...कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता!
भोजपुरी
फिल्मों
के
सुपरस्टार
दिनेश
लाल
यादव
उर्फ
निरहुआ
40 साल
की
उम्र
में
अब
बीजेपी
के
तीसरे
सांसद
बन
गए
हैं।
साल
2016 में
जब
अखिलेश
सरकार
थी,
तब
निरहुआ
को
यश
भारती
सम्मान
से
नवाजा
गया
था.
आज
निरहुआ
सपा
के
लिए
ही
चुनौती
बनकर
खड़े
हो
गए
हैं।
ये
हार
सपा
के
लिए
सालों-साल
खटकती
रहेगी
सुरेश गांधी
दुलहिन रहे बीमार, निरहुआ सटल रहे...’ जैसे सुपहरहिट गाने के बूते लोगों
के दिलों में राज करने वाले निरहुआ की सालों की
मेहनत आखिर आजमगढ़ में रंग लाई। पिछली गलतियों से सबक लेते
हुए निरहुआ इस बार न
सिर्फ मुलायम-अखिलेश के मजबूत किले
में भाजपा को तगड़ी जीत
दिलाई है। उन्होंने सपा के प्रत्याशी धर्मेंद्र
यादव को करारी शिकस्त
दी है। इस तरह भोजपुरी
फिल्मों के सुपरस्टार दिनेश
लाल यादव उर्फ निरहुआ 40 साल की उम्र में
अब बीजेपी के नए सांसद
भी बन गए हैं.
साल 2016 में जब अखिलेश सरकार
थी, तब निरहुआ को
यश भारती सम्मान से नवाजा गया
था. आज निरहुआ सपा
के लिए ही चुनौती बनकर
खड़े हो गए हैं.
ये हार सपा के लिए सालों-साल खटकती रहेगी। उधर, निरहुआ की जीत से
बीजेपी में तीन-तीन सांसद भोजपुरी इंडस्ट्री से हो गए
हैं. मनोज तिवारी, रवि किशन के बाद निरहुआ
का नाम भी इस लिस्ट
में जुड़ गया है.
निरहुआ ने लोकसभा चुनाव
2019 से ठीक पहले बीजेपी का दामन थामा
था. उन्होंने 27 मार्च 2019 को मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ की मौजूदगी में पार्टी
में शामिल हुए. आजमगढ़ से प्रत्याशी भी
घोषित हो गए, तब
उन्हें हार का सामना करना
पड़ा था. वो सूबे के
पूर्व सीएम अखिलेश यादव से 2 लाख 59 हजार 874 वोटों से हार गए
थे. अखिलेश को 621,578 और निरहुआ को
361,704 वोट मिले थे. चुनाव आयोग के मुताबिक इस
बार उपचुनाव में बीजेपी के निरहुआ को
312768 वोट मिले. जबकि सपा के धर्मेंद्र यादव
को 304089 वोट मिले. गुड्डू जमाली को 266210 वोवोट मिले. चौथे नंबर पर 4732 वोट नोटा के खाते में
आए. यहां निरहुआ 8500 से भी ज्यादा
वोटों से चुनाव जीते
हैं. माना जा रहा है
कि बसपा ने रामपुर में
वाकओववर दिया और आजमगढ़ में
अपना उम्मीदवार उतारकर सपा के सारे समीकरण
बिगाड़ दिए. गौर करने वाली बात यह है कि
शिकस्त के बावजूद निरहुआ
क्षेत्र से जुड़े रहे.
पैराशूट कैंडिडेट होने के बाद वो
आजमगढ़ की जनता के
बीच ही रहे. उनके
लिए सपा के गढ़ में
सेंध लगाना इतना आसान नहीं था क्योंकि इस
बार 2022 यूपी विधानसभा चुनावों में एम-वाई समीकरण
चला था. इस संसदीय क्षेत्र
में यादव और मुस्लिम आबादी
अच्छी खासी संख्या है. इसे साधना निरहुआ के बड़ा चैलेंज
था. हालांकि बीजेपी ने सिर्फ आजमगढ़
सीट के लिए 40 स्टार
प्रचारकों को उतारा था
ताकि सपा के गढ़ में
सेंध लगाई जा सके. बीजेपी
में अपनी रणनीति में कामयाब भी रही और उपचुनाव
में दिनेश लाल यादव (निरहुआ) 8679 वोटों से जीते.
