15 को मनेगी अमृतसिद्धि योग में मकर संक्रांति, होगा स्नान और दान पुण्य
14 जनवरी को शाम
7.51 बजे
होगा
सूर्य
का
मकर
राशि
में
प्रवेश,
15 जनवरी
को
अमृत
सिद्धि
योग
में
स्नान-दान
का
महत्व
है।
मतलब
साफ
है
इस
बार
मकर
संक्रांति
का
पर्व
काल
दो
दिन
रहेगा।
14 जनवरी
को
सूर्यदेव
शाम
7.51 बजे
धनु
को
छोड़कर
मकर
राशि
में
प्रवेश
करेंगे।
ज्योतिषियों
के
अनुसार
सूर्य
का
मकर
राशि
में
प्रवेश
अगर
सायंकाल
होता
है
तो
पर्वकाल
अगले
दिन
मनाया
जाना
चाहिए।
ऐसे
में
15 जनवरी
को
स्नान
और
दान
पुण्य
अमृतसिद्धि,
सर्वार्थसिद्धि
और
रवि
योग
में
होगा।
इस
दिन
तांबे
के
कलश
में
काली
व
सफेद
तिल्ली
भरकर
योग्य
ब्राह्मण
को
दान
दें।
सफेद
धान,
खिचड़ी,
गुड़,
वस्त्र
आदि
का
दान
देना
भी
शुभफल
दायी
माना
गया
है
सुरेश गांधी
वैसे भी
ज्योतिष गणना से
मकर संक्रांति का
पर्वकाल 15 जनवरी को मनाना
श्रेयष्कर रहेगा। इस दिन
सूर्य के राशि
परिवर्तन को उदयकाल
का स्पर्श मिलेगा।
तीर्थ स्नान व
दान-पुण्य में
उदयकालीन तिथि तथा
अमृत सिद्धि जैसा
महायोग विशेष महत्व रखता
है। इस दिन
तिल से बने
उबटन द्वारा स्नान
करने से आयु
व आरोग्य की
प्राप्ति होती है।
इस दिन दान
और स्नान का
विशेष महत्व है।
लोग इस काशी
और प्रयागराज में
स्नान कर पुण्य
प्राप्त करते हैं।
ऐसा माना जाता
है कि सूर्य
की आराधना का
विशेष पर्व मकर
संक्रांति मनाने से पापों
का शमन होता
है। मकर संक्रान्ति
में लकड़ी, तिल,
अन्न, उड़द की
दाल, चावल, पापड़,
घी, गुड़, नमक,
कम्बल, ऊनी वस्त्र
का दान करना
बहुत ही उत्तम
माना जाता है।
अगर आप पवित्र
नदियों में स्नान
करने नहीं जा
सकते तो घर
पर ही स्नान
कर सूर्य को
अर्घ्य देकर दान
कर सकते हैं।
मकर संक्रांति के
दिन गरीब लोगों
को गुड़ और
गर्म कपड़ों का
दान करना चाहिए।
मकर संक्रांति दान-पुण्य, स्नान का
पर्व मात्र नहीं
है, बल्कि यह
जीवन में परिवर्तन
लाने का भी
पर्व है। इस
दिन हमें पंचशक्ति
साधना करने का
अवसर मिलता है,
जो सम्पूर्ण वर्ष
मनोवांछित फल प्रदान
करता है। मकर
संक्रांति के दिन
गणेशजी, शिवजी,
विष्णुजी, महालक्ष्मी और सूर्य
की साधना संयुक्त
रूप से करने
का वर्णन प्राचीन
धर्मग्रंथों में विस्तार
से मिलता है।
पंचशक्ति की साधना
से ग्रहों को
अपने अनुकूल बनाने
का पर्व मकर
संक्रांति है।
मान्यता है कि
ऐसा करने से
पितर प्रसन्न होते
हैं। मकर संक्रांति
के दिन ही
गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर
कपिल मुनि के
आश्रम से होकर
सागर में जा
उनसे मिली थीं।
इसके अलावा भीष्म
पितामह ने भी
अपना देह त्यागने
के लिए मकर
संक्रांति के पावन
दिन का ही
चयन किया था।
इस बार संक्रांति
का वाहन सिंह
एवं उपवाहन गज
अर्थात हाथी होगा।
यानि मकर संक्रांति
श्वेत वस्त्र धारण
