बलिया : चंद्रशेखर की ‘विरासत’ संभालने की छिड़ी है ‘जंग’
वीरों
की
धरती,
जवानों
का
देश,
’बागी
बलिया’
हमेशा
से
सुर्खियों
में
रहा।
बात
चाहे
आजादी
की
लड़ाई
में
ब्रतानियां
हुकूमत
की
छक्के
छुड़ा
देने
का
रहा
हो
या
सियासत
की,
मंगल
पांडेय
व
चंद्रशेखर
सिंह
की
चर्चा
किए
बगैर
पूरी
ही
नहीं
होती।
हर
तबके
के
दिलों
पर
राज
करने
वाले
चंद्रशेखर
कुल
8 बार
यहां
से
सांसद
चुने
गए।
जबकि
दो
बार
उनकी
विरासत
संभाल
रहे
उन्हीं
के
बेटे
नीरज
शेखर
इस
सीट
से
2007 और
2009 में
सांसद
रह
चुके
हैं।
यह
अलग
बात
है
कि
मोदी
लहर
में
वर्ष
2014 के
आम
चुनाव
में
उन्हें
भी
हार
का
सामना
करना
पड़ा।
हालांकि
सपा
ने
2014 में
ही
राज्यसभा
सांसद
बनाकर
उनकी
गरिमा
को
बनाएं
रखा।
लेकिन
सपा
में
उठापटक
के
सियासी
भंवर
में
उलझने
के
बजाएं
वे
2019 में
सपा
से
नाता
तोड़
भाजपा
के
हो
गए
और
उसी
दिन
फिर
से
राज्यसभा
चुन
लिए
गए।
उधर,
सपा
ने
उनकी
जगह
ब्राह्मण
कार्ड
खेलते
हुए
सनातन
पांडेय
को
मैदान
में
उतारकर
इस
सीट
को
हथियाना
चाहा,
लेकिन
कांटे
की
टक्कर
में
भाजपा
के
वीरेन्द्र
सिंह
मस्त
से
पस्त
हो
गई।
फिजा
में
बदलते
रुख
को
भापते
हुए
2024 में
अबकी
बार
400 पार
के
नारे
के
साथ
मैदान
में
उतरी
भाजपा
कोई
रिस्क
नहीं
लेना
चाहती।
यही
वजह
है
कि
भाजपा,
सपा-कांग्रेस
गठबंधन
व
बसपा
प्रत्याशी
उतारने
से
पहले
जीत
की
गारंटी
वाले
उम्मीदवार
की
छानबीन
में
अपना
सर
खपा
रही
है।
भाजपा
मस्त
को
दुबारा
मैदान
में
उतारे
या
नहीं
के
घनचक्क्र
में
उलझी
है
तो
विपक्ष
अबकी
बार
मौका खोना नहीं
चाहती।
इधर,
मस्त
के
घूर
विरोधी
रहे
सुरेन्द्र
सिंह
काफी
मान-मनौव्वल
बाद
भाजपा
में
आ
तो
गए
है,
लेकिन
उन्होंने
दो
टूक
कह
दिया
है
बीजेपी
जिसे
भी
टिकट
देगी,
हम
उसके
साथ
लगेंगे,
मस्त
चुनाव
लड़े
तो
हारेंगे.
