‘मदर्स डे’ : बेटी नहीं रहीं तो कहां से लाओगे मां
दुनिया
में
सिर्फ
एक
ही
प्यारी
मां
है
...और
वह
हर
बच्चे
के
पास
है।
उसकी
आंखें
ऐसी
हैं
कि
बंद
दरवाजे
के
उस
पार
भी
देख
लेती
हैं
कि
बच्चा
क्या
कर
रहा
है।
इतनी
शक्तिशाली
नजरें
कि
वो
देखती
ही
नहीं
सुनती
भी
हैं।
वो
बच्चे
के
शब्द
बिना
कहे
चेहरा
देखकर
सुन
लेती
है।
उसके
मन
में
ऐसी
शक्ति
है
कि
वो
अपना
इलाज
खुद
कर
लेती
है।
उसकी
दुआ
में
ऐसा
जादू
है
कि
चूमने
भर
से
बच्चे
के
हर
दर्द
को
दूर
कर
देती
है।
उसकी
समझ
ऐसी
है
कि
जब
उसे
ठंड
लगती
है
तो
वो
पहले
बच्चे
को
स्वेटर
पहना
देती
है।
वह
अपनी
हर
बात
आंसुओं
से
कहती
है-
इन्हीं
से
अपनी
खुशी,
डर,
दुख,
दर्द,
अकेलापन,
पीड़ा,
गुस्सा,
गर्व
प्रकट
करती
है।
संसार
के
सारे
सुखों
की
शुरुआत
और
अंत
मां
के
प्रेम
में
ही
है
सुरेश गांधी
मां दुनिया
के हर बच्चे
के लिए सबसे
खास, सबसे प्यारा
रिश्ता। उस मां
को सम्मानित करने
के लिए मई
माह के दुसरे
रविवार को विशेष
दिवस मनाया जाता
है। कहा जाता
है कि रब
से उपर भी
एक रिश्ता है,
वह मां का।
जीवन को नाम
देती है। मुस्कान
देती है। सपनों
को पंख देती
है। हौसलों को
उंचाई देती है।
दर्द होने पर
सारा कुछ सह
लेती हैं। लेकिन
बच्चे की तकलीफ
नहीं दे सकती।
मतलब साफ है
जीवन में किसी
भी तरह की
तकलीफ आएं, चाहे
उन्हें अपने ममत्व
भाव के लिए
कितनी ही मुश्किलें
झेलनी पड़े। लेकिन
इन तमाम परेशानियों
का असर मां
अपने बच्चों पर
नहीं पड़ने देती।
मां दुनिया में
इसलिए ही महान
कहलाती है, उसकी
छाया ही हममें
नया आत्मविश्वास जगाती
है और उसके
आर्शीवाद से जीवन
की दशा और
दिशा तय होती
है। यही वजह
है कि हर
समाज में मां
की भूमिका अतुलनीय
है। हमारे देश
में मां की
पूजा शुरू से
ही हो रही
है। शास्त्रों में
मां को देवी
स्वरूप माना गया
है। नारियों को
यथोचित सम्मान देकर ही
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति
को अक्षुण्ण बनाये
रखा जा सकता
है।
मां तेरे
दूध का हक
मुझसे अदा क्या
होगा। तू है
नाराज तो खुश
मुझसे खुदा क्यों
होगा।। जब तक
रहा हूं धूप
में चादर बना
रहा, मैं अपनी
मां का आखिरी
जेवर बना रहा।
किसी को घर
मिला हिस्से में
या कोई दुकां
आई, मै घर
में सबसे छोटा
था मेरे हिस्से
में मां आई।
कहते हैं भगवान
मां को अपने
प्रतिरूप में सबके
पास भेजते हैं
क्योंकि वे हर
किसी के साथ
नहीं रह सकते
हैं। इस सत्य
से कोई भी
इनकार नहीं कर
सकता है। सच
कहें तो मैं
भी खुद अपनी
वजूद को मां
के बिना सोच
नहीं सकता। मां
एक ऐसी सहारा
है जो हर
मुश्किल के समय
आपके साथ देकर
आपके पथ को
प्रशस्त करती रहती
हैं। किसी ने
क्या खूब कहा
है ‘ उस दिन
एक अजीब सी
आहट हुई थी,
जिसे सुनकर मुझे
घबराहट हुई थी,
ना जाने फिर
क्या हुआ, मुझे
कुछ एहसास नहीं।
जब आंख खुली
तो देखा तू
मेरे पास नहीं,
अब तेरे हर
स्पर्श, हर सांस
को तरस रही
थी, मुझे एहसास
हुआ की मैं
अब किसी और
दुनिया में थी,
जहां न कोई
बेटा था, न
बेटी थी।
पर मां
आखिर मेरी क्या
यही गलती थी,
की मैं इस
पुरुष समाज में
एक बेटी थी,
लेकिन मां मैं
तो तेरी बेटी
थी। बच्चों के
अस्तित्व को कायम
रखने और उन्हें
सुनिश्चित दिशा प्रदान
करने में मां
की भूमिका महत्वपूर्ण
रही है। मां
की गोद में
बच्चों को जन्नत
का सुख मिलता
है। मां अपार
कष्ट सहकर बच्चों
को हर सुख
पहुंचाना चाहती है। बच्चों
के व्यक्तित्व को
निखारने व चरित्र
निर्माण में मां
का योगदान अतुलनीय
है। आज के
भौतिकवादी परिवेश में मां
के प्रति बच्चों
का दायित्व कम
हो गया है।
बच्चों को समझना
चाहिए कि इस
