Sunday, 21 July 2019

सिन्धी भाषा को बढ़ाने का युवा उठाएं जिम्मा


सिन्धी भाषा को बढ़ाने का युवा उठाएं जिम्मा
छत्तीसगढ़ से आए कलाकारों ने संत कंवरराम के जीवनवृत्त को नाट्य मंचन के जरिए जीवंत किया
सुरेश गांधी
वाराणसी। समाज के बच्चे आईएएस, आईपीएस अधिकारी बनकर समाज का नाम रोशन करें। यह उम्र बच्चों की ऐसी रहती है, जिसमें बच्चों का भविष्य तय होता है। बच्चों को चाहिए कि वह सब बातें छोड़कर अपनी पढ़ाई करते हुए भविष्य पर ध्यान दें। आज का युवा कल का भविष्य है। क्योंकि हम जैसे पौधों को पानी ध्यान रखकर बड़ा करते हैं, उसी प्रकार से मां-बाप भी बच्चों का ध्यान रखते हैं। बच्चों को भी अपने भविष्य की चिंता करनी चाहिए। यह बाते उत्तर प्रदेश सिंधी अकादमी के सहयोग से सिंधी युवा समिति की ओर से आयोजित संगोष्ठी में एकादमी के उपाध्यक्ष नानकचंद्र लखमानी ने कही।
वे रविवार को नागरी नाटक मंडली में सिंधी भाषा एवं संस्कृति के विकास पर आधारित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान संत कंवरराम के जीवन पर आधारित नाट्य मंचन किया गया। जिसमें छत्तीसगढ़ से आए 40 कलाकारों की टीम ने संत कंवरराम के जीवनी को बढ़े ही सधे अंदाज में प्रस्तुतिकरण किया। मकसद था समाज के बच्चों और युवाओं में सिन्धी भाषा के प्रति लगाव बढ़े। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राज्यमंत्री डॉ. नीलकंठ तिवारी ने कहा कि भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में ऋषि-मुनियों एवं संतों का विशेष योगदान रहा है। सिंधी समाज ने भी इसमें अपना सहयोग दिया है। इनकी संस्कृति और भाषा का विकास भी जरूरी है। तभी व्यक्ति का भी विकास होगा।
विशिष्ट अतिथि पूर्व मेयर कौशलेंद्र सिंह ने कहा कि देश की संस्कृति तभी समृद्ध होगी जब लोक संस्कृति का विकास होगा। अकादमी के ने कहा कि सिंधी संस्कृति भाषा से नई पीढ़ी को अवगत कराने की जरुरत है। अकादमी के सदस्य लीलाराम सचदेवा ने कहा कि समाज के युवाओं के लिए हमेशा तत्पर रहूंगा। जो जरूरतमंद बच्चे हैं, उनके करियर में कोई दिक्कत है तो वे संपर्क कर सकते हैं। एकादमी के यस कुमार सुखवानी ने कहा कि बंटवारे की मार झेलकर महाराष्ट्र पहुंचे सिंधी समाज ने कुछ दशकों में ही अपने परिश्रम, काबिलियत और वाकपटुता के बल पर सफलता का परचम लहराया। व्यापार में अपना लोहा मनवाने वाले समाज के सामने अब असली चुनौती युवा पीढ़ी को सिंधी संस्कृति-संस्कार से जोड़े रखने की है।
अकादमी के रमेश लालवानी ने कहा कि  युवा पीढ़ी नादान है। भाषा और संस्कृति को लेकर उनका कोई कसूर नहीं है। हमारे पूर्वज विस्थापित होने के बाद 40 वर्ष तक रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करते रहे, जिससे भाषा और संस्कृति पीछे छूट गई। हमें अपने संतों और अपने शहीदों का इतिहास पढ़ाना होगा। हमें शहीद हेमू कालानी की कुर्बानी के बारे में बताना होगा। अकादमी के मोहनलाल ने कहा कि देश के विभाजन के बाद सिंधी भारत में खाली हाथ आए थे। उनके साथ अगर कुछ था, तो तन पर कपड़े, मन में विस्थापन का दर्द, जुबान पर सिंधी भाषा और अपनी सभ्यता संस्कृति थी। मेहनत के बूते उन्होंने यहां आकर राजनीतिक, सामाजिक, व्यापार और साहित्य के क्षेत्र में अपना सिक्का तो जमा लिया, लेकिन इन सबके बीच उनकी भाषा, उनकी संस्कृति और उनकी पहचान धूमिल होने लगी।
