धन की नहीं, भाव की दीवाली : मिट्टी से उठे उजाले की महक
जब दीप जलता है, तो केवल तेल नहीं, आस्था भी जलती है... दीवाली की रात समाप्त होती है, पर उसका प्रकाश पूरे वर्ष बना रहता है। यह वह रोशनी है जो हमें हर कठिनाई में राह दिखाती है, हर अंधेरे में विश्वास जगाती है। अतः जब इस बार आप दीप जलाएं, तो केवल घर को नहीं, अपने भीतर की सोच, संबंध, समाज और संस्कृति को भी रोशन करें। इस दीवाली जब आप दीया जलाएं, तो याद रखिए, वह दीया किसी को दिखाई न दे, फिर भी उसका प्रकाश फैलता है। वह मिट्टी में गढ़ा है, फिर भी वह आकाश को छूता है। क्योंकि दीवाली केवल पर्व नहीं, भारतीय आत्मा का उत्सव है। जहां हर लौ कहती है, “यह देश मिट्टी से बना है, और मिट्टी ही इसकी रोशनी है।”
सुरेश गांधी
दीवाली का मौसम लौट आया है। हवा में फिर वही परिचित सी गंध घुल गई है, मिट्टी की दीयों की, नये रंगे घरों की, और आशाओं की। शनिवार को धनतेरस के साथ दीपोत्सव का पांच दिवसीय पर्व आरंभ हो जाएगा। बाजारों में रौनक है, गलियों में रोशनी की लड़ी झिलमिला रही है और हर किसी के चेहरे पर बरसों बाद वह सच्ची मुस्कान लौटी है, जो केवल त्योहार नहीं, आत्मविश्वास की भी निशानी होती है। कहते हैं, जब धरती पर दीप जलते हैं तो आकाश के तारे भी झुककर निहारते हैं, यह सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि उस संस्कृति की पुनःस्थापना है जिसने हमेशा ‘अंधकार पर प्रकाश’ को जीवन का दर्शन माना।
धनतेरस के दिन जब
लोग झाड़ू, तांबे के बर्तन, चांदी
का सिक्का या सोना खरीदते
हैं, तो यह केवल
खरीदारी नहीं होती, बल्कि
शुभारंभ का प्रतीक होती
है। इन दिनों चौक,
गोदौलिया और पांडेयपुर की
गलियों में भीड़ उमड़
रही है। दुकानदार मुस्कुरा
रहे हैं, क्योंकि एक
बार फिर ग्राहक लौटे
हैं। इस बार बाजारों
में ‘मेड इन इंडिया’
की गूंज है। प्रधानमंत्री
मोदी और चीनी राष्ट्रपति
शी जिनपिंग की हालिया मुलाकात
ने भले ही वैश्विक
स्तर पर संबंधों को
नई दिशा दी हो,
परन्तु स्थानीय बाजारों में अब भी
भारतीय उत्पादों का वर्चस्व दिख
रहा है। मिट्टी के
दीये, कुम्हारों के हाथों की
कलाकारी और वाराणसी के
घाटों पर सूखते दीपक
फिर से ‘देसी रोशनी’
की ताकत बन गए
हैं।
कुम्हार की आंखों में दीवाली का आकाश
दशाश्वमेध के किनारे मिट्टी
गूंथता रामलाल कुम्हार कहता है, “साहब,
जब लोग मेरा दिया
जलाते हैं, तो लगता
है मेरी आत्मा भी
जल उठी।” कुम्हार का यह वाक्य
उस अनकहे भारत का प्रतिनिधित्व
करता है जो हर
उत्सव में खुद को
खोजता है। पहले जहां
चीनी एलईडी लाइटें बाजार में छाई रहती
थीं, वहीं अब मिट्टी
के दीयों, हांडी, गणेश-लक्ष्मी मूर्तियों
की मांग बढ़ी है।
यह बदलाव केवल व्यापारिक नहीं,
सांस्कृतिक पुनर्जागरण का संकेत है।
दीया केवल प्रकाश नहीं
देता, वह पहचान लौटाता
है। मिट्टी की वह गंध,
जो बरसात में खेतों से
उठती है, अब दीयों
से महकती है। यह गंध
ही भारत की आत्मा
है।
स्वर्ण की नहीं, स्वाभिमान की खरीदारी