संसार में मां
से बढ़कर कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि मां बेटे
के इस नाता
से बड़ा कोई
दुसरा नाता नहीं
है। पूत कपूत
तो होते देखे,
माता नहीं कुमाता।
बच्चों की हर
शिसकी पर उठ
जाती है माता,
गीले में खुद
सोती है सूखे
में उसे सुलाती
है। यही वजह
है कि ईश्वर
ने भी मां
को इस दुनिया
जहान में सर्वोच्च
स्थान दिया है।
दुनिया में मां
का ऐसा रिश्ता
है जिसकी जगह
और कोई रिश्ता
नहीं ले सकता।
मां पानी की
तरह है जो
हर रंग और
हर हाल में
घुल जाती है।
संसार को चलाने
में कभी दुर्गा,
सरस्वती, काली मां
का रूप धारण
करती है। यही
नहीं मां ही
बच्चे की प्राथमिक
शिक्षक है। मां
वह तपो भूमि
है जिसकी सुगंधित
छाया से बच्चा
पथ प्रदर्शक बनकर
देश को उन्नति
की ओर अग्रसर
करता है।
मां निराशा में आशा की किरण है
दुनिया में मां
ही अकेली है
जिसे आज तक
कोई भी शब्दों
में बांध नहीं
सका है। मां....जो बच्चे
के मुख से
निकला पहला शब्द
होता है और
शायद अंतिम भी।
मां हर रोज
सुबह को जगाती
है और शाम
को चादर दे
सुला देती है।
मां हर कुछ
में है लेकिन
ऐसा व्यक्त करती
है मानो कुछ
में भी न
हो। मां...पिता
का संबल है,
बेटे की जिद्द
है और बेटी
की रीढ है।
मां निराशा में
आशा की एक
किरण है। चोट
में मलहम है,
धूप में गीली
मिट्टी है और
ठण्ड में हल्की
सी धूप है।
मां और कुछ
नहीं, बस मां
है... बस मां!!
मां...खुद में
हीं बेपनाह है।
मां बच्चे की
हर चोट पर
सिसकी है। हमारे
जीवन का हर
दिन मां के
नाम समर्पित होना
चाहिए। क्योंकि वो ही
हमारे जीवन का
आधार है। रिश्तों
के नाम पर
दिन मनाना भारत
की परम्परा नहीं
है। मगर विश्व
के ज्यादातर देशों
में आज का
दिन मां के
नाम पर समर्पित
किया जाता है।
मां का स्थान
हर यौनी में
इन्सान, पशु-पक्षी,
पृथ्वी-आकाश, पाताल सभी
में सर्वोच्य है।
जब तक पृथ्वी
पर जिंदगी है।
जब तक इन्सान
इस धरा पर
है। मां प्रथम
पूज्यनीय है। मां
नाम की ताकत
का अंदाजा आप
सिर्फ इस बात
से ही लगा
सकते हैं कि
आज तक इस
धरती पर जो
भी इंसान पैदा
हुआ उसके मुंह
से सर्वप्रथम मां
शब्द ही निकला,
ना पापा और
ना पिता, निकला
तो सिर्फ और
सिर्फ मां का
नाम।
बेटे के संस्कार की जननी है मां
जीवन का
हर सुख - दुःख
सहते हुए मां
अपने कर्तव्य पथ
से कभी नहीं
हटती। सब कुछ
सहते हुए अपने
कर्तव्यों का पालन
करती है। जब
एक बच्चा अपनी
मां की कोख
में आता है,
ठीक उसी दिन
से एक मां
की जिम्मेदारियां शुरू
हो जाती हैं।
जब तक बच्चा
जन्म नहीं लेता
और अपने पैरों
पर चलना नहीं
सीख लेता और
ठीक तरह से
खड़ा नहीं हो
जाता। बच्चों को
जीवन में आगे
बढ़ने के लिए
सभी संस्कार अपनी
मां से ही
मिलते हैं। या
यूं कहे मां
संस्कारों की जननी
है। क्योंकि एक
बच्चा सबसे ज्यादा
करीब और अपना
ज्यादा से ज्यादा
समय अपनी मां
के साथ बिताता
है। मां जीवन
के हर पथ
पर उसको आगे
बढ़ने की प्रेरणा
देती है। जीवन
जीने की कला
उसे अपनी मां
से ही सीखने
को मिलती है।
कहा जा सकता
है इस जग
में मां की
ममता का कोई
मोल नहीं है।
मां की ममता
के लिए तो
ईश्वर ने कई
बार इस धरती
पर इंसान के
रूप में जन्म
लिया। मर्यादा पुरुषोत्तम
श्रीराम, भगवान् श्रीकृष्ण इसके
सबसे सटीक उदहारण
हैं। कितना प्रेम
था कौशल्या के
राम और यशोदा
के श्याम में,
यह बताने की
जरुरत नहीं। दोनों
सब कुछ मां
कि ममता को
पाने के लिए
आतुर रहते थे।
तभी तो कहा
जाता है कि
अगर इंसान जीवन
भर मां के
चरणों को धोकर
भी पियेगा तब
भी हम उसकी
ममता, प्यार, और
आशीर्वाद का कर्ज
नहीं चुका सकते।
रिश्ते कई हैं, मां एक है!
