‘काशी’
में भक्तों संग ‘बाबा विश्वनाथ’ खेलते है ‘होली’
वैसे भी
देवभूमि काशी को
देवो के देव
महादेव यानी बाबा
विश्वनाथ ने स्वयं
सांस्कारिक मानव कल्याण
के लिए ब्रह्मा
की सृष्टि से
बिल्कुल अलग बसाया।
कहते है श्रृष्टि
के तीनों गुण
सत, रज और
तम इसी नगरी
में समाहित है।
तभी तो यहां
यमराज का दंडविधान
नहीं, बल्कि बाबा
विश्वनाथ के ही
अंश बाबा कालभैरव
का दंडविधान चलता
है। और यहां
धार्मिक संस्कारों का पालन
करने वाला हर
प्राणी मृत्युपरांत मोक्ष को
प्राप्त करता है।
इससे बड़ी बात
और क्या हो
सकती है कि
महादेव न सिर्फ
अपने पूरे कुनबे
के साथ काशी
में वास किया
बल्कि हर उत्सवों
में यहां के
लोगों के साथ
महादेव ने बराबर
की हिस्सेदारी की।
खासकर उनके द्वारा
फाल्गुन में भक्तों
संग खेली गयी
होली की परंपरा
आज भी जीवंत
करने की न
सिर्फ कोशिश बल्कि
काशी के लोगों
द्वारा डमरुओं की गूंज
और हर हर
महादेव के नारों
के बीच एक-दूसरे को भस्म
लगाने परंपरा हैं
सुरेश गांधी
दरअसल, मोक्ष की
नगरी काशी की
होली अन्य जगहों
से इतर बिलकुल
अद्भूत, अकल्पनीय व बेमिसाल
है। यहां श्मशान
में होली खेलने
की खास परंपरा
सालो साल से
चली आ रही
है। जहां रंग-गुलाल लगाकर मणिकर्णिका
घाट पर लोग
चिताओं की भस्म
से होली खेलते
हैं। होली फाल्गुन
शुक्ल-एकादशी के
दिन काशी में
भगवान विश्वनाथ का
विशेष श्रृंगार किया
जाता है। इस
एकादशी का नाम
आमलकी (आंवला) एकादशी भी
है। यह दिन
इस बार 17 मार्च
रविवार को है।
इस दिन बाबा
विश्वनाथ की पालकी
निकलती है। लोग
उनके साथ रंगों
का त्योहर मनाते
है। ऐसी मान्यता
है कि बाबा
उस दिन पार्वती
का गौना कराकर
दरबार लौटते है।
दुसरे दिन शंकर
अपने औघड़ रुप
में श्मशान घाट
पर जलती चिताओं
के बीच चिता-भस्म की
होली खेलते है।
डमरुओं की गूंज
और हर-हर
महादेव के जयकारे
व अक्खड़, अल्हड़भांग,
पान और ठंडाई
की जुगलबंदी के
साथ अल्हड़ मस्ती
और हुल्लड़बाजी के
बीच एक-दुसरे
को मणिकर्णिका घाट
का भस्म लगाते
है, तो यह
दृश्य देखने लायक
होता है।
धारणा यह है
कि भगवान भोलेनाथ
तारक का मंत्र
देकर सबकों को
तारते है। लोगों
की आस्था है
कि मशाननाथ रंगभरी
एकादशी के एक
दिन बाद खुद
भक्तों के साथ
होली खेलते है।
तभी तो यहां
की चिताएं कभी
नहीं बुझतीं। मृत्यु
के बाद जो
भी मणिकर्णिका घाट
पर दाह संस्कार
के लिए आते
हैं, बाबा उन्हें
मुक्ति देते हैं।
यही नहीं, इस
दिन बाबा उनके
साथ होली भी
खेलते हैं। कहा
यहां तक जाता
है कि काशी
का कंकड़-कंकड़
शिव है। काशी
के हर व्यक्ति
से शिव का
सीधा संबंध है।
