जागे सृष्टि के पालनहार, घर-घर गयी पूजी गयी तुलसी
गंगा किनारे दशाश्वमेध समेत अन्य घाटों, घाटों, तालाबों से लेकर घर घर में महिलाओं ने विधि विधान पूर्वक किया तुलसी विवाह
सुरेश
गांधी
वाराणसी।
शहर से लेकर
देहात तक ‘मगन
भई तुलसी राम
गुन गाइके मगन
भई तुलसी, ‘सब
कोऊ चली डोली
पालकी रथ जुड़वाय
के‘ आदि विवाह
गीत गूंजे। अवसर
था हरिप्रबोधिनी एकादशी
पर श्रीहरि के
योग निद्रा से
जागने और तुलसीजी
के साथ विवाह
रचाने का। शहर
सहित अंचल के
मंदिरों में शुक्रवार
को घर घर-घर गन्ने
का मंडप सजाकर
देवी तुलसी और
भगवान सालिगराम का
पूजन ऋतु फलों
से किया गया।
भगवान विष्णु के
स्वरूप शालिग्राम और तुलसी
के विवाह का
उत्सव सनातनी विधान
से मनाया गया।
भगवान शालिग्राम का
सिंहासन लेकर तुलसी
जी की सात
परिक्रमा की गई।
इसके बाद आरती
उतारी गई। इस
विवाह को महिलाओं
के लिए अखंड
सौभाग्यकारी माना गया
है। पूजा के
समय भक्त भक्ति
में डूबकर ‘उठो
देव जागो देव‘ शब्द बोलकर भगवान को
याद कर रहे
थे। इसके पहले
श्रद्धालुओं द्वारा गंगा स्नान
किया गया। इसके
बाद विवाह में
मंडप, वर पूजा,
कन्यादान, हवन और
फिर प्रीतिभोज, सब
कुछ परंपरा के
अनुसार हुआ। शालिग्राम
वर और तुलसी
कन्या की भूमिका
में थीं। तुलसी
के पौधे को
लाल चुनरी ओढ़ाई
गई। सोलह श्रृंगार
के सभी प्रतीक
चढ़ाए गए।

एकादशी देवोत्थान, पंचक
एकादशी के रूप
में भी एकादशी
मनाई जाती है।
इस दिन से
देव उठने के
साथ ही विवाह
समेत अन्य शुभ
कार्यों का श्रीगणेश
हो जाता है।
गौरतलब है कि
देव प्रबोधिनी एकादशी
के दिन होने
वाला तुलसी विवाह
विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक
प्रसंग है। सनातन
धर्म की परंपरा
में तुलसी विवाह
का प्रसंग मात्र
एक रूपक नहीं
है। यह कई
धर्मानुरागियों के लिए
श्रद्धा और आनंद
का उत्सव माना
जाता है। देवता
जब जागते हैं
तो सबसे पहली
प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की
ही सुनते हैं।
इसलिए तुलसी विवाह
को देव जागरण
के पवित्र मुहूर्त
के स्वागत का
सुंदर उपक्रम माना
जाता है। शास्त्रों
के अनुसार तुलसी
के माध्यम से
सभी प्रार्थनाएं भगवान
तक पहुंचती हैं।
कहा जाता है
कि भगवान विष्णु
आषाढ़ शुक्ल एकादशी
को चार महीने
के लिए क्षीरसागर
में शयन करते
हैं और चार
माह के बाद
कार्तिक शुक्ल एकादशी को
जागते हैं।
लाखों आस्थावानों ने गंगा में डुबकी लगाई

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