भीड़ की हिंसा पर कब तक फ़र्क करेगा हिंदुस्तान?

सुरेश गांधी

उपद्रवी तत्व मौके
का फायदा उठाकर
समाज को भड़काने
का भी काम
कर रहे हैं।
झारखंड का मामला
अभी थमा भी
नहीं कि हुगली,
आसनसोल, उज्जैन में उपद्रवियों
ने नयी साजिश
के तहत कई
लोगों को भीड़
हिंसा का शिकार
बना डाली। ताजा
मामला हुगली में
छात्र नेताओं द्वारा
एक प्रोफेसर की
जमकर पिटाई कर
दी। अब वहां
बवेला खड़ा हो
गया है। एवार्ड
वापसी गैंग इसे
मॉब लीचिंग नहीं
मानता उसे मॉब
लीचिंग वहीं दिखता
है जहां कोई
मुस्लिम मारा जाता
है। अब इन्हें
कौन बताएं ि
कइस तरह के
मामलों में राजनीति
करने से हालात
नहीं सुधर सकते।
सही -गलत में उन्हें
फर्क करना ही
होगा। उन्हें इस
तरह की घटनाओं
के तह तक
जाना ही होगा।
घटना के असल
वजहों को समझना
होगा और उसके
निस्तारण की पहल
करनी होगी, ना
कि वोट बैंक
की खातिर हो
हल्ला मचाने से।
क्यों कि पश्चिम
बंगाल के हुगली
में कथित रूप
से ‘जय ममता’’ और ‘तृणमूल जिंदाबाद’ के नारे
लगाने को लेकर,
छात्रों के दो
गुटों में हुए
झगड़े में बीच
बचाव कराने के
दौरान जिस तरह
प्रोफेसर की पिटाई
हुई है वह
साजिश की ही
एक पार्ट है।
ऐसे में बड़ा
सवाल तो यही
है क्या कानून
की जगह हथियार
से होगा मॉब
लिंचिंग का मुकाबला
या माहौल बिगाड़ने
की है साजिश?

सच्चाई यह है
कि लोकतंत्र में
भीड़तंत्र की इज़ाज़त
नहीं दी जा
सकती, कानून तोड़ने
वालों के लिए
सजा का प्रावधान
है, लेकिन हथियार
रखने की वकालत
कर भीड़ को
उकसाने से क्या
कानून नहीं टूटेगा।
9 जुलाई को संसद
में बीएसपी सांसद
दानिश अली ने
मॉब लिंचिंग के
खिलाफ कानून बनाने
की मांग उठाई।
कहा जा सकता
है जिस तरहसे
एक के बाद
वाकये हो रहे
है उसे देखते
हुए कानून बनना
ही चाहिए। लेकिन
क्या मॉ़ब लिंचिंग
के खिलाफ हथियार
रखने के लिए
उकसाना कत्तई सही नहीं
है। क्योंकि ये
हिंसा का जवाब
हिंसा से देने
जैसा ही होगा।
इससे देश में
गन कल्चर को
बढ़ावा मिलेगा। हमें
यह नहीं भूलना
चाहिए ि कइस
तरह की घटनाएं
सिर्फ मुस्लिम के
खिलाफ नहीं होता,
कई हिन्दू भी
इसके शिकार होते
है। जिस दिन
राजस्थान के अलवर
में गो तस्करी
के आरोपी रकबर
की मौत हुई,
उसी दिन राजस्थान
के बाड़मेर जिले
में मुसलमानों ने
लिंचिंग कर एक
दलित युवक की
हत्या कर दी
गयी थी। इसे
भी लोगो को
समझना होगा। लेकिन
देश भर में
मुसलमानों की करतूतों
को जानबूझ कर
दबाने का प्रयास
किया जाता है
और जहां मुस्लिम
मारा जाता है
एवार्ड वापसी गैंग हाय
तौबा करने लगती
है। बाड़मेर ही
क्यों पश्चिम बंगाल
के जुरानपुर में
एक हिंदू परिवार
के तीन सदस्यों
की मुसलमान जिहादियों
द्वारा की गई
हत्या की गयी।
यह मीडिया की
सुर्खियां नहीं बन
सका। महाराष्ट्र में
17 साल के युवक
को हिंदू होने
की वजह से
मुसलमानों द्वारा जला दिया
गया। ऐसे निर्दोष
हिंदुओं की हत्या
करने की घटनाओं
की सूची काफी
लंबी है। लेकिन
एवार्ड वापसी गैंग तब
शांत रहता है।
यह दोगलापन आखिर
कब तक चलेगा।

