भीड़ की हिंसा पर कब तक फ़र्क करेगा हिंदुस्तान?
ये खूनी
भीड़ का इंसाफ
है। न पुलिस,
न अदालत, बस
ऑन स्पॉट सजा।
देश का कोई
कोना नहीं बचा
है, जहां से
हर दिन मॉब
लिंचिंग की कोई
न कोई घटना
सामने न आती
हो। कहीं गाय
के नाम पर
हिंसा, कहीं बच्चा
चोरी की अफवाह
पर हिंसा तो
कहीं चोरी की
अफवाह पर गुंडागर्दी।
तो कहीं छेड़खानी
व बलातकार जैसी
वाकये के आरोपी
की पिटाई। ऐसे
में बड़ा सवाल
तो यही है
क्या कानून की
जगह हथियार से
होगा मॉब लिंचिंग
का मुकाबला या
माहौल बिगाड़ने की
है साजिश?
सुरेश गांधी
हो जो
भी हकीकत तो
यही है कि
देश की कानून
व्यवस्था लचर है।
कहीं इंसाफ मांगते
फरियादी को मुजरिम
बना दिया जा
रहा है तो
कहीं इंसाफ के
लिए न्यायालय का
चक्कर लगाते लगाते
लोग कंगाल हो
जा रहे है,
पर न्याय नहीं
होता। लोगों का
धैर्य टूटता जा
रहा है और
इसी का फायदा
राजनीतिक पार्टियां उठा रही
है। खास बात
यह है कि
ये पार्टियां बात
उसी की करेंगे,
जो उन्हें सूट
करेगी। जगह जगह
मॉब लीचिंग की
बढ़ती घटनाओं के
बीच एक बार
फिर एवार्ड वापसी
गैंग सक्रिय हो
गयी है। भीड़
की हिंसा के
खिलाफ देश में
फिर से आवाज
उठी है। तथाकथित
बुद्धिजीवियों ने पीएम
मोदी को चिट्ठी
लिखकर शिकायत की
थी कि जयश्रीराम
का नारा उकसाने
वाला, भड़काने वाला
नारा बन गया
है। जय श्री
राम के नारे
का विवाद बंगाल
में ममता और
बीजेपी के खिलाफ
शुरू हुआ था।
फिर धीरे धीरे
कई राज्यों में,
कई शहरों में
अपराध का कारण
बन गया। इन
घटनाओं को मोदी
के विरोध और
मोदी के समर्थन
से जोडकर देखा
जा रहा है।
लेकिन यह भीड़
की हिंसा सिर्फ
धर्म के नाम
पर नहीं हो
रही है, बल्कि
अपराध, आपसी रंजिश
या जरा-जरा
सी बात पर
भीड़ आपा खो
रही है।
उपद्रवी तत्व मौके
का फायदा उठाकर
समाज को भड़काने
का भी काम
कर रहे हैं।
झारखंड का मामला
अभी थमा भी
नहीं कि हुगली,
आसनसोल, उज्जैन में उपद्रवियों
ने नयी साजिश
के तहत कई
लोगों को भीड़
हिंसा का शिकार
बना डाली। ताजा
मामला हुगली में
छात्र नेताओं द्वारा
एक प्रोफेसर की
जमकर पिटाई कर
दी। अब वहां
बवेला खड़ा हो
गया है। एवार्ड
वापसी गैंग इसे
मॉब लीचिंग नहीं
मानता उसे मॉब
लीचिंग वहीं दिखता
है जहां कोई
मुस्लिम मारा जाता
है। अब इन्हें
कौन बताएं ि
कइस तरह के
मामलों में राजनीति
करने से हालात
नहीं सुधर सकते।
सही -गलत में उन्हें
फर्क करना ही
होगा। उन्हें इस
तरह की घटनाओं
के तह तक
जाना ही होगा।
घटना के असल
वजहों को समझना
होगा और उसके
निस्तारण की पहल
करनी होगी, ना
कि वोट बैंक
की खातिर हो
हल्ला मचाने से।
क्यों कि पश्चिम
बंगाल के हुगली
में कथित रूप
से ‘जय ममता’’ और ‘तृणमूल जिंदाबाद’ के नारे
लगाने को लेकर,
छात्रों के दो
गुटों में हुए
झगड़े में बीच
बचाव कराने के
दौरान जिस तरह
प्रोफेसर की पिटाई
हुई है वह
साजिश की ही
एक पार्ट है।
ऐसे में बड़ा
सवाल तो यही
है क्या कानून
की जगह हथियार
से होगा मॉब
लिंचिंग का मुकाबला
या माहौल बिगाड़ने
की है साजिश?
