अखिलेशराज में लाखों लेकर होती थी भर्ती, अब लिक होने पर परीक्षा ही निरस्त
भर्तियोंको पारदर्शी बनाना, वक्त की मांग
जी हां, बात अखिलेशकाल की हो मायावती, बगैर पांच-दस लाख चढ़ावा के भर्ती नहीं होते थे। खलता तब था जब घर-गृहस्थी व गहने बेचकर भारी-रकम देने के बाद छंटनी इसलिए हो जाती थी कि विचौलियों के चलते चचा-भतीजे तक वसूली न पहुंचने से लिस्ट में नाम ही नहीं होता था। लेकिन आज प्रश्न पत्र लीक होने मात्र से न सिर्फ अध्यापक पात्रता परीक्षा या यूपी टेट जैसी पूरी परीक्षा रद्द हो जा रही है, बल्कि साजिशकर्ताओं को पकड़े जाने के बाद उन पर बुलडोजर जैसी कार्रवाई भी हो रही है। यह अलग बात है कि दो महीने पहले राजस्थान में रीट के नाम से हुई इस परीक्षा का प्रश्न पत्र भी लिक हो जाने के बाद सिर्फ दो-चार केन्द्रों को निरस्त कर दो संदिग्ध की गिरफ्तारी दर्शाकर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि यह सिर्फ दो राज्यों की कहानी नहीं है और ना अध्यापक पात्रता परीक्षा तक ही सीमित मुद्दा है, प्रतियोगी परीक्षाएं मेडिकल में हो या इंजीनियरिंग अथवा अन्य अधिकारियों की भर्ती के लिए प्रश्न पत्र लीक होना या लाखों ले देकर भर्ती आम चलन सा बनता जा रहा है। यह तभी रुकेगा जब योगी जैसा मुख्यमंत्री की तरह साजिशकर्ताओं को पकड़कर बुलडोजर जैसी कार्रवाई हो और जरुरत है नए पारदर्शी सिस्टम बनाने कीसुरेश गांधी
बता दें, सपा सरकार के दौरान एक
खास जाति को तरजीह देने
के आरोप कई बार लग
चुके हैं। एक खास जाति
के नाम पर चुन-चुनकर
कैंडिडेट्स को इंटरव्यू बोर्ड
तक पहुंचाया गया, फिर इंटरव्यू में उन पर जमकर
नंबर लुटाए गए। पीसीएस के पूरे इम्तिहान
और इंटरव्यू में यादव जाति के कैंडिडेट्स ऊपर
से नीचे तक छा गए
थे। इंटरव्यू में जनरल कैटिगरी के बाकी उम्मीदवारों
की योग्यता इंटरव्यू में दम तोड़ गई।
पिछड़े वर्ग में 86 उम्मीदवारों को चुना गया,
जिसमें से 50 यादव जाति के थे। लोक
सेवा आयोग के इम्तिहानों में
उम्मीदवारों का इंटरव्यू लेने
वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष मुश्ताक
अली ने खुफिया कैमरे
पर स्वीकार भी किया था।
इसी तरह पुलिस भर्ती से लेकर नगर
निगमों व नगर पंचायतों
के सफाई भर्ती हो अन्य भर्तियां
हरजगह खुलेआम वसूली के जरिए भर्ती
होती रही। लेकिन योगी सरकार ने प्रश्न पत्र
लिक की सूचना मिलते
ही पूरी परीक्ष ही निरस्त कर
दी। उसी खर्चे में फिर से परीक्षा ली
जायेगी। अभ्यर्थियों के आने-जाने
की सुविधा फ्री होगी। हालांकि बेरोजगारी के इस दौर
में इस तरह परीक्षाओं
के दौरान प्रश्न पत्र लीक होने के लिए जिम्मेदार
किसे माना जाए, सरकारों को या परीक्षाएं
कराने वाले आयोगों को अथवा हमारी
भर्ती परीक्षाओं के लिए बने
सिस्टम को, यह जांच का
मामला है। लेकिन परीक्षाओं में लाखों रुपए लेकर प्रश्नपत्र बेचे जाने की कहानी किसी
से छिपी नहीं है। परीक्षा में प्रश्न पत्र लिखकर आना या फर्जी परीक्षार्थियों
को बैठाना एक संगठित उद्योग
का रूप ले चुका है।
ऊपर से नीचे तक
मिलीभगत के खेल में
करोड़ों अरबों के वारे न्यारे
होते हैं। तो दूसरी तरफ
मेहनत करने वाले गंभीर प्रयास करने वाले युवा बेरोजगारों के सब्र की
बार बार परीक्षा ली जाती है।
कई बार तो सिर्फ निराशा
ही उनके हाथ लगती है। मामले अदालतों में पहुंचते हैं लेकिन समय रहते उन पर फैसले
नहीं हो पाते। अनेक
