अस्ताचलगामी भगवान सूर्य को पहला अर्घ्य, मांगी दुआएं
नदी-तालाबों के तट पर उमड़ा आस्था का जनसैलाब
व्रतियों ने की सुख-शांति की कामना
कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकतऽ जाय... लोकगीतों से गूंजा गंगा समेत नदियों.तालाबों का किनारा
व्रती महिलाओं ने सूर्योपासना कर एक दूसरे को सिंदूर लगाकर परंपराओं का निर्वहन किया
सुरेश गांधी
वाराणसी। शहर से लेकर देहात तक में छठ महापर्व की रौनक देखते ही बन रही है। लोक आस्था के महापर्व छठ के तीसरे दिन यानी शनिवार को व्रती अस्ताचलगामी सूर्य को पहला अर्घ्य दिया। और व्रतियों ने सूर्यदेव से सुख और समृद्धि की कामना की। नदियों, पोखरों और तालाबों के छठ घाटों पर महिला श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ पड़ा। लोग माथे पर दउरा लेकर घाट की ओर जाते दिखे। अर्घ्य के समय से कुछ देर पूर्व से ही छठ व्रती जल में खड़े होकर भगवान भास्कर की आराधना करते दिखे। अपनी मन्नतों को लेकर कुछ व्रती घर से नदी के घाट तक दंडवत होते हुए भी पहुंचे।
कांचहि बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए, दर्शन दीन्हीं ना अपन ये छठी मइया, मनसा पुराईं ना हमार हे सुरुज देव, जय हो सुरुज बाबा की, दोहाई दीनानाथ की, आपन अर्घ्य स्वीकार करीं अउर मनसा पूराईं हमार जैसे गीत गाकर महिलाओं द्वारा सूर्य की उपासना के साथ ही श्रद्धालु विधि-विधान से पूजा पाठ में जुटे हैं। फल फूल की डलिया के साथ विधि विधान पूर्वक पिंडी बनाकर पूजन करती दिखी। महिलाएं सूर्य उपासना की कहानी सुनाई। महिलाओं ने दीपदान भी किया। इससे दीपों की रोशनी से तालाब हो नदी का पानी जगमगा उठा। छठ मईया के बजते गीतों से पूरा घाट छठमय हो गया। व्रती महिलाओं ने सूर्योपासना कर एक दूसरे को सिंदूर लगाकर परंपराओं का निर्वहन किया। कल चौथे दिन रविवार को उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद व्रती उपवास खोलेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे।
इससे पहले व्रतियों ने शुक्रवार को सूर्य के ढलने के बाद प्रसाद के लिए मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ियां से गुड़ व चावल की खीर (रसियाव) व रोटियां बनाई थी। आज छठ व्रत रखने वाली महिलाएं सुबह से ही तैयारी में लग गईं। विविध प्रकार के पकवान बनाए गए। इसे एक बड़े पात्र में रखा गया। सुबह से ही निर्जल रहकर स्नानादि और श्रृंगार कर महिलाएं परिवार के लोगों के साथ छठ घाटों पर पहुंची। दीप प्रज्वलित कर छठ मईया की पूजा की गई। इसके बाद एक दीप गंगा मईया और एक दीप भगवान भास्कर को अर्पित किया गया। यह सब करने के बाद महिलाएं नदी, तालाब और पोखरों में कमर भर पानी में जाकर खड़ी हो गईं। भगवान भास्कर के डूबने पर उन्हें अर्घ्य दिया गया। इसके बाद व्रती महिलाएं परिवार के सदस्यों के साथ घर लौट आईं। सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही यह व्रत पूरा हो जाएगा।
घाटों पर मेले जैसा दृश्य देखने को मिला। रात में छठ मईया के किस्से और कहानियां सुनाई गईं। उधर, दोपहर बाद से ही वरुणा आदि नदियों के साथ ही आंचलिक क्षेत्रों में आस्था का रेला उमड़ने लगा। सूर्योपासना के अनोखे लोकपर्व छठ के आयोजन में शामिल होने के लिए युवा, बुजुर्ग, महिलाएं और युवतियों ने घाटों की ओर रुख करना शुरू कर दिया। युवतियों के हुजूम ने जहां ढोल और नगाड़े की थाप पर झूम नाचकर पर्व की रंगत को और रवां किया वहीं दूसरी ओर नगाड़ों की थाप के बीच बज रही बधइया के साथ दान पुण्य का अनवरत क्रम भी देर रात तक चला। डीरेका स्थित सूर्य सरोवर में भी छठ पूजा पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ी और सूर्य की पूजा पर लोगों ने सुख और समृद्धि की कामना की। हालांकि शाम होने से पूर्व ही तीन बजे के बाद आसमान आहिस्ता आहिस्ता कोहरे की लंबी चादर में ढंक गया और समय से पूर्व ही सूर्य देव अस्ताचलगामी नजर आने लगे। ऐसे में व्रतियों ने सूर्योपासना के लिए लंबे कदम बढाए और घाटों व तालाबों के किनारे लोक आस्था के पर्व की परंपराओं का निर्वहन किया।
