Monday, 2 April 2018

दलितों को वोटबैंक बनाने वाली राजनीतिक कब तक?


दलितों को वोटबैंक बनाने वाली राजनीतिक कब तक



एससी एसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ देशभर में हुए हिंसा ने कई जानें ले ली। ट्रेन रोकीं और सड़कों पर जाम लगाया। कई शहरों में तोड़फोड़, आगजनी में लाखों करोड़ों की संपत्ति जलकर खाक हो गयी। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर देशभर में हिंसा फैलाने वाले हौसलाबुलंद साजिशकर्ता अपने मकसद में सफल कैसे हो गए? सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आखिर क्यों मची है इतनी हातौबा? खुफियातंत्र को इतने बड़े आंदोलन की भनक क्यों नहीं लग सकी? दलितों को वोटबैंक बनाने वाली राजनीतिक कब तक? क्या दलित आंदोलन को हाईजैक करने वाले साजिशकर्ताओं के गले तक पहुंच पायेंगे मोदी सरकार के हाथ? क्योंकि उपद्रवियों ने जिस तरह जगह जगह तांडव किया है उसमें दलित समाज तो सिर्फ मोहरा है इसके पीछे जरुर कोई कोई बड़ी शख्सियत है जो मोदी सरकार को हर मोर्चे पर बदनाम करने का ठेका ले रखा है
सुरेश गांधी
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एससी एसटी एक्ट में कई बदलाव हुए थे। जिसके बाद केंद्र सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि अदालत में इस मामले पर मजबूती से पक्ष नहीं रखा गया। इसी बात को मुद्दा बनाकर दलित संगठनों की तरफ से भारत बंद बुलाया गया। लेकिन दलितों के आंदोलन को कुछ साजिशकर्ताओं ने हाईजैक कर लिया। इसके बाद शुरु हुआ तोड़फोड़ आगजनी की घटनाएं छह से अधिक लोगों की जाने लेने हजारों हजार करोड़ की चल अचल संपत्ति खाक होने के बाद ही थमा। हालांकि मोदी सरकार के प्रति दलितों का गुस्सा कोई पहली बार नहीं फूटा है, बल्कि इसके पहले भी दलितों को लेकर सरकार को घेरने की समय समय पर कोशिश होती रही है। वो चाहे ऊना का मामला हो या फिर रोहित वेमुला का मामला। या फिर सहारनपुर के शब्बीरपुर में राजपूत-दलितों के बीच खूनी संघर्ष का हो या हरियाणा के फरीदाबाद के सुनपेड़ गांव में एक दलित परिवार को जिंदा जलाने का मामला। ताजा मामला अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर है। जिसके विरोध में देशभर में बड़े पैमाने पर सरकारी संपत्तियों को जलाया गया है।
आक्रोश की वजह इस एक्ट के तहत दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने, गिरफ्तारी से पहले उसके अप्वाइंटिंग अथॉरिटी और अन्य सामान्य लोगों के लिए पुलिस अधीक्षक की अनुमति लेने की है। जबकि सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट को इस तरह के लेजिस्लेटिव नेचर के फैसले देने का अधिकार ही नहीं है। दलित समाज का मानना है कि यह देश के संविधान के खिलाफ जाकर दिया गया फैसला है। मतलब साफ है इस फैसले के बाद समाज का आहत होना समझ में तो आता है लेकिन उसका आक्रोश सातवें आसमान पर इस तरह उग्र होगा, बिल्कुल समझ से परे है। इसके पीछे जरुरत कोई कोई साजिश है जिसके जरिए पूरे देश को आग के हवाले करने की कोशिश की गयी। इस उग्र एवं हिंसक आदोलन को देखते हुए कहा जा सकता है कि एकबार फिर विरोधी मोदी सरकार को घेरने के लिए किसी बड़ी साजि का ताना बाना बड़े पैमाने पर बुना है। जबकि खुद ढाई साल पहले मोदी सरकार ने इस कानून को दलितों-आदिवासियों के हितों में और कड़ा बनाते हुए संशोधन-2015 किया था। दलितों की नाराजगी को देखते हुए मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है। क्योंकि मोदी को अच्छी तरह पता है कि जातीय भेदभाव के आधार पर दलितों के साथ अत्याचार शोषण होता आया है। क्या हम गैर दलितों को जूता पहनने, सायकिल मोटरसायकिल की सवारी करने से, बारात निकालने या घोड़ी चढ़ने या मंदिर में जाने से रोक सकते है। उन्हें सरेआम जूतों की माला पहनला सकते हैं। उन्हें गंजा कर सकते है या मुंछे मुड़वा सकते हैं? अगर उक्त सवालों का जवाब नहीं है तो दलितों के साथ अपराधों के अभियुक्त को कैसे अग्रिम जमानत दी जा सकती है। 
हो जो भी सच तो यही है पक्ष हो विपक्ष सभी को पता है कि दलित हो या पिछड़ा ऐसे आरक्षण है जो सरकार बनाने बिगाड़ने में महती भूमिका निभाते रहे हैं। कहा जा सकता है देश की सियासत में दलित पिछड़ा समुदाय एक बड़ी ताकत है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में दलितों की आबादी करीब 17 फीसदी है। जबकि दलित पिछड़ों की आबादी 85 फीसदी है। यही वजह है कि विपक्ष हो या सरकार कोई भी इस समय खुद को दलितों के खिलाफ नहीं दिखाना चाहता। आंकड़ों के मुताबिक देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं। 31 राज्यों केंद्र शासित प्रदेशों में अनुसूचित जातियां अधिसूचित हैं। 