किए सिंह पर
सवार होकर प्रविष्ट
होंगी। उन्होंने स्वर्ण-पात्र
में अन्न ग्रहण
किया होगा और
कुंकुम का लेप
किए हुए उत्तर
दिशा की ओर
बढ़ती नजर आ
रही हैं। इस
परिस्थिति का 12 राशियों पर
फल अलग अलग
होगा। शास्त्रों के
अनुसार जब सूर्य
राशि परिवर्तन करता
है तो उसे
संक्रांति कहते हैं।
इसी क्रम में
जब सूर्य गोचरवश
भ्रमण करते हुए
मकर राशि में
प्रवेश करते हैं
तब वो काल
मकर-संक्रांति के
नाम से जाना
जाता है। यह
संक्रान्तियां 12 राशियों पर सूर्य
के प्रवेश के
कारण एक वर्ष
में 12 होती हैं।
मकर संक्रान्ति से
सूर्य उत्तर अयन
में प्रवेश करते
हैं इसीलिए इसे
उत्तरायण कहा जाता
है, और कर्क
संक्रान्ति को सूर्य
दक्षिण अयन में
प्रवेश करते हैं
इसीलिए इसे दक्षिणायन
कहा जाता है।
मकर की संक्रान्ति
अत्यन्त पुण्य फलदायिनी मानी
जाती है। मकर
संक्रान्ति के पुण्यकाल
अर्थात स्नान दानादि कृत्य
करने के लिए
धर्मशास्त्रीय नियम यह
है कि संक्रान्ति
जिस समय लग
रही हो उस
समय से 16 घटी
अर्थात छह घण्टे
24 मिनट पूर्व से सामान्य
पुण्यकाल प्रारम्भ होता है,
तथा संक्रान्ति जिस
समय लग रही
हो उस समय
से 16 घटी अर्थात
छह घण्टे 24 मिनट
पश्चात् तक विशेष
पुण्यकाल रहता है।
अब यहां एक
और बात ध्यान
देने योग्य है
कि संक्रान्ति के
दानादि कृत्य तभी करने
का धर्मशास्त्रीय निर्देश
है जब सूर्य
क्षितिज पर विद्यमान
हो, अर्थात दिन
हो। इस हिसाब
से मकर संक्रान्ति
का सामान्य पुण्यकाल
सोमवार को दोपहर
एक बजकर 29 मिनट
से प्रारम्भ होकर
सूर्यास्त तक रहेगा।
इस अवधि में
खिचड़ी पर्व मनाना
उपयुक्त है।
सूर्य के बिना
इस जगत में
जीवन कि कल्पना
भी नहीं की
जा सकती है।
प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करने
और सूर्य को
जल देने से
पिता का सुख
और भाग्य में
वृ्द्धि होती है।
मान्यता है कि
जब सूर्यदेव अपने
पुत्र की राशि
मकर में प्रवेश
करते हैं। जब
सूर्य की गति
उत्तरायण हो जाती
हैं। तब सूरज
की किरणों से
होने लगती है
अमृत की बरसात,
तो उस घड़ी
को कहते है
मकर संक्रांति। इसीलिए
मकर संक्रांति सूर्य
उपासना का पर्व
है। जो जीवन
की वजह है
और आधार भी।
इस मौके पर
जितना शुभ गंगा
स्नान को माना
गया है, उतना
ही शुभ इस
दिन दान को
भी माना गया
है। इस दिन
गंगा, युमना और
सरस्वती के संगम,
प्रयाग मे सभी
देवी देवता अपना
स्वरूप बदलकर स्नान के
लिए आते है।
इसलिए इस दिन
दान, तप, जप
का विशेष महत्व
है। इस दिन
गंगा स्नान करने
से सभी कष्टों
का निवारण हो
जाता है। गुड,
तिल आदि का
इसमें शामिल होना
इस बात का
संदेश देता है
कि मन के
हर बैर मिटाकर
एक-दुसरे से
मीठा बोलो। इसीलिए
इस दिन बड़े
के हाथों से
तिल-गुड़ का
प्रसाद लेना सबसे
अहम् माना जाता
है। इस दिन
