विपक्ष अपनी जिम्मेदारी से भटककर केवलसरकार विरोधही नहीं बल्किदेश विरोधकी ओर बढ़े, तो यह लोकतंत्र और राष्ट्रहित, दोनों के लिए खतरनाक संकेत है। बीजेपी 1980 में बनी और 2014 तक लंबे समय तक विपक्ष में रही। 1984 में महज 2 सीटें मिलने के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में कहा था, हम दो हैं, मगर देश की आवाज़ को बुलंद करेंगे। सरकारें आएंगी-जाएंगी, मगर देश रहेगा। 1990 के दशक में बीजेपी ने भ्रष्टाचार और राष्ट्रीय सुरक्षा पर सरकार को घेरा, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की गरिमा बनाए रखी। कारगिल युद्ध (1999) में विपक्षी दलों ने सरकार का साथ दिया। वाजपेयी ने स्पष्ट कहा था, हम सबकी राजनीति अलग हो सकती है, लेकिन जब बात देश की आती है तो हम सब भारतीय हैं।

लेकिन कांग्रेस और विपक्ष का मौजूदा स्वर देश विरोधी होने लगा है। मार्च 2023, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी (लंदन) में राहुल गांधी ने कहा, भारत में लोकतंत्र खतरे में है। मीडिया, न्यायपालिका और संसद पर दबाव है। 2023 में अमेरिका दौरे पर कैलिफोर्निया में एक सभा में कहा, भारत के संस्थानों को कुचल दिया गया है। विपक्ष की आवाज़ दबा दी गई है। 2024 में यूरोपियन संसद के कार्यक्रम में उन्होंने कहा, भारत में अल्पसंख्यकों और विपक्ष को हाशिये पर धकेला जा रहा है। इन बयानों का इस्तेमाल पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में किया और कहा, भारत के ही नेता मानते हैं कि वहां लोकतंत्र नहीं बचा है। सोनिया गांधी ने 2022 में संसद में कहा था, आजादी के बाद पहली बार भारत का लोकतंत्र सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। शशि थरूर ने 2019 में विदेश में कहा था, भारत की छवि एक सहिष्णु और लोकतांत्रिक देश की थी, लेकिन अब इसे हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखा जा रहा है। ममता बनर्जी ने 2021 में कहा, भारत में फासीवादी ताकतें सत्ता में हैं, यह देश के लोकतंत्र के लिए खतरा है।

2019 से 2024 के बीच संसद के कुल 23 सत्रों में से लगभग 60 फीसदी समय विपक्षी हंगामे की वजह से बर्बाद हुआ। 2023 के मॉनसून सत्र में लोकसभा का उत्पादक समय मात्र 42 फीसदी और राज्यसभा का सिर्फ 39 फीसदी रहा। सरकार के 20 से ज्यादा विधेयक बिना बहस के पारित हुए क्योंकि विपक्ष ने चर्चा से इनकार कर हंगामा किया।  ऐसे में सवाल तो यही है क्या यह विपक्ष की जिम्मेदारी है कि वह जनता से जुड़े मुद्दों पर बहस करे या संसद को ठप कर दे? महंगाई, बेरोजगारी, कृषि संकट जैसे मुद्दों पर सरकार से जवाब मांगना विपक्ष का काम है। संसद में बहस करना, सड़कों पर आंदोलन करना। विकल्प प्रस्तुत करना, ये सब विपक्ष कर सकता है। लेकिन विदेशों में जाकर कहना किभारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है।न्यायपालिका और सेना जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना। पाकिस्तान और चीन को अवसर देना कि वे भारत के खिलाफ इन बयानों का इस्तेमाल करें। ये सब राष्ट्रविरोध है. इसी का परिणाम है कि 2023 में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कहा, भारत के विपक्षी नेता राहुल गांधी भी मानते हैं कि वहां अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहा है।