योगी ने अपनी शपथ ग्रहण में ही निरहुआ को दी थी जीत का आर्शीवाद
यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान ’यूपी
के बच्चा-बच्चा फरमाइश में योगी, अइहें 22 में योगी जी, 27 में भी योगी जी’,
’घुस जाले बिलवा में सांप बिच्छू, गोजर, चलेला जब चाप बाबा
का बुलडोजर, यूपी से गायब भइले
सूरमा, गजोधर जैसे’ गाने लोगों की जुबान पर
है। राजनीतिक पंडितों की माने तो
यूपी में योगी की प्रचंड जीत
में निरहुआ की इन दोनों
गानों की बड़ी भूमिका
है। इसे योगी ही नहीं बल्कि
भाजपा भी मानती है
और इसी का परिणाम है
कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने शपथ
ग्रहण में किसी बड़े वहदे से नवाजने के
बजाय निरहुआ को अखिलेश यादव
द्वारा छोड़ी गयी लोकसभा सीट आजमगढ़ में होने वाले उपचुनाव को देखते हुए
जीत का आर्शीवाद दिया
था, जो हकीकत में
बदल गयी। बता दें कि साल 2016 में
जब उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार थी, तब निरहुआ को
यश भारती सम्मान से नवाजा गया
था. आज निरहुआ समाजवादी
पार्टी के लिए ही
चुनौती बनकर खड़े हो गए हैं.
ये हार समाजवादी पार्टी के लिए बड़ी
चिंताजनक है.
कभी हार नहीं मानी
दिनेश लाल यादव का जन्म 2 फरवरी,
1979 को गाजीपुर में हुआ था. कुमार यादव और चंद्रज्योति यादव
के बेटे दिनेश को असली पहचान
मिली 2007 में आई ‘हो गइल बा
प्यार ओढ़निया वाली से’ फिल्म के बाद. इस
फिल्म के गाने उसजमाने
में यूपी-बिहार और झारखंड के
लोगों की जबान पर
थे. डेब्यू के 3 वर्षों के भीतर वो
भोजपुरी के ‘जुबली स्टार’ बन गए थे.
2018 में आई उनकी मूवी
‘बॉर्डर’ ने 19 करोड़ रुपये कमाए, जो भोजपुरी फिल्मों
के लिए एक रिकॉर्ड है.
निरहुआ की पॉपुलर फिल्मों
की कतार है. जिसके बाद उनके फैन्स के बीच उनको
लेकर क्रेज बढ़ता चला गया. 2012 में आई ‘गंगा देवी’ फिल्म में वो अमिताभ बच्चन
के साथ भी काम कर
चुके हैं. सूत्रों की मानें तो
स्क्रिप्ट नहीं मिलने की वजह से
निनिरहुआ ने बॉलीवुड फिल्मों
में काम नहीं किया. उन्हें कुछ हिंदी फिल्मों के ऑफर मिल
थे. हालांकि, निरहुआ ने फिल्में करने
से मना कर दिया.
मुसलमानों की नाराजगी
मुसलमान मतदाताओं के एकमुश्त समर्थन
के कारण आजमगढ़ सीट पर यादव परिवार
का तो रामपुर सीट
पर आजम खान का दबदबा रहता
था। 2019 के लोकसभा चुनाव
में भाजपा की प्रचंड लहर
में भी सपा ने
इन दोनों सीटों पर जीत हासिल
की थी। लेकिन केवल ढाई साल में ही सपा को
इन दोनों किलों में हार का सामना करना
पड़ा है। क्या अखिलेश यादव को मुसलमानों की
नाराजगी भारी पड़ी? दरअसल, माना जा रहा है
कि मुसलमानों के एक बड़े
वर्ग में यह भावना पैदा
हो गई है कि
सपा के अध्यक्ष अखिलेश
यादव उन मुद्दों पर
हमेशा चुप्पी साध जाते हैं जिनमें मुसलमानों के साथ गलत
हो रहा होता है। आरोप है कि जब
मुसलमानों के घरों पर
बुलडोजर चल रहे थे,
तब अखिलेश यादव ने चुप्पी साधे
रखी और मुसलमानों के
साथ खड़े नहीं हुए। उन्होंने प्रशासन को कटघरे में
खड़ा करने का काम नहीं
किया। जब ज्ञानवापी का
मुद्दा चल रहा था
तब भी वे खुलकर
मुसलमानों के पक्ष में
खड़े नहीं हुए। सपा के कई मुस्लिम
नेताओं ने इसी मुद्दे
पर पार्टी का साथ भी
छोड़ दिया। आरोप है कि उन्होंने
बुरे वक्त में फंसे पार्टी के बड़े मुसलमान