अफसोस है कि उनके समाज में नई पीढ़ी की सिंधी भाषा में रुचि ही नहीं है। इतिहास गवाह रहा है कि जिसकी मातृभाषा मिट गई, कुछ समय बाद उस समाज ने अस्तित्व खो दिया। इसीलिए देश के विभिन्न प्रांतों में बसे सिंधियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाषा को लेकर है। आज सिंधी समाज के युवा अपने इतिहास को नहीं जानते। वे अपने संतों, महात्माओं और देश के लिए कुर्बानी देने वाले शहीदों को नहीं जानते। देश में सिंधी समाज का इतिहास कहीं नहीं पढ़ाया जाता, तो ऐसा होना स्वाभाविक भी है। कार्यक्रम की अध्यक्षता मोहनलाल ने की। स्वागत चंदन रूपानी ने किया। स्वागत चंदन रूपानी ने किया। जबकि संचालन मनोज लखवानी नरेश बडानी ने किया। आयोजन में अनिल बजाज, दिलीप आहुजा, विशन रुपेजा, रामचंद्र किशनानी, सुमित धमेजा, सतीश भाटिया, जय लालवानी, संजय टहलानी, पवन साजिदा, सचिन, सुनील वाध्या, राकेश वलेचा, मनोज लखमानी, नरेश बडानी, विजय राजवानी, कमल हरचानी आदि का सहयोग रहा। धन्यवाद ज्ञापन धर्मेन्द्र सेहता ने किया। 
सिंधी समाज के प्रतिनिधियों के मुताबिक, ’बंटवारे में पंजाबियों को आधा पंजाब और बंगालियों को आधा बंगाल मिला, लेकिन हमें हमारी मां से अलग कर दिया गया। हमारे पूर्वजों को अनाथ कर दिया गया। इसके बाद भारत आए सिंधी देशभर में छिटक गए। यही वजह है कि हमारी बातों को सरकार नहीं सुन रही। अगर हम भी एक जगह बसे होते, तो हमारी बातों को सुना जाता और सरकार को झुकना भी पड़ता। हम सभी ने व्यक्तिगत रूप से मेहनत करके शोहरत पाई है, लेकिन एकजुट नहीं हो पाए। इसी वजह से हमारी आवाज सरकार को सुनाई नहीं पड़ती। अगर हम सब एक मंच पर आएं, तो किसी सरकार की हिम्मत नहीं है कि वह हमारी आवाज को अनसुना कर दे। एकादमी के सदस्यों ने चिंता जते हुए कहा, ’हम शून्य से शिखर तक पहुंचे हैं। अब हमारे सामने छत, भाषा और सिंधियत को बचाने की चुनौती है। क्योंकि जिंदा कौम वही है, जिसकी भाषा जिंदा है। इसीलिए समाज के सभी लोगों को एकजुट होकर भाषा को जिंदा रखना होगा। घरों में सिंधी भाषा में बातचीत करनी होगी।
सदस्यों ने कहा कि समाज को एक नयापन लाने की कोशिश करनी चाहिए। समाज के सामने सिंधी भाषा और लिपि एक चुनौती बन गई है। इसे देवनागरी लिपि में लिखे जाने की जरूरत है। सिंधी हमेशा से सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते रहे हैं। इसी का नतीजा है कि वे जहां भी बसे हैं, वहां स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोले हैं, जिनमें दूसरे समाज के लोग भी बिना किसी भेदभाव के पढ़ाई करते हैं। हमारे बच्चे सिंधियों की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति से अनभिज्ञ हैं। जिन युवाओं को थोड़ी रुचि भी है, उन्हें भी अधूरी अथवा कम जानकारी है। इसीलिए हम अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखने और उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे।

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