कुछ लोग शिव
को मित्र मानते
है, कुछ जगदंबा
भाव से पूजते
है। नारिया वत्सलता
उड़ेलती है। कुछ
शिव को मालिक
तो अपने को
दास मानते हैं।
इसके पीछे यह
भाव निहित है
कि यहां प्राण
छोड़ने वाला हर
व्यक्ति शिवत्व को प्राप्त
होता है। हर
व्यक्ति सुंदर की खोज
और आनंनद में
लीन रहता है।
तभी तो बड़े-बुढ़े आर्शीवाद
देते है तो
कहते है, मस्त
रह और मस्त
कर। लोग यहां
जितना लूटकर प्रसंन
होते है, उतना
काशी का व्यक्ति
लुटाकर प्रसंन होता है।
श्रृष्टि के तीनों
गुण सत, रज
और तम इसी
नगरी में समाहित
हैं। बाबा विश्वनाथ
की नगरी में
यह फाल्गुनी बयार
भारतीय संस्कृति का दीदार
कराती है। काशी
में बुढ़वा मंगल
मनाया ही इसीलिए
जाता है क्योंकि
जवानी की परिपक्वता
ही बुढ़वा मंगल
है।
संकरी गलियों से
होली की सुरीली
धुन या चौक-चौराहों के होली
मिलन समारोह बेजोड़
हैं। इस अनोखी
होली का नजारा
देखने और कैमरे
में कैद करने
के लिए हर
साल कई विदेशी
सैलानी भी यहां
आते हैं। मान्यता
के अनुसार, यहां
रंगभरी एकादशी के अगले
दिन भस्म की
होली खेली जाती
है। यह परंपरा
कब शुरू हुई?
इसका सही उत्तर
किसी के पास
नहीं है, क्योंकि
यह परंपरा कई
सदियों से चली
आ रही है।
स्नान के बाद
वे पिशाच, भूत,
सर्प सहित सभी
जीवों के साथ
होली का उत्सव
मनाते हैं। मणिकर्णिका
घाट पर होली
खेलने की तैयारियां
महाशिवरात्रि के समय
से ही प्रारंभ
हो जाती हैं।
इसके लिए चिताओं
से भस्म अच्छी
तरह से छानकर
इकट्ठी की जाती
है। इस बार
भी 17 मार्च से
वाराणसी में रंग
खेलने का सिलसिला
आरंभ हो जायेगा,
जो लगातार 6 दिन
तक चलेगा। होली
से एक दिन
पहले शाम को
होलिका दहन किया
जाता है। यही
वजह है कि
यहां होली की
छटा देखते ही
बनती है। काशी
का यह भाव
भौगोलिक नहीं ऐतिहासिक
है। बाबा काशीवासियों
के लिए अनंत
है, इसीलिए अनादि
भी है। इस
पावन दिन पर
बाबा की चल
प्रतिमा का दर्शन
भी श्रद्धालुओं को
होता है। बाबा
के दर्शन को
पांच फुट की
संकरी गलियों में
हजारों श्रद्धालुओं का सैलाब
उमड़ पड़ता है।
हर भक्त के
मन में बस
यही रहता है
कि रंग भरी
एकादशी के दिन
बाबा विश्वनाथ के
साथ होली खेली
जाए।
पौराणिक मान्यताओं के
मुताबिक, महाश्मशान ही वो
स्थान है, जहां
कई वर्षों की
तपस्या के बाद
महादेव ने भगवान
विष्णु को संसार
के संचालन का
वरदान दिया था।
काशी के मणिकर्णिका
घाट पर शिव
ने मोक्ष प्रदान
करने की प्रतिज्ञा
ली थी। काशी
दुनिया की एक
मात्र ऐसी नगरी
है जहां मनुष्य
की मृत्यु को
भी मंगल माना
जाता है। मृत्यु
को लोग उत्सव
की तरह मनाते