नेता आजम खान का भी पक्ष
नहीं लिया। लोगों का मानना है
कि यदि वे आजम खान
के पक्ष में आंदोलन करते तो योगी आदित्यनाथ
सरकार उन्हें लंबे समय तक जेल में
बंद न रख पाती,
लेकिन अखिलेश यादव ने इन मुद्दों
पर कभी खुलकर आजम खान का पक्ष नहीं
लिया। इसका परिणाम हुआ कि आजम खान
लंबे समय तक जेल में
बंद रहे और उन्हें अपनी
रिहाई की लड़ाई अकेले
दम पर लड़नी पड़ी।
इन कारणों से मुसलमान अखिलेश
यादव से नाराज होते
चले गए। माना जा रहा है
कि इस चुनाव में
मुसलमानों की नाराजगी के
कारण ही सपा उम्मीदवारों
की करारी हार हुई है।
अंदुरुनी कलह भी बनी वजह
सपा नेताओं की आपसी अनबन
भी पार्टी की हार पर
भारी पड़ी है। कहा जा रहा है
कि सपा कार्यकर्ताओं ने वोट डालने
के लिए अपने मतदाताओं पर कोई जोर
नहीं डाला, जबकि भाजपा अपना एक-एक वोट
निकालकर बूथ तक पहुंचाने में
लगी रही। साथ ही आजमगढ़ जैसी
मुस्लिम बहुल सीट पर सपा-बसपा
के मुसलमान मतदाताओं में वोटों का विभाजन हुआ
जिसका लाभ भाजपा को मिला और
उसे जीत हासिल हुई। आरोप यह भी है
कि समाजवादी पार्टी ने बार-बार
स्थानीय लोगों पर बाहरी उम्मीदवारों
को थोपा। केवल यादव परिवार का सदस्य होने
को ही वे जीत
की गारंटी मान बैठे, जबकि बीजेपी के स्थानीय उम्मीदवार
न केवल लोकप्रियता के मामले में
सपा उम्मीदवारों पर भारी पड़े,
बल्कि आम लोगों में
भी उनके प्रति समर्थन बढ़ता चला गया।
अखिलेश का टूटता गुरुर
देखा जाएं तो आजमगढ़ और
रामपुर लोकसभा उपचुनाव के नतीजों ने
उत्तर प्रदेश की सियासत में
बड़े बदलाव की ओर इशारा
कर दिया है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में
वर्षों से चले आ
रहे मुलायम सिंह के यादव परिवार
का वर्चस्व टूटता हुआ दिखाई दे रहा है।
यादव परिवार के लिए अखिलेश
यादव की पत्नी डिंपल
यादव के बाद ये
दूसरी सबसे बड़ी हार है। कहीं न कहीं इस
हार का असर 2024 के
लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। इस
हार के कारण समाजवादी
पार्टी और खासकर इसके
प्रमुख अखिलेश यादव के लिए भविष्य
की राहें अब आसान नहीं
दिख रही हैं। जबकि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों
से पहले अखिलेश यादव सपा के सर्वमान्य नेता
बन चुके थे। लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव,
यहां भी अखिलेश और
मुलायम के साथ 80 में
से कुल 5 सीटें सपा जीत सकी। हालांकि अखिलेश ने चुनाव में
बड़ा प्रयोग जरूर किया था और मायावती
से हाथ मिलाया था लेकिन 10 सीटों
पर जीत के साथ बसपा
ही फायदे में रही। चुनाव परिणाम आने के बाद सपा
और बसपा की राहें फिर
अलग हो गईं। बीच
में 2018 में गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव हुआ और सपा ने
अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन 2019 में ये बढ़त भी
कहीं गुम हो गई। इन
दोनों सीटों पर लोकसभा उपचुनाव
का ऐलान हुआ तो माना जा
रहा था कि भाजपा
भले ही चुनौती देने
की कोशिश करेगी लेकिन समाजवादी पार्टी अपने ये दोनों गढ़
बचाने में कामयाब रहेगी। विधानसभा चुनावों के परिणाम भी
इसी ओर इशारा कर
रहे थे। लेकिन नामांकन आते-आते स्थितियां बदलती नजर आईं। अखिलेश आखिर तक पशोपेश में
रहे कि आजमगढ़ से
किसे चुनाव लड़ाया जाए? डिंपल यादव से लेकर तमाम
