घोसी : ‘प्रदर्शन’ दोहराने व ‘साख’ बचाने के बीच कायम है ‘दंगे का खौफ’
कभी
पूर्वांचल
का
मैनचेस्टर
कहा
जाने
वाला
मऊ
में
न
बुनकरों
की
बदहाली
की
चर्चा
है,
न
बदहाल
साड़ी
कारोबार
की
कोई
जिक्र।
मुद्दा
है
तो
सिर्फ
और
सिर्फ
जाति।
हर
रणबांकुरा
अपने
तरीके
से
जीत
का
ताना-बाना
जाति
समीकरण
की
उधेड़बुन
में
सिर
खफा
रहा
है।
जाति
के
विजयरथ
पर
कौन
सवार
होगा,
ये
तो
4 जून
को
पता
चलेगा।
लेकिन
बड़ी
चुनौती
भाजपा
के
सामने
प्रदर्शन
दोहराने
की
है,
तो
सपा
व
बसपा
को
अपनी
साख
बचाने
की।
इससे
इतर
मऊ
के
बनवारी
यादव
कहते
हैं,
2005 का
खूनी
खौफनाक
मंजर
आज
भी
उनकी
आंखों
के
सामने
मंडरा
रहा
है,
जिस
वक्त
मुख्तार
अंसारी
ने
अपने
वाहन
से
उतरकर
खुली
पिस्टल
लेकर
पैदल
ही
उन्हें
दौड़ा
लिया
था।
ये
तो
भगवान
का
शुक्र
है
मैं
एक
दुकान
में
घुस
गया
और
वो
आगे
बढ़
गए।
वो
दिन
याद
आते
ही
आज
भी
उनके
बदन
में
सिहरन
पैदा
करती
है।
जबकि
उन्हीं
के
बगल
में
खड़े
मंजूर
इलाही
का
कहना
है
गड़े
मुर्दे
उखाड़ने
का
कोई
मतलब
नहीं,
असल
समस्या
कारोबार
का
है,
जो
पहले
की
तुलना
में
केवल
10 फीसदी
ही
रह
गया
है।
मऊ
में
70 प्रतिशत
बुनकरों
के
पास
उनके
नाम
का
राशन
कार्ड
ही
नहीं
है।
एक
अरसे
वो
चाहते
है
कि
बुनकर
कार्ड
और
बैंक
पासबुक
के
आधार
पर
मासिक
राशन
जारी
किया
जाए,
लेकिन
कोई
सुनता
ही
नहीं
सुरेश गांधी
फिरहाल, तमसा नदी के किनारे यह इलाका खुद में रामायण और महाभारत काल की सांस्कृतिक और पुरातात्विक अवशेष को भी समेटे हुए है। मुगल सम्राट जहांगीर काल की बिनकारी मऊ के रग-रग में इस कदर समायी हुई कि तमाम जिल्लतों व परेशानियों के बावजूद आज भी इस परंपरा को लोग जिंदा रखे हुए है। हाल यह है कि मऊ और बिनकारी एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं। या यूं कहे बिनकारी इस क्षेत्र की आबोहवा में बहती है और अब यह कला मऊ की संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है। लेकिन बुरे दौर से गुजर रहे साड़ी कारोबारियों की दास्तान, बुनकरों का दर्द व बंद हो चुके स्वदेशी कॉटन और कताई मिल का फिक्र किसी को भी नहीं। यह अलग बात है कि बर्बाद होते बुनकरों की टूटती उम्मीद पर सियासत खूब चमकी। कल्पनाथ राय व्यक्तिगत छवि के दम पर दो बार कांग्रेस एक बार निर्दल और एक बार समता पार्टी से लोकसभा सांसद हुए। उनके बाद यहां की राजनीति में विकास की जगह जाति और धर्म ने ले ली, जिसके बाद, सपा व बसपा जैसी पार्टियां बाहुबलि मुख्तार अंसारी की छत्रछाया में खूब फली-फूली। उसके रुतबे का खौफ उसके मिट्टी में दफन होने के बावजूद आज भी लोगो के जेहन में है। खासकर मऊ की एकता पर उस वक्त काली छाया का दर्दनाक छाप पड़ा जब 2005 में मऊ दंगे में मुख्तार की मौजूदगी ने कहर बरपाया। खुली जिप्सी में लहराते हुए फोटो आज भी पूरे देश में वायरल है। बता दें, मऊ भीषण दंगे में कुल 17 लोगों की जान गई थी। पूरा शहर जली हुई दुकानों के चलते मरघट सा दिख रहा था। 