ऐसे
धमाचौकड़ी
में
बाजी
किसके
हाथ
लगेगी
ये
तो
4 जून
को
परिणाम
बतायेंगे,
लेकिन
जातियता
की
चकरघिन्नी
में
मुकाबला
इंडी
गठबंधन
के
सपा
भाजपा
के
बीच
ही
है,
से
इनकार
नहीं
किया
जा
सकता
सुरेश गांधी
सरयू व गंगा
किनारे बसा बलिया में
इस बार का चुनाव
राष्ट्रवाद, श्रीराम मंदिर और विकास के
मुद्दे सहित जाति की
लहरों पर उफान मार
रहा है। क्योंकि सीट
पर इस बार भी
जातीय समीकरण को साधना ही
जीत का सबसे बड़ा
मंत्र है। मौजूदा सीट
बचाने की जद्दोजहद में
जुटी भाजपा जातीय किलेबंदी को तोड़ने के
लिए हरसंभव प्रयास कर रही है।
जहां तक विकास का
सवाल है तो तमाम
प्रयासों के बावजूद बलिया
का आज भी समस्याओं
से पीछा नहीं छूटा
है। कहीं सड़के नदारद
है तो कहीं उबड़-खाबड़। मेडिकल व इंजिनियरिंग कालेज भी नहीं है. यही वजह है
कि बलिया के युवा ही
नहीं अब हर तबका
विकास चाहता है। लेकिन सियासत
उनके मंसूबो पर पानी फेर
रही है। चाहकर भी
बलियावासी जातीय बंधन से आजाद
नहीं हो पा रहे
है। वक्त जब चुनाव
का है तो पार्टियां
एकबार फिर जातियों को
ही केन्द्र में रखकर उम्मींदवार
मैदान में उतारने की
जद्दोजहद में जुटी है।
मोहम्मदाबाद के सफीक का
कहना है कि मोदी-योगी के कामों
की वजह से मुस्लिम
समाज से भी कुछ
लोग उन्हें वोट कर सकते
हैं। लेकिन विपक्ष के जातीय समीकरण
को देखने के बाद फिलहाल
आप नतीजे के बारे में
कुछ नहीं कह सकते।
ऑटो चालक जर्नादन
गिरी कहते हैं कि
रेलवे एवं सड़कों का
विकास जरूर हुआ है,
लेकिन रोजगार को लेकर कुछ
नहीं किया गया। मेरे
हिसाब से यहां विकास
मुद्दा नहीं रहेगा। लोग
जाति के आधार पर
वोट करेंगे। जबकि जुनैद खान
कहते हैं, ‘हम विकास चाहते
हैं, मंदिर-मस्जिद की सियासत नहीं।
जति-धर्म में बांटकर
ध्यान भटकाने की कोशिश हो
रही है।’ फेफना के
नसीम कहते हैं-हमें
देश विरोधी कह कर बदनाम
किया जाता है। हमारा
गांव देखिए, हिन्दू-मुस्लिम सब साथ रहते
हैं। मिलजुल कर त्योहार मनाते
हैं। इस समूह को
केंद्र सरकार की तीन बातें
सबसे खराब लगती हैं।
नसीम कहते हैं-भाजपा
सरकार काम से ज्यादा
काम के प्रचार पर
लगी रही। विकास उन्हीं
इलाकों में किया जहां
उन्हें वोट मिले। सलीम
और जुनैद इसमें जोड़ते हैं- भाजपा सरकार
मुसलमानों के धार्मिक मामलों
में हस्तक्षेप कर रही है।
उन्हें इंडी गठबंधन पर
भरोसा है। हमारा भला
इंडी सरकार में ही हो
सकता है। इसलिए हम
उसके साथ हैं। यही
भाजपा को हराने में
सक्षम है। बैरिया के
दिवाकर यादव कहते है
योगीराज के बुलडोजर से
अपराध तो रुके है,
लेकिन सांसद की उपेक्षात्मक रवैये
से केन्द्रीय कल्याणकारी योजनाओं का पूरा लाभ
नहीं मिला। चुनाव पर इसका असर
भी पड़ेगा, लेकिन वे गठबंधन का
साथ देंगे। क्योंकि भाजपा सरकार में बेरोजगारी बढ़ी
है। नेशनल हाईवे तो बन रहे
हैं लेकिन गांव की सड़कों
को कोई नहीं पूछ
रहा है। भ्रष्टाचार के
खात्मे का ढिंढोरा पीटा
गया पर यह कम
नहीं हुआ। गरीबों का
शोषण बढ़ गया है।
जहूराबाद के रामचरित्र और
कुलवंत सिंह कहते हैं
तरक्की से सुरक्षा तक
भाजपा ने सब किया
है। यहां प्रधानमंत्री आवास
और टॉयलेट बने। उज्ज्वला गैस
कनेक्शन और सौभाग्य बिजली
कनेक्शन दिए गए। गांव
के सैकड़ों लोगों तक किसान सम्मान
निधि पहुंची है। इसलिए प्रत्याशी
कौन होगा, उनके लिए मायने
नहीं रखता। बलिया नगर के अनिल,
संतोष, प्रवीण, सकलाज, रामप्रीत, उमेश, भगेदू, और कलवारी कहते
हैं- मोदी और योगी
की सरकारों ने शानदार काम
किया। खेती किसानी के
लिए पैसा मिल रहा
है। राशन घोटाला रुका
है। .सब्सिडी भी खाते में
सीधे मिल रही है।
लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी
में शामिल हुए बैरिया विधानसभा
सीट से विधायक रहे
सुरेंद्रनाथ सिंह अपने बयाननों
से विवादों में रहने बीजेपी
ने 2022 के चुनाव में
टिकट काटकर पूर्व मंत्री आनंद स्वरूप शुक्ला
को उम्मीदवार बनाया था. टिकट कटने
के बाद सुरेंद्र ने
बगावत कर दी थी.