फिरहाल, भीड़ की
कोई जात नहीं,
कोई धर्म नहीं,
संप्रदाय नहीं। भीड़ का
केवल एक ही
मजहब है...हिंसा।
भीड़ कोई कानून
नहीं जानती, ये
जानती है तो
बस उन्माद। जी
हां मॉब लिंचिंग!
अंग्रेजी के इन
दो शब्दों ने
बीते कुछ सालों
से लोकतंत्र को
शर्मसार करने में
कोई कसर नहीं
छोड़ी है। इस
तरह की घटनाओं
को लेकर हर
कोई स्तब्ध है।
सुप्रीम कोर्ट से लेकर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक
चिंतित हैं, व्यथित
हैं और सोचने
पर मजबूर कि
आखिर कैसे इस
नासूर से देश
को छुटकारा मिले।
हालांकि मॉब लिंचिंग
से निपटने के
लिए सख्त और
अलग कानून की
वकालत सुप्रीम कोर्ट
भी कर चुका
है। लेकिन घटनाएं
है कि थमने
का नाम नहीं
ले रही है।
कुछ लोग मुस्लिम
और दलित समाज
के लोगों को
आत्मरक्षा में हथियार
रखने की बात
करने लगे। लेकिन
सवाल ये है
कि मॉब लिचिंग
से क्या हथियारों
से बचा जा
सकता है, दूसरा
बड़ा सवाल है
कि क्या मॉब
लिचिंग धर्म को
देखकर ही की
जाती है? भीड़
की कोई शक्ल
नहीं होती है,
कोई दीन धर्म
नहीं होता है
और इसी का
फायदा भीड़ में
शामिल कुछ लोग
उठाते हैं और
मॉब लिचिंग जैसी
जघन्य हिंसा को
अंजाम देते हैं।
लेकिन अफसोस है
कि इस भीड़
की सोच को
कुछ लोग खास
राजनीतिक दल से
जोड़ देते हैं।
सच्चाई यह है
कि लोकतंत्र में
भीड़तंत्र की इज़ाज़त
नहीं दी जा
सकती, कानून तोड़ने
वालों के लिए
सजा का प्रावधान
है, लेकिन हथियार
रखने की वकालत
कर भीड़ को
उकसाने से क्या
कानून नहीं टूटेगा।
9 जुलाई को संसद
में बीएसपी सांसद
दानिश अली ने
मॉब लिंचिंग के
खिलाफ कानून बनाने
की मांग उठाई।
कहा जा सकता
है जिस तरहसे
एक के बाद
वाकये हो रहे
है उसे देखते
हुए कानून बनना
ही चाहिए। लेकिन
क्या मॉ़ब लिंचिंग
के खिलाफ हथियार
रखने के लिए
उकसाना कत्तई सही नहीं
है। क्योंकि ये
हिंसा का जवाब
हिंसा से देने
जैसा ही होगा।
इससे देश में
गन कल्चर को
बढ़ावा मिलेगा। हमें
यह नहीं भूलना
चाहिए ि कइस
तरह की घटनाएं
सिर्फ मुस्लिम के
खिलाफ नहीं होता,
कई हिन्दू भी
इसके शिकार होते
है। जिस दिन
राजस्थान के अलवर
में गो तस्करी
के आरोपी रकबर
की मौत हुई,
उसी दिन राजस्थान
के बाड़मेर जिले
में मुसलमानों ने
लिंचिंग कर एक
दलित युवक की
हत्या कर दी
गयी थी। इसे
भी लोगो को
समझना होगा। लेकिन
देश भर में
मुसलमानों की करतूतों
को जानबूझ कर
दबाने का प्रयास
किया जाता है
और जहां मुस्लिम