अमेरिका और यूरोपियन संसद की रिपोर्टों में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के बयानों का हवाला देकर भारत की छवि पर सवाल उठाए गए। विदेशी निवेशक भारत कोअस्थिर लोकतंत्रमानने लगे। जबकि विपक्ष से जनता चाहती है कि वह सिर्फ आलोचना नहीं, बल्कि समाधान भी सुझाए। संसद में सक्रियता दृ संसद में हंगामे के बजाय बहस हो। राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हो, सत्ता बदल सकती है, पर भारत की गरिमा स्थायी है। लोकतंत्र में विपक्ष की असली ताकत उसकी रचनात्मक आलोचना और जनता की आवाज़ उठाने में है, कि विदेशों में जाकर अपने ही देश को नीचा दिखाने में। विपक्ष अगर सत्ता पाने की जल्दबाज़ी में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को बदनाम करेगा, तो वह केवल जनता की अपेक्षाओं से धोखा करेगा, बल्कि इतिहास में भीकमज़ोर और गैर-जिम्मेदार विपक्षके रूप में ही याद किया जाएगा। देखा जाएं तो बीजेपी जब विपक्ष में थी, उसने संघर्ष किया लेकिन भारत की छवि को चोट नहीं पहुंचाई।

आज कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या उनकी राजनीति भारत की गरिमा को बचा रही है या केवल सत्ता पाने की होड़ में देश को बदनाम कर रही है। विपक्ष की जिम्मेदारीः आलोचना या भारत को बदनाम करना? भारतीय राजनीति का इतिहास देखें तो भारतीय जनता पार्टी (तब जनसंघ) ने दशकों तक विपक्ष में रहते हुए संघर्ष किया। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में बीजेपी को मात्र दो सीटें मिलीं। इसके बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में भारत के हित को सर्वोपरि रखते हुए अपनी आवाज़ दर्ज कराई। 1990 के दशक तक बीजेपी लगातार विपक्ष में रही। उसने मंडल-कमंडल राजनीति, भ्रष्टाचार, कश्मीर और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर सरकारों को घेरा। लेकिन विपक्ष में रहते हुए भी बीजेपी ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की लोकतांत्रिक छवि को कमजोर करने का प्रयास नहीं किया।

अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं कहा थासरकारें आती-जाती हैं, मगर देश हमेशा रहता है।यही कारण था कि चाहे वह 1992 का बाबरी मस्जिद विवाद हो या 1999 का कारगिल युद्ध, बीजेपी ने देश की एकता और गरिमा को सर्वोपरि रखा। लेकिन पिछले 11 वर्षों से नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में है। इस दौरान कांग्रेस और उसके सहयोगी दल विपक्ष में रहे। लेकिन विपक्ष की राजनीति का स्वर अक्सरसरकार विरोधसे आगे बढ़करदेश विरोधका रूप लेता दिखाई दिया। मतलब साफ है भारत को बदनाम करना विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं बल्कि उसकी सबसे बड़ी विफलता है। यदि विपक्ष अपनी भूमिका को गंभीरता से समझे और रचनात्मक एजेंडा अपनाए तो लोकतंत्र और भी सशक्त होगा। लेकिन यदि विपक्ष केवलभारत को नीचा दिखानेका रास्ता चुनता है, तो इतिहास उसे एक कमज़ोर, नकारात्मक और गैर-जिम्मेदार विपक्ष के रूप में ही याद रखेगा। 

सत्ता से दूरी का गुस्सा, राष्ट्र की छवि पर वार क्यों?

भारत एक जीवंत लोकतंत्र है। यहां सरकारें आती-जाती रही हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की आत्मा कभी कमजोर नहीं पड़ी। परंतु बीते एक दशक से भारतीय राजनीति में जो प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, उसने आम नागरिकों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है क्या विपक्ष की असली जिम्मेदारी केवल सत्ता विरोध तक सीमित है या फिर भारत को ही बदनाम करना उसकी रणनीति बन गई है?