35 दिनों तक पूरा शहर कर्फ्यू की जद में रहा। पुलिस प्रशासन से हालात न संभले तो केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया और अंत तक बीएसएफ और आरएएफ को भेजा गया तब जाकर हालात किसी तरह नियंत्रण में आएं। इस क्षेत्र में आज भी लोग कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे दिवंगत कल्पनाथ राय को विकास के लिए याद करते है। हालांकि उनकी मृत्यु के बाद इस सीट पर कांग्रेस को कभी जीत नसीब नहीं हुई. पूर्वांचल की राजनीति के बड़े नेता रहे कल्पनाथ राय के प्रयासों के कारण ही मऊ को जिले का दर्जा मिला था. घोसी लोकसभा सीट पर कड़ा और रोमांचक मुकाबला होने की प्रबल संभावना है. हालांकि लोकसभा चुनाव 2019 में यहां से बसपा उम्मीदवार अतुलराय ने जीत दर्ज की थी।
बता दें, बुनकरों
की कारगरी के लिए मशहूर
घोसी का सियासी भूगोल
मऊ जिले की चार
विधानसभा सीटों मऊ, घोसी, मोहम्मदाबाद-गोहना, मधुबन और बलिया जिले
की रसड़ा सीट मिलाकर
बुना हुआ है। पूर्वांचल
की एकाध सीटों को
छोड़ दिया जाय तो
जातीय गणित पर ही
यहां चुनावी केमिस्ट्री सधती है। पिछले
दो दशक से नतीजे
जातियों की गोलबंदी पर
ही तय हो रहे
हैं। इस बार भी
लोकसभा चुनाव में पक्ष-विपक्ष
ने जातीय शतरंज पर ही अपने
मोहरे उतारे हैं। 2014 में जीत का
स्वाद चखने वाली भाजपा
नहीं चाहती कि वो यहां
से हारे, जबकि उससे मुकाबले
के लिये सपा कांग्रेस
यानी इंडी का गठबंधन
है। देखा जाएं तो
2014 में मोदी लहर में
यह सीट भाजपा के
पाले में गई थी।
2019 में बसपा के खाते
में चली गयी। इस
बार गठबंधन के तहत यह
सीट सुभासपा के पाले में
है। सुभासपा के अध्यक्ष और
योगी सरकार में मंत्री ओमप्रकाश
राजभर के बेटे अरविंद
राजभर गठबंधन के प्रत्याशी हैं।
राजभर के लिए यह
साख और अस्तित्व की
लड़ाई है। पिछले साल
हुए घोसी विस सीट
के उपचुनाव में राजभर और
सपा से फिर भाजपा
में आए दारा सिंह
चौहान ने पूरी ताकत
लगाई थी। लेकिन, दारा
को हार का मुंह
देखना पड़ा और सपा
के सुधाकर सिंह जीत गए।
2017 में मऊ विधानसभा में
88 हजार से अधिक वोट
पाने वाले महेंद्र राजभर
सुभासपा का साथ छोड़
सपा के खेमे में
हैं। इससे भी चुनौती
बढ़ गई है। जबकि
सपा ने इस बार
राजीव राय को उम्मीदवार
बनाया है। 2014 में उन्हें यहां
1.66 लाख वोट मिले थे।
बसपा ने बालकृष्ण चौहान
को मैदान में उतारा है।
वह इस सीट से
बसपा से ही जीत
चुके है। ऐसे में
इस बार की लड़ाई
त्रिकोणीय है।
मुख्तार अंसारी की मौत को
भी सियासी मुद्दा बना दिया गया
है। मऊ व घोसी
विधानसभा में मुख्तार परिवार
का असर है। मऊ
से बेटा अब्बास अंसारी
विधायक है। 2017 में अब्बास ने
घोसी से चुनाव लड़
81 हजार से अधिक वोट
हासिल किए थे। मुख्तार
को श्रद्धांजलि देने अखिलेश यादव
घर तक गए थे।
इसलिए, सपा इसे मुस्लिम
वोटों की गोलबंदी के
अवसर के तौर पर
देख रही है। बसपा
ने पूर्व सांसद बालकृष्ण चौहान को उम्मीदवार बनाकर
पिछड़े वोटों में बंटवारे की
राह खोल सुभासपा का
संकट और बढ़ा दिया
है। हालांकि, राजभर बिरादरी के यहां प्रभावी
वोट हैं। सुभासपा ने
2009 में यहां बिना किसी
बड़ी राजनीतिक पहचान के उम्मीदवारी कर
58 हजार से अधिक वोट
हासिल किए थे। हाल
में बिच्छेलाल राजभर को एमएलसी बनाकर
ओम प्रकाश राजभर ने यह समीकरण