मातृ देवो
भव, अर्थात मां
ही देवता है।
मां के जो
गुण हैं उनमें
सृजन की क्षमता
है, उसके साथ
पालन और पोषण
भी महत्वपूर्ण अंग
है। क्योंकि मनुष्य
का बच्चा बहुत
असहाय जन्मता है,
कोई पशु इतना
असहाय नहीं होता,
बहुत जल्दी आत्म
निर्भर बनता है।
लेकिन यह हुआ
जैविक, बायोलोजिकल रूप जो
कि नैसर्गिक मातृ
शक्ति है। एक
और मातृ शक्ति
है जो आध्यात्मिक
है। मानवीय मां
की दो संभावनाएं
हैं, एक जैविक
और दूसरी आत्मिक।
जैविक मातृत्व तो
प्रकृति ने दिया
है जो सभी
प्रजातियों में मौजूद
है। लेकिन आत्मिक
मां बनने के
लिए स्त्री को
बहुत तपस्या करनी
पड़ेगी। बच्चे पैदा करने
से ही कोई
मां नहीं बनती।
हृदय के विकसित
होने के बाद
मातृत्व की ऊर्जा
पैदा होती है,
फिर उसके अपने
बच्चे हों या
न हों। दया,
क्षमा, शांति, प्रेम, करुणा
सब आत्मिक मां
के गुण हैं।
जो आत्मिक मां
है वह सिर्फ
अपने बच्चों से
प्रेम नहीं करेगी,
किसी का भी
बच्चा हो, वह
उसके प्रति प्रेम
ही अनुभव करेगी।
यह प्रेम वासनामय
नहीं होगा, स्वार्थी
नहीं होगा, इसमें
कोई अपेक्षा या
पकड़ नहीं होगी,
इसमें दूसरों के
कल्याण की ही
भावना होगी।
गुस्से में भी टपकता है मां का प्यार
मां हमेशा
से ही सभी
के लिए वन्दनीय
रही है, और
रहेगी। कहा जा
सकता है मां
का कोई दिन
नहीं होता। उसका
ध्यान तो हमें
हर वक्त रखना
चाहिए। शायद हम
उसको एक पल
के लिए भूल
भी जाएं पर
मां कभी अपनी
संतान को नहीं
भूलती। फिर संतान
अच्छी हो या
बुरी वह हर
हाल में उसे
याद रखती है।
भले ही उसकी
संतान ने उससे
नाता तोड़ दिया
हो। मां के
मुंह हर वक्त
बस एक ही
बात निकलती है,
जीते रहो मेरे
बेटे......,सदा खुश
रहो। जैसे जैसे
समय गुजर रहा
है पाश्चात्य संस्कृति
हमारे ऊपर हाबी
होती जा रही
है। जैसे - जैसे
हम आधुनिकता की
चकाचौंध में खोते
जा रहे है।
वैसे - वैसे आज
हम अपनों का
मान-सम्मान करने
का भाव खोते
जा रहे हैं।
आज हम भूलते
जा रहे हैं
रिश्तों की असली
परिभाषा, फिर रिश्ता
चाहे मां-बेटे
का हो या
मां-बेटी का।
आज सब कुछ
धीरे धीरे बदल
रहा है या
बदल चुका है।
इस बदलाव को
हम सब ने
पूरी तरह से
महसूस किया है।
और महसूस कर
रही है आज
की मां। मां
तो पहले भी
बच्चों को प्रेम
और स्नेह देती
थी और आज
भी उतना ही
करती है। और
जो नहीं करती
उनके अंदर शायद
मां की ममता
नहीं है। क्योंकि
आजकल कई घटनाएं
हमारे सामने ऐसी
आती हैं और
कई घटनाएं घट
चुकी है जो
कहीं ना कहीं
हमें मां और
उसके महत्त्व से
दूर कर देती
हैं। किन्तु इस
तरह की घटनाएं
तो अपवाद हैं
जो होते रहते
हैं कभी कभी।
सिर्फ मदर्स डे पर ही नहीं हर दिन याद आएं मां
एक सत्य
ये भी है
कि आज सिर्फ
पढ़ा लिखा और
जाग्रत युवा ही
जानता है कि
मदर्स डे क्या
होती है? यह
दिन क्यों और
किसको समर्पित होता
है? शायद एक
वर्ग पढ़ा लिखा
और अनपढ़ वर्ग
ऐसा भी है
जिसे तो यह
भी नहीं मालूम
की यह दिन
कब आता है?
क्या होता है
इस दिन? मां
को याद कर
लो मां में
सम्मान में दो।
चार बड़ी - बड़ी
और अच्छी - अच्छी
बातें करके। बस
हो गया मदर्स
डे। हिंदुस्तान में
एक बहुत बड़ा
तबका ऐसा हैं
जिसे अपनी मां
का जन्मदिन तक
याद नहीं। लेकिन
इसके आलावा उसे
सारे दिन याद
हैं। मसलन आज
का इंसान, इंसान
को पूरी तरह
भूल चुका है
तो क्या मायने
रखता है उसके
लिए कोई भी
दिन। आज एक
प्रश्न है हम
सबके लिए आज
मां को जो
सम्मान मिलना चाहिए क्या
वो उसे आज
मिल रहा है?
क्या हमें मदर्स
डे पर ही
अपनी मां को
याद करना चाहिए?