सुरेश गांधी

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उसके पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ ने 1950 के दशक से लेकर 1990 तक लंबे समय तक विपक्ष की भूमिका निभाई। इमरजेंसी के काले दिनों (1975-77) में जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेलें भरीं, आंदोलन किए, लेकिन भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर धूमिल नहीं किया। 1984 में लोकसभा चुनावों में बीजेपी मात्र 2 सीटों तक सिमट गई थी, लेकिन पार्टी ने संसद और जनता के बीच से अपनी बात रखी। 1989 से 1998 तक बीजेपी ने विपक्ष में रहकर कांग्रेस सरकारों को घेरा, लेकिन विदेशों में भारत के लोकतंत्र पर सवाल नहीं उठाए। मतलब साफ है विपक्ष का दायित्व सत्ता को चुनौती देना था, परंतु भारत को बदनाम करना कभी उसकी रणनीति नहीं रही।

साल 2014 से जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला, विपक्ष के एक बड़े हिस्से का रुख बदला। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता बार-बार विदेशों में जाकर भारत के लोकतंत्र, मीडिया, न्यायपालिका और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहे। संसद में रचनात्मक बहस की बजाय हंगामा और गतिरोध अब आम बात हो गई है।  महंगाई, रोजगार, किसान मुद्दों पर ठोस विकल्प देने की बजाय विपक्ष केवल नकारात्मक प्रचार में व्यस्त दिखाई देता है। राहुल गांधी का लंदन बयान (2023), जिसमें उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है और विश्व को दखल देना चाहिए। चीन और पाकिस्तान के मुद्दे पर भी विपक्ष, सीमा विवाद और आतंकी हमलों के मामले में अक्सर सरकार से अधिक सेना और संस्थानों पर सवाल उठाने लगा। 2024 चुनाव परिणाम के बाद विपक्ष ने खुलेआम चुनाव आयोग और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की विश्वसनीयता पर संदेह जताया, जो अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में छा गया। सवाल यह है कि क्या विपक्ष जनता की आवाज़ उठा रहा है या केवल सत्ता की हताशा में भारत की साख पर चोट कर रहा है?

जबकि लोकतंत्र में विपक्ष केवलनाकहने वाली शक्ति नहीं है। उसकी जिम्मेदारी कहीं अधिक बड़ी है, उसका काम जनता की समस्याओं को संसद में उठाना। विकल्प और समाधान प्रस्तुत करना। सत्ता को निरंतर जिम्मेदार बनाए रखना। संसदीय परंपराओं का सम्मान करना। विदेशों में भारत की सकारात्मक छवि को बनाए रखना। कहा जा सकता है जब विपक्ष इन दायित्वों से विमुख होकर केवल नकारात्मक राजनीति करता है, तो उसकी प्रासंगिकता भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। मेरा मानना है कि आलोचना और असहमति लोकतंत्र का प्राण हैं। लेकिन आलोचना और बदनामी में अंतर है। आलोचना का अर्थ है नीतियों पर सवाल उठाना, आंकड़ों और तर्कों से सरकार को घेरना। बदनामी का अर्थ है बिना आधार के देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं, सेना, न्यायपालिका, चुनाव आयोग तक की साख पर अंतरराष्ट्रीय मंचों से सवाल उठाना।

