भक्ति पर नहीं ‘खौफ‘ का संदेश है होली
होली पर
रंगों की गहन
साधना हमारी संवेदनाओं
को भी उजाला
करती है क्योंकि
होली बुराईयों के
विरुद्ध उठा एक
प्रयास है। इसी
से जिंदगी जीने
का नया अंदाज
मिलता है और
दुसरों का दुख-दर्द बाटा
जाता है। बिखरती
मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा
जाता हैं। होली
के नाम से
ही जैसे दिल
और दिमाग पे
मस्ती सी छाने
लगती है। बिना
पिए ही उस
आनंद में डूबने
लगते हैं। पूरे
बदन का पोर-पोर इशारे
करने लगते हैं,
होली आ गई
हैं। होली के
आते ही रंगमयी
मौसम लगने लगता
है, धरती से
लेकर गगन तक
सप्तरंगी हो जाते
हैं
सुरेश गांधी
फाल्गुन मास की
पूर्णिमा को जब
चंद्रमा अपने पूरे
सौंदर्य के साथ
आकाश में शोभायमान
होता है तब
धरती पर होली
का त्योहार सभी
को प्रेम के
रंग में रंग
देता है। फाल्गुन
के महीने में
मनाए जाने के
कारण इस पर्व
का एक नाम
फाल्गुनी भी है।
होली हमारे समाज
का एक प्राचीन
त्योहार है। भारतीय
समाज की विविधता
के कारण इसके
मनाने के ढंग
भी अलग-अलग
हैं, परंतु प्रेम,
समभाव और सद्भाव
के रंग हर
जगह मिलते हैं।
उमंग में पगी
टोलियों के गीत
गाने और गुलाल-अबीर से
एक-दूसरे को
सराबोर करने के
दृश्य देखे जा
सकते हैं। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े और
अमीर-गरीब के
भेदभाव सतरंगी छटाओं में
विलीन हो जाते
हैं। रंगों और
दुलार के इस
पर्व में बहुधा
रंगों में आपसी
द्वेष और मतभेद
भी घुलते जाते
हैं। मतलब साफ
है यह त्योहार
बुराई पर अच्छाई
की विजय का
उत्सव है। हमें
प्रेरणा मिलती है कि
किस तरह होलिका
नामक बुराई जल
कर भस्म हो
गयी और प्रह्लाद
की भक्ति व
विश्वास रूपी अच्छाई
को रंच मात्र
भी आंच न
आयी। इस जीत
को ही अबीर-गुलाल उड़ा कर,
ढोल-नगारे की
थापों के बीच
नाच-गाकर मनाया
जाता है। हर
तरह से होली
हमारे जीवन में
आनंद का संचार
करने वाला पर्व
है। यह बैर
को भुलाकर दिलों
को मिलाने का
संदेश देने वाला
प्रसंग है।
हजारों वर्ष बाद
भी भारत में
उल्लास के साथ
यह परंपरा जीवित
है तो इसका
अर्थ है कि
हम आधुनिकता के
इस भौतिक दौर
में भी जीवन
के सत्य को
याद रखे हुए
हैं। जीवन का
यह सत्य ही
मनुष्यता है, धर्म
है, आनंद है।
होली की ठिठोली
के बीच मस्ती
और हुड़दंग में
इसे न भूलें
यही होली का
संदेश है। होली
में सभी का
उत्साह बराबर होता है।
पर होली का
उत्साह बच्चों में कुछ
खास ही होता
है। होली का
त्यौहार हो और
पिया का प्यार
हो फिर इस
त्यौहार का मजा
ही दुगुना हो
जाता है। होली
फाल्गुन मास की
पूर्णिमा को मनाया
जाता है। इस
दिन होलिका पूजन
