‘कांग्रेस’ का महाभियोग सिर्फ और सिर्फ ‘आडंबर’
क्योंकि कांग्रेस के पास पर्याप्त ना ही संख्याबल है और ना ही आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी भी जज को महाभियोग प्रस्ताव से हटाया नहीं जा सका है
सुरेश गांधी
एक के बाद एक हाथ से छिनते राज्य, राज्य सभा में घटती संख्या, तरह-तरह के आरोपों के निराधार होने सहित जस्टीस लोया के नाम पर छोड़ा गया ब्रह्मास्त्र भी टाॅय-टाॅय फिस्स हो जाना, से कांग्रेस की बौखलाहट तो समझ में आती है। लेकिन कांग्रेस शायद भूल गयी कि जिस हडबड़ाहट में वह जस्टिस दीपक के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश में है उसे एकबार फिर मुंह की खानी पड़ेगी। क्योंकि उसके पास पर्याप्त संख्याबल नहीं हैं। माना कि नोटिस स्वीकार हो जाने के बाद राज्यसभा में सफल हो जायेगी। पर जब तक लोकसभा में प्रस्ताव पारित नहीं होगा, कोई फायदा नहीं हैं। मतलब साफ है कांग्रेस इस प्रस्ताव के जरिए सिर्फ और सिर्फ हौउवा खड़ा करना चाहती है कि सुप्रीम कोर्ट प्रधानमंत्री मोदी के इशारे पर चल रहा है। फिरहाल, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस एवं उसके समर्थित दलों ने महाभियोग लाने का प्रस्ताव उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू को सौंपा है। महाभियोग प्रस्ताव कांग्रेस उस वक्त लायी है जब जज लोया की मौत से जुड़े मामले में सुनवाई के दौरान जज ने पाया कि न्यायालय को गुमराह करने के मकसद से याचिका दायर की गयी है। याचिका में पर्याप्त सबूत भी नहीं हैं। इस फैसले के बाद ही कांग्रेस का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। समस्त विपक्षीजनों को एकजुट किया जाने लगा। यह अलग बात है कि उसके इस प्रस्ताव से मनमोहन सिंह, सलमान खुर्शीद सहित कई विपक्षी दलों ने भी किनारा कर लिया। वह समझते है कि उनका यह अभियान सिवाय नौटंकी के कुछ भी साबित नहीं सकता।
इसके बावजूद मोदी के विजयरथ को रोकने में लगातार असफल हो रहे राहुल गांधी कपिल सिब्बल के झांसे में आ गए। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है, क्या लगातार विफलताओं से कांग्रेस सहम गयी है? क्या अब कांग्रेस के पास सियवाय धमकी के कोई चारा नहीं बचा है? क्योंकि थक हार चुकी कांग्रेस जिस महाभियोग प्रस्ताव के सहारे मोदी को पटकनी देना चाह रही है, वह सिर्फ और सिर्फ नौटंकी से अधिक कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि कांग्रेस के पास वर्तमान में दोनो सदनों में पर्याप्त संख्या नहीं है? माना कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ आर्डर करते वक्त यह भूल गई कि सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ में मौत का मामला भारतीय विधिशास्त्र को चुनौती दे रहा है। ताकतवर लोगों के दबावों के चलते इस मामले में इंसाफ नहीं मिल पा रहा है।
