हो कुछ भी ‘श्रीराम मंदिर’ तो पीएम मोदी ही बनवायेंगे!
सुप्रीम कोर्ट में अब राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर छह अगस्त से नियमित सुनवाई होगी। इस मामले में अब मध्यस्थता के जरिए समाधान की उम्मीद खत्म हो गई है। मतलब साफ है इस मामले में 100 दिन में आ सकता है फैसला। 17 नवंबर होगी ऐतिहासिक तारीख। या यूं कहे इस साल 27 अक्टूबर को होने वाली दीवाली करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा श्रीराम मंदिर के नाम होगी। क्योंकि इस मामले में अटकाने, लटकाने, भटकाने वालों के दिन लद गए है। अब कोर्ट को फैसला देना ही होगा। उम्मींद तो एक फीसदी भी नहीं है लेकिन यदि कोर्ट ने श्रीराम मंदिर के विरोध में भी फैसला दिया तो गेम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पाले में होगा। वर्ष 1985 में सुप्रीम कोर्ट के तीन तलाक से जुड़े शाहबानो के फैसले को जिस तरह राजीव गांधी सरकार ने वर्ष 1986 में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा था, मोदी भी पलट सकते है। ऐसे में समय रहते यदि हिंदू और मुस्लिम आपस में ही मामले को सलट ले तो सांप्रदायिक सद्भाव की बहुत बड़ी क्रांति होगी। भारत के मुसलमान अपना बड़ा दिल दिखाकर पूरी दुनिया में मिसाल पेश कर सकते हैं। अगर ऐसा हो तो सांप्रदायिकता की समस्या खत्म होगी और देश में चल रही हिंदू-मुसलमान की राजनीति वाली दुकान पर ताला लग जायेगा
सुरेश गांधी
बेशक, रोज खुली सुनवाई के फैसले के बाद इतना साफ हो गया कि श्रीराम मंदिर मामले में अटकाने, लटकाने व भटकाने वाले नेताओं, दलों एवं तथाकथित अधिवक्ताओं की दुकान पर ताला लग गया है। दरअसल, 17 नवंबर, 2019 को संवैधानिक बेंच के प्रमुख यानि सीजेआई रिटायर हो रहे हैं। इसलिए ये कयास लगाए जा रहे हैं कि उनके रिटायरमेंट से पहले इस पर फैसला आ सकता है। क्योंकि अयोध्या मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2 अगस्त को बड़ा फैसला लिया है। 6 आगस्त से अब हर रोज अयोध्या मामले पर सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि मध्यस्थता का कोई नतीजा नहीं निकला है। यानी अगले 100 दिनों में अयोध्या मामले का फैसला आ सकता है। सुप्रीम कोर्ट में रोज़ाना सुनवाई से 17 नवंबर तक तय हो जायेगा कि अयोध्या की विवादित भूमि पर किसका मालिकाना हक है? रिटायर होने से पहले चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पूरी कोशिश करेंगे कि मामला उनके कार्यकाल में ही खत्म हो जाय। क्योंकि जो बेंच मामले की सुनवाई करती है, वही फैसला भी देती है। अब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद के समाधान के लिए गठित किए गए मध्यस्थता पैनल को भी भंग कर दिया है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोनों पक्ष मान लेंगे?