ब्राहमणों को अनाज,
वस्त्र, उनी कपड़े
आदि दान करने
से शारीरिक कष्टों
से मुक्ति मिलती
है। सूर्य देवता
ज्योतिष विज्ञान और प्रकृति
दोनों के ही
आधार है। उनकी
आराधना से दैहिक,
दैविक और भौतिक
तापों का क्षय
होता है। इस
दिन चावल और
काली उड़द की
दाल से मिश्रित
खिचड़ी बनाकर खाने
व दान करने
का भी विधान
है। इसके पीछे
यह वैज्ञानिक आधार
है कि इसमें
शीत को शांत
करने की शक्ति
होती है। आकाश
में उड़ती पतंगे
भी इस पर्व
की परंपरा का
ही हिस्सा है,
जो इस बात
को बताती है
कि उंचाईयों को
छू लों। अक्षय
उर्जा के स्रोत
सूर्य मकर संक्रांति
के दिन ही
उत्तरायण होते है।
इस दिन से
प्रकृति में दिव्य
परिवर्तन की शुरुवात
होने के साथ-साथ नए
साल के प्रारंभ
में पहला बड़ा
उत्सव मनाने का
मौका के बीच
जनजीवन में वास्तविक
उल्लास का संचार
भी होता है,
जिसमें हर कोई
नई उमंगों और
उत्साह से लबरेज
होता है। मान्यता
है कि मकर
राशि के स्वामी
शनिदेव है, जो
सूर्य के पुत्र
होते हुए भी
सूर्य से शत्रु
भाव रखते है।
शनिदेव के घर
में सूर्यदेव की
उपस्थिति के दौरान
शनि उन्हें कष्ट
न दें, इसीलिए
इस दिन तिल
का दान व
सेवन किया जाता
है।
तिल-गुङ सेवन का महत्व
सूर्य के प्रवेश
करने के बाद,
अगले दो महीनो
के लिए शनि
की मकर और
कुंभ राशियों में
सूर्य के रहने
से और पिता-पुत्र में बैर
भाव स्थिति से
पृथ्वीवासीयों पर किसी
प्रकार का कुप्रभाव
न पङे, इसलिए
हमारे ऋषि-मुनियों
ने तीर्थ स्नान,
दान और धार्मिक
कर्मकांड के उपाय
सुझाए है। मकर
संक्रांति पर तिल
और गुङ से
बने लडुओं का
उपयोग करने और
उसके दान के
पीछे भी यही
मंशा है। ज्योतिष
शास्त्र के अनुसार
तेल शनि का
और गुङ सूर्य
का खाद्य पदार्थ
है। तिल तेल
की जननी है।
यही कारण है
कि शनि और
सूर्य को प्रसन्न
करने के लिए
इस दिन लोग
तिल-गुङ के
व्यंजनों का सेवन
करते है।
देवी-देवता भी करते है पृथ्वी पर स्नान
माघ मास
में सूर्य जब
मकर राशि में
होता है तब
इसका लाभ प्राप्त
करने के लिए
देवी-देवताओं आदि
पृथ्वी पर आ
जाते है। अतः
माघ मास एवं
मकरगत सूर्य जाने
पर यह दिन
दान- पुण्य के
लिए महत्वपूर्ण है।
इस दिन व्रत
रखकर, तिल, कंबल,
सर्दियों के वस्त्र,
आंवला आदि दान
करने का विधि-विधान है। देश
के कई हिस्सों
में मकर संक्रांति
के साथ तीर्थ
की शुरुआत भी
होती है। इलाहाबाद
के कुंभ में
इसी के साथ
कुंभ मेला शुरू
होता है तो
केरल में शबरीमाल।
इस दिन लोग
पवित्र नदियों में डुबकी
भी लगाते हैं।
मान्यता है कि
ऐसा करने से
सभी पाप धुल
जाते हैं।
दिन और रात की बराबर अवधि
वैज्ञानिक तरीके से
देखें तो यह
सर्दी के मौसम
के बीतने का
सूचक है। मकर
संक्रांति पर दिन
व रात बराबर
अवधि के माने
जाते हैं। इसके
बाद से दिन
लंबे और मौसम
में गर्माहट होने