क्या आज की
अति आधुनिक्तावादी और
पाश्चत्य संस्कृति में डूबी
हमारी युवा पीढ़़ी
भी समझती है
मदर्स डे का
मतलब। कभी वह
अपनी मां के
सम्मान में भी
कुछ करती हैं।
मां तो सिर्फ
इतना चाहती हैं
कि उसके बच्चे
उसे कभी ना
भूलें जब तक
वह जीवित है।
बस थोडा सा
सम्मान जो उसे
मिलना चाहिए और
जो उसका हक
है। इसके अलावा
वह कभी भी
कुछ नहीं चाहती
और ना कभी
चाहेगी। लेकिन हम सभी
को मदर्स डे
पर ही नहीं
अपितु जीवन भर
उसका मान - सम्मान
करना चाहिए। वो
अच्छी हो या
बुरी पर मां
तो मां होती
है। क्योंकि उसका
एक ऐसा कर्ज
होता है हम
सब के ऊपर
जो हम मरकर
भी नहीं उतार
सकते। क्योंकि वो
हमारी जन्म-दात्री
है। जिसके कारण
हम यह संसार
देख पाए। और
देख पाए दुनिया
भर की नेमतें
जो उसने हजारों
कष्ट सहकर हम
सब को दी।
बच्चे संग मां की भी पुर्नजन्म
जब कोई
महिला किसी बच्चे
को जन्म देती
है, तब एक
मां का भी
जन्म होता है।
यह बच्चे और
मां के बीच
अनूठा बंधन है।
दरअसल, मां शब्द
बच्चों द्वारा मां को
दिया गया है।
क्योंकि दुनिया की लगभग
सभी भाषाओं में
बच्चे जो पहला
शब्द बोलते हैं
उसका उच्चारण मां
या मा मा
जैसा होता है।
इसलिए अंग्रेजी में
मां को मॉम
कहा जाता है।
स्पेनिश में ‘मामा‘, चाइनिज भाषा में
भी मां को
‘मामा‘ कहा जाता
है। हिन्दी में
मां, वियतनामिज भाषा
में ‘मी‘ कहा जाता
है। बच्चों द्वारा
मां का उच्चारण
किए जाने की
वजह से ही
जन्म देनी वाली
महिलाओं को मां
या मदर कहा
जाता है। राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी ने कहा
था कि खरे
सोने को और
भी बेहतर किया
जा सकता है।
लेकिन कोई भी
अपनी मां को
और सुंदर नहीं
बना सकता। महात्मा
गांधी ने ठीक
कहा था क्योंकि
पूरी दुनिया में
मां से सुंदर
और संवेदनशील कोई
और नहीं होता।
मां ही एक
ऐसी शख्सियत है
जो बच्चे को
छूने मात्र से
ही बता देती
है कि बच्चा
बड़ा होकर कैसा
इंसान बनेगा? मां
बेटे के अनूठे
बंधन का सबसे
सटीक उदाहरण महाभारत
है, जिसमें अर्जुन
के बेटे अभिमन्यु
द्वारा चक्रव्यूह में घुसने
की कला मां
के गर्भ में
रहते हुए सीखी
थी। उनके पिता
अर्जुन, जब सुभद्रा
को चक्रव्यूह भेदकर
बाहर निकलने का
तरीका बता रहे
थे, तो सुभद्रा
सो गईं थी।
इसलिए अभिमन्यु चक्रव्यूह
में घुसने का
तरीका तो सीख
गए, मगर उससे
निकलने का नहीं।
आखिर में अभिमन्यु
की मौत चक्रव्यूह
में घिरकर हुई।
साएं जैसा है मां बेटे का संबंध
युनिवर्सिटी आफ कालेज
लंदन और इसेस
यूनिवर्सिटी द्वारा 16 वर्षों तक
3 से 7 वर्ष के
बच्चों पर की
गयी रिसर्च में
वैज्ञानिकों ने पता
लगाया कि अगर
मां अपने बच्चों
के साथ दिन
भर में 30 मिनट
भी बिताती है।
तो बच्चे का
विकास बहुत तेजी
से होने लगता
है। वैज्ञानिकों का
दावा है कि
जो माएं दिन
भर में सिर्फ
30 मिनट भी अपने
बच्चों के साथ
रहती हैं उनके
बच्चे पढ़ाई लिखाई
के मामले में
अव्वल आते हैं।
और बच्चों के
सीखने की क्षमता
बेहतर होती है।
अगर माएं पेंटिंग,
सिंगिंग और वाकिंग
जैसी एक्टिविटीज में
हिस्सा लेती हैं
तो बच्चे सामाजिक
रूप से ज्यादा
मजबूत बनता है।
कोलंबिया में 20 वर्षों तक
नवजात बच्चों पर
वैज्ञानिकों द्वारा किए गए
रिसर्च में ऐसे
बच्चे शामिल थे
जिनका वजन जन्म
के वक्त कम
था, या फिर
ये बच्चे समय
से पहले पैदा
हो गए थे।
ऐसे बच्चों को
प्री टर्म चाइल्ड
कहा जाता है।
इसमें पाया गया
कि जो माएं
प्री टर्म या
कम वजन वाले
बच्चों को कंगारू
केयर देती हैं।
उनके बच्चों में
इनफेक्शन का खतरा
कम हो जाता
है। और बड़े
होने पर भी
उनका स्वास्थ्य बेहतर
रहता है। कंगारू
केयर एक ऐसी
प्रक्रिया है, जिसमें
बच्चे के पैदा
होने के बाद
मां उसे सीने
से लगाकर रखती
है। इसे ठीक
वैसे ही किया
जाता है जिस
तरह मादा कंगारू
अपने बच्चो को
अपने पेट के
पास बनी थैली
में रखती है।
कोख में ही बच्चे सीख जाते है सबकुछ
यूनिवर्सिटी ऑफ बार्सिलोना
में वैज्ञानिकों द्वारा
की गयी रिसर्च
में दावा किया
गया है कि
गर्भाव्स्था के दौरान
मां के दिमाग
का एक विशेष
हिस्सा सक्रिय हो जाता
है। वैज्ञानिक इसे
बेबी ब्रेन कहते
हैं। ये बेबी