बार यह मुद्दा विधानसभाओं
से लेकर संसद में भी उठा, लेकिन
राजनीतिक दल इस मुद्दे
पर भी गंभीरता नहीं
दिखाती। ऐसे में जरुरत है योगी जैसे
कार्रवाईयों को और सख्त
बनाने के साथ ही
पूरी परीक्षा प्रणाली को पारदर्शी बनाने
की।
जहां तक अपनी गलतियों
को नजरअंदाज कर अखिलेश यादव
द्वारा मीडिया में बने रहने के लिए शोरगुल
मचाने का है तो
उन्हें पता होना चाहिए कि उन्होंने किस
तरह 2017 चुनाव से पहले चाहे
वह 60 हजार करोड़ की योजनाओं का
उद्घाटन हो, सरकारी विज्ञापनों की आंधी या
हार्वड विश्वविद्यालय के राजनीतिक विशेषज्ञ
स्टीव जॉर्डिंग की मदद हो
या खुलेआम हुए 1100 से अधिक दंगों
में एक वर्ग को
बचाने या पत्रकारों की
हत्याएं-लूटपाट आज भी लोगों
के जेहन में है। मतलब साफ है अखिलेश यादव
सत्ता में वापसी के लिए हर
संभव प्रयास कर रहे हैं
लेकिन वो भूल गए
कि जनता काम पर वोट देती
है और ब्रांडिंग पर
नहीं। अखिलेश सरकार के 5 साल के कार्यकाल की
बात की जाए तो
सीधे तौर पर वो हर
जगह फेल साबित हुए हैं। कानून व्यवस्था, सांप्रदायिक दंगे, भ्रष्टाचार और कड़े राजनीतिक
फैसले, हर जगह वो
बतौर मुख्यमंत्री जूझते दिखे। पांच साल की सरकार में
पिता मुलायम सिंह और चाचा शिवपाल
सिंह यादव ने उनके फैसलों
की धज्जियां उड़ाते दिखे। बार-बार अखिलेश यादव की बर्खास्तगी के
बाद भी बदनाम मंत्री
गायत्री प्रजापति, सपा प्रमुख मुलायम सिंह के आशीर्वाद से
मंत्रिमंडल में वापसी करते दिखे। सैफई महोत्सव के नाम पर
नंगा नाच हो या 2013 में
कवाल गांव में हुई एक छोटी से
छेड़छाड़ की वारदात ने
दंगों का रूप ले
लिया। पूरा मुजफ्फरनगर जिले इसकी चपेट में आया और 43 से ज्यादा लोग
मारे गए। साल 2013 में दंगों का सिलसिला यहीं
नहीं थमा। साल 2013 में पूरे प्रदेश में 823 दंगों की वारदातें हुईं।
इनमें 133 लोगों ने जान गंवाई
और 2269 से ज्यादा लोग
घायल हुए। अगले साल 2014 में भी दंगे नहीं
रुके और 644 वारदातें हुईं। इन घटनाओं में
कुल 95 लोग हताहत हुए। 2014 से 2015 के बीच सांप्रदायिक
हिंसा में 17þ बढ़ोत्तरी हुई। 2015 में भी 751 दंगे की घटनाएं हुईं
और 97 लोग मारे गए। साल दर साल पुलिस-प्रशासन दंगाई के आगे घुटने
टेकता दिखाई दिया। मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, जहानाबाद और कई जगह
दंगों की गवाह बनी।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बेहतर पुलिस
व्यवस्था के लाख दावे
किए हों लेकिन आंकड़े उनकी पोल खोलते रहे। प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ होने
वाले अपराध ने आसामान छुआ।
साल 2014 में प्रदेश भर में करीब
3,467 रेप की घटनाएं हुईं।
हैरानी वाली बात ये थी कि
अगले ही साल 2015 रेप
की वारदात में 161 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई
और 9075 रेप के मामले दर्ज
हुए। बुलंदशहर हाइवे गैंगरेप और लखनऊ आशियाना
रेप केस जैसे न जाने कितने
मामले थे, जो अखिलेश सरकार
की नाक के नीचे हुए।
ऐसी घटनाओं को रोकने की
बजाए आजम खां जैसे सपा के कद्दावर मंत्री
रेप के मामलों को
राजनीतिक रंग देते नजर आए। साल 2016 में 15 मार्च से 18 अगस्त के बीच महज
6 महीनों में 1012 रेप के मामले दर्ज
हुए। इस दौरान छेड़छाड़
के भी रिकॉर्ड 4520 मामले
दर्ज हुए। ये वो मामले
हैं जो दर्ज हो
सके, न जाने ऐसी
कितनी वारदातें ऐसी होंगी जो पुलिस-प्रशासन