क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसले किए हैं जिनको लोग नहीं मानते हैं। वर्ष 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक से जुड़े शाह बानो के मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था। लेकिन ये फैसला उस वक्त मुसलमानों के बड़े वर्ग ने स्वीकार नहीं किया था। कोर्ट ने शाह बानो के पति को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया था। इस फैसले का रूढ़िवादी मुसलमानों ने खूब विरोध किया। दबाव में आकर राजीव गांधी की सरकार ने वर्ष 1986 में एक कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। कुछ इसी तरह ध्वनि प्रदूषण का मामला है। कोर्ट ने लाउड स्पीकर के इस्तेमाल को नियंत्रित करने के निर्देश जारी कर चुकी हैं। इस मामले पर गाइड लाइन भी जारी है। लेकिन हर रात और हर सुबह देश में इन नियमों का उल्लंघन किया जाता है। वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने दिवाली के दौरान पटाखे बेचने पर रोक लगी दी थी। पिछले वर्ष भी दिवाली पर सिर्फ 2 घंटे के लिए पटाखे जलाने की अनुमति दी गई। लेकिन पूरा देश ये जानता है कि कोर्ट का यह आदेश धुआं धुआं हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमला मंदिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी को हटाया था। लेकिन इस फैसले का लगातार विरोध होने से राज्य सरकार इसे लागू नहीं करा पाई। तमिलनाडु में जलीकट्टू के खेल पर लगे प्रतिबंध पर भी कोई असर नहीं हुआ। क्योंकि राज्य सरकार इस आदेश के खिलाफ कानून लेकर आ गई। इसीलिए अयोध्या विवाद पर फैसला दोनों पक्ष मानेंगे या नहीं ये वक्त बतायेगा।
ऐसे में अगर हिंदू और मुसस्लिम आपस में सलट ले तो सांप्रदायिक सद्भाव की बहुत बड़ी क्रांति होगी। भारत के मुसलमान अपना बड़ा दिल दिखाकर पूरी दुनिया में मिसाल पेश कर सकते हैं। अगर ऐसा हो तो सांप्रदायिकता की समस्या खत्म होगी। देश में चल रही हिंदू-मुसलमान की राजनीति भी बंद हो जाएगी। हो जो भी सच तो यही है कि अयोध्या विवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ही ये तय हो जाएगा कि विवादित भूमि पर किसका अधिकार है? हिंदू पक्ष का या फिर मुसलमान पक्ष का? इसी वर्ष के पहले दिन यानी पहली जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि राम मंदिर के मामले पर हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतज़ार कर रहे हैं। राम मंदिर का निर्माण बीजेपी का सबसे पुराना और बड़ा मुद्दा है। यानी अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हिंदू पक्ष के विरोध में आता है तो सरकार फैसले को पलट भी सकती है? आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद समेत उनके अन्य संगठनों के द्वारा लगातार मोदी सरकार पर मंदिर निर्माण के लिए दबाव बनाया जा रहा है। वे अब मान चुके है कि जब इलाहाबाद हाई कोर्ट की पीठ ने 30 सितंबर 2010 को भूमि बंटवारे के मसले पर भारतीय पुरातत्व को खुदाई के दौरान मिली साक्ष्यों के आधार पर आदेश दे दिया है कि बाबरी ढांचा हिंदू मंदिर या स्मारक को नष्ट करके खड़ा किया गया था, तब देरी किस बात की। उनका आरोप है कि जानबूझ कर मामले को देरी की गयी। 2 अगस्त की सुनवाई में भी मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने कुछ मुश्किलों की बात कहकर लटकाने की कोशिश की।
बता दें, ये विवाद 491 वर्ष पुराना है। हिंदू पक्ष का दावा है कि वर्ष 1528 में अयोध्या में भगवान राम की जन्म भूमि पर बने भव्य मंदिर को तोड़कर मुगल बादशाह बाबर ने मस्जिद बनवाई थी, जिसकी वजह से इसे बाबरी मस्जिद कहा जाने लगा। लेकिन हिंदू इस विवादित ज़मीन पर राम मंदिर के निर्माण के लिए उसी वक्त से संघर्ष कर रहा हैं। आज़ादी के बाद वर्ष 1950 में हिंदू महासभा और दिगंबर अखाड़ा ने फैज़ाबाद की अदालत में इस मामले में पहला मुकदमा दायर किया था। करीब 69 वर्षों से ये मामला अदालत में है। और अब 17 नवंबर तक इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाएगा। यानी आज़ाद भारत के सबसे बड़े और सबसे पुराने विवाद पर इसी वर्ष फैसला हो जाएगा। यह अलग बात है कि यह विवाद इतना आसान नहीं है, जितना समझा जा रहा है। क्योंकि यह किसी का व्यक्तिगत मुकदमा नहीं है। इसमें मुसलमानों की तरफ से शिया और सुन्नी सब शामिल हैं। हिन्दुओं की तरफ से भी सब संप्रदाय शामिल हैं। तो इसमें कोई एक व्यक्ति या एक संस्था समझौता कैसे कर सकता है।