बीजेपी ने विपक्ष में रहते हुए आलोचना की, लेकिन बदनामी नहीं की। आज का विपक्ष बदनामी करता है, लेकिन ठोस आलोचना और विकल्प नहीं देता। लेकिन कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष भूल रहा है, भारत की जनता बहुत सजग है। 2014, 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों में जनता ने विपक्ष की नकारात्मक राजनीति को खारिज कर दिया। बार-बार जनता ने विपक्ष को संकेत दिया कि वह केवलमोदी हटाओकी राजनीति में विश्वास नहीं करती, बल्किभारत बनाओकी सकारात्मक दृष्टि देखना चाहती है। जनता समझ चुकी है कि विपक्ष यदि लगातार भारत की छवि को धूमिल करेगा, तो उसका राजनीतिक भविष्य भी धूमिल होगा। देखा जाएं तो भारत आज विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जी 20 की अध्यक्षता कर चुका है और वैश्विक मंचों पर निर्णायक भूमिका निभा रहा है। ऐसे समय विपक्ष की नकारात्मक बयानबाजी से विदेशी निवेशकों में संशय, कूटनीतिक संबंधों पर अनावश्यक तनाव, भारतीय लोकतंत्र की छवि पर आंच का प्रभाव पड़ता है. सवाल यह है कि इन हरकतों से विपक्ष किसे कमजोर कर रहा है, सरकार को या पूरे भारत को?

 जबकि लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए विपक्ष को संसद में सक्रिय बहस और नीति पर चर्चा करनी चाहिए। सरकार की गलतियों का तर्कसंगत प्रतिवाद करना चाहिए. जनता की समस्याओं पर आंदोलन, लेकिन समाधान भी पेश करना चाहिए. विदेशों में जाकर भारत के लोकतंत्र पर सवाल उठाना और युवा और नई पीढ़ी के सामने सकारात्मक राजनीति का आदर्श प्रस्तुत करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी है। मतलब साफ है भारतीय लोकतंत्र की ताकत उसकी विविधता और वाद-विवाद की परंपरा में है। विपक्ष का अस्तित्व उतना ही जरूरी है जितनी सरकार का। लेकिन जब विपक्ष अपनी जिम्मेदारी भूलकर केवल भारत की छवि पर वार करता है, तब लोकतंत्र कमजोर होता है। बीजेपी का विपक्ष काल एक सबक है कि बिना बदनाम किए भी सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। आज के विपक्ष को यह याद रखना होगा कि लोकतंत्र मेंभारत पहले, राजनीति बाद मेंकी भावना ही उसकी असली पहचान होनी चाहिए। जनता जानना चाहती है क्या कांग्रेस और विपक्ष आने वाले वर्षों में अपनी भूमिका को पहचानेंगे और रचनात्मक राजनीति की ओर लौटेंगे, या फिर केवल सत्ता की हताशा में भारत को बदनाम करने की राह पर चलते रहेंगे?

विपक्ष का धर्म : आलोचना या भारत को बदनाम करना?

जब बीजेपी ने वर्षों विपक्ष में रहकर लोकतंत्र की मर्यादा निभाई, तो कांग्रेस अन्य दल क्यों देश की छवि धूमिल करने पर आमादा है? जबकि लोकतंत्र का सौंदर्य सत्ता और विपक्ष के संतुलन में है। सत्ता पक्ष नीति बनाता है, फैसले लेता है, जबकि विपक्ष उसकी समीक्षा करता है, प्रश्न उठाता है और विकल्प प्रस्तुत करता है। यह परंपरा केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक ढांचों में रही है। किंतु बीते 11 वर्षों में भारतीय राजनीति का परिदृश्य यह प्रश्न पूछने को विवश कर रहा है कि क्या विपक्ष का धर्म सरकार की आलोचना तक सीमित रह गया है या वह देश की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंच पर धूमिल करने तक जा पहुंचा है?

सुरेश गांधी

बीजेपी ने अपने लंबे विपक्षी जीवन में कभी भी भारत को बदनाम करने की राह नहीं चुनी। उन्होंने सरकार की आलोचना की, सड़क से संसद तक आंदोलन किए, किंतु भारत के लोकतंत्र और वैश्विक साख को हमेशा सर्वोपरि रखा। इसके विपरीत, वर्तमान विपक्ष खासकर कांग्रेस और उसके सहयोगी ने बार-बार विदेशी मंचों से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक में भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की है। यह प्रवृत्ति केवल राजनीतिक असहमति नहीं बल्कि राष्ट्रीय गरिमा के साथ खिलवाड़ कही जाएगी। बता दें, 1952 से 1977 तक लगातार कांग्रेस का वर्चस्व रहा। इस दौरान जनसंघ और बाद में जनता पार्टी के घटक दलों ने सत्ता से बाहर रहते हुए वैचारिक संघर्ष किया।

