देव दीपावली : ‘देवत्व‘
के ‘दीप‘

सुरेश
गांधी
ऋतुओं में श्रेष्ठ
शरद ऋतु, मासों
में श्रेष्ठ ‘कार्तिक
मास’ तथा तिथियों
में श्रेष्ठ पूर्णमासी
यानी प्रकृति का
अनोखा माह तो
है ही, त्योहारों,
उत्सवों के माह
कार्तिक की अंतिम
तिथि देव-दीपावली
है। इसे देवताओं
का दिन भी
कहा जाता है।
तभी तो ‘देव
दीपावली‘ का उत्साह
चारों ओर दिखाई
देता है। कार्तिक
माह के प्रारंभ
से ही दीपदान
एवं आकाश दीप
प्रज्जवलित करने की
व्यवस्था के पीछे
धरती को प्रकाश
से आलोकित करने
का भाव रहा
है, क्योंकि शरद
ऋुतु से भगवान
भास्कर की गति
दिन में तेज
हो जाती है
और रात में
धीमी।
इसका नतीजा
यह होता है
कि दिन छोटा
होने लगता है
और रात बड़ी,
यानी अंधेरे का
प्रभाव बढ़ने लगता
है। इसलिए इससे
लड़ने का उद्यम
है दीप जलाना।
दीप को ईश्वर
का नेत्र भी
माना जाता है।
इस दृष्टिकोण से
भी दीप प्रज्जवलित
किए जाते हैं।
इस माह की
पवित्रता इस बात
से भी है
कि इसी माह
में ब्रह्मा, विष्णु,
शिव, अंगिरा और
आदित्य आदि ने
महापुनीत पर्वों को प्रमाणित
किया है।
इस माह
किये हुए स्नान,
दान, होम, यज्ञ
और उपासना आदि
का अनन्त फल
है। इसी पूर्णिमा
के दिन सायंकाल
भगवान विष्णु का
मत्स्यावतार हुआ था,
तो इसी तिथि
को अपने अत्याचार
से तीनों लोकों
को दहला देने
वाले त्रिपुरासुर का
भगवान भोलेनाथ ने
वध किया। उसके
भार से नभ,
जल, थल के
प्राणियों समेत देवताओं
को मुक्ति दिलाई
और अपने हाथों
बसाई काशी के
अहंकारी राजा दिवोदास
के अहंकार को
भी नष्ट कर
दिया। इसीलिए काशीपुराधिपति
बाबा विश्वनाथ का
एक नाम त्रिपुरारी
भी है। त्रिपुर
नामक राक्षस के
मारे जाने के
बाद देवताओं ने
स्वर्ग से लेकर
काशी में दीप
जलाकर खुशियां मनाई।
तभी से तीनों
लोकों में न्यारी
काशी में कार्तिक
पूर्णिमा के दिन
देवताओं के दीवाली
मनाने की मान्यता
है।
देवताओं ने ही
इसे देव दीपावली
नाम दिया। कहते
है उस दौरान
काशी में भी
रह रहे देवताओं
ने दीप जलाकर
देव दीपावली मनाई।
तभी से इस
पर्व को कार्तिक
पूर्णिमा के अवसर
पर काशी के
घाटों पर दीप
जलाकर मनाया जाने
लगा। मान्यता है
कि इस दिन
देवताओं का पृथ्वी
पर आगमन होता
है। इस प्रसन्नता
के वशीभूत दीये
जलाये जाते हैं।
वैसे भी इस
समय प्रकृति विशेष
प्रकार का व्यवहार
करती है, जिससे
सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह
होता है और
वातावरण में आह्लाद
एवं उत्साह भर
जाता है।
इससे
समस्त पृथ्वी पर
प्रसन्नता छा जाती
है। पृथ्वी पर
इस प्रसन्नता का
एक खास कारण
यह भी है
कि पूरे कार्तिक
मास में विभिन्न
व्रत-पर्व एवं
उत्सवों का आयोजन
होता है, जिनसे
पूरे वर्ष सकारात्मक
कार्य करने का
संकल्प मिलता है। इस
बार 22 नवम्बर को तकरीबन
3 किमी से भी
अधिक लंबा अर्धचंद्राकारी
गंगा का किनारा
लाखों दीपों की
अल्पनाओं, लड़ियों से किसी
स्वर्गलोक की मानिंद
आभा बिखेरेगा। विश्वसुंदरी
पुल के पास
मदरवा, सामने घाट से
लेकर राजघाट व
गंगा वरुणा संगम
यानी सराय मोहाना
तक घाट-घाट
पर टिमटिमाती दीये
रोशन होंगे।
देवताओं के प्रवेश
पर प्रतिबंद्ध लगा
दी गई थी।
उसके अहंकार से
देवलोक में हड़कंप
मच गया। कोई
देवी-देवता काशी
आने को तैयार
नहीं होता। कार्तिक
मास में पंच
गंगा घाट पर
गंगा स्नान के
महात्म्य का लाभ
का लेने के
लिए चुपके से
साधुवेश में देवतागण
आते थे और
गंगा स्नान कर
चले जाते। उसी
दौरान त्रिपुर नामक
दैत्य को भगवान
भोलेनाथ ने वध
किया और अहंकारी
राजा दिवोदास के
अहंकार को नष्ट
कर दिया। राक्षस
के मारे जाने
के बाद देवताओं
की विजय स्वर्ग
में दीप जलाकर
देवताओं ने खुशी
मनाई।
इस दिन
को देवताओं ने
विजय दिवस माना
और खुशी मनाने
के लिए कार्तिक
पूर्णिमा पर काशी
आने लगे। काशी
आने का मकसद
भगवान भोलेनाथ की
महाआरती करने का
भी था। उसी
दिन से देवगण
उत्सव मनाने के
लिए को देव
दीपावली नाम दिया।
कहते है उस
दौरान काशी में
भी रह रहे
देवताओं ने दीप
जलाकर देव दीपावली
मनाई। तभी से
इस पर्व को
कार्तिक पूर्णिमा के अवसर
पर काशी के
घाटों पर दीप
जलाकर मनाया जाने
लगा।