कर संध्या के
समय होलिका दहन
किया जाता है।
होली दहन के
अगले दिन रंग,
अबीर और गुलाल
के साथ होली
का पर्व हर्षोल्लास
के साथ मनाया
जाता है। इस
मौके पर जो
आप जो रंग
बिखेरते है, वही
आपका हो जाता
है। ठीक इसी
तरह जीवन में
जो कुछ भी
आप देते है,
वहीं आपका गुण
हो जाता है।
रंगों का महत्व
इस मामले में
भी है कि
जिस रंग को
आप परावर्तित करते
है, वह अपने
आप ही आपके
आभामंडल से जुड़
जाता है। जो
लोग आत्म संयम
या साधना के
पथ पर है,
वे खुद से
किसी भी नई
चीज को नहीं
जोड़ना चाहते। उनके
पास जो है,
वह उसके साथ
ही काम करना
चाहते हैं। यानी
आप अभी जो
है, उस पर
ही काम करना
बहुत ही मायने
रखता है। एक-एक करके
चीजो ंको जोड़ने
से जटिलता पैदा
होती है। इसलिए
उन्हें कुछ नहीं
चाहिए। मतलब साफ
है वे जो
कुछ भी है,
उससे ज्यादा वे
कुछ भी नहीं
लेना चाहते। होली
के रंगों में
भीगे कृष्ण और
राधा सहित गोपियां
के आख्यान हों
या ईसुरी के
फाग, सब मन
को विभोर कर
जाते हैं। ये
सारे प्रसंग पुराने
होकर भी हर
साल नित्य नवीन
जैसे लगते हैं।
आदमी होली की
मस्ती में डूब
कर सब कुछ
भूल जाता है
और फिजाओं में
गूंज उठते हैं
ये स्वर- ‘होली
आई रे कन्हाई
रंग बरौ सुना
दे जरा बांसुरी‘।
कहते है
यदि होली के
दिन में भगवान
विष्णु की मन
से पूजा की
जाए तो किसी
भी तरह के
सांसारिक सुखों का अभाव
जीवन में नहीं
रहता है। इस
दिन भगवान शंकर
ने कामदेव को
तपस्या भंग करने
के प्रयास से
क्रोधित हो भस्म
किया था। इस
कारण हम मन
के कुलषित काम
का नाश करने
के संकल्पनुसार होलिका
दहन करते हैं।
काम को भस्म
करने के प्रतीकात्मक
रुप में इस
मदन में यह
शिक्षा भी ग्रहण
करते हैं कि
अब मदन काम
महोत्सवों पर विराम
लगाया जाए। होली
का त्योहार स्पष्ट
संदेश देता है
कि ईश्वर से
बढ़कर कोई नहीं
होता। सारे देवता,
दानव, पितर और
मानव उसी के
अधीन है। जो
उस परमतत्व को
छोड़कर अन्य में
मन रमाता है
वह होली के
त्योहार के संदेश
को नहीं समझता।
ऐसा व्यक्ति संसार
की आग में
जलता रहता है
और उसे बचाने
वाला कोई नहीं
है। यह ठंड
के दिनों की
विदाई और जीवन
में ऊष्मा के
आने की सूचना
है। प्रकृति में
खिलते रंगों का
संदेश है। जीवन
का उत्साह और
उल्लास है। होली
के इस उत्सव
से मनुष्य लंबे
समय से प्रेरणा
पाता रहा है।
होली के आसपास
प्रकृति और जीवन
दोनों में ही
राग और रंग
दिखलाई देते हैं।
खेतों में सरसों
खिल जाती है।
गेहूं पकने की
ओर बढ़ जाता
है। जब प्रकृति
में सभी ओर
रंग ही रंग
हों तो मनुष्य
कैसे अछूता रह
सकता है और
यही बताने को
होली का त्योहार
मनाया जाता है।
वैसे भी होली