1975-77 का आपातकाल विपक्ष की परीक्षा का कालखंड था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संघर्ष हुआ, सैकड़ों नेता जेल गए, किंतु उन्होंने भारत के लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ी, कि भारत की छवि को कलंकित किया। 1984 में भाजपा महज़ 2 सीटों तक सिमट गई। यह सबसे कठिन दौर था। किंतु पार्टी ने हार मानने की बजाय जनता के मुद्दे उठाए, रामजन्मभूमि आंदोलन को आगे बढ़ाया और संगठन विस्तार किया। बीजेपी ने कभी विदेशी धरती से भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को असफल नहीं बताया। उन्होंने संसद को ठप किया, धरना-प्रदर्शन किए, लेकिनभारत असफल हैयाभारत में लोकतंत्र मर गया हैजैसे बयान देने से हमेशा परहेज़ किया। 

जबकि 2014 से सत्ता से बाहर कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की रणनीति लगातार आक्रामक रही है। आलोचना करना विपक्ष का कर्तव्य है, परंतु इसकी सीमाएँ तब लांघी जाती हैं जब विपक्ष विदेशी धरती से भारत कोअलोकतांत्रिकयातानाशाहीकहने लगता है। विदेशी मंचों पर भारत के खिलाफ बयानों के जरिए प्रोपेगैंडा मचाया जाता है. राहुल गांधी ने लंदन और अमेरिका में कई बार कहा कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है, प्रेस की आज़ादी खत्म हो रही है, संस्थाएं दबाव में हैं। यह बयान केवल मोदी सरकार पर वार नहीं बल्कि भारत की लोकतांत्रिक साख पर प्रश्नचिन्ह हैं। विपक्षी दलों के नेताओं के बयानों को पश्चिमी मीडिया भारत के खिलाफ बार-बार उपयोग करता है।

बीबीसी, एनवाईटी, अल जजीरा जैसी संस्थाएं इन बयानों को आधार बनाकर भारत कोअसहिष्णुयाअलोकतांत्रिककहने से पीछे नहीं हटतीं। सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट एयर स्ट्राइक जैसी ऐतिहासिक कार्रवाइयों पर भी विपक्ष ने सवाल उठाए। जब पूरी दुनिया भारत की सैन्य क्षमता और साहस की प्रशंसा कर रही थी, तब विपक्षी नेताओं ने सबूत मांगकर देश की सेना की मनोबल पर चोट पहुंचाई। सीएए, 370 हटाने, कृषि कानून, चुनाव आयोग या न्यायपालिका पर विपक्षी नेताओं ने ऐसे आरोप लगाए जिन्हें विदेशी ताकतें भारत विरोधी प्रोपेगेंडा के लिए भुनाती हैं।

लोकतंत्र में असहमति स्वाभाविक है। विपक्ष का कार्य सरकार की गलतियों को उजागर करना और बेहतर विकल्प सुझाना है। परंतु आलोचना और बदनामी में बुनियादी अंतर है। संसद में बहस, रिपोर्ट कार्ड, जनता के मुद्दों पर सवाल उठाने के बजाए विदेशी मंच से देश की छवि खराब करना, लोकतंत्र पर सवाल उठाना, सेना या संवैधानिक संस्थाओं को नीचा दिखाना विपक्ष की कार्यशैली बन चुका है। जबकि बीजेपी ने सत्ता में रहते हुए भी कांग्रेस को दुश्मन नहीं बल्कि प्रतिद्वंदी माना, जबकि वर्तमान विपक्ष ने सरकार-विरोध को देश-विरोध में बदलने की प्रवृत्ति अपनाई है। जब विपक्ष भारत की छवि पर हमला करता है तो उसका असर सिर्फ आंतरिक राजनीति तक सीमित नहीं रहता। विदेशी निवेशक असमंजस में पड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया भारत कोअस्थिर लोकतंत्रबताने लगता है। वैश्विक मंचों पर भारत के नेतृत्व की क्षमता पर प्रश्न उठते हैं।