लगती है। इसके
बाद कटाई या
बसंत के मौसम
का आगमन मान
लिया जाता है।
वैसे तो सूर्य
संक्रांति 12 हैं, लेकिन
इनमें से चार
संक्रांति महत्वपूर्ण हैं जिनमें
मेष, कर्क, तुला,
मकर संक्रांति हैं।
कहा जाता है
कि 14 जनवरी ऐसा
दिन है, जब
धरती पर अच्छे
दिन की शुरुआत
होती है। ऐसा
इसलिए कि सूर्य
दक्षिण के बजाय
अब उत्तर को
गमन करने लग
जाता है। जब
तक सूर्य पूर्व
से दक्षिण की
ओर गमन करता
है तब तक
उसकी किरणों का
असर खराब माना
गया है, लेकिन
जब वह पूर्व
से उत्तर की
ओर गमन करते
लगता है तब
उसकी किरणें सेहत
और शांति को
बढ़ाती हैं। देश
के ज्यादातर हिस्सों
में इसे मकर
संक्रांति कहा जाता
है। हालांकि तमिलनाडु
में इसे पोंगल,
गुजरात में उत्तरायन,
पंजाब में माघी,
असम में बीहू,
और उत्तर प्रदेश
में खिचड़ी कहते
हैं।
क्यों उड़ाई जाती है पतंग
मकर संक्रांति
का त्योहार सेहत
के लिए भी
कई तरीके से
फायदेमंद है। सुबह-सुबह पतंग
उड़ाने के बहाने
जो धूप शरीर
को लगती है,
उससे भरपूर विटामिन
डी मिलता है।
इसे त्वचा के
लिए भी बहुत
अच्छा माना जाता
है और सर्द
हवाओं से होने
वाली कई समस्याओं
को दूर करने
में भी यह
मददगार होती है।
विशेष पूजा
इस दिन
ब्रह्ममुहूर्त में नित्य
कर्म से निवृत्त
होकर शुद्ध स्थान
पर कुशासन पर
बैठें और पीले
वस्त्र का आसन
बिछाकर सवा किलो
चावल और उड़द
की दाल का
मिश्रण कर पीले
वस्त्र के आसन
पर सम भाव
से पांच ढेरी
रखें। फिर दाहिने
क्रम से पंचशक्तियों
की मूर्ति, चित्र
या यंत्र को
ढेरी के ऊपर
स्थापित कर सुगंधित
धूप और दीपक
प्रज्ज्वलित करें। इसके बाद
एकाग्रचित हो एक-एक शक्ति
का स्मरण कर
चंदन, अक्षत, पुष्प,
नैवेद्य, फल अर्पित
कर पंचोकार विधि
से पूजन सम्पन्न
करें। आम की
लकड़ी हवन कुंड
में प्रज्ज्वलित कर
शक्ति मंत्र की
108 आहुति अग्नि को समर्पित
कर पुनरू एक
माला मंत्र जाप
करें। वेद, पुराण
के मतानुसार यदि
किसी भी देवी-देवता की साधना
में उस शक्ति
के गायत्री मंत्र
का प्रयोग किया
जाए तो सर्वाधिक
फलित माना जाता
है। इसलिए पंचशक्ति
साधना में इसका
प्रयोग करना चाहिए।
श्री गणेश
गायत्री मंत्र- ऊं तत्पुरुषाय
विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो
दन्ति प्रचोदयात!
श्री
शिव गायत्री मंत्र-
ऊं महादेवाय विद्महे
रुद्रमूर्तये धीमहि तन्नो शिव
प्रचोदयात!
श्री
विष्णु गायत्री मंत्र- ऊं
श्री विष्णवे च
विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो
विष्णुः प्रचोदयात!
महालक्ष्मी
गायत्री मंत्र- ऊं महालक्ष्मयै
च विद्महे विष्णु
पत्न्यै च धीमहि
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात!
सूर्य
गायत्री मंत्र- ऊं भास्कराय
विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नो
सूर्य प्रचोदयात!