जितना हमारी उत्सव
प्रियता को संबोधित
है उतना ही
इसका धार्मिक महत्व
भी है। यह
असत्य और अधर्म
पर धर्म के
विजय का त्योहार
है। यह पर्व
हमें बताता है
कि अधर्म कितना
ही बलवान क्यों
न हो लेकिन
धर्म की शुचिता
के आगे उसे
नतमस्तक होना ही
पड़ता है। होली
का त्योहार हमें
इसी की स्मृति
दिलाता है।
श्रीमद्भभागवत महापुराण के सप्तम
स्कंध में प्रथम
से दसवें सर्ग
तक भक्त प्रह्लाद
की कथा का
वर्णन है। इसमें
पिता हिरण्यकश्यपु की
लाख प्रताड़नाओं यहां
तक कि कई
बार मार डालने
की कोशिशों के
बावजूद बालक प्रह्लाद
की विष्णु के
प्रति भक्ति अडिग
रहती है। राक्षस
कुल में जन्मे
प्रह्लाद की भगवद-भक्ति हिरण्यकश्यपु के
‘मैं ही विष्णु
हूं‘ जैसे अहंकार
को चूर-चूर
कर देती है।
वह जितना जोर
देकर अपने पुत्र
को डराता है
कि ‘विष्णु का
नहीं मेरा नाम
जपो‘,
प्रह्लाद की भक्ति
उतनी ही दृढ़
होती जाती है।
वह न डरता
है और न
विचलित होता है।
पिता के आदेश
दर पर प्रह्लाद
को पहाड़ की
ऊंचाइयों से फेंका
गया, उबलते तेल
के कड़ाह में
डाला गया, किंतु
ये यातनाएं भी
उसकी भक्ति को
कमजोर नहीं कर
सकी। प्रह्लाद की
कथा से जुड़े
ये सारे आख्यान
और उसकी अविचल
भक्ति आज भी
बुराइयों से लड़ने
की प्रेरणा देती
है। कोई भी
डर, कोई भी
प्रताड़ना या कोई
भी प्रलोभन हमें
अपने ईमान से,
मनुष्यता के भाव
से डिगा न
सके तो यह
धरती ही स्वर्ग
बन जाये। शक्ति
के मन में
कुल बुलाती बुराइयां,
उसके अंतस में
मचलता स्वार्थ-लोभ-लालच कब
उसे इतना नीचे
गिरा देता है
कि वह इनसान
से हैवान बन
जाता है, यह
वह समझ ही
नहीं पाता। इन
दुष्वृत्तियों के कारण
मानो सारे रिश्ते
बेमानी हो जाते
हैं। आदमी इन
रिश्तों का, इनसानियत
का खून करने
से भी नहीं
हिचकता।
भक्त प्रह्लाद
की कथा बुराइयों
से लड़कर मनुष्यता
को बचाने का
आख्यान है। यह
कथा याद दिलाती
है कि जब
व्यक्ति का अहंकार
उसे भगवान से
भी ऊंचा मानने
लगता है तो
उसका पतन निश्चित
है। इसीलिए हमारे
शास्त्रकारों ने ज्ञान
का, विद्या का
पहला लक्षण बताया।
विनम्रता-‘विद्या ददाति विनयं,
विनयात याति सुपरत्रता‘ इस विनय से
ही व्यक्ति सुपात्र
बनता है। विनय
साधुता का लक्षण
और अहंकार दुष्टता
का। प्रह्लाद ने
पिता की दुष्टता
का, हिंसा का
विरोध नहीं किया,
उसने अपनी सारी
शक्ति अपनी भक्ति
को अडिग रखने
में लगायी, यह
दृढ़ विश्वास ही
उसकी विजय का
मूल बना। प्रह्लाद
की भक्ति और
विश्वास के सामने
हिरण्यकश्यपु के सभी
अत्याचारी उपक्रम निष्फल और
असहाय साबित हो
रहे थे। उसका
राक्षसी अहंकार यह स्वीकार
करने को कतई
तैयार नहीं था