मारा जाता है
एवार्ड वापसी गैंग हाय
तौबा करने लगती
है। बाड़मेर ही
क्यों पश्चिम बंगाल
के जुरानपुर में
एक हिंदू परिवार
के तीन सदस्यों
की मुसलमान जिहादियों
द्वारा की गई
हत्या की गयी।
यह मीडिया की
सुर्खियां नहीं बन
सका। महाराष्ट्र में
17 साल के युवक
को हिंदू होने
की वजह से
मुसलमानों द्वारा जला दिया
गया। ऐसे निर्दोष
हिंदुओं की हत्या
करने की घटनाओं
की सूची काफी
लंबी है। लेकिन
एवार्ड वापसी गैंग तब
शांत रहता है।
यह दोगलापन आखिर
कब तक चलेगा।
लोगों को समझना
होगा कि यह
धर्म जाति नहीं
बल्कि आपसी खन्नस
और प्रशासनिक लापरवाहियों
का नतीजा है।
समझना होगा कि
आखिर क्या वजह
है कि कानून
से लोगो का
विश्वास उठ रहा
है। इन विवादों
को सलटाने के
बजाय बढ़ावा कत्तई
ठीक नहीं है।
खास तौर से
हाल ही जारी
लिरिक्स ‘जो न
बोले जय श्रीराम,
भेजो उसके कब्रिस्तान’ तो बिल्कुल आपत्तिजनक है।
हमें जानना होगा
कि देश में
मॉब लिंचिंग का
एक समान स्वरूप
नहीं है। विभिन्न
राज्यों में अलग
अलग कारणों से
इस तरह की
घटनायें हुयी हैं।
इससे किसी दल
विशेष का कोई
संबंध नहीं होता
है। तथाकथित बुद्धजीवियों
द्वारा यह कहा
जाना कि जय
श्री राम एक
भड़काऊ नारा बन
गया है, इसी
को लेकर लिंचिंग
के कई घटनाएं
हुईं हैं, पूरी
तरह बकवास है।
सबकों पता है
बिहार के हाजीपुर
में हिंसक भीड़
के द्वारा मारपीट
की दोनों घटनाएं
चोरी व लूट
की है, जिसमें
भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या कर
दी गयी। हालही
में बांग्लादेश में
पुल निर्माण के
लिए बच्चे का
अपहरण कर बलि
देने की सोशल
मीडिया पर फैली
एक अफवाह के
बाद भीड़ ने
आठ लोगों की
पीट- पीटकर हत्या
कर दी। इस
तरह की अफवाहों
पर लगाम कसने
की जरुरत है।
लेकिन अफसोस है
इस तरह के
मामलों को लेकर
सियासत करने वाले
एवार्ड वापसी गैंग के
साथ सांसद नुसरत
जहां भी जुड़
गयी है। उनका
कहना है कि
2014 से लेकर 2019 के बीच
में ये घटनाएं
सबसे ज्यादा हुई
हैं और इसमें
दलितों, मुसलमानों और पिछड़ों
को सबसे ज्यादा
निशाना बनाया गया है।
2019 से लेकर अब
तक 11 ऐसी घटनाएं
और 4 हत्याएं हो
चुकी हैं और
ये सारे अनुसूचित
जाति और अल्पसंख्यक
थे। सिर्फ इंसानियत
के नाते, गाय
के नाम पर,
भगवान के नाम
पर, किसी की
दाढ़ी पर तो
किसी की टोपी
पर ये खून
खराबा बंद होनी
चाहिए। उनकी अपील
एक हद तक
ठीक है। लेकिन
उन्हें सियासत को भी
समझना होगा कि