ब्रेन बच्चे के
पैदा होने के
2 वर्ष बाद तक
भी सक्रिय रहता
है। मां अपने
दिमाग के इसी
विशेष हिस्से के
जरिए बच्चे के
साथ भावनात्मक संबंध
स्थापित करती है।
और बिना कहे
उसकी जरूरतों का
पता लगा लेती
है। वैज्ञानिकों की
मानें तो मातृत्व
के दौरान मां
के शरीर में
ऑक्सी-टोकिन नामक
हार्मोन सक्रिय हो जाता
है इसे कडल
हार्मोन भी कहा
जाता है। इसी
हार्मोन की वजह
से ही माओं
में बच्चे को
सीने से लगाने
की भावना पैदा
होती है। और
माएं बच्चे के
रोने या थोड़ी
सी भी आवाज
करने पर सचेत
हो जाती हैं।
इतना ही नहीं
माओं और बच्चों
के बीच कोशिकाओं
का भी आदान-प्रदान होता है।
ये आदान-प्रदान
यानी गर्भनाल के
जरिए होता है।
एक अन्य रिसर्च
में वैज्ञानिकों ने
एक मां के
शरीर में उसके
बच्चे की कोशिकाओं
का पता लगाया
था। हैरानी की
बात ये है
कि तब उसके
बच्चे की उम्र
27 वर्ष हो चुकी
थी। यानी मातृत्व
का असर दशकों
तक रहता है।
माना जाता है
कि इंसान का
शरीर 45 डेल तक
का दर्द होता
है। साल कमस
तक का दर्द
बर्दाश्त कर सकता
है। जबकि बच्चे
के जन्म के
वक्त मां को
57 डेल तक का
दर्द होता है।
ये शरीर की
20 हड्डियों के एक
साथ टूट जाने
जितना दर्द है।
आपको बता दें
कि डेल दर्द
मापने की यूनिट
है, हालांकि प्रसव
के दौरान होने
वाले दर्द को
लेकर वैज्ञानिकों के
बीच मतभेद हैं।
लेकिन इस बात
से इनकार नहीं
किया जा सकता
है, कि ये
ताकत प्रकृति ने
सिर्फ मां को
ही दी है।
इसलिए मां को गर्भावस्था में दी जाती है नसीहत
वैज्ञानिकों का कहना
है कि खान-पान, स्वाद,
आवाज, जबान जैसी
चीजें सीखने की
बुनियाद हमारे अंदर तभी
पड़ गई थीं,
जब हम मां
के पेट में
पल रहे थे।
यही वजह है
कि गर्भवती महिलाओं
को अक्सर नसीहतें
दी जाती है
कि ज्यादा मसालेदार
चीजें न खाओ।
ये न खाओ,
वो न पियो।
ऐसा न करो,
वैसा न करो।
वरना बच्चे पर
बुरा असर पड़ेगा।
मगर, तमाम तजुर्बों
से ये बात
सामने आई है
कि गर्भवती महिलाएं,
प्रेगनेंसी के दौरान
जो कुछ भी
खाती-पीती हैं,
उसकी आदत उनके
बच्चों को भी
पड़ जाती है।
इसकी वजह भी
है। जो भी
वो खाती हैं,
वो खून के
जरिए बच्चे तक
पहुंचता ही है।
तो जैसे-जैसे
वो बढ़ता है,
वैसे-वैसे मां
के स्वाद की
आदत उसे लगती
जाती है। उत्तरी
आयरलैंड की राजधानी
बेलफास्ट की यूनिवर्सिटी
के पीटर हेपर
का दावा है
कि बच्चे में
जो भी संस्कार,
खान-पान, चलने-फिरने व व्यवहार
के गुण होते
है, वह उसे
मां से ही
मिलती है। इसकी
पुष्टि के लिए
उन्होंने कुछ गर्भवती
महिलाओं पर रिसर्च
की। इन महिलाओं
में से कुछ
ऐसी थीं, जो
लहसुन खाती थीं।
और कुछ ऐसी
भी थीं, जो
लहसुन नहीं खाती
थीं। उनका रिसर्च
सिर्फ 33 बच्चों पर था।
लेकिन, हेपर के
इस रिसर्च में
एक बात साफ
हो गई कि
जो महिलाएं गर्भ
के दौरान लहसुन
खाती थीं, उनके
बच्चों को भी
लहसुन खूब पसंद
आता था।
एक जैसा होता है मां व बच्चों का स्वाद
पीटर हेपर
के मुताबिक गर्भ
के दसवें हफ्ते
से भ्रूण, मां
के खून से
मिलने वाले पोषण
को निगलने लगता
है। यानी उसे
उसी वक्त से
मां के स्वाद
के बारे में
एहसास होने लगता
है। लहसुन के
बारे में तो
ये खास तौर
से कहा जा
सकता है, क्योंकि
इसकी महक देर
तक हमारे बदन
में बनी रहती
है। कुछ इसी
तरह के दावे
पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी, अमेरिका के भी
वैज्ञानिकों का दावा
है। उनके मुताबिक
जो महिलाएं प्रेगनेंसी
के दौरान गाजर
खूब खाती थीं।
उनके बच्चों को
भी पैदाइश के
बाद अगर गाजर
मिला बेबी फूड
दिया गया, तो
वो स्वाद उन्हें
ज्यादा पसंद आया।
यानी गाजर के
स्वाद का चस्का
उन्हें मां के
पेट से ही
लग गया था।
इंसान ही क्यों,
कई और स्तनपायी
जानवरों में भी
ऐसा देखा गया
है। पीटर हेपर
कहते हैं कि
पैदा होने के
फौरन बाद बच्चे
मां का दूध
इसीलिए आसानी से पीने
लगते हैं क्योंकि
उसके स्वाद से
वो गर्भ में
रूबरू हो चुके
होते हैं। हेपर
के मुताबिक ये
लाखों साल के
कुदरती विकास की प्रक्रिया
से आई आदत
है। मां, बच्चों
की परवरिश करती
है। उनकी रखवाली
करती है। इसलिए
बच्चों को उससे
ज्यादा अच्छी बातें कौन
सिखा सकता है?