इसके अलावा
नारकासुर को मारने
के लिए अग्नि
और वासुदेव के
यहयोग से जन्मे
कार्तिकेय को देवसेना
का अधिपति बनाया
गया, लेकिन भाई
गणेश का विवाह
कर दिये जाने
के कारण कार्तिकेय
रुष्ट होकर कार्तिक
पूर्णिमा को ही
क्रौंच पर्वत पर चले
गए थे। कार्तिकेय
के स्नेह माता
पार्वती एवं पिता
महादेव वहां ज्योति
रुप में प्रकट
हुए थे। छह
कृतिकाओं से पालित
कार्तिकेय के क्रौंच
पर्वत पर जाने
और ज्योति रुप
में पार्वती-महादेव
के प्रकट होने
को यदि योगशास्त्र
के कसौटी पर
कसा जाएं, तो
षटचक्रो, यथा-मूलाधार,
स्वाधिष्ठान,, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध
और आज्ञा चक्र
को जाग्रत कर
सहस्त्रार में ज्योति
रुप में शिवा-शिव का
प्रकट होना परिलक्षित
हेता है।

महाभारत
के शांति पर्व
के अनुसार, कार्तिक
महीने की शुक्ल
पक्ष की एकादशी
से पूर्णिमा तक
शर-शैया पर
लेटे भीष्म ने
योगेश्वर कृष्ण की उपस्थिति
में पांडवों को
राष्ट्रधर्म, दानधर्म और मोक्षधर्म
का उपदेश दिया
था। श्रीकृष्ण ने
इस अवधि को
भीष्म पंचक कहा।
स्कंदपुराण में ज्ञान
का यह काल
इतना शुभ है
ि कइस अवधि
में व्रत, उपवास,
सदाचार, दान का
विशेष महत्व है।
विभिन्न पुराणों में कार्तिक
पूर्णिमा के दिन
देव मंदिरों, नदी
के तटों पर
दीप जलाने का
प्रावधान है। ज्ञान,
सदाचार, सद्भाव आदि भी
व्यक्ति के जीवन
में आत्मबल के
दीपक बनकर रोशनी
करते हैं।
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