मकर
संक्रांति के बाद
शुरू होंगे विवाह
मुहूर्त
15 दिसंबर से मलमास
शुरू होने के
कारण विवाह मुहूर्त
में विराम लग
गया था, जो
मकर संक्रांति के
बाद फिर से
शुरू होगा। मकर
संक्रांति के दिन
भी विवाह सहित
अन्य शुभ कार्य
किया जा सकेगा।
जनवरी-फरवरी में
विवाह के लिए
अनेक शुभ मुहूर्त
हंै। जो मई
तक रहेगा। इस
दौरान शादियां भी
अधिक होगी।
पुत्र शनि से मिलते हैं भगवान भास्कर
चूंकि मकर राशि
के स्वामी शनि
देव है जो
सूर्य के ही
पुत्र हैं अतः
ऐसी मान्यता है
कि इस दिन
भगवान भास्कर अपने
पुत्र शनि से
मिलने स्वयं उसके
घर जाते हैं।
इस पर्व का
प्राचीन काल से
ही काफी महत्व
माना गया है।
कहते हैं कि
महाभारत के युद्ध
के पश्चात भीष्म
पितामह ने अपनी
देह त्यागने के
लिये मकर संक्रान्ति
का ही चयन
किया था। मकर
संक्रान्ति के दिन
ही भगीरथ माता
गंगा को कपिल
मुनि के आश्रम
के मार्ग से
सागर तक लाए
थे। खगोल गणनाओं
के सूर्य इस
काल में उत्तर
की ओर यात्रा
करते हैं, और
ऐसी मान्यता है
कि जब तक
सूर्य पूर्व से
दक्षिण की ओर
चलते हैं उनकी
किरणों का प्रभाव
हानिकारक होता है,
लेकिन जब पूर्व
से उत्तर की
ओर गमन करने
लगते है, तब
उसकी किरणें सेहत
और शांति को
बढ़ाती हैं। इस
वजह से साधु,
संतों और आध्यात्मिक
क्रियाओं से जुड़े
व्यक्तियों को शांति
और सिद्धि प्राप्त
होती है।
महाकुंभ
अमृत की
खींचा तानी के
समय चन्द्रमा ने
अमृत को बहने
से बचाया। गुरू
ने कलश को
छुपा कर रखा।
सूर्य देव ने
कलश को फूटने
से बचाया और
शनि ने इन्द्र
के कोप से
रक्षा की। इसलिए
जब इन ग्रहों
का संयोग एक
राशि में होता
है तब कुंभ
का अयोजन होता
है। क्योंकि इन
चार ग्रहों के
सहयोग से अमृत
की रक्षा हुई
थी। गुरू एक
राशि लगभग एक
वर्ष रहता है।
इस तरह बारह
राशि में भ्रमण
करते हुए उसे
12 वर्ष का समय
लगता है। इसलिए
हर बारह साल
बाद फिर उसी
स्थान पर कुंभ
का आयोजन होता
है। लेकिन कुंभ
के लिए निर्धारित
चार स्थानों में
अलग-अलग स्थान
पर हर तीसरे
वर्ष कुंभ का
अयोजन होता है।
कुंभ के लिए
निर्धारित चारों स्थानों में
प्रयाग के कुंभ
का विशेष महत्व
है। हर 144 वर्ष
बाद यहां महाकुंभ
का आयोजन होता
है। शास्त्रों में
बताया गया है
कि पृथ्वी का
एक वर्ष देवताओं
का दिन होता
है, इसलिए हर
बारह वर्ष पर
एक स्थान पर
पुनः कुंभ का
आयोजन होता है।
देवताओं का बारह
वर्ष पृथ्वी लोक
के 144 वर्ष के
बाद आता है।
ऐसी मान्यता है
कि 144 वर्ष के
बाद स्वर्ग में
भी कुंभ का
आयोजन होता है
इसलिए उस वर्ष
पृथ्वी पर महाकुंभ
का अयोजन होता
है। महाकुंभ के
लिए निर्धारित स्थान
प्रयाग को माना
गया है। इलाहाबाद
का उल्लेख भारत
के धार्मिक ग्रन्थों
वेद, पुराण, रामायण
और महाभारत में
भी मिलता है।
गंगा, यमुना और
सरस्वती नदियों का यहाँ
संगम होता है,
इसलिए हिन्दुओं के
लिए इस शहर
का विशेष महत्त्व
है। शास्त्रों के
अनुसार दक्षिणायन को देवताओं
की रात्रि अर्थात
नकारात्मकता का प्रतीक
तथा उत्तरायण को
देवताओं का दिन
अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक
माना गया है।
इसलिए इस दिन
जप, तप, दान,