और दुरुस्त किया है। भाजपा
की भी राजनीतिक जमीन
मजबूत है। मुख्तार के
मुद्दे पर प्रतिक्रियात्मक ध्रुवीकरण
की संभावनाएं भी खुली हैं।
ओमप्रकाश राजभर का दावा है
कि बेहतर सामाजिक समीकरणों और पूर्वांचल में
किए गए विकास कार्यों
के कारण उसे इस
बार यहां से जीत
मिलेगी।
चुनावी मुद्दे
बेरोजगारी, बन्द पडी कताई
व काटन मिल को
चालू कराना, व्यापार में दशको से
बाधा बनी जिले के
बीच बाल निकेतन रेलवे
क्रासिंग पर अन्डर ब्रिज
या ओवरब्रिज। जिले में आईआईटी
या उच्च शिक्षण संस्थान।
युवाओ का पलायन रोकना,
जनपद में रोजगार का
सृजन करना। बुनकरों को सहूलियते देना।
जनपद से लम्बी दूरी
की ट्रेनो का संचालन प्रमुख
चुनावी मुद्दे है। राजकरन कहते
है कल्पनाथ राय के निधन
के बाद से विकास
कार्यों का टोटा लगा
हुआ है और यहां
पर बंद पड़े दो
कताई मील धूल चाट
रही हैं। मतदाताओं का
कहना है कि यहां
उच्च शिक्षा संस्थानों का अभाव है।
बाहरी प्रतिनिधित्व के कारण विकास
के मामले में मऊ उपेक्षा
का शिकार है। वर्तमान सांसद
अतुल राय का पूरा
5 वर्ष का कार्यकाल जेल
में ही बीत गया।
इस बार स्थानीय प्रतिनिधित्व
भी एक अहम मुद्दा
है। बुनकरों के लिए अपना
माल बेचने के लिए कोई
बाजार नहीं। देवांचल में बारिश के
मौसम में बाढ़ का
कहर और गर्मी के
मौसम में आग का
तांडव मधुबन विधानसभा के ग्रामीणों को
झेलना पड़ता है।
जातीय समीकरण
घोसी लोकसभा सीट
पर दलित वोटर सबसे
अधिक हैं। इसके बाद
मुस्लिम और फिर यादव
और अन्य जातियों का
नम्बर आता है। 2011 की
जनगणना के मुताबिक यहां
दलित 4 लाख 50 हजार, वैश्य 77 हजार, विश्वकर्मा 35 हजार 500, मुस्लिम 2 लाख 42 हजार, राजपूत 68 हजार, भूमिहार 35 हजार, यादव 1 लाख 75 हजार, ब्राम्हण 58 हजार, प्रजापति 29 हजार, चौहान 1 लाख 45 हजार, मौर्या 39 हजार 500, राजभर 1 लाख 25 हजार व निषाद
37 हजार के अलावा बाकी
अन्य जातियां है।
2014 किसे कितना वोट मिला
2014 में पहली बार मोदी लहर में बीजेपी ने जीत पाई थी और हरिनारायण राजभर यहां से सांसद बने। इस चुनाव में हरिनारायण राजभर को कुल 3 लाख 79 हज़ार 797 वोट मिले थे, जबकि दूसरे नंबर पर बसपा से दारा सिंह चौहान रहे। दारा सिंह चौहान को कुल 2 लाख 33 हज़ार 782 वोट मिले थे। तीसरे नंबर पर कौमी एकता दल से चुनाव लड़ रहे मुख्तार अंसारी रहे। इस चुनाव में मुख्तार को कुल 1 लाख 66 हज़ार 443 वोट मिले।
भाजपा हरीनारायण राजभर
3,79,797
बसपा दारा सिहं
चौहान
2,33,782
कौमी दल
मुख्तार अंसारी 1,66,369
सपा राजीव कुमार
राय
1,65,887
कांग्रेस कुवर
सिहं 19,315
सीपीआई अतुल कुमार
अन्जान 18,162
2019 में किसे कितना वोट मिला
2019 के लोकसभा चुनाव
में सपा-बसपा गठबंधन
में बसपा प्रत्याशी अतुल
राय ने भाजपा के
हरि नारायण राजभर को हराकर यह
सीट गठबंधन के तहत अपने
नाम कर ली। बीएसपी
के प्रत्याशी अतुल राय ने
1,22,568 मतों के अंतर से
जीत दर्ज़ किया। उन्हें
5,73,829 वोट मिले। जबकि भाजपा के
उम्मीदवार रविद्र कुशवाहा को 4,51,261 वोट मिले। इस
निर्वाचन क्षेत्र में 59.25 फीसदी मतदान हुआ था। कांग्रेस
के बालकृष्ण चौहान तीसरे स्थान पर रहे थे.