दूसरी बात ये कि हिन्दुओं की तरफ़ से तर्क ये है कि रामजन्म भूमि को देवत्व प्राप्त है, वहां राम मंदिर हो न हो मूर्ती हो न हो, वो जगह ही पूज्य है। वो जगह हट नहीं सकती। जबकि कुछ मुस्लिम देशों में निर्माण कार्य के लिए मस्जिदें हटाई गईं हैं। दूसरे जगह ले जाई गई हैं। अब सवाल ये है कि अदालत इस मसले का इतनी देर क्यों की? दरअसल अदालत के लिए फैसले में सबसे बड़ी दिक्कत है मामले की सुनवाई करना। हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान कई टन सबूत और काग़ज़ात पेश हुए। कोई हिन्दी में है, कोई उर्दू में है कोई फ़ारसी में है। इन काग़जों को सुप्रीम कोर्ट में पेश करने के लिए ज़रूरी है कि इनका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया जाए। कहा जा रहा है अब सब पूरा हो चुका है। दूसरी समस्या ये भी है कि मुकदमें के पक्षकार बहुत हैं। ऐसे में सुनवाई में कई हफ़्तों का समय लगेगा। अगर रोज़ाना सुनवाई शुरु हुई तो फैसला जल्दी हो सकता है। बशर्ते, यह सुनवाई में शामिल जजों के रिटायर होने से पहले हो। क्योंकि नए जज आने से सुनवाई फिर से करनी पड़ सकती है। राम जन्मभूमि का मामला पहले एक स्थानीय विवाद था। स्थानीय अदालत में मुक़दमा चल रहा था। लेकिन जब विश्व हिन्दू परिषद इसमें कूदी तो उसके बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ। ये विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा और आरएसएस एक हिन्दू राष्ट्र के सपने का हिस्सा हो गया। ऐसे में मुस्लमानों को ये भी लगता है कि ये एक मस्जिद का मसला नहीं है, अगर हम सरेंडर कर दें तो कहीं ऐसा ना हो कि इसके आड़ में उनके धर्म और संस्कृति को ख़तरा हो जाए।
यहां जिक्र करना जरुरी है कि इस मामले में लगातार तारीखे पड़ने से लोगों का धैर्य जवाब दे रहा था। सुप्रीम कोर्ट पर उंगलिया उठने लगी थी। सुप्रीम कोर्ट के हवाले से ही कहा जाने लगा था कि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं अन्याय है। लोग कहने लगे थे कि एक आतंकवादी के लिए रात 12 बजे सुनवाई करने वाला सुप्रीम कोर्ट करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़ा श्रीराम मंदिर मामले में देरी क्यूं कर रही है। जबकि चाहे वो सुप्रीम कोर्ट हो या अन्य एजेंसिया वो देश के आमजनमानस के लिए ही बनी है और उन्हीं के कर से उनकी व्यवस्थाएं चलती है। ऐसे में अगर साधु-संतों, महात्माओं के साथ देश की जनता खुद ही मंदिर निर्माण में जुट जाएं तो इसमें कोर्ट आफ कंटैक्ट कैसे हो सकता है?
लोगों की टूटते धैर्य को देखते हुए तीर्थराज प्रयागराज संगम की धारा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित पूरा कैबिनेट ने श्रद्धा की डुबकी लगाई तो सियासत की बूंदें भी उछलीं। लेकिन साधु संतों की प्रबल विरोध को देखते हुए बीजेपी को संगम की धारा से राम मंदिर के मुद्दे से किनारा नहीं कर सकी। इसी किनारे की खोज में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या पर ऐसी अर्जी लगा दी जिससे पार्टी की बांछें खिल उठीं। और कुंभ में चल रही धर्म संसद एवं परम धर्म संसद हवा हो गया। लेकिन साधु-संतो का ऐलान है मंदिर तो उसी विवादित स्थल पर ही बनेगा, मंदिर का गर्भगृह वहीं है और वही पर पहले से ही मंदिर था ऐसा हाईकोर्ट ने भी अपने आदेश में माना है। बीजेपी ने 1989 में पालमपुर अधिवेशन में प्रस्ताव पास कर राम मंदिर का खुलकर समर्थन किया था। तभी से वह मंदिर मुद्दे का खुलकर समर्थन करती रही है। जब वह सत्ता में नहीं थी तो तत्कालीन सरकारों से कहती थी कि कानून बनाकर विवादित भूमि मंदिर बनाने के लिए दे दी जाए। सनातन हिन्दू धर्म की परंपरा के मुताबिक रामानंदाचार्य संप्रदाय ने इस स्थान के रख-रखाव और पूजा का जिम्मा निर्मोही अखाड़ा को दिया है। निर्मोही अखाड़ा 1885 से राम मंदिर की कानूनी लड़ाई लड़ रहा है।
अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले से जुड़ी 0.313 एकड़ जमीन पर विवादित ढांचा था, जिसे कारसेवकों ने ढहा दिया तथा. ये जमीन 2.77 एकड़ एरिया के अंदर आती है। 1993 में एक प्रस्ताव लाकर सरकार ने कुल 67.703 एकड़ की जमीन पर कब्जा कर लिया था, जिसमें 2.77 एकड़ का हिस्सा भी शामिल था। गैर विवादित जमीन में 42 एकड़ का हिस्सा रामजन्मभूमि न्यास का है। फिरहाल, अयोध्या की गैर-विवादित जमीन में सबसे बड़ा हिस्सा राम जन्मभूमि न्यास के पास है। सरकार ने अपनी अर्जी में गैर-विवादित जमीन पर यथास्थिति हटाने की मांग की है। इस याचिका में केंद्र ने सिर्फ .313 एकड़ जमीन को ही विवादित माना है। सरकार ने इस ज़मीन को छोड़कर बाकी 67 एकड़ जमीन को उसके मालिकों को सौंपने की अनुमति मांगी है। बाकी के बचे 0.313 एकड़ जमीन जो विवादित है इसपर सुप्रीम कोर्ट जल्द सुनवाई करे।