स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि
धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष
महत्व है। इस
तिथि का एक
अन्य रूप में
भी महत्व बढ
जाता है क्योंकि
इस तिथि को
खरमास समाप्त होता
है और शुभ
मास शुरू होता
है। मकर संक्रान्ति
के दिन पितरों
की मुक्ति के
लिए तिल से
श्राद्ध करना चाहिए।
एक मान्यता यह
भी है कि
इस तिथि को
ही स्वर्ग से
गंगा की अमृत
धारा धरती पर
उतरी थी। शनि
देव मकर राशि
के स्वामी हैं
और इस तिथि
को सूर्य मकर
राशि में प्रवेश
करते हैं, अतरू
यह भी कहा
जाता है कि
सूर्य अपने पुत्र
शनि देव से
मिलने उनके घर
जाते हैं।
पूरे वर्ष
में केवल एक
दिन मकर संक्रांति
के दिन ही
गंगासागर में पुण्य
महास्नान की परंपरा
है। संभवतः इसीलिए
कहा जाता है
सारे तीर्थ बार-बार गंगा
सागर एक बार।
इस दिन गंगासागर
महातीर्थ स्थल में
बदल जाता है।
देश के कोने-कोने से
विभिन्न परंपराओं, भाषाओं, संस्कारों
व संप्रदायों के
लोग गंगासागर पहुंचते
हैं। इनमें बिहार,
मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश
के श्रद्धालुओं के
साथ-साथ देश
के सुदूर पश्चिम
में स्थित राजस्थान
व गुजरात के
लोग भी शामिल
होते है। झुंड
में चल रहे
गृहस्थों के अलग
विभिन्न परंपराओं व संप्रदायों
के साधु-संयासियों
का जत्था भी
होता है। इसमें
मोबाइल बाबा, होंडा बाबा,
लक्खड़ बाबा से
लेकर नागा बाबाओं
का झुंड शामिल
होता है, जिनके
अलग-अलग अनुशासन
व पंत होते
है, लेकिन विविध-विविध स्वरुप, रंग-रुप, भाषा
और विश्वास के
बावजूद सभी का
एक ही उद्देश्य
होता है, वह
है पतित पावनी
गंगासागर में मिलनस्थल
का संगमस्थल मोक्षदायिनी
गंगासागर में स्नान
करना। गंगासागर प्राचीन
काल से ही
कपिलमुनि के साधनास्थल
के रुप में
विख्यात है। कपिलमुनि
आश्रम एवं गंगासागर
तीर्थस्थल को सन्यासियों
एवं धार्मिक आस्था
के लोगों के
लिए महापीठ माना
गया है। इस
स्थल पर ही
राजा सागर के
60 हजार पुत्र भस्मिभूत हुए
थे। बाद में
राजा भगीरथ ने
अपने पूर्वजों के
उद्धार के लिए
कठोर तपस्या की।
उन्हीं की तपस्या
से प्रसंन होकर
मां गंगा उनके
पीछे-पीछे धरती
पर अवतरित हुई।
मां गंगा के
निर्मल जल से
ही सागर के
60 हजार पुत्रों को मोक्ष
की प्राप्ति हुई।
शास्त्रों में उल्लेख
है कि गंगा
देवी चर्तुदश भुवन
को पवित्र कर
सकती है। गंगा
सभी तीर्थो की
जननी है। सभी
तीर्थ स्नान और
तीर्थस्थल भ्रमण से जो
पुण्य लाभ प्राप्त
होता है वह
सभी लाभ एकमात्र
गंगासागर स्नान से ही
प्राप्त इहो जाता
है। गंगासागर द्वीप
का प्रमुख आकर्षण
महर्षि कपिलमुनि का मंदिर
है। हालांक कपिलमुनि
के आश्रम का
जिक्र विभिन्न ऐतिहासिक
व पौराणिक ग्रंथों
में मिलता है
लेकिन 197 में समुद्र
से एक किमी
दूर मंदिर के
सेवायत श्रीमद पंच रामानंदी
निर्वाणी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी अयोध्या
के महंतों द्वारा
वर्तमान मंदिर का निर्माण
कराया गया है।
मंदिर में 6 शिलाओं
पर 6 मूर्तियां है।
ये मूर्तियां लक्ष्मी,
घोड़े को पकड़े
राजा इंद्र, गंगा,
कपिलमुनि, राजा सागर
और हनुमान जी
की है।
No comments:
Post a Comment