है। मय्यत को
ढोल नगाडो के
साथ श्मशान तक
पहुंचाते है। मान्यता
है कि रंगभरी
एकादशी एकादशी के दिन
माता पार्वती का
गौना कराने बाद
देवगण एवं भक्तों
के साथ बाबा
होली खेलते हैं।
लेकिन भूत-प्रेत,
पिशाच आदि जीव-जंतु उनके
साथ नहीं खेल
पाते हैं। इसीलिए
अगले दिन बाबा
मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान
करने आते हैं
और अपने गणों
के साथ चीता
भस्म से होली
खेलते हैं। नेग
में काशीवासियों को
होली और हुड़दंग
की अनुमति दे
जाते हैं। कहते
है साल में
एक बार होलिका
दहन होता है,
लेकिन महाकाल स्वरूप
भगवान भोलेनाथ की
रोज होली होती
है। काशी के
मणिकर्णिका घाट सहित
प्रत्येक श्मशान घाट पर
होने वाला नरमेध
यज्ञ रूप होलिका
दहन ही उनका
अप्रतिम विलास है।
दुल्हा बनते है भोलेनाथ
रंगभरी एकादशी के
दिन बाबा विश्वनाथ
के दरबार से
शुरु होने वाली
होली का यह
सिलसिला बुढ़वा मंगल तक
चलता है। जिस
वक्त काशी के
मुकीमगंज से बैंड-बाजे के
साथ औघड़दानी बाबा
की बारात निकलती
है, नियत स्थान
पर पहुंचकर महिलाएं
परंपरागत ढंग से
दूल्हे का परछन
करती हैं। मंडप
सजता है, जिसमें
दुल्हन आती है,
फिर शुरू होती
है वर-वधू
के बीच बहस
और दुल्हन के
शादी से इंकार
करने पर बारात
रात में लौट
जाती है। जोगीरा
सारा .. रा .. रा .. रा
.. रा ... की हुंकार
बनारस की होली
का अलग अंदाज
दरसाता है।
पर्यटको को भाती है अड़भंगी रुप
भावों से ही
प्रसन्न हो जाने
वाले औघड़दानी की
इस लीला को
हर साल पूरी
की जाती है।
इस रस्म की
उमंग घंटों देसी-विदेशी पर्यटकों को
लुभाती है। अबीर
गुलाल से भी
चटख चिता भस्म
की फाग के
बीच वाद्य यंत्रों
व ध्वनि विस्तारकों
पर गूंजते भजन
माहौल में एक
अलग ही छटा
बिखेरती है। जिससे
इस घड़ी मौजूद
हर प्राणी भगवान
शिव के रंग
में रंग जाता
है। इस अलौकिक
बृहंगम दृष्य को अपनी
नजरों में कैद
करने के लिए
गंगा घाटों पर
देश-विदेश के
हजारों-लाखों सैलानी जुटते
हैं।
रंगीन होता मिजाज
यहां की
खास मटका फोड़
होली और हुरियारों
के ऊर्जामय लोकगीत
हर किसी को
अपने रंग में
ढाल लेते हैं।
फाग के रंग
और सुबह-ए-बनारस का प्रगाढ़
रिश्ता यहां की
विविधताओं का अहसास
कराता है। गुझिया,
मालपुए, जलेबी और विविध
मिठाइयों, नमकीनों की खुशबू
के बीच रसभरी
अक्खड़ मिजाजी और
किसी को रंगे
बिना नहीं छोड़ने
वाली बनारस की
होली नायाब है।
जोगीरा की पुकार
पर आसपास के
हुरियारे वाह-वाही
लगाए बिना नहीं
रह सकते और
यही विशेषता अल्हड़
मस्ती दर्शाती है।
इसके अलावा रंग
बरसे भींगे चुनर
वाली, रंग बरसे.