कुछ लोग इसे
चुनावी चश्में से देखते
है।
संसद के
दोनों सदनों में
गृह मंत्री राजनाथ
सिंह ने सरकार
द्वारा सख्त क़दम
उठाने का आश्वासन
देते हुए कहा
कि अगर ज़रूरत
हुई तो ऐसी
घटनाओं को रोकने
के लिए क़ानून
भी बनाया जाएगा।
बेशक, कानून बनना
ही चाहिए। क्योंकि
उच्चतम न्यायालय के फैसले
के बावजूद देश
में पीट-पीटकर
हत्या करने की
घटनाएं हो रही
हैं। इस हिंसा
के शिकार समाज
के कमजोर तबके
हो रहे हैं।
लेकिन हमें जानना
होगा कि आपराधिक
न्याय व्यवस्था में
सुधार के बिना
किसी कानून की
सफलता सीमित ही
रहेगी। जिस देश
में औसतन सिर्फ
45 प्रतिशत आरोपितों को ही
अदालतों से सजा
मिल पाती हो
वहां अपराधियों का
मनोबल बढ़ना ही
है। क्रिमिनल जस्टिस
सिस्टम को सुधारने
के लिए सर्वाधिक
जरूरत इस बात
की है कि
सजाओं का प्रतिशत
बढ़ाने के कारगर
उपाय तत्काल किए
जाएं। अमेरिका की
93 प्रतिशत और जापान
की 98 प्रतिशत सजा
दर को थोड़ी
देर के लिए
छोड़ भी दें
तो अपने ही
देश के विभिन्न
राज्यों में सजा
दर में भारी
अंतर क्यों है?
क्यों केरल में
सजा दर 77 है
तो बिहार और
बंगाल में क्रमशः
10 और 11? क्या इन
आंकड़ों का तुलनात्मक
अध्ययन करके हमारे
शासकों ने कोई
सबक सीखने की
कभी कोशिश की
है? इसी देश
की विभिन्न जांच
एजेंसियों के मामलों
में भी सजा
दर में भारी
अंतर है? देश
के कई इलाकों
में कई बार
चोरी, प्रेम प्रसंग
और गलत ड्राइविंग
के आरोप में
पकड़े गए लोगों
की हत्या इसलिए
भी कर दी
जाती है कि
हत्यारों को लगता
है कि यदि
गिरफ्त में आए
लोगों को छोड़
देंगे तो कानूनी
प्रक्रिया के जरिये
उन्हें सजा मिलना
बहुत मुश्किल है।
जिस देश में
55 प्रतिशत आरोपित अदालतों से
छूट जाते हैं
उनमें से वे
भी हो सकते
हैं जो भीड़
की हिंसा का
शिकार बनते हैं।
अगर भीड़ की
हिंसा में शामिल
लोगों में यह
भय व्याप्त हो
जाए कि इस
अपराध के कारण
वे सजा से
बच नहीं सकते
तो वैसा कृत्य
करने से पहले
सौ बार सोचेंगे,
लेकिन इसके लिए
यह जरूरी है
कि बड़ी शक्तियां
उन्हें सजा से
बचाने की कोशिश
न करें। यदि
भीड़ द्वारा किसी
की हत्या के
पीछे कोई सांप्रदायिक
या जातीय भावना
नहीं है तो
फिर ऐसे मामलों
में वैसी भावना
प्रतिरोपित करके राजनीतिक
लाभ उठाने से
बचा जाना चाहिए,
नहीं तो सांप्रदायिक
एवं जातीय आधार
पर अपराधियों को
बचाने वाले भी
पैदा हो जाएंगे।
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