आज भारत जी-20, ब्रिक्स, एससीओ जैसे मंचों पर वैश्विक नेतृत्व कर रहा है। ऐसे में विपक्ष के गैर-जिम्मेदाराना बयान केवल सरकार को बल्कि भारत की वैश्विक साख को नुकसान पहुंचाते हैं। भारतीय जनता विपक्ष से केवल विरोध नहीं बल्कि विकल्प चाहती है। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर ठोस नीति। संसद में बहस और संवाद। सकारात्मक राजनीति। बीजेपी के लंबे विपक्षी अनुभव से यही शिक्षा मिलती है कि जनता उस विपक्ष को ही महत्व देती है जो देश की गरिमा बनाए रखते हुए सरकार की गलतियों को उजागर करे। भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष का स्थान अनिवार्य है, किंतु विपक्ष का यह दायित्व भी है कि वह भारत की गरिमा को सर्वोपरि रखे।

सत्ता की आलोचना और भारत की बदनामी दृ इन दोनों में स्पष्ट अंतर है। बीजेपी ने दशकों तक विपक्ष में रहते हुए लोकतांत्रिक मर्यादा निभाई। उसने सरकार की नीतियों पर आक्रामक प्रहार किए लेकिन भारत की छवि को कभी कमजोर नहीं होने दिया। इसके विपरीत, कांग्रेस और वर्तमान विपक्ष ने पिछले 11 वर्षों में बार-बार विदेशी मंचों से भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र को कमजोर करने वाली है और जनता इसके प्रति सजग है। आज जरूरत है एक रचनात्मक, सकारात्मक और राष्ट्रहित सर्वोपरि रखने वाले विपक्ष की, जो सत्ता को संतुलित करे लेकिन देश की छवि को कभी आहत करे।

मेरा मानना है कि भारत एक प्राचीन सभ्यता और जीवंत लोकतंत्र है। इस लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों की अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं। सत्ता जनता द्वारा चुनी गई सरकार चलाती है तो विपक्ष उस सरकार की नीतियों और फैसलों पर सवाल उठाकर उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाए रखता है। यही लोकतांत्रिक संतुलन है। लेकिन सवाल तब उठता है जब विपक्ष अपनी इस संवैधानिक भूमिका को छोड़कर ऐसे कदम उठाए, जिनसे देश की प्रतिष्ठा और छवि को चोट पहुंचे। पिछले 11 वर्षों से लगातार यही देखने को मिल रहा है कि कांग्रेस सहित विपक्षी दल हर मंच पर भारत को बदनाम करने का अवसर ढूंढ़ते हैं। विदेशों के विश्वविद्यालयों से लेकर अंतरराष्ट्रीय संगठनों और मीडिया तक, विपक्षी नेता बार-बार यह कहते हुए सुने जाते हैं कि भारत का लोकतंत्र खतरे में है, यहां की संस्थाएं दबाव में हैं और अल्पसंख्यकों के अधिकार छीने जा रहे हैं।

ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है, क्या यही विपक्ष की जिम्मेदारी है? आज जब कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में है तो उसकी राजनीति का केंद्र बिंदु सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का विरोध रह गया है। यह विरोध कई बार देश की सीमाओं से बाहर जाकर, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की छवि को कमजोर करने तक पहुंच जाता है, जो गलत है। विपक्ष का अधिकार है कि वह सरकार से सवाल करे। लेकिन जब विपक्ष सरकार की आलोचना और देश की छवि को नुकसान पहुँचाने में फर्क भूल जाए तो चिंता स्वाभाविक है।


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