खाने के मामले
में खास तौर
से ये कहा
जा सकता है।
दुनिया में आने
पर कोई नुकसानदेह
चीज न अंदर
चली जाए, इसीलिए
कुदरत बच्चों को
मां के पेट
में ही सिखा
देती है कि
क्या चीजें उसके
लिए सही होंगी।
ये बात खास
तौर से उन
जानवरों पर लागू
होती है, जिनकी
पैदाइश से ही
उन पर खतरा
मंडराने लगता है।
कब मिलेगा मां होने का सम्मान
मां, मम्मी,
मुंहबोली मां तो
कभी किसी दोस्त
की मां में
भी अपनी मां
नजर आती है।
लेकिन इन सब
के बीच एक
ऐसी मां है
जिसे अभी पहचान
नहीं मिल पाई
है। हालांकि, कोई
धर्म इंसानियत को
पाप नहीं बताता
लेकिन जब इंसानियत
और निःस्वार्थ सेवा
व्यवसाय बन जाता
है तो घृणा
का पात्र हो
जाता है। कहने
का अभिप्राय है
कि भारत में
सरोगेसी यानी किराए
की कोख की,
जो बच्चे को
जन्म देती है,
लेकिन मां का
दर्जा नहीं पाती।
जबकि उनके त्याग-बलिदान की तुलना
किसी से की
ही नहीं जा
सकती। क्योंकि वह
सबकुछ खोकर उस
मां के जीवन
में खुशियां बिखेरती
है जो मां
बन ही नहीं
सकती। जबकि हर
औरत का शादी
के बाद एक
ही ख्वाहिश होती
है कि उसकी
गोद में संतान
खेले, लेकिन इसे
कर्मों का फल
कहें या विधाता
की मर्जी, कुछ
महिलाओं को यह
सुख नहीं मिल
पाता। समाज के
तानों और आत्मग्लानि
की आग में
जलती ऐसी औरतों
के लिए विज्ञान
ने रास्ता निकाला
और दुनिया के
सामने आया सरोगेट
मदर का कंसेप्ट।
एक ऐसा माध्यम
जिसकी मदद से
कोई भी दंपति
अपनी संतान के
सपने को पूरा
कर सकते हैं।
जहां एक तरफ
यह नाउम्मीदों के
लिए उम्मीद बनकर
आया है वहीं
इसका व्यवसायीकरण भी
जमकर हुआ। आज
कुछ महिलाएं जहां
दूसरों की जिंदगी
खुशी से भरने
के लिए अपनी
कोख किराए पर
देतीं हैं वहीं
कुछ इसकी मदद
से अपने बच्चों
का पेट भरने
के लिए रास्ता
निकालतीं हैं। ऐसी
माताएं एक-दो
नहीं सैकड़ों में
होती है, जिन्होंने
दूसरे की मदद
या फिर अपने
बच्चों के लालन-पालन के
लिए अपनी कोख
किराए पर दी।
हालांकि, कानून और नियमों
के अनुसार सरोगेट
मदर को बाकायदा
काउंसलिंग दी जाती
है कि यह
बच्चा उसका नहीं
है साथ ही
बच्चे के जन्म
के बाद वो
उससे दूर हो
जाता है लेकिन
9 महीने अपनी कोख
में उसे पालने
वाली मां के
लिए क्या ये
सब इतना आसान
होता होगा? देश
में सरोगेसी को
लेकर विवाद जारी
है लेकिन अगर
इसे समाज और
देश पूरी तरह
अपनाता है तो
ऐसी मांओ की
भी समाज में
तब शायद वही
जगह होगी जो
एक मुह बोली
मां की होती
है।
दुनियाभर में है मां का ममत्व
सुबह हो
या शाम, सर्दी
हो या गर्मी,
घर हो या
बाहर। मां कभी
थकती या रुकती
है भला! वह
रुक जाएं तो
सृष्टि थम न
जाएं। उसमें तो
इतना सामर्थ्य है
कि वह खुद
के बुखार से
पीडित में अपना
फर्ज निभा लें।
तपती दोपहर में
जलती सड़क पर
चलते हुए भी
अपने जिगर के
टुकडे को तपन
का अहसास न
होने दें। हाथ
एक खाली हो
और बच्चे दो
हों तो एक
को हाथ से,
दुसरे को निगाहों
से सुरक्षित करती
चलें। ऐसे ममतामयी
मां को याद
करने के लिए
‘मातृ दिवस’ प्रत्येक वर्ष
मई माह के
दूसरे रविवार को
मनाया जाता है।
बेशक, मां को
खुशियां और सम्मान
देने के लिए
पूरी जिंदगी भी
कम होती है।
फिर भी विश्व
में मां के
सम्मान में मातृ
दिवस मनाया जाता
है। मदर्स डे
अलग-अलग तारीखों
पर अलग-अलग
तरीके से दुनिया
के लगभग 46 देशों
में मनाया जाता
है। परन्तु मई
माह के दूसरे
रविवार को सर्वाधिक