वह मुकेश सहनी के नेतृत्व
वाली विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के टिकट पर
चुनाव मैदान में थे। काफी
मान-मनौव्वल बाद भाजपा में
आ तो गए है,
लेकिन उन्होंने दो टूक कह
दिया है बीजेपी जिसे
भी टिकट देगी, हम
उसके साथ लगेंगे, मस्त
चुनाव लड़े तो हारेंगे.
इतिहास
1857 की क्रांति से
प्रसिद्ध मंगल पाण्डे की
जन्म भूमि बलिया ही
है. इतना ही नहीं
इस धरती ने कई
महान हस्तियों से देश को
नवाजा है. जिसमें चित्तू
पांडे, जय प्रकाश नारायण
और हजारी प्रसाद द्विवेदी समेत कई विभूतियों
के अलावा एक प्रधानमंत्री (चंद्रशेखर)
भी देश को दिया.
इस क्षेत्र का नाम ’राजा
बलि’ के नाम से
बलिया पड़ा. माना जाता
है कि महान ऋषि
जमदग्नि, वाल्मीकि, भृगु और दुर्वासा
आदि ऋषियों के आश्रम बलिया
में ही थे। एक
समय यहां बौध धर्म
का काफी प्रभाव था।
प्राचीन काल में बल्लिया
के नाम से जाने
जाने वाला बलिया कोसाला
राज्य में शामिल था।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में
कोसला सोलह महाजनपदों में
एक था। प्राचीन काल
के अलावा मध्ययुगीन काल में भी
इसकी महत्ता बनी रही। ब्रिटिश
राज में भी बलिया
शहर अपने त्याग, बलिदान
और साहस के लिए
जाना गया। इस शहर
का आजादी की लड़ाई में
अहम योगदान रहा। देश के
पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) के नायक मंगल
पांडे इसी जिले के
नगवां गांव में पैदा
हुए थे। 1942 के भारत छोड़ो
आंदोलन के दौरान 20 अगस्त
1942 को चित्तू पांडे ने लोकप्रिय सरकार
का गठन किया और
यहां कांग्रेस राज घोषित कर
दिया। आजादी के पहले बलिया
गाजीपुर जिले का एक
हिस्सा था। लेकिन बाद
में स्वतंत्र रूप से जिला
हो गया।
कुल मतदाता
2014 में पहली बार खिला था कमल
भरत सिंह ने
पहली बार इस सीट
पर कमल खिलाया था।
लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा के
भरत सिंह ने सपा
के प्रत्याशी नीरज शेखर को
1,39,434 वोटों से हराकर जीत
दर्ज की थी। जबकि
बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी के भाई अफजल
अंसारी को 1,63,943 और बसपा के
वीरेंद्र कुमार पाठक को 1,41,684 वोट
मिले थे। वहीं कांग्रेस
के सुधा राय को
13,501 वोटों से ही संतोष
करना पड़ा था। 2019 के
चुनाव में यहां कड़ा
मुकाबला देखने को मिला। भाजपा
के वीरेंद्र सिंह मस्त ने
4,69,114 वोट हासिल कर 15,519 वोटों के अंतर से
जीत हासिल की। वीरेंद्र सिंह
ने सपा के सनातन
पांडे को हराया, जिन्हें
4,53,595 वोट मिले थे.
