व्यवस्था के ‘ढ़ाचा परिवर्तन की सबक है आसाराम की सजा
कानून का पालन करने वाले निष्पक्ष व निर्भिक होकर काम करें तो कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी जीत सकता है। स्वयंभू आसाराम जैसे प्रभावशाली, शक्तिशाली और वैभवशाली दुष्कर्म आरोपी को मृत्यु पर्यन्त सींखचों के पीछे डालने का फैसला न सिर्फ यही संदेश देता है, बल्कि ब्रतानियां हुकूमत की तर्ज पर कार्य कर रहे एवं अवैध वसूली में लिप्त उन पुलिसकर्मियों को सबक है, जिनकी तफतीश में न्याय नहीं पैसा ही सिर चढ़कर बोलता है। मतलब साफ है प्रत्येक पुलिस वाले को इस फैसले से प्रेरणा लेने की जरुरत है। क्योंकि सजा के पीछे पुलिस की निष्पक्षता एवं पीड़ित बच्ची और उसके परिवार की दृढ़ता ही सबसे अहम् कड़ी है। अदालत का फैसला इस बात का नजीर बनेगा कि अध्यात्म को व्यभिचार का व्यवसाय बनाने वाले बाबाओं के ‘भक्तों‘ की भीड़ के उन्माद का उस पर कोई असर नहीं होता। यह फैसला साबित करता है कि अदालतो व पुलिसिया कानून में न्याय मिलता है भले ही बहुतों को लगे कि वह देर से होता है
सुरेश गांधी
जी हां, देशभर में पुलिसकर्मियों की जो छबि है वह ब्रतानियां हुकूमत के पुलिसकर्मियों के तौर तरीकों को भी मात देने वाली है। मानवता से इतर एवं वसूली संस्कृति के मकड़जाल में फंसी वर्तमान पुलिस की क्रूरता कुछ इस कदर बढ़ गयी है कि नाम सुनते ही लोगों के जेहन में महिषासुर जैसे राक्षस का खौफनाक मंजर घर जाता है। यह अलग बात है कि टीवी धारावाहिक ‘क्राइम पेट्रोल‘ ‘सीआईडी‘ और ‘सावधान इंडिया‘ में पुलिस की छबि व काम करने के तरीके की जितनी भी तारीफ किया जाय कम है। कहा जा सकता है जोधपुर पुलिस ने इन्हीं धारावाहिकों की तर्ज पर कुछ ऐसा ही किया, जिससे देश के अन्य पुलिसकर्मियों को सबक लेने की जरुरत है। उनके सामने एक-दो नहीं कई बाधाएं आईं। तीन-तीन गवाहों की हत्या हो गई। किन्तु पुलिस व अभियोजन ने मूल साक्ष्य मिटने न दिए। मतलब साफ है पुलिस के कर्तव्य विमुख होने के कारनामों से भरा पड़ा भारतीय इतिहास, आसाराम प्रकरण में जोधपुर पुलिस एवं न्यायालय की अच्छी भूमिका देश एक नई नजीर के लिए को याद रखेगा। खासकर यह फैसला उस वक्त आया है जब समूचा राष्ट्र बच्चियों-महिलाओं की गरिमा पर हो रहे पाश्विक हमलों से आहत और उद्वेलित है। असुरक्षा और अविश्वास का वातावरण बन गया है। आसाराम जैसे लोग भारतीय संत परंपरा और लोगों में उनकी प्रति आस्था का फायदा उठाते हैं। अभियोजन का उत्साहवर्धन होना चाहिए कि न्यायालय में क्या मान्य होगा, कैसे मान्य होगा - सबकुछ उन्हीं पर है। क्योंकि आसाराम जैसे लोगों को बेड़ियों में जकड़ा जाना ही अविश्वसनीय था। एक नन्हीं मासूम का उत्पीड़न कर, असंख्य अनुयायियों की आस्था का आपराधिक दुरुपयोग कर, स्वयंभू आसाराम कानून का मखौल उड़ा रहा था। किन्तु विशेष अजा-जजा न्यायालय ने आसाराम को सजा कर एक नई आशा जगा दी है। वे सफेद चोले के पीछे वे अपने आपराधिक कृत्यों को ही नहीं छिपाते हैं, बल्कि अपनी पैशाचिक वृत्तियों का पोषण भी करते हैं। कहा जा सकता है यह फैसला न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि प्रेरक भी है।