की नाकामी के कारण थानों
तक पहुंच नहीं पाई होंगी। 2014 की एनसीआरबी की
सूची में उत्तर प्रदेश सबसे असुरक्षित राज्यों में से एक था।
साल 2015 में एनसीआरबी की रिपोर्ट में
प्रदेश के सबसे हाई-प्रोफाइल और वीआईपी शहर
लखनऊ को सबसे असुरक्षित
शहर कहा गया। भूमि पर कब्जा, ठेका
पट्टा, नियुक्ति के नाम पर
उगाही जैसे आरोप विपक्षी दल खुलेआम लगाते
नजर आए। आईएएस अशोक कुमार ने आरोप लगाया
कि जो मोटी रकम
अदा करता है, उसे सरकार पदोन्नति देती है। ज्यादा रुपए देने वाले अधिकारी ही जिले में
डीएम बनाकर भेजे जाते हैं। अशोक कुमार का दावा था
कि डीएम के पद के
लिए 60 से 70 लाख रुपए तक की रकम
वसूल की जाती है।
अशोक कुमार यूपी सरकार में सचिव राष्ट्रीय एकीकरण के पद पर
थे, जो बाद में
सस्पेंड कर दिए गए।
अखिलेश का 97 हजार करोड़ का घोटाला
देश की सबसे बड़ी
ऑडिट एजेंसी कैग ने 31 मार्च, 2017-18 तक यूपी में
खर्च हुए बजट की जांच के
दौरान साबित किया था कि 97 हजार
करोड़ की भारी-भरकम
धनराशि कहां-कहां और कैसे खर्च
हुई, इसका कोई हिसाब-किताब ही नहीं है।
कैग रिपोर्ट में खुलासा
हुआ कि अखिलेश सरकार
में सरकारी धन की जमकर
लूट हुई है। सरकारी योजनाओं के नाम पर
फर्जीवाड़ा कर 97 हजार करोड़ रुपए के सरकारी धन
का बंदरबांट हुआ। सबसे ज्यादा घपला समाज कल्याण, शिक्षा और पंचायतीराज विभाग
में हुआ। सिर्फ इन तीन विभागों
में 25 से 26 हजार करोड़ रुपये कहां खर्च हुए, विभागीय अफसरों ने हिसाब-किताब
की रिपोर्ट ही नहीं दी।
इससे पता चलता है कि अखिलेश
यादव की सरकार में
शासन के नाम पर
कुशासन चल रहा था।
सीएजी ने अपनी रिपोर्ट
में कहा है कि यूपी
की सपा सरकार ने साल 2012-13 में
20.58 करोड़ रुपये बेरोजगारी भत्ता बांटने के इंतजाम के
नाम पर 15.06 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। रिपोर्ट
के अनुसार 15 करोड़ रुपये की इस रकम
में 8.07 करोड़ रुपये नाश्ते-पानी और कुर्सियों पर
और बाकी 6.99 करोड़ रुपये बेरोजगारों को कार्यक्रम स्थल
पर लाने के नाम पर
उड़ा दिए गए। सीएजी के अनुसार राज्य
के 69 जिलों के लाभार्थियों को
पैसा सीधे खाते में जमा करना था। बैंक खातों की जानकारी लाभार्थियों
को आवेदन के साथ ही
देने का प्रावधान है।
अगर सरकार ऐसा करती तो जनता के
15 लाख रुपये बच सकते थे।
लेकिन करीब 1.26 लाख बेरोजगारों को तत्कालीन सीएम
ने पूरे तामझाम के साथ खुद
से चेक बांटे और सरकारी खजाने
का बंदरबांट कर दिया।
रिवर फ्रंट घोटाला
लखनऊ में गोमती रिवर फ्रंट घोटाला सपा की बड़ी घोटाला
थी। जांच में पाया गया कि इसे बनाने
में प्रोजेक्ट का बजट केवल
550 करोड़ का था। डेढ़
साल के भीतर इसकी
लागत बढ़कर 1467 करोड़ रुपये तक पहुंच गई।
सबसे बड़ी बात कि ये लागत
भी ज्यादातर समय मौखिक आधार पर बढ़ाई गईं।
प्रोजेक्ट गोमती नदी के प्रदूषण को
कम करने के लिए शुरू
किया गया था, लेकिन नालों को गोमती में
गिरने से रोकने का
इंतजाम नहीं किया गया। गोमती में पानी की रिचार्जिंग का
भी कोई इंतजाम नहीं किया गया।
लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे के घपले
इस एक्सप्रेस वे
के लिए जमीन अधिग्रहण में किसानों से औने-पौने
दाम पर जमीन खरीद
कर चार गुना मुआवजा वसूला गया। चुनाव के एलान से
पहले 21 नवंबर, 2016 को आनन-फानन
में उद्घाटन कर दिया गया
था। जनता को लुभाने के
लिए, 302 किमी के एक्सप्रेस वे