महत्त्व दिया जाता
है। ये सभी
के लिये एक
बड़ा उत्सव है
जब लोगों को
अपनी मां का
सम्मान करने का
मौका मिलता है।
जहां तक इसकी
शुरुवात की बात
है तो इसका
इतिहास सदियों पुराना एवं
प्राचीन है। यूनान
में बसंत ऋतु
के आगमन पर
रिहा परमेश्वर की
मां को सम्मानित
करने के लिए
यह दिवस मनाया
जाता था। बताते
हैं कि 16वीं
सदी में इंग्लैण्ड
का ईसाई समुदाय
ईशु की मां
मदर मेरी को
सम्मानित करने के
लिए यह त्योहार
मनाने लगा। इसके
बाद से दुनिया
के कई देशों
में मदर्स डे
मनाया जाने लगा।
यूके, चाईना, भारत,
यूएस, मेक्सिको, डेनमार्क,
इटली, फिनलैण्ड, तुर्की,
ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा, जापान और
बेल्जियम आदि में
बड़े ही धूमधाम
से इस दिन
माओं को कार्यक्रमों
के जरिए याद
किया जाता है।
भारत में, इसे
हर साल मई
महीने के दूसरे
रविवार को मनाया
जाता है।
अन्ना जारविस हैं मदर्स डे की संस्थापक
फिरहाल, ‘मदर्स डे‘ मनाने का मूल
कारण समस्त माओं
को सम्मान देना
और एक शिशु
के उत्थान में
उसकी महान भूमिका
को सलाम करना
है। इसको आधिकारिक
बनाने का निर्णय
पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति
वूडरो विलसन ने
8 मई, 1914 को लिया।
8 मई, 1914 में अन्ना
जारविस की कठिन
मेहनत के बाद
तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो
विल्सन ने मई
के दूसरे रविवार
को मदर्स डे
मनाने और मां
के सम्मान में
एक दिन के
अवकाश की सार्वजनिक
घोषणा की। इसीलिए
उन्हें मातृ दिवस
के संस्थापक के
रुप में भी
जाना जाता है।
यद्यपि वो अविवाहित
महिला थी और
उनको बच्चे नहीं
थे। अपनी मां
के प्यार और
परवरिश से वो
अत्यधिक प्रेरित थी और
उनकी मृत्यु के
बाद दुनिया की
सभी मां को
सम्मान और उनके
सच्चे प्यार के
प्रतीक स्वरुप एक दिन
मां को समर्पित
करने के लिये
कहा। इसके बाद
मदर्स डे की
शुरुआत अमेरिका से हुई।
वहां एक कवयित्री
और लेखिका जूलिया
वार्ड होव ने
1870 में 10 मई को
मां के नाम
समर्पित करते हुए
कई रचनाएं लिखीं।
वे मानती थीं
कि महिलाओं की
सामाजिक जिम्मेदारी व्यापक होनी
चाहिए। यही वजह
है कि अमेरिका
में मातृ दिवस
(मदर्स डे) पर
राष्ट्रीय अवकाश होता है।
अगाथा क्रिस्टी के
शब्दों में, एक
शिशु के लिए
उसकी मां का
लाड़-प्यार दुनिया
की किसी भी
वस्तु के सामने
अतुलनीय है। इस
प्रेम की कोई
सीमा नहीं होती
और ये किसी
कानून को नहीं
मानता।
कई रुपों में होता है मदर्स डे
पूर्व में, ग्रीक
के प्राचीन लोग
वार्षिक वसंत ऋतु
त्योहारों के खास
अवसरों पर अपनी
देवी माता के
लिये अत्यधिक समर्पित
थे। ग्रीक पौराणिक
कथाओं के अनुसार,
रिहिह (अर्थात् बहुत सारी
देवियों की माताओं
के साथ ही
क्रोनस की पत्नी)
के सम्मान के
लिये इस अवसर
को वो मनाते
थे। प्राचीन रोमन
लोग हिलैरिया के
नाम से एक
वसंत ऋतु त्योंहार
को भी मनाते
थे जो सीबेल
(अर्थात् एक देवी
माता) के लिये
समर्पित था। उसी
समय, मंदिर में
सीबेल देवी मां
के सामने भक्त
चढ़ावा चढ़ाते थे।
पूरा उत्सव तीन
दिन के लिये
आयोजित होता था
जिसमें ढ़ेर सारी
गतिविधियां जैसे कई
प्रकार के खेल,
परेड और चेहरा
लगाकर स्वांग रचना
होता था। कुंवारी
मैरी (ईशु की
मां) को सम्मान
देने के लिये
चौथे रविवार को
ईसाईयों के द्वारा
भी मातृ दिवस
को मनाया जाता
है। 1600 ईसवी में