न्यायालय ने जर्जर बूढ़ी हो चुकी उस रहम की अपील को खारिज कर बहुत अच्छा किया जिसमें आसाराम की वृद्धावस्था का भावुक उल्लेख किया गया था। राम रहीम भी ऐसे ही अपने सामाजिक कार्यों के कवच को दया का भिक्षा-पात्र बनाकर कोर्ट में लाया था। आशा है, कम उम्र के दुष्कर्मियों की इससे रूह कांप उठेगी। अब राष्ट्र का न्याय में नए सिरे से विश्वास जगा है। इसे बनाए रखने की चुनौती है। प्रश्न केवल इतना है कि कहीं यह केवल आसाराम तक सीमित न रह जाए। आसाराम जैसे हजारों दुष्कर्मी चारों ओर स्वच्छंद फैले हैं। देश में भोली-भाली बालिकाएं और महिलाएं धार्मिक प्रवृत्ति की अधिक होती है। किसी सच और तर्क को नहीं मानती और ऐसे बहुरुपियों के चंगुल में आसानी से फंस जाती है। वे अपने शोषण के बारे में लोकलाज के कारण किसी से आपबीती भी नहीं कहती है। जब से ऐसे अपराधी पकड़े जाने लगे है और उन पर कानून का शिकंजा कसने लगा है तब से महिलाएं हौसले के साथ सामने आने लगी है, जो अच्छा संकेत हैं। सर्वोच्च प्रशंसा की जानी चाहिए न्यायालय की। जज मधुसूदन शर्मा ने इस न्याय से समूचे दुष्कर्म-विरोधी माहौल को कानूनी मजबूती प्रदान की है। जो इसलिए आवश्यक है, चूंकि लोगों की आशाओं का अंतिम केंद्र कोर्ट ही है। न्याय का मार्ग दुरूह, लम्बा और संताप भरा होता है। बस, चलने वाला चाहिए। इस बार सभी दृढ़ता से चले, आगे भी चलते रहे। और जैसे दुष्कर्म की नई परिभाषा नए कानून में लिखी गई वैसे ही न्यायालय, न्याय की ऐसी ही सुस्पष्ट परिभाषा लिखते रहेंगे। इसके लिए पीड़ित बालिका और उसके परिजनों की भी प्रशंसा की जानी चाहिए जो जबर्दस्त दबावों के बावजूद अटल रहे इसीलिए इस ढ़ोंगी संत पर अपराध साबित हो सका। ऐसे बाबाओं के पीछे भक्तों की भीड़ वो शक्तियां इकठ्ठा करती है जो आस्था और धर्म का व्यवसाय करके फलती-फूलती हैं। पकड़े जाने के पहले तक जब ऐसे बाबा अपनी लोकप्रियती की चमक में इतराते हैं, तब हमारे राजनेता भी उनके चरणों मूें गिरते दिखते हैं और उन्हें सत्ता का वैभव प्रदान करते हैं। इसी के बल पर दुनियाभर में करोड़ों लोगों को अपने संजाल में फांस लेते है।
कई भक्त तो आसाराम व राम रहीम जैसे बाबाओं को साक्षात ईश्वर का प्रतिरूप मानने लगते हैं। इसी का परिणाम था कि घमंड में चूर आसाराम ने निर्भया केस में कहा था, ‘वह अपराधियों को भाई कहकर पुकार सकती थी। इससे उसकी इज्जत और जान दोनों बच सकती थीं। क्या ताली एक हाथ से बज सकती है, मुझे तो ऐसा नहीं लगता।’ आसाराम ने मीडिया की भी काफी आलोचना की थी। उन्होंने खुद को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए कहा-‘हाथी चलता है तो कुत्ते भौकते हैं, इस पर बहुत ध्यान देने की जरूरत नहीं है। ’हमने अक्सर देखा है ऐसे कानूनों का दुरुपयोग हुआ। दहेज संबंधी कानून इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। होली के दिन आसाराम ने सूरत में हजारों लीटर पानी बर्बाद कर डाला। इस पर सवाल उठे तो कहा, ‘मैं किसी के बाप का पानी खर्च नहीं करता। पानी भगवान का है, सरकार का नहीं है। उस पर लोगों को भरोसा था। उसने संकट में भक्त की रक्षा की बजाय यौन हमला किया। लोगों की इन्हीं भावनाओं का दोहन कर ऐसे स्वघोषित बाबा करोड़ों करोड़ रुपये का भक्ति साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं। यह अलग बात है कि एक नाबालिग बच्ची से दुष्कर्म के मामले में राम रहीम की भी करोड़ों अरबों का साम्राज्य व प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई। ऐसे स्वघोषित संतो ंके अनुयायी कानून अपने हाथ में लेने से भी नहीं कतराते। अधिकांश दो-दो बार ऐसा पाप कर चुके हैं। वे बचे क्यों रहते हैं? इस पर भी मनन करने की जरुरत है। देशभर से महिलाओं और बालिकाओं पर दुराचार संबंधी बढ़ती खबरों के बीच ऐसे ही मामले में आसाराम बापू को अदालत से उम्रकैद की सजा मिलने से कानून और न्याय व्यवस्था में भरोसा और मजबूत होगा।