के मात्र तीन किमी के क्षेत्र पर
लड़ाकू विमान उतरवाया गया। जबकि हकीकत कुछ और ही थी।
तब इस एक्सप्रेस वे
का काम आधा-अधूरा ही था। ना
तो डिवाइडर बना था और न
डिफर लाइन। सर्विस लेन का भी अता-पता नहीं था। पूरे एक्सप्रेस वे पर कहीं
भी साइनबोर्ड नहीं लगाया गया था। लेकिन फिर भी अखिलेश यादव
ने पूरे तामझाम के साथ इसका
उद्घाटन कर दिया, क्योंकि
चुनाव आने वाले थे।
लखनऊ मेट्रो के नाम पर जनता से धोखा
अखिलेश सरकार के रहते लखनऊ
मेट्रो सेवा के लिए केंद्र
सरकार ने 550 करोड़ रुपये दे चुकी थी।
लखनऊ मेट्रो को फंड की
कमी न हो, इसके
लिए 3500 करोड़ रुपए कर्ज की भी व्यवस्था
केंद्र सरकार ने की। इसके
बावजूद साढ़े 8 किमी का ही ट्रैक
तैयार हो पाया, जबकि
पहले चरण में 23 किमी का मेट्रो ट्रैक
बनना था। चुनाव के मद्देनजर आनन
फानन में मेट्रो का उद्घाटन भी
उद्घाटन अखिलेश यादव ने कर दिया।
जबकि उद्घाटन किए जा चुके 8 किमी
ट्रैक पर बने स्टेशनों
का काम तब अधूरा ही
था। सवाल उठता है कि जब
काम पूरा ही नहीं हुआ
था, तो फिर उद्घाटन
के नाम पर जनता के
पैसे क्यों लुटा दिए ?
डायल 100 का खेल
अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री बनते
ही कहा था कि प्रदेश
की कानून व्यवस्था दुरुस्त रखेंगे। इसके लिए डायल 100 के तहत पुलिस
को सशक्त करने की बात की
थी। इसके बाद भी साल दर
साल अपराधों की संख्या बढ़ती
रही। पूरे पांच साल के कार्यकाल में
अखिलेश यादव ने प्रदेश के
सिर्फ और सिर्फ 11 जिले
में डायल 100 योजना लागू कर पाए। प्रदेश
के 64 जिलों में डायल 100 का अता-पता
नहीं था। इस प्रोजेक्ट की
लागत भी 2350 करोड़ रुपये थी।
काम भी अधूरा छोड़ा
लखनऊ का जनेश्वर मिश्र
पार्क अखिलेश सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट
था। जिसका काम भी वो आधा-अधूरा छोड़ गए। लेकिन इसके बाद भी वो इसका
उद्घाटन नहीं भूले। सवाल उठता है कि जो
काम पूरा ही नहीं हुआ,
उसके उद्घाटन के नाम पर
सरकारी खजाने से पैसे क्यों
बर्बाद किए गए। लखनऊ इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम का उद्घाटन भी
20 दिसंबर, 2016 को ही अखिलेश
यादव ने कर दिया।
लेकिन यह स्टेडियम खेल
मानकों पर कहीं से
भी खरा नहीं उतरा था। उतरेगा भी कैसे, क्योंकि
स्टेडियम में फिनिशिंग का काम अधूरा
ही था। स्टेडियम तक पहुंचने वाली
सड़कों की हालत एकदम
खस्ता थीं। पूरे स्टेडियम में कहीं भी बैठने की
व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में इसका उद्घाटन, जनता को मूर्ख बनाने
के अलावा क्या था। तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री के
हाईटेक कार्यालय का उद्घाटन भी
पूरी तरह से तैयार होने
से पहले ही कर दिया
था। जैसे कि उन्हें मालूम
था, कि अब उनकी
सरकार नहीं आने वाली। सवाल उठता है कि जो
मुख्यमंत्री अपना कार्यालय भी समय पर
नहीं बनवा सकता है वो जनता
का काम कैसे कर सकता है?
दरअसल उनकी सोच जनता के लिए तो
थी ही नहीं, उन्हें
तो सरकारी धन का दुरपयोग
और अपना चेहरा चमकाने से मतलब था।
अखिलेश यादव ने जयप्रकाश नारायण
इंटरनेशनल सेंटर (जेपीएनआईसी) का उद्घाटन भी
बिना काम पूरा हुए ही कर दिया
था। यानी वोट की लालच में
वो उस नेता का
अपमान करने से भी नहीं
चूके जिसके नाम का इस्तेमाल कर
वो सियासी रोटियां सेकते हैं।
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