इतिहास को दीवार से उतारकर चेतना में उतारता ‘क्रांतिकारी कैलेंडर’
बनारस की
धरती
पर
1857 से
पहले
जली
थी
आज़ादी
की
पहली
मशाल
क्रांतिकारी पंचांग इतिहास
को दीवार पर नहीं, हृदय में उतारने का प्रयास : राम बहादुर
राय
अज्ञात शहीदों के साहस
को नमन, बाबू जगत सिंह को समर्पित ‘क्रांतिकारी पंचांग : 2026’
काशी से उठी आज़ादी की मशाल
आज भी मिट्टी में सांस लेती है
सुरेश गांधी
वाराणसी। इतिहास केवल तारीखों और घटनाओं का संकलन नहीं होता, बल्कि वह राष्ट्र की आत्मा और भविष्य की दिशा तय करता है। इसी दृष्टि से 365 दिनों का क्रांतिकारी कैलेंडर केवल एक प्रकाशन नहीं, बल्कि भारत के विस्मृत स्वतंत्रता संग्राम को पुनर्जीवित करने का सांस्कृतिक संकल्प है। इतिहासकार आफ्टर आईएस सभा के तत्वावधान में जारी यह कैलेंडर अज्ञात शहीदों और गुमनाम क्रांतिकारियों को वह सम्मान देता है, जो अब तक इतिहास की हाशिये पर दबे रहे।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अध्यक्ष, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली, पद्म भूषण राम बहादुर राय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि इतिहास को अब “औपनिवेशिक चश्मे” से नहीं, बल्कि भारतीय दृष्टि से पढ़े जाने की आवश्यकता है। विशिष्ट अतिथि राज्यमंत्री श्री रविंद्र जायसवाल ने इसे नई पीढ़ी में राष्ट्रबोध जगाने वाला प्रयास बताया। बता दें, राम बहादुर राय ने लहुराबीर स्थित जगतगंज कोठी में मातृभूमि सेवा संस्था की ओर से प्रकाशित ‘क्रांतिकारी पंचांग–2026’ का लोकार्पण किया। इस दौरान कोठी में भ्रमण कर उन्होंने स्वतंत्रता संगाम सेनानी बाबू जगत सिंह संग्रहालय और उन पर हुए शोध कार्यो को भी देखा। कार्यक्रम में इंडो–श्रीलंका अंतरराष्ट्रीय बुद्धिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं महाबोधि सोसाइटी ऑफ इंडिया के पूर्व सचिव डॉ. के. सिरी सुमेध थेरो,उत्तर प्रदेश सरकार के स्टांप तथा न्यायालय शुल्क एवं पंजीयन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रविंद्र जायसवाल और प्रख्यात इतिहासकार डॉ. हामिद आफाक कुरैशी मौजूद रहे।बाबू जगत सिंहः बनारस का वह नायक, जिसे इतिहास ने भुला दिया
इस शोध और
कैलेंडर की सबसे बड़ी
उपलब्धि है, बाबू जगत
सिंह का पुनर्पाठ। शोध
से यह तथ्य सामने
आया है कि 1857 से
लगभग 90 वर्ष पहले ही
बनारस की धरती पर
अंग्रेज़ों के खिलाफ सशस्त्र
संघर्ष छिड़ चुका था।
बाबू जगत सिंह और
वज़ीर अली शाह के
नेतृत्व में यह आंदोलन
केवल विद्रोह नहीं, बल्कि जन-आधारित स्वतंत्रता
संग्राम था, जिसमें करीब
डेढ़ लाख लोगों की
भागीदारी रही। यह धारणा
कि भारत की पहली
आज़ादी की लड़ाई 1857 में
शुरू हुई, इस शोध
के बाद अधूरी साबित
होती है। बनारस, जो
अब तक आध्यात्मिक राजधानी
के रूप में जाना
जाता था, अब स्वाधीनता
संग्राम की आदि-भूमि
के रूप में भी
उभरता है।
हार के बाद भी न झुका बनारसी स्वाभिमान
इतिहास की एक और
विस्मृत परत तब खुलती
है, जब यह सामने
आता है कि पराजय
के बाद भी बाबू
जगत सिंह नेपाल की
तराई में छिपे नहीं,
बल्कि सीधे बनारस लौटे।
यही कारण था कि
ईस्ट इंडिया कंपनी को उन्हें गिरफ्तार
करने में तीन महीने
लगे। यह भय इस
बात का प्रमाण था
कि जगत सिंह केवल
एक सेनानायक नहीं, बल्कि जनता की चेतना
थे।
सारनाथ और पुरातत्व : इतिहास का बदला हुआ सच
1787 में बाबू जगत
सिंह द्वारा कराई गई खुदाई
के दौरान सारनाथ की बौद्ध विरासत
के प्रमाण सामने आए। इससे यह
सिद्ध हुआ कि सारनाथ
केवल आस्था का केंद्र नहीं,
बल्कि एक प्रामाणिक ऐतिहासिक
स्थल है। आज एएसआई
के पास उपलब्ध कई
साक्ष्यों की जड़ में
यही प्रयास है। यह तथ्य
औपनिवेशिक इतिहास लेखन की उस
प्रवृत्ति को चुनौती देता
है, जिसने भारतीय योगदान को जानबूझकर दबाया।
कैलेंडरः स्वतंत्रता संग्राम की गंगा
यह कैलेंडर गंगा
की तरह है, जो
गंगोत्री से निकलकर हर
घाट पर चेतना जगाती
हुई गंगासागर तक पहुंचती है।
हर दिन किसी न
किसी क्रांतिकारी का स्मरण कराता
यह कैलेंडर इतिहास को पढ़ने का
नहीं, जीने का माध्यम
बनता है। यह नई
पीढ़ी को यह एहसास
दिलाता है कि आज़ादी
सहज नहीं, बल्कि असंख्य बलिदानों की परिणति है।
इतिहास से भविष्य की ओर
इतिहास वर्तमान
को अतीत से जोड़कर
भविष्य की दिशा देता
है। जब समाज अपने
विस्मृत नायकों को पहचानता है,
तभी राष्ट्र आत्मविश्वास से भरता है।
बाबू जगत सिंह और
जैसे अनेक गुमनाम क्रांतिकारियों
का यह पुनर्पाठ भारत
की उसी आत्मा को
जाग्रत करता है। यह
कैलेंडर केवल अतीत का
स्मरण नहीं, बल्कि भविष्य के भारत का
संकल्प है।



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