वीरेन्द्र ने किया विकास का दावा
भाजपा के निवर्तमान सांसद
वीरेंद्र सिंह मस्त के
मुताबिक उन्होंने संसदीय क्षेत्र में समान रूप
से कार्य करवाए हैं। खासकर दो
ट्रेनों का परिचालन बलिया
से कराने के अलावा आरा
से बलिया रेल लाइन का
भी काम कराया गया
है। ग्रीन फील्ड एक्सप्रेसवे पर भी काम
तेजी से चल रहा
है। इसके अलावा कई
विकास परियोजनाओं की स्वीकृति भी
दिलायी है। मंडुवाडीह-नई
दिल्ली सुपर फास्ट ट्रेन
और कामायनी एक्सप्रेस को बलिया तक
विस्तार कराया और पुरानी परियोजनाओं
को बजट अवमुक्त कराकर
गति दी। सांसद निधि
से 200 से अधिक सामुदायिक
भवनों के अलावा सोलर
वाटर पंप व ओपन
जिम का निर्माण कराया
है। इसके अलावा इंटरलाकिंग
सड़क आदि के निर्माण
भी कराए गए हैं।
भरौली, महावीर और शिवपुर घाट
के जीर्णोद्धार के लिए 24 करोड़
रुपये की स्वीकृति मिली
है। रोजगार के लिए युवाओं
का पलायन रोकने के लिए बायो
पेट्रोल उत्पादन प्रोत्साहन योजना द्वारा 200 करोड़ से पहला
एथेनाल प्लांट का निर्माण कराया
जा रहा है। तेल
एवं खाद्य मंत्रालय की सहमति से
बैरिया तहसील के ख्वासपुर में
प्लांट के लिए दफ्तर
एवं भूमि की बाउंड्री
कराई जा चुकी है।
शीघ्र ही प्लांट के
उपकरण लगाने की तैयारी है।
एथेनाल प्लांट में प्रत्यक्ष एवं
अप्रत्यक्ष तरीके से युवाओं को
रोजगार मिलेगा।
कब कौन जीता
2019 वीरेंद्र
सिंह
मस्त
(बीजेपी)
2014 भरत
सिंह
(बीजेपी)
2009, 2008 उपचुनाव नीरज शेखर
(सपा)
2004, 1999, 1998, 1996, 1991 चंद्रशेखर
(सजपा)
1989 चंद्रशेखर
(जनता
दल)
1984 जगन्नाथ
चौधरी
(कांग्रेस)
1980, 1977 चंद्रशेखर
(जनता
पार्टी)
1971, 1967 चंद्रिका
प्रसाद
(कांग्रेस)
1962 मुरली
मनोहर
(कांग्रेस)
1957 राधा
मोहन
सिंह
(कांग्रेस)
1952 राम
नगीना
सिंह
(सोशलिस्ट
पार्टी)
जातिय समीकरण
बलिया में सर्वाधिक 3 लाख
आबादी ब्राह्मण की हैं. राजपूत
और यादव वोटर भी
नतीजे बदलने का दम रखते
हैं. मुस्लिम और भूमिहार भी
प्रभावशाली हैं. बलिया के
दोआबा इलाके सबसे अधिक संख्या
में ब्राह्मण रहते हैं. फिर
यादव, राजपूत व दलित वोट
हैं. तीनों वर्ग की आबादी
की संख्या यहां पर करीब
ढाई-ढाई लाख है
और मुस्लिम वोट करीब एक
लाख है. पांचों विधानसभा
सीटों में से केवल
एक सीट पर ही
बीजेपी ने जीत दर्ज
की. बाकी की सीटों
पर विपक्ष ने अपनी जीत
दर्ज की. फेफना, बैरिया
और मोहम्मदाबाद से सपा के
विधायक चुने गए, फेफना
से संग्राम सिंह को जीत
मिली और बैरिया पर
जय प्रकाश अंचल ने जीत
दर्ज की. वहीं, मोहम्मदाबाद
से विधायकी का चुनाव मन्नू
अंसारी ने जीती. जहूराबाद
से ओम प्रकाश राजभर
जोति सुभासपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
है, विधायक चुने गए. बलिया
नगर सीट पर बीजेपी
के दयाशंकर सिंह जीत गए.
कभी चंद्रशेखर की तूती बोलती थी
चंद्रशेखर कभी कांग्रेस के
युवा तुर्क हुआ करते थे.
उनके बारे में कहा
जाता था कि पूरी
राजनीतिक गलियारे में अगर कोई
ऐसा शख्स है जो
इंदिरा गांधी से एक रत्ती
नहीं डरता तो वे
चंद्रशेखर है. वे अपनी
बात को इंदिरा गांधी
के सामने भी हूबहू उन्हीं
शब्दों में रखते थे,
जिन शब्दों में उनकी गैरमौजूदगी
में बोलते थे। यही वजह
है कि जब इंदिरा
गांधी ने देश में
आपातकाल थोपा तो चंद्रशेखर
चौधरी चरण सिंह की
भारतीय लोक दल (ठस्क्)
में चले गए और
पहली बार बलिया से
कांग्रेस सत्ता को ललकारा और
जीत दर्ज की. साल
1977 में पहली बार बलिया
में चंद्रशेखर कूदे और जीते.