संसद के
दोनों सदनों में
गृह मंत्री राजनाथ
सिंह ने सरकार
द्वारा सख्त क़दम
उठाने का आश्वासन
देते हुए कहा
कि अगर ज़रूरत
हुई तो ऐसी
घटनाओं को रोकने
के लिए क़ानून
भी बनाया जाएगा।
बेशक, कानून बनना
ही चाहिए। क्योंकि
उच्चतम न्यायालय के फैसले
के बावजूद देश
में पीट-पीटकर
हत्या करने की
घटनाएं हो रही
हैं। इस हिंसा
के शिकार समाज
के कमजोर तबके
हो रहे हैं।
लेकिन हमें जानना
होगा कि आपराधिक
न्याय व्यवस्था में
सुधार के बिना
किसी कानून की
सफलता सीमित ही
रहेगी। जिस देश
में औसतन सिर्फ
45 प्रतिशत आरोपितों को ही
अदालतों से सजा
मिल पाती हो
वहां अपराधियों का
मनोबल बढ़ना ही
है। क्रिमिनल जस्टिस
सिस्टम को सुधारने
के लिए सर्वाधिक
जरूरत इस बात
की है कि
सजाओं का प्रतिशत
बढ़ाने के कारगर
उपाय तत्काल किए
जाएं। अमेरिका की
93 प्रतिशत और जापान
की 98 प्रतिशत सजा
दर को थोड़ी
देर के लिए
छोड़ भी दें
तो अपने ही
देश के विभिन्न
राज्यों में सजा
दर में भारी
अंतर क्यों है?
क्यों केरल में
सजा दर 77 है
तो बिहार और
बंगाल में क्रमशः
10 और 11? क्या इन
आंकड़ों का तुलनात्मक
अध्ययन करके हमारे
शासकों ने कोई
सबक सीखने की
कभी कोशिश की
है? इसी देश
की विभिन्न जांच
एजेंसियों के मामलों
में भी सजा
दर में भारी
अंतर है? देश
के कई इलाकों
में कई बार
चोरी, प्रेम प्रसंग
और गलत ड्राइविंग
के आरोप में
पकड़े गए लोगों
की हत्या इसलिए
भी कर दी
जाती है कि
हत्यारों को लगता
है कि यदि
गिरफ्त में आए
लोगों को छोड़
देंगे तो कानूनी
प्रक्रिया के जरिये
उन्हें सजा मिलना
बहुत मुश्किल है।
जिस देश में
55 प्रतिशत आरोपित अदालतों से
छूट जाते हैं
उनमें से वे
भी हो सकते
हैं जो भीड़
की हिंसा का
शिकार बनते हैं।
अगर भीड़ की
हिंसा में शामिल
लोगों में यह
भय व्याप्त हो
जाए कि इस
अपराध के कारण
वे सजा से
बच नहीं सकते
तो वैसा कृत्य
करने से पहले
सौ बार सोचेंगे,
लेकिन इसके लिए
यह जरूरी है
कि बड़ी शक्तियां
उन्हें सजा से
बचाने की कोशिश
न करें। यदि
भीड़ द्वारा किसी
की हत्या के
पीछे कोई सांप्रदायिक
या जातीय भावना
नहीं है तो
फिर ऐसे मामलों
में वैसी भावना
प्रतिरोपित करके राजनीतिक
लाभ उठाने से
बचा जाना चाहिए,
नहीं तो सांप्रदायिक
एवं जातीय आधार
पर अपराधियों को
बचाने वाले भी
पैदा हो जाएंगे।
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