इंग्लैण्ड में मातृ
दिवस मनाने उत्सव
का एक अलग
इतिहास है। ईसाई
कुंवारी मैरी की
पूजा करते हैं।
उन्हें कुछ फूल
और उपहार चढ़ाते
हैं और उन्हें
श्रद्धांजलि देते हैं।
चर्च में इस
दिन खास पूजा
की जाती है।
कुछ लोग तो
उन्हें ग्रीटिंग कार्ड और
बिस्तर पर नाश्ता
देने के दौरान
बच्चे अपनी मां
को आश्चर्यजनक उपहार
देते हैं। इस
दिन, बच्चे अपनी
मां को सुबह
देर तक सोने
देते हैं। उन्हें
तंग नहीं करते।
उनके लिये लजीज
व्यंजन बनाकर खुश करते
हैं। कुछ बच्चे
अपनी मां को
खुश करने के
लिये रेडीमेड उपहार,
कपड़े, पर्स, सहायक
सामग्री, जेवर आदि
खरीदते हैं। रात
में सभी अपने
परिवार के साथ
घर या रेस्टोरेंट
में अच्छे पकवानों
का आनन्द उठाते
हैं।
स्कूलों में भी होता है कार्यक्रम
शिक्षकों द्वारा स्कूल
में मातृ दिवस
पर एक बड़ा
उत्सव आयोजित किया
जाता है। इस
उत्सव का हिस्सा
बनने के लिये
खासतौर से छोटे
बच्चों की माताओं
को आमंत्रित किया
जाता है। इस
दिन, हर बच्चा
अपनी मां के
बारे में कविता,
निबंध लेखन, भाषण
करना, नृत्य, संगीत,
बात-चीत आदि
के द्वारा कुछ
कहता है। कक्षा
में अपने बच्चों
के लिये कुछ
कर दिखाने के
लिये स्कूल के
शिक्षकों के द्वारा
माताओं को भी
अपने बच्चों के
लिये कुछ करने
या कहने को
कहा जाता है।
आमतौर पर मां
अपने बच्चों के
लिये नृत्य और
संगीत की प्रस्तुति
देती हैं। उत्सव
के अंत में
कक्षा के सभी
विद्यार्थियों के लिये
माताएं भी कुछ
प्यारे पकवान बना कर
लाती हैं और
सभी को एक-बराबर बांट देती
हैं। बच्चे भी
अपनी मां के
लिये हाथ से
बने ग्रीटींग कार्ड
और उपहार के
रुप में दूसरी
चीजें भेंट करते
हैं। इस दिन
को अलग तरीके
से मनाने के
लिये बच्चे रेस्टोरेंट,
मॉल, पार्क आदि
जगहों पर अपने
माता-पिता के
साथ मस्ती करने
के लिये जाते
हैं।
भारत में है मदर्स डे का खासा महत्व
मां परिवार
की धुरी है
जिसका किरदार भारतीय
परिवेश में घर
की सार-संभाल,
बच्चों को परवरिश,
उनकी शादी-ब्याह
फिर पोते-पोतियों
के लालन-पालन
तक ही सीमित
माना जाता है।
लेकिन आज के
दौर में सुखद
यही है कि
मांए वे सब
कर रही हैं
जो उन्हें संपूर्ण
बनाएं। कहीं वे
अपनी शख्सियत से
लोगों के लिए
प्रेरणा बन रही
है तो कहीं
अपने बच्चों की
खास परवरिश से
उन्हें दुनिया के लिए
आदर्श बना रही
है। यही वजह
है कि भारत
में हाल के
सालों में मदर्स
डे मनाने का
चलन तेजी से
बढ़ा है। फेसबुक,
ट्वीटर, वाट्स्प से अपनी
मां के साथ
साथ दुसरे माताओं-बहनों को भी
बधाईयां देने का
सिलसिला सुबह से
ही चालू हो
जाता है।आधुनिकता के
दौर में अब
यह समाज के
लिये बहुत बड़ा
जागरुकता कार्यक्रम बन चुका
है। सभी अपने
तरीके से इस
उत्सव में भाग
लेते हैं और
इसे मनाते हैं।
इसकी बड़ी वजह
यह है कि
भारत एक महान
संस्कृति और परंपराओं
का देश है
जहां लोग अपनी
मां को पहली
प्राथमिकता देते हैं।
इसलिये, हमारे लिये मातृ
दिवस का उत्सव
बहुत मायने रखता
है। ये वो
दिन है जब
हम अपनी मां
के प्यार, देखभाल,
कड़ी मेहनत और
प्रेरणादायक विचारों को महसूस
करते हैं। हमारे
जीवन में वो
एक महान इंसान
है जिसके बिना
हम एक सरल
जीवन की कल्पना
भी नहीं कर
सकते हैं। वो
एक ऐसी व्यक्ति
हैं जो हमारे
जीवन को अपने
प्यार के साथ
बहुत आसान बना
देती है।
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