धनतेरस का अर्थ केवल
धन संग्रह नहीं है। यह
सद्भाव, स्वास्थ्य और समृद्धि का
प्रतीक है। हिंदू धर्मशास्त्रों
के अनुसार, इस दिन भगवान
धन्वंतरि अमृत कलश लेकर
समुद्र से प्रकट हुए
थे। इसलिए इसे आरोग्य और
समृद्धि का पर्व भी
कहा जाता है। सरस्वती
ज्वेलर्स के अधिष्ठाता आकाश
सेठ बताते हैं, “लोग अब सोने
से अधिक स्वास्थ्य बीमा,
चांदी के सिक्के और
छोटे घरेलू उपकरणों को प्राथमिकता दे
रहे हैं। धन का
अर्थ अब केवल तिजोरी
भरना नहीं, घर के जीवन
में स्थिरता लाना है।” सच्ची
बात है, दीवाली अब
धीरे-धीरे ‘सजावट की दीवाली’ से
आगे बढ़कर ‘संस्कार की दीवाली’ बन
रही है।
मोदी-शी भेंट और बाज़ार की चर्चा
राजनैतिक हलकों में चर्चा है
कि हालिया मोदी-जिनपिंग भेंट
के बाद चीनी उत्पादों
की खपत बढ़ सकती
है। पर ज़मीनी हकीकत
कुछ और कहती है।
वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर, कानपुर और लखनऊ के
प्रमुख थोक बाजारों में
इस बार भारतीय ब्रांड
और घरेलू उद्योगों की मांग रिकॉर्ड
स्तर पर है। इंडिया
हैण्डलूम, बनारसी साड़ी, मिट्टी के बर्तन, एलईडी
बल्ब, मोमबत्ती उद्योग और हस्तनिर्मित उपहार
वस्तुएं इस बार दीवाली
का चेहरा बदल रही हैं।
स्थानीय व्यापारी बताते हैं कि सरकार
की वोकल फॉर लोकल
नीति ने न सिर्फ
छोटे कारीगरों में आत्मविश्वास जगाया
है, बल्कि चीनी वस्तुओं पर
निर्भरता भी घटाई है।
कुंभ से काशी तक : परंपरा की लौ अमर है
काशी की दीवाली
कुछ और ही होती
है। यहाँ दीपों में
तेल से अधिक ‘श्रद्धा’
भरी होती है। राजा
हरिश्चंद्र घाट से लेकर
पंचगंगा घाट तक हर
सीढ़ी पर दीप सजे
हैं। माँ अन्नपूर्णा के
दरबार में भीड़ उमड़
रही है, और बाबा
विश्वनाथ के द्वार पर
आस्था का सैलाब है।
काशी के बुज़ुर्ग पंडित
विजय नारायण सिंह कहते हैं,
“दीवाली केवल लक्ष्मी पूजन
नहीं, आत्म-शुद्धि का
पर्व है। जब दीया
जलता है, तो उसमें
शरीर नहीं, आत्मा दीप्त होती है।” काशी
की दीवाली में एक आध्यात्मिक
संदेश छिपा है, “दीप
जलाओ, पर पहले अपने
भीतर के अंधकार को
हटाओ।”
जब धरती पर उतरता स्वर्ग
गंगा महोत्सव के
दौरान जब लाखों दीप
जलते हैं, तो पूरा
घाट सुनहरे आभा से नहा
उठता है। यह दृश्य
केवल एक पर्यटन आयोजन
नहीं, यह उस भारतीय
परंपरा का जीवंत रूप
है जो प्रकाश को
धर्म, सौंदर्य और संस्कृति से
जोड़ती है। हर साल
की तरह इस बार
भी प्रशासन ने “एक दीप
माँ गंगा के नाम”
अभियान चलाया है। स्कूलों, महाविद्यालयों
और स्वयंसेवी संस्थाओं के विद्यार्थी घाटों
पर मिट्टी के दीये सजाकर
पर्यावरण-संदेश दे रहे हैं।
यह दीये केवल गंगा
जल में नहीं तैरते,
वे भारत की संस्कृति,
एकता और पर्यावरण-चेतना
का प्रतीक बन जाते हैं।
मिट्टी का अर्थ, संस्कृति की जड़ें
जिस मिट्टी से
यह दिया बनता है,
वही मिट्टी भारत की सभ्यता
की नींव है। वह
मिट्टी जिसने ऋषि-मुनियों को
साधना दी, किसानों को
अन्न दिया, सैनिकों को कर्तव्य का
आह्वान दिया, वही मिट्टी अब
कुम्हार के हाथों दीये