नाम चर्चाओं में तैरते रहे। लेकिन ऐन वक्त उन्होंने
अपने चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को टिकट दिया।
वहीं रामपुर में आजम खान की मांग पर
उनके करीबी मोहम्मद आसिम रजा को सपा से
टिकट मिला।
मायावती ने बदल दिया ’खेल’
लोकसभा उपचुनाव में मामला तब और रोचक
हो गया, जब बसपा सुप्रीमो
मायावती ने एंट्री ली।
बसपा सुप्रीमो ने आजम खान
की सीट पर प्रत्याशी नहीं
खड़ा करने का ऐलान कर
दिया। मायावती का ये कदम
आजम के पक्ष में
लिया गया माना गया। क्योंकि कुछ समय पहले ही आजम खान
के खिलाफ दर्ज मुकदमों और उन्हें जेल
भेजे जाने को लेकर मायावती
ने उनके पक्ष में बयान दिया था। अब प्रत्याशी नहीं
उतारकर इसे मायावती का आजम के
प्रति सॉफ्ट सपोर्ट माना गया।लेकिन आजमगढ़ के लिए मायावती
ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को मैदान में
उतार दिया। मायावती के इस कदम
से आजमगढ़ में हलचल मच गई। कारण
ये था कि गुड्डू
जमाली की व्यक्तिगत छवि
काफी अच्छी मानी जाती है। इसके अलावा आजमगढ़ में मुस्लिम, यादव और दलित वोट
बैंक निर्णायक माने जाते हैं। ये सपा का
गढ़ जरूर माना जाता रहा है लेकिन बसपा
का भी यहां अच्छा
जनाधार माना जा रहा है।
अखिलेश का एमवाई समीकरण टूटा
2019 के चुनाव में
निरहुआ ने आजमगढ़ की
हर गलियां छान मारी। लोगों को गाने सुनाए
और आजमगढ़ के विकास के
लिए खुद के समर्थन की
अपील की। बावजूद इसके निरहुआ दो लाख 59 हजार
वोटों से चुनाव हार
गए। अखिलेश यादव को इस चुनाव
में 6 लाख 21 हजार वोट मिले थे जबकि निरहुआ
को सिर्फ तीन लाख 61 हजार 704 वोट मिले। चुनाव हारने के बाद भी
निरहुआ निराश नहीं हुए। उन्होंने कहा था कि पक्के
इरादे के साथ आजमगढ़
में कड़ी मेहनत करेंगे और जब तक
तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे
नहीं। किस्मत ने ज्यादा वक्त
नहीं लिया और निरहुआ को
इसके लिए तीन साल बाद ही मौका दे
दिया। निरहुआ इस बार नहीं
चूके और आजमगढ़ लोकसभा
उपचुनाव में सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव को हराकर सपा
के गढ़ को आखिरकार
ध्वस्त कर ही दिया।
विकास ही होगी प्राथमिकता
निरहुआ ने कहा कि
आजमगढ़ के लिए जो
लोग मुझे बाहरी कहते हैं, उन्हें मैं बताना चाहता हूं कि आजमगढ़ में
मेरा बचपन बीता है। मेरी मौसी, बुआ व बहन आजमगढ़
में है। ऐसे में मैं बाहरी कैसे हूं। जिन लोगों ने मुझे बाहरी
कहा उनके मुंह पर यहां की
जनता से करारा तमाचा
मारा है। अब तो मैं
यहां का सांसद हो
गया हू और अब
यहीं का हो कर
रहूंगा। डबल इंजन की सरकार के
विकास कार्यों को लेकर जिस
उम्मीद से आजमगढ़ की
जनता ने मुझे संसद
में प्रतिनिधित्व का मौका दिया
है। उस पर खरा
उतरने का पूरा प्रयास
करूंगा। जिले के विकास के
लिए अब वे प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ के पास जाएंगे
और जो बन पड़ेगा
वह यहां के विकास के
लिए करेंगे। एक प्रश्न के
जवाब में उन्होंने कहा कि निश्चित तौर
अब उनका निवास आजमगढ़ में होगा। नवनिर्वाचित सांसद ने कहा कि
सपा के लोग कहते
थे कि यहां नचनियों
की जरूरत नहीं है और यहां
की जनता ने इसी नचनियां
को अपना सांसद चुनकर उनके मुंह पर करारा तमाचा
मार दिया है।
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