कि एक छोटा
सा बालक, वह
भी उसका पुत्र
राजाज्ञा का उल्लंघन
कर विष्णु-विष्णु
जपता रहे। इस
बेचैनी में पैर
पटकते हिरण्यकश्यपु की
मदद के लिए
सामने आती है
उसकी बहन होलिका।
उसे यह वरदान
प्राप्त था कि
अग्नि उसे जला
नहीं सकती। तय
हुआ कि होलिका
बालक प्रह्लाद को
गोद में लेकर
बैठेगी और चारों
ओर लकड़ियों का
बड़ा ढेर लगा
कर अग्नि प्रज्जवलित
की जायेगी। उस
दहकती आग में
प्रह्लाद जल कर
भस्म हो जायेगा
ओर होलिका सही
सलामत अग्नि-शिखाओं
के बीच से
बाहर निकल आयेगी।
राक्षसी मन प्रसन्न
था कि उसका
यह प्रयोग व्यर्थ
नहीं जायेगा। लेकिन
हो गया उलटा।
दृढ़ इच्छा के
आगे शक्ति हार
गयी। उस विकराल
अग्नि ने होलिका
को लील लिया,
होलिका दहन हो
गया और प्रह्लाद
मुस्कुराता हुआ बाहर
निकल आया। सभी
भौंचक देखते रह
गये कि किस
तरह होलिका नामक
बुराई जल कर
भस्म हो गयी
और प्रह्लाद की
भक्ति व विश्वास
रूपी अच्छाई को
रंच मात्र भी
आंच न आयी।
ब्रज में
आज भी इस
कथानक को फाग
के रूप में
गाया जाता है-‘होलिका ने ऐसा
जुल्म गुजारा प्रह्लाद
गोद बैठारा‘। हमारे
शास्त्रों में ऐसे
अनगिनत आख्यान भरे पड़े
हैं जो यह
सीख देते हैं
कि सत्य को
प्रताड़ति किया जा
सकता है, पर
पराजित नहीं। इसीलिए ‘सत्यमेव
जयते‘ भारत की
सनातन संस्कृति का
मूल पाठ है
और सत्य-न्याय-अर्थ भारत
की सांस्कृतिक चेतना
की संजीवनी हैं।
ये प्रवृतियां ही
मनुष्यता का सृजन
करती है और
भारतवर्ष इसके फलने-फूलने की प्रयोग
भूमि रहा है।
इसलिए देवता भी
लालायित रहते हैं
इस पुण्य धरा
पर जन्म लेने
के लिए। विष्णु
पुराण में उल्लेख
है- गायंति देवाः
किल गीतकानि धन्यास्तु
ते भारत भूमि
भागे स्वगीयवगीस्पद हेतु
भताः भवंति भूयः
पुरषाः सुरत्वात अर्थात भारत
भूमि का यश
देवता भी गाते
हैं कि वे
लोग धन्य हैं
जिन्होंने इसकी गोद
में जन्म लिया।
क्योंकि यह धरती
लौकिक सुख देने
वाली तो है
ही, स्वर्ग और
मोक्ष की भी
राह दिखाती है।
काश हम अपने
देवत्व से मुक्त
होकर मनुष्य रूप
में वहां जन्म
ले जाते। भक्ति
और शक्ति का
समन्वय है भारत
के जीवन दर्शन
में जो इन
पौराणिक व औपनिषदिक
कथाओं में व्याख्याथित
है। भक्ति सुमति
देती और शक्ति
जगत का कल्याण
करती है। भारत
के इस विचार
को दुष्ट बुद्धि
से नहीं, सुमति
से ही समझा
जा सकता है
कि इसमें से
ही जीवन के
वे शाश्वत और
सनातन मूल्य प्रकट
हुए जो समस्त
मानवता के लिए
आश्वास्तिकारक हैं। ये
मूल्य ही जाति-मजहब और
रंगभेद से ऊपर
शांति-सदभाव-बंधुता
और परस्पर सौहार्द
से युक्त वैश्विक
जीवन का विश्वास
जगाते हैं। इसीलिए
स्वामी विवेकानंद ने हिंदू