1241 जातीय समूहों को अनुसूचित जाति के रूप में अधिसूचित किया गया है। बीजेपी की 2014 के लोकसभा चुनाव में कामयाबी में दलितों की अहम भूमिका रही है। इसीलिए बीजेपी पसोपेश में है कि कहीं दलितों की नाराजगी 2019 में उसके लिए महंगी पड़ जाए। यही वजह है कि मोदी सरकार ने बिना देर किए हुए एससी?एसटी एक्ट के लेकर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार दायर कर दी। वैसे भी देश की कुल 543 लोकसभा सीटों में 80 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में इन 80 सीटों में से बीजेपी ने 41 सीट पर जीत दर्ज की थी। हालांकि बाद में मध्य प्रदेश की रतलाम लोकसभा सीट के उपचुनाव में हार जाने के चलते फिलहाल उसकी 40 सीटें हैं। इतना ही नहीं बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की सभी 14 आराक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थीं।
उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के चुनाव में दलित मतदाताओं की काफी अहम भूमिका रहती है। दलितों की सियासी ताकत देखते हुए देश की सियासी पार्टियां उन्हें अपने पाले में लाने की कवायद में लगी रहती हैं। दलित आबादी वाला सबसे बड़ा राज्य पंजाब है। यहां की 31.9 फीसदी आबादी दालित है और 34 सीटें आरक्षित हैं। उत्तर प्रदेश में करीब 20.7 फीसदी दलित आबादी है और 14 लोकसभा 86 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। बीजेपी ने 14 लोकसभा और 76 विधानसभा आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी। हिमाचल में 25.2 फीसदी, हरियाणा में 20.2 दलित आबादी है। मध्य प्रदेश में दलितों से ज्यादा आदिवासियों की आबादी है। दलित समुदाय की आबादी 6 फीसदी है जबकि यहां आदिवासियों की आबादी करीब 15 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में 10.7, बिहार में 8.2, तामिलनाडु में 7.2, आंध्र प्रदेश में 6.7, महाराष्ट्र में 6.6, कर्नाटक में 5.6, राजस्थान में 6.1 आबादी दलित समुदाय की है। इस साल जिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें 231 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं, वहीं लोकसभा में उनके लिए इन प्रदेशों की 25 सीटें आरक्षित हैं। ऐसे में अगर प्रदेश सरकार इन मसलों को जल्द नहीं सुलझातीं तो आने वाला वक्त उनके लिए महंगा भी पड़ सकता है। जाहिर है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 चुनावों के दौर से हाल के दिनों तक जिस तरह दलितों के प्रति प्रेम दर्शाया है, यह उसका भी इम्तिहान है। जबकि कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को भी उम्मीद है कि दलित आरक्षण के बहाने सिर्फ मोदी को कमजोर बल्कि सत्ता हासिल किया जा सकता है। यही वजह रही कि इस फैसले की नजाकत को भांपते हुए कांग्रेस ने बिना देरी किए सरकार पर हमला बोला और इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने की मांग की। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यहां तक कहा, ‘भाजपा संघ की मानसिकता के तहत एससी-एसटी समुदाय के खिलाफ काम कर रही है और इस कानून को खत्म करने की सोच रही है।
                देखा जाएं तो इस उग्र आंदोलन की रणनीति कोई एक-दो दिन में नहीं बल्कि काफी दिनों से तैयार की जा रही थी। जरुरत थी तो सही वक्त की। कोरेगांव भिमा में फैली हिंसा को भी इसी साजिश की कड़ी से जोडा जा रहा है। यह मामला दलितों के मन में लंबे वक्त से खदबदाते आक्रोश को जाहिर करने की शुरुआत भर है। करीब डेढ़ साल पहले मराठों ने राज्य भर में आक्रामक ढंग से 57 विशाल रैलियां निकालकर अहमदनगर के कोपर्डी में एक मराठा किशोरी के साथ बलात्कार करने वाले तीन दलित युवाओं को फांसी पर चढ़ाने और समुदाय को तालीम के साथ-साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की मांग पर जोर दिया था। उस समय भी दलितों में असंतोष था। कोपर्डी के मामले में विशेष अदालत ने 29 नवंबर को मुजरिमों को मौत की सजा सुनाई थी। दूसरी तरफ, एक अन्य अदालत ने एक दलित युवा नितिन आगे की हत्या के आरोपी आठ मराठा युवकों को बरी कर दिया था। आगे को कथित तौर पर एक मराठा लड़की के साथ प्रेम संबंध रखने की वजह से मार डाला गया था। राज्य भर के दलितों ने अदालत के फैसले के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर की थी। वे चाहते हैं कि सरकार निचली अदालत के फैसले को चुनौती दे, जिसे सरकार ने मान लिया है, पर अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। ताजातरीन विरोध प्रदर्शन दबी हुई भावनाओं का मिला-जुला असर है। दलितों को खैरलांजी की घटना के बाद से ही नजरअंदाज किया जा रहा है। ताजा विरोध-प्रदर्शनों ने उनमें नई जान फूंक दी है। 

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