न्यायमूर्ति चेलमेश्वर और पूर्व न्यायमूर्ति अभय एम थिम्से को प्रेस कांफ्रेस कर यह न कहना पड़ता कि निचली ही नहीं ऊंची अदालतों में भी भ्रष्टाचार है। देश का संविधान ऐसी स्थिति को अकल्पनीय नहीं मानता और उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के जजों पर भ्रष्ट आचरण के आरोप में महाभियोग चलाकर हटाने की व्यवस्था देता है। और फिर भ्रष्टाचार पैसो के लेनदेन तक ही सीमित नहीं होता। और भी कारण हो सकते है। जहां तक जजों के ईमानदारी का सवाल है उस पर टिप्पणी करना बिल्कुल गलत है। क्योंकि इससे न सिर्फ देश के सर्वोच्च न्यायालय पर लाखों लोगों की आस्था पर ठेस लगेगा बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी छबि धूमिल होगी। लेकिन हमें महाभारत व रामायण के प्रसंगों को भी नहीं भूलना चाहिए कि युधिष्ठिर विषम परिस्थितियों में भी झूठ नहीं बोलते थे। उन्हें इसके लिए जाना भी जाता है। लेकिन द्रोणाचार्य ने उनके ही बातों पर विश्वास कर लिया था कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। जबकि यह सच नहीं था, उनका पुत्र जीवित था। लेकिन उनके भाई अर्जुन द्वारा युद्ध जीतने के लिए युधिष्ठिर को झूठ बोलना जरुरी था। कुछ ऐसा ही सूरवीर बालि के साथ हुआ। करोड़ों लोगों के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को छुपकर बालि को मारना पड़ा।
कहा जा सकता है जज है तो संदेह नहीं करना चाहिए लेकिन ऐसी स्थिति आ ही गई तो जांच से घबराना भी नहीं चाहिए।
शायद कांग्रेस इसीलिए चार जजेज के बयानों को आधार बनाकर महाभियोग की बात कर रही है। महाभियोग स्वीकार हो या पराजित हो यह बाद की बात है लेकिन, यह नौबत ही लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट जज लोया की मृत्यु को संदेहास्पद मानता तो गंभीर किस्म का टकराव पैदा होता लेकिन, अदालत ने याचिका को खारिज करके अपने को संदेह के दायरे में ला दिया है। कोर्ट ने न सिर्फ उस याचिका को खारिज किया है बल्कि जनहित याचिका करने वालों को फटकारते हुए कठोर टिप्पणियां भी की हैं। अदालत चाहती है कि राजनीतिक विवाद को निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मंच का इस्तेमाल न किया जाए, क्योंकि उसके लिए संसद जैसी संस्था है। इसी बात को लेकर कांग्रेस नाराज भी है। लेकिन कांग्रेस भूल रही है कि जेएसआई के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश करने के लिए लोकसभा में 100 सांसदों और राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है।
हस्ताक्षर होने के बाद प्रस्ताव संसद के किसी एक सदन में पेश किया जाता है। कांग्रेस के अनुसार इसपर 71 सांसदों के साइन हैं। इनमें से 7 सांसद रिटायर हो चुके हैं। जबकि राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पास करने के लिए कुल 245 सांसदों में दो तिहाई बहुमत यानी 164 सांसदों के वोट की जरूरत होगी। यह आकड़ा सिर्फ एनडीए के पास ही है। राज्यसभा में एनडीए के पास 86 सांसद हैं। इनमें से 68 बीजेपी के सांसद हैं। यानी इस सदन में कांग्रेस समर्थित इस प्रस्ताव के पास होने की संभावना नहीं है। लोकसभा में कुल सांसदों की संख्या 545 है। दो तिहाई बहुमत के लिए 364 सांसदों के वोटों की जरूरत पड़ेगी। यहां विपक्ष बिना बीजेपी के समर्थन के ये संख्या हासिल नहीं कर सकता क्योंकि लोकसभा में अकेले बीजेपी के ही 274 सांसद हैं। इतना सबकुछ जानने, सुनने, समझने के बाद भी अगर कांग्रेस महाभियोग का प्रस्ताव उपराष्ट्रपति को सौंपा है तो इसे महानौटंकी नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या जज लोया के केस में कांग्रेस का झूठ साबित होने के बाद बदला लेने के लिए महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया गया है? या फिर जजों को डराने धमकाने की कोशिश हैै।
No comments:
Post a Comment