धर्म को मानव
धर्म कहा और
बताया कि यह
धर्म ही भारत
का प्राण है।
मंगल कामना
से
होलिका
की
पूजा
यह पर्व
विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार
की सुख समृद्धि
की कामना से
मनाया जाता रहा
है। प्राचीन समय
में स्त्रियां पूर्ण
चंद्र की पूजा
करके परिवार की
खुशहाली मांगती थी। वैदिक
काल में होली
को नवानेष्टि यज्ञ
कहा जाता था।
उस समय खेत
के अधपके अन्ना
को यज्ञ में
दान करके प्रसाद
लेने का विधान
समाज में था।
यज्ञ में चढ़े
उस अन्न को
होला कहा जाता
था और उसी
से इस पर्व
का नाम होलिका
पड़ा। प्रल्हाद के
साथ धर्म की
रक्षा का प्रसंग
भी इस पर्व
के साथ जुड़ा
हुआ है और
इसलिए इसे धर्म
की रक्षा के
पर्व के रूप
में भी देखते
हैं। मनुस्मृति के
अनुसार इसी दिन
मनु के जन्म
का उल्लेख है।
कहा जाता है
कि मनु ही
इस पृथ्वी पर
आने वाले सर्वप्रथम
मानव थे। इसी
दिन ‘नर-नारायण‘ के जन्म का
भी वर्णन प्राप्त
होता है जो
भगवान विष्णु के
चैथे अवतार माने
जाते हैं।
भेद मिटाने
वाला
रंग-बिरंगा
पर्व
होली
दहन के अगले
दिन लोग रंगों
के जरिए आनंद
को अभिव्यक्त करते
हैं और घरों
में पकवान बनाए
जाते हैं। होली
पर पकवान बनाकर
उत्सव मानना और
दुश्मनी भुलाना त्योहार का
मुख्य लक्ष्य है।
होली को कृष्ण
के साथ जोड़ने
वाली अनेक कथाएं
हमारे यहां प्रचलित
हैं। कहा जाता
है कि कृष्ण
तो सांवले थे
परंतु उनकी आत्मिक
सखी राधा गौरवर्ण
थी। इसलिए बालकृष्ण
प्रकृति के इस
अन्याय की शिकायत
मां यशोदा से
करते थे और
कारण जानने को
उत्सुक रहते थे।
मां ने उन्हें
मनाने के लिए
कहा कि होली
पर तो सभी
के मुंह एक
ही रंग के
हो जाते हैं
और कोई भेदभाव
नहीं रहता। होली
का यह पर्व
ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी और रंग
रूप के सारे
भेद मिटा देता
है। होली के
रंगों में भीगे
कृष्ण और राधा
सहित गोपियां के
आख्यान हों या
ईसुरी के फाग,
सब मन को
विभोर कर जाते
हैं। ये सारे
प्रसंग पुराने होकर भी
हर साल नित्य
नवीन जैसे लगते
हैं। आदमी होली
की मस्ती में
डूब कर सब
कुछ भूल जाता
है और फिजाओं
में गूंज उठते
हैं ये स्वर-
‘होली आई रे
कन्हाई रंग बरौ
सुना दे जरा
बांसुरी‘,
‘होली खेले रघुवीरा
अवध में, होली
खेले रघुवीरा’, ‘होली आई
रे कन्हाई रंग
छलके, सुना दे
जरा बांसुरी’, ‘जा रे
नटखट ना खोल
मेरा घूंघट पलट
के दूंगी गाली
रे, मोहे समझो
ना तुम भोली
भाली रे’, रंग बरसे
भीगे चुनरवाली, रंग
बरसे‘,
‘मारो भर-भर
पिचकारी’,
‘लाई है हजारों
रंग होली’, ‘आज न
छोड़ेंगे बस हमजोली’।
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