जो डूबता है उसका उदय होने का सामाजिक संदेश है छठ
छठ पूरी दुनिया का इकलौता ऐसा पर्व जिसमें उगते सूरज के साथ डूबते सूरज की भी वंदना की जाती है, जल अर्पित किया जाता है। इसीलिए लोगबाग बड़े ही गर्व से कहते है, हां हम छठधारी हैं। क्योंकि इसमें नया विचार है, दृष्टि है और सद्भाव है। समर्पण, सात्विकता, सादगी और स्वच्छता की मिसाल है सूर्य उपासना का छठ व्रत। सच कहे तो पूरे देश और विदेशों तक पहुंच बनाने वाले इस व्रत में बिहारियत की झलक है। व्रत इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि यह कठिन है, महत्त्व इस बात का है कि व्रत में विचार छुपा है, समाज के लिए एक संदेश है। दुनिया कहती है जो उदय होता है उसका अंत होना तय है और जो अस्त होता है उसका उदय होना तय है। छठ के इस विचार में जीने की नई उम्मीद है।
हताशा को हराने वाला जज्बा है और हार को जीत में बदलने की शक्ति के साथ सब कुछ खो कर भी फिर से पाने का हौसला है। इस सकारात्मक सोच को यह व्रत आगे की राह दिखाता है। इस पर्व में कोई दिखावा नहीं है। सादगी इस तपस्या की पहचान है। सात्विकता इस उपासना का उद्देश्य है। संयम धैर्य सिखाता है और स्वच्छता इस महापर्व की आत्मा है। प्रकृति की वंदना का पर्व छठ यूं तो भारत के पूर्वांचल इलाके में ही मनाया जाता था लेकिन ग्लोबल होती दुनिया और संस्कृतियों के संगम के दौर में छठ अब महापर्व बन चुका है। चार दिनों के इस महापर्व में छठ व्रती 36
घंटे का कठिन उपवास करते हैं। पर्व के दौरान मन और शरीर की शुद्धता की बड़ी अहमियत है। मान्यता है कि छठी मइया की बच्चों पर विशेष कृपा होती है। इसलिए संतान की सलामती का आशीर्वाद पाने के लिए भी इस व्रत की बड़ी अहमियत है।
मन्नत पूरी होने पर भरी कोसी
मन्नत पूरा होने पर महिलाएं छठी मईया की कोसी भरतीं हैं। हर साल की तरह इस साल भी तमाम महिलाओं ने कोसी भरा। इसमें उनके परिवार, रिश्तेदार और परिचित शामिल हुए।
जगमग रहे घाट, फोड़े गए पटाखे
छठ घाटों को जगमग करने के लिए कई दिनों से तैयारी कर रहा था। शहर के सभी घाटों पर जेनरेटर की व्यवस्था की गई थी। पोखरे के चारों ओर लाइट जल रही थी। इससे व्रती महिलाओं और अन्य लोगों को कोई दिक्कत नहीं हुई। वहीं भगवान भास्कर के अस्त होते ही बच्चों ने पटाखे फोड़े। राकेट से आसमान सतरंगी हो गया था। काफी देर तक धमाकों की आवाज से गूंजते रहे।
क्यों है डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा
उगते सूर्य को अर्घ्य देने की रीति तो कई व्रतों और त्योहारों में है लेकिन डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा आमतौर पर केवल छठ व्रत में है। सुबह, दोपहर और शाम तीन समय सूर्य देव विशेष रूप से प्रभावी होते हैं। सुबह के वक्त सूर्य की आराधना से सेहत बेहतर होती है। दोपहर में सूर्य की आराधना से नाम और यश बढ़ता है। शाम के समय सूर्य की आराधना से जीवन में संपन्नता आती है। शाम के समय सूर्य अपनी दूसरी पत्नी प्रत्यूषा के साथ रहते हैं। प्रत्यूषा को अर्घ्य देना तुरंत लाभ देता है। जो डूबते सूर्य की उपासना करते हैं, वो उगते सूर्य की उपासना भी जरूर करें। ज्योतिष के जानकारों की मानें तो अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा इंसानी जिंदगी हर तरह की परेशानी दूर करने की शक्ति रखती है। फिर समस्या सेहत से जुड़ी हो या निजी जिंदगी से। ढलते सूर्य को अर्घ्य देकर कई मुसीबतों से छुटकारा पाया जा सकता है।
Shandaar
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