इसके बावजूद ऐसा लगता नहीं कि देश में ऐसे बाबाओं के प्रति जनसाधारण का जुनून कुछ कम हुआ हो। दरअसल, इसकी जड़ंे कहीं ओर हैं। भारत के आर्थिक विकास की कितनी ही बात की जाए पर लगता नहीं कि यह आर्थिक तरक्की आमजन को सामाजिक न्याय व समानता देने में सफल रही है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि शासन के अधिकृत संस्थान अपनी जिम्मेदारियां निभाने में नाकाम रहे हैं। इसके कारण एक तरफ ऐसे बाबाओं को कानून से ऊपर अपनी सत्ता चलाने का मौका मिलता है तो दूसरी तरफ न्याय व राहत की तलाश में जनसाधारण इनकी ओर आकर्षित होते हैं। जितना देश समृद्ध होता जा रहा है। उसी अनुपात में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है, जिन्हें महसूस होता है कि वे पीछे छूट गए हैं। ऐसे लोगों को आसाराम जैसे पाखंडी बाबाओं में ही अपनी सारी समस्याओं का समाधान नजर आता है। सामाजिक विषमता के अलावा यह प्रवृत्ति शिक्षा की कमजोर गुणवत्ता की ओर भी इशारा करती है। वरना आमजन के साथ उच्चशिक्षित और समृद्ध तबका भी क्यों ऐसे बाबाओं के पीछे भागता। हमारी शिक्षा व्यवस्था समाज में अंधविश्वास व कुरीतियों के खिलाफ एक वैज्ञानिक सोच का वातावरण बनाने में नाकाम रही है, क्योंकि इसे अच्छा नागरिक बनाने की बजाय अच्छा कॅरिअर बनाने की दिशा में मोड़ दिया गया है। आप अगर गौर से देखेंगे तो ऐसे बाबाओं के पास आध्यात्मिक ज्ञान पाने के लिए जाने वाले बहुत ही कम होंगे, अधिसंख्य लोग आर्थिक व सेहत संबंधी समस्याओं और अंधविश्वास के कारण जाते हैं। जाहिर है इसका संबंध आर्थिक विषमता व स्वास्थ्य व शिक्षा की कमजोर व्यवस्था है। इन्हें मजबूत बनाकर ही हम ऐसी स्वस्थ व वैज्ञानिक सोच वाले समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहां ऐसे बाबाओं के लिए कोई स्थान नहीं होगा।
यह ऐसे सभी पीड़ितों की जीत और सारे अपराधियों को संदेश है कि वह कानून की नजर से बच नहीं सकेंगे। हाल के दिनों में अदालतों ने बहुत से बाबाओं के ढोंग खोले हैं। यह बताता है कि हमारी न्याय प्रक्रिया में ताकतवर लोगों को दंड देने की कैसी क्षमता है। भले ही आसाराम को उम्रकैद की सजा निचली अदालत से हुई और वह मन के किसी कोने में ऊपरी अदालत से राहत की कोई उम्मीद लगाए बैठे हों, लेकिन जिस तरह बीते पांच साल में उनकी ढिठाई के कसबल अदालत की सख्ती से टूटे हैं, वह देश की कानून-व्यवस्था पर भरोसा बढ़ाने वाला है। यह बताता है कि धर्म और अध्यात्म को गंदा धंधा बना देने वाले फर्जी बाबाओं के दिन अब लद चुके हैं। अब समाज को ऐसे फर्जी बाबाओं का मूल चरित्र समझकर इनसे तौबा करने की जरूरत है। अभी कुछ बाबा कानून की जद में आए हैं। कई अब भी अपने-अपने तरीके से जनता को बरगला रहे होंगे। यह फैसला उनके लिए भी संभल जाने का संदेश है। फर्जी बाबाओं का साम्राज्य रातोंरात तो खड़ा नहीं होता। पूरा घटनाक्रम साबित कर रहा है कि हमारा समाज किस तरह बाबाओं के सामने घुटनों पर बैठा हुआ है। हाल के दिनों में अदालतों की सख्ती ने इनके कुछ ढोंग खोले हैं। अदालत सख्त न होती, तो यह मामला भी शायद इस अंजाम तक तो नहीं ही पहुंचता।
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