घोसी लोकसभा सीट
पर मतदाताओं की संख्या 20 लाख,
55 हज़ार, 880 हैं। इसमें पुरुष
मतदाता 10 लाख, 90 हज़ार, 327 महिला मतदाता 09 लाख, 65 हज़ार 407 व थर्ड जेंडर
84 हैं। जबकि विधानसभावार मतदाताओं
की सूची में 353 मधुबन
विधानसभा में 4 लाख, 04 हजार, 385 मतदाता है। 354 घोसी विधानसभा में
4 लाख, 36 हजार, 721 मतदाता है। 355 मोहम्मदाबाद गोहाना विधानसभा में 3 लाख, 78 हजार, 772 मतदाता है। 356 सदर विधानसभा में
4 लाख, 72 हजार, 641 व रसड़ा विधानसभा
में 3 लाख, 63 हजार, 361 मतदाता है।
इतिहास
कब कौन जीता
1952 के पहले लोकसभा
चुनाव में यह सीट
आजमगढ़ पूर्वी लोकसभा सीट के नाम
से जानी जाती थी।
बाद में इसका नाम
घोसी हो गया। पहले
आम चुनाव में कांग्रेस के
अलगू राय शास्त्री 47551 वोट
पाकर जीते। 57 में कांग्रेस के
उमराव सिंह सांसद बने।
इसके बाद 1962, 67 और 71 और 80 तक कम्युनिस्ट पार्टी
जीती, लेकिन उसके बाद वामपंथ
पांव यहां से उखड़ने
लगे। 1977 में यह सीट
भी जनता पार्टी की
लहर में बह गयी।
1984 में राजकुमार राय ने कांग्रेस
को जीत दिलायी, जिसे
89 और 91 में कल्पनाथ राय
ने जारी रखा। राय
96 में निर्दल और 98 में समता पार्टी
के टिकट पर फिर
चुनकर आए। उनकी मौत
के बाद 99 के उपचुनाव में
बसपा के बालकृष्ण चौहान
सांसद ने खाता खोला,
जिन्हें 2024 में मायावती ने
एकबार फिर अपना उम्मीदवार
बनाया है। 2004 में सपा के
चन्द्रदेव और 2009 में बसपा के
दारा सिंह चौहान के
बाद 2014 की मोदी लहर
में घोसी से बीजेपी
के हरिनारायण राजभर सांसद चुने गए।
1952 : अलगू राय
शास्त्री
(कांग्रेस)
1957 : उमराव सिहं
(कांग्रेस)
1962 : जय़ बहादूर सिहं
(सीपीआई)
1969 : झारखन्डे राय
(सीपीआई)
1971 : झारखन्डे राय
(सीपीआई)
1977 : शिवराम राय
(जनता
पार्टी)
1980 : झारखऩ्डे राय
(सीपीआई)
1984 : राजकुमार राय
(कांग्रेस)
1989 : कल्पनाथ राय
(कांग्रेस)
1991 : कल्पनाथ राय
(कांग्रेस)
1996 : कल्पनाथ राय
(निर्दलीय)
1998 : कल्पनाथ राय
(समता
पार्टी)
1999 : बालकृष्ण चुनाव
(बसपा)
2004 : चन्द्रदेव राजभर
(सपा)
2009 : दारा सिंह
चौहान
(बसपा)
2014 : हरिनारायाण राजभर
(भाजपा)
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