बता दें, केंद्र और राज्य सरकार ने कुल 70.77 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया हुआ है। अयोध्या की विवादित जमीन पर राम मंदिर होने की मान्यता है। मान्यता है कि विवादित जमीन पर ही भगवान राम का जन्म हुआ। हिंदुओं का दावा है कि राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। दावा है कि 1530 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मंदिर गिराकर मस्जिद बनवाई थी। 90 के दशक में राम मंदिर के मुद्दे पर देश का राजनीतिक माहौल गर्मा गया था। अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया था। जिसके बाद मामला आगे और न बढ़े इसके लिए तब की नरसिम्हा राव सरकार ने आसपास की पूरी जमीन को अधिग्रहित कर लिया था। तब से जमीन पर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक है।
अब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा है कि इस जमीन को लौटा दी जाए। दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीन हिस्सों में 2.77 एकड़ जमीन बांटी थी। राम मूर्ति वाला पहला हिस्सा राम लला विराजमान को मिला, राम चबूतरा और सीता रसोई वाला दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को मिला। जमीन का तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला सुनाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने जमीन बांटने के फैसले पर रोक लगाई थी। अयोध्या में विवादित जमीन पर अभी राम लला की मूर्ति विराजमान है। हालांकि, इस्माइल फारुकी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा है कि जो जमीन बचेगी उसे उसके सही मालिक को वापस करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर है। उस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस्माइल फारुखी जजमेंट में 1994 में तमाम दावेदारी वाले अर्जी को बहाल कर दिया था। कोर्ट ने जमीन को सरकार के पास ही रखने को कहा था और आदेश दिया था कि जिसके पक्ष में फैसला आएगा उसके बाद सरकार जिनकी जमीनें हैं, उन्हें सौंप दे। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के 30 सितंबर, 2010 की फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जिसके बाद 9 मई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया था। इस मामले में अब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि अयोध्या विवाद के फैसले का इंतज़ार करते-करते देश की कई पीढ़ियां गुज़र गईं। लेकिन आज की मौजूदा पीढ़ी को इस फैसले को देखने का सौभाग्य हासिल होगा। रोज़ाना सुनवाई का मतलब ये है कि अयोध्या विवाद की सुनवाई हफ्ते के तीनों दिन होगी। 6 अगस्त से 15 नवंबर के बीच में सुप्रीम कोर्ट में दिवाली और दशहरे की 2 हफ्ते की छुट्टी भी होगी। अगर इन दो हफ्ते के 6 दिनों और कुछ दूसरे अवकाशों को निकाल दिया जाए। तो अयोध्या विवाद पर नियमित सुनवाई के लिए कुल 35 दिन का समय है। इन्हीं 35 दिनों के अंदर सुनवाई भी होनी है और फैसला भी लिखा जाना है। अगर 35 दिनों के अंदर अयोध्या मामले में फैसला आ जाता है तो ये आज़ाद भारत के सबसे पुराने मामले में सबसे बड़ा फैसला होगा।
ये फैसला सुनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई का नाम इतिहास में दर्ज हो जाएगा। लेकिन ये फैसला इतना आसान भी नहीं होगा क्योंकि मुस्लिम पक्षकार या यूं कहें कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी मामला जल्द निस्तारित हो। क्योंकि वो समझती है कि अगर ऐसा हुआ तो उसका बीजेपी भरपूर फायदा उठायेगी और 2024 भी उसके हाथ से निकल जायेगा। इसीलिए वो सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए 20 दिन का समय मांग रहे है। इस मामले में कुल 18 पक्षकार हैं। सुप्रीम कोर्ट पहले राम लला और निर्मोही अखाड़े की अपीलों को सुनेगा। यानी सुप्रीम कोर्ट पहले यह तय करेगा कि विवादित जमीन पर मालिकाना हक किसका है?
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