का रूप लेकर पूरे
देश को प्रकाशित कर
रही है। साहित्यकार हजारीप्रसाद
द्विवेदी ने कहा था,
“भारत की संस्कृति मिट्टी
में है, महलों में
नहीं।” आज जब हम
मिट्टी के दीयों की
ओर लौट रहे हैं,
तो यह केवल पर्यावरण
या परंपरा का प्रश्न नहीं,
बल्कि अपनी पहचान की
पुनर्स्थापना है।
महंगाई के बीच उम्मीद की दीवाली
महंगाई भले बढ़ी हो,
पर लोगों की खुशियों का
उत्साह कम नहीं। वाराणसी
के कैंट बाजार में
दीपशिखा वर्मा नाम की गृहिणी
कहती हैं, “सालभर चाहे जो हाल
रहे, दीवाली पर तो मन
को सजा ही लेते
हैं। यह दिन हमें
याद दिलाता है कि अंधकार
कितना भी गहरा हो,
एक दीपक उसे मात
दे सकता है।” शायद
यही दीवाली का असली संदेश
है, प्रकाश की शक्ति पर
भरोसा रखना।
दीवाली और पर्यावरण, हर दीप बने संकल्प
इस बार कई
सामाजिक संस्थाओं ने “ग्रीन दीवाली”
का अभियान चलाया है। पटाखों की
जगह प्राकृतिक रोशनी, इलेक्ट्रिक झालरों की जगह मिट्टी
के दीप, और उपहार
में पौधे देने की
परंपरा को प्रोत्साहित किया
जा रहा है। काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी
काशी विद्यापीठ के छात्र पर्यावरण-अनुकूल दीवाली का प्रचार कर
रहे हैं। वाराणसी नगर
निगम ने भी अपील
की है कि प्लास्टिक
के बजाय मिट्टी के
दीये और कपास की
बाती का प्रयोग किया
जाए। यह केवल प्रदूषण
रोकने का नहीं, भारतीय
आत्मा को बचाने का
प्रयास है।
व्यापार से परे, भावनाओं की दीवाली
दीवाली के बाज़ार में
जो सबसे अमूल्य वस्तु
बिकती है, वह ‘भावना’
है। किसी ने अपनी
माँ के लिए दीया
खरीदा, किसी ने बेटी
के लिए नई पोशाक,
किसी ने बेटे के
लिए मिठाई, पर हर किसी
के मन में एक
ही बात है, “इस
बार की दीवाली, पिछली
बार से थोड़ी उजली
हो।” असली दीवाली वहीं
है, जहाँ रिश्तों की
बत्तियाँ जलती हैं। जहाँ
कोई अकेला न रहे। जहाँ
किसी के घर का
अंधेरा भी हमारी रोशनी
से कटे।
प्रकाश पर्व, मनुष्यत्व का उत्सव
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, दीवाली
के दिन भगवान श्रीराम
ने लंका विजय के
बाद अयोध्या लौटकर अंधकार पर विजय की
घोषणा की थी। परंतु
यह विजय केवल पौराणिक
कथा नहीं, जीवन-दर्शन है।
हर वर्ष जब हम
दीया जलाते हैं, तो हम
अपने भीतर के रावण
को जलाते हैं, अहंकार, ईर्ष्या,
लोभ और मोह को।
प्रत्येक दीप उस आशा
का प्रतीक है जो कहती
है, “मनुष्य अभी भी मनुष्य
है, और भीतर कहीं
न कहीं प्रकाश अब
भी जीवित है।”
दीवाली का समापन नहीं, आरंभ है
धनतेरस पर क्या खरीदें
शुभ है : तांबे, चांदी,
पीतल के बर्तन, झाड़ू
(लक्ष्मी का प्रतीक), तुलसी
पौधा या धातु की
लक्ष्मी मूर्ति, सोने या चांदी
के सिक्के, स्वास्थ्य बीमा या उपकरण
मिट्टी के दीये क्यों खास हैं
पर्यावरण-अनुकूल, देसी कारीगरों की
आजीविका, सस्ती और पारंपरिक, हर
खरीद एक परिवार की
उम्मीद, यही दीवाली का
मतलब है, “अंधकार से
प्रकाश की यात्रा ही
भारतीय संस्कृति की आत्मा है।”




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