इसके बाद केवल 1984 की
इंदिरा के मौत के
बाद देशभर में दौड़ी कांग्रेस
की लहर में बस
एक बार चंद्रशेखर को
कांग्रेस जगन्नाथ चौधरी से हार का
सामने करना पड़ा वरना
जब तक चंद्रशेखर जिंदा
रहे, बलिया सीट पर 25 सालों
के भीतर हुए छह
लोकसभा सभा चुनाव में
उनके अलावा जनता ने किसी
और को मौका नहीं
दिया. इस सीट पर
पहली बार हुए 1952 में
चुनाव हुआ था. तब
निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर
मुरली मनोहर ने जीत हासिल
की थी. वहीं 1957 में
कांग्रेस के राधा मोहन
सिंह, 1962 में कांग्रेस के
मुरली मनोहर और 1967-1971 में कांग्रेस के
चंद्रिका प्रसाद ने दो बार
जीत हासिल की थी. आखिरी
बार इस सीट से
कांग्रेस ने 1984 में चुनाव जीता
था.
चंद्रशेखर ने कुल आठ बार (1977-2004) जीत हासिल की
इस सीट से प्रसिद्ध और दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कुल आठ बार (1977-2004) जीत हासिल की. चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर भी इस निर्वाचन क्षेत्र से दो बार 2007-2009 में सांसद पद पर रह चुके हैं. बलिया को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले चंद्रशेखर के लिए दल मायने नहीं रखता था। हालांकि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के पक्ष में चली सहानुभूति की लहर को वह भेदने में नाकाम रहे। इस चुनाव में उन्हें जगन्नाथ चौधरी ने हराया। हार की वजह से चंद्रशेखर जीत की हैट्रिक से वंचित हो गए। चंद्रशेखर ऐसे राजनेताओं की दुर्लभ नस्ल से थे, जो अपने पूरे सियासी सफर में अपनी समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहे। वह साहस और दृढ़ विश्वास के प्रतीक थे। इसका उदाहरण उनकी ओर से समय-समय पर लिए गए फैसलों से मिलता है। चंद्रशेखर वैसे तो शुरू में कांग्रेस पार्टी से ही जुड़े रहे। 1962-1977 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। ये काल उनके जीवन काल से हटा दें तो उन्होंने हमेशा कांग्रेस के विरोध की राजनीति की। 1977 में आपातकाल के समय उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। इंदिरा गांधी के ’’मुखर विरोधी’’ के तौर पर उनकी पहचान बनी। बलिया समेत पूरे देश के लोगों को शायद उनकी यही छवि प्रभावित करती थी। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बलिया से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। हालांकि उनका पैतृक घर इब्राहिमपट्टी में है, जो बलिया और मऊ जिले की सीमा पर है। इसका कुछ हिस्सा सलेमपुर लोकसभा क्षेत्र में आता है। छात्र जीवन से राजनीति का ककहरा सीखने वाले चंद्रशेखर ने आपातकाल के बाद कांग्रेस छोड़ी और 1977 के लोकसभा चुनाव में वह पहली बार भारतीय लोकदल के प्रत्याशी के तौर पर चुनावी समर में उतरे और जीत दर्ज की। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 2004 तक बराबर राजनीति में सक्रिय रहे। अपने कीर्तिमान भरे सियासी सफर में उन्होंने प्रधानमंत्री के पद को भी सुशोभित किया। खास बात यह है कि चंद्रशेखर सिंह बलिया से लोकसभा चुनाव तो लड़ते थे, लेकिन कभी भी अपने लिए जनता के बीच जाकर वोट नहीं मांगा। वह जनसभा करते थे। लोगों को संबोधित करते हुए अपनी बात को जनता के सामने पुरजोर ढंग से रखते थे। वोट मांगने का काम उनके कार्यकर्ता करते थे। उनके चुनाव लड़ने के दौरान एक लहर उनके पीछे चल पड़ती थी, जो उनकी जीत की इबारत लिखती थी। यह सिलसिला सालों तक चला। चंद्रशेखर ने जब-जब बलिया से चुनाव लड़ा, मुलायम सिंह यादव ने उनके खिलाफ कभी भी अपना प्रत्याशी नहीं उतारा। 2004 के चुनाव में वह सजपा (रा) से चुनाव लड़े तो उनके सामने बसपा और भाजपा का उम्मीदवार था। मगर उन्हें सपा का समर्थन रहा। 1999, 1998 में भी सपा का उन्हें समर्थन मिला। 1996 में चंद्रशेखर समता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े। उस समय भाजपा ने घोषणा की थी कि किसी भी उत्कृष्ट सांसद के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारेंगे। उस वर्ष चंद्रशेखर संसद में उत्कृष्ट सांसद चुने गए थे। इसलिए भाजपा ने चुनाव नहीं लड़ा।
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