और होली खेले
रघुबीरा अवध में
होली खेले रघुबीरा
जैसे गीतों की
धुनें भी भांग
और ठंडाई से
सराबोर पूरे बनारस
ही झूमा देती
हैं। गंगा घाटों
पर मस्ती का
यह आलम रहता
है कि विदेशी
पर्यटक भी अपने
को नहीं रोक
पाते और रंगों
में सराबोर हो
ठुमके लगाते हैं।
भांग और ठंडाई
भांग और
ठंडाई के बिना
बनारसी होली की
कल्पना भी नहीं
कर सकते। माना
जाता है कि
काशी की हवा
में ही भांग
घुली हुई है।
उसकी वजह है
कि बनारसी फक्कड़पन
जिस मिजाज को
दर्शाता है वह
यदि बनावट में
कोई पाना चाहे
तो उसे भांग
की बूटी गटकनी
पड़ेगी। आप भांग
का सेवन करते
हों या न
करते हों, भांग
के बारे में
जानते हों या
न जानते हों,
यदि आप काशी
में हैं तो
इसके प्रभाव से
बच नहीं सकते।
है।दरअसल, गंगा स्नान,
बाबा का ध्यान,
शुद्ध जलपान और
स्वादिष्ट पान के
साथ बनारस की
एक अलग पहचान
है भांग। यही
वजह है कि
यहां भांग को
शिवजी का प्रसाद
मानते हैं, जिसका
रंग जमाने में
अहम रोल होता
है। होली पर
यहां भांग का
खास इंतजाम करते
हैं। तमाम वेरायटीज
की ठंडाई घोटी
जाती है, जिनमें
केसर, पिस्ता, बादाम,
मघई पान, गुलाब,
चमेली, भांग की
ठंडाई काफी प्रसिद्ध
है। कई जगह
ठंडाई के साथ
भांग के पकौडे
बतौर स्नैक्स इस्तेमाल
करते हैं, जो
लाजवाब होते हैं।
भांग और ठंडाई
की मिठास और
ढोल-नगाड़ों की
थाप पर जब
काशी वासी मस्त
होकर गाते हैं,
तो उनके आसपास
का मौजूद कोई
भी शख्स शामिल
हुए बिना नहीं
रह सकता। खासकर
भांग वाली ठंडई
लोगों को बेहद
लुभाती है। पांचों
मगज के मिश्रण
से तैयार दिल
व दिमाग को
दुरुस्त रखने वाली
इस ठंडई में
खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा
के बीज, गुलकंद,
बादाम, काजू, काली मिर्च,
सौंफ, पिस्ता और
शुद्ध दूध का
होना ही पौष्टिक
होने का संकेत
है। आयुर्वेद के
अनुसार यह पेट
और दिमाग के
लिए अच्छी है।
गर्मी में इसका
सेवन काफी लाभकारी
होता है। यही
वजह है कि
पांचों मगज ठंडई
की मांग बढ़ती
जा रही है।
खासतौर पर होली
पर ठंडई घर-घर बनती
और बंटती भी
है। बच्चे हों
या बूढ़े, सभी
इसका आनंद उठाते
हैं।
विधवाएं भी खेलती है होली
बनारस में सदियों
पुरानी परंपरा को बदलने
और एकांकी जीवन
व्यतीत कर रहीं
विधवाओं को समाज
की मुख्यधारा में
लाने की दिशा
में पिछले साल
से अनोखी पहल
की गयी। इनके
बेरंग जीवन में
रंगों का निखार
दिखा। उम्र की
दीवार को ढहाती
सफेद साड़ी में
लिपटी इन महिलाओं
के चेहरे के
भाव बता रहे
थे कि यह
अवसर अरसे बाद
मिला है जिसे
वह जीभर कर
के जीना चाहती
हैं। वृद्ध-विधवाएं
एक-दूसरे पर
अबीर-गुलाल की
बरसात करती है।
होली की गीतों
पर थिरकती ये
निराश्रित महिलाएं देर तक
फूलों की बरसात
करती है। ‘हरे
कृष्ण गोविंद हरे
मुरारी, हे नाथ
नारायण वासुदेवा’ जैसे भक्ति
बोल आश्रय सदन
में देर तक
गूंजते हैं।
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