देव दीपावली : काशी में ‘देवत्व‘ के ‘दीप‘
अर्द्धचंद्राकार में गंगा के किनारे चमकते-दमकते घाटों की कतारबद्ध श्रृंखलाएं। घाटों पर विद्युत झालरों की झिलमिलाहट व असंख्य दीयों में टिमटिमाती रोशनी की मालाएं, आकर्षक आतिशबाजी की चकाचौंध। बजते घंट-घडियालों व शंखों की गूंज। आस्था एवं विश्वास से लबरेज देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु। हर हाथ में दीपकों से थाली और मन में उमंगों की उठान। स्वर्णिम किरणों में नहाएं घाटों पर अविरल मंत्रोंचार। कल-कल बहती पतित पावनि मां गंगा। ऐसा विहगंम व मनोरम दृष्य मानों देवता वास्तव में इस पृथ्वी पर दीवाली मनाने आ रहे हो। मानों गंगा के रास्ते देवताओं की टोली आने वाली है और उन्हीं के स्वागत में काशी के 100 से अधिक घाट 15 लाख से भी अधिक टिमटिमाती दीयों की रोशनी में नहाएं से दिखाई देंगे। खास यह है कि इस बार देव दीपावली 15 नवंबर को है। अयोध्या दीपोत्सव के बाद अब काशी में दिव्य, भव्य च विहंगम देव-दीपावली की होगीऋतुओं में श्रेष्ठ शरद
ऋतु, मासों में श्रेष्ठ ‘कार्तिक
मास’ तथा तिथियों में
श्रेष्ठ पूर्णमासी यानी प्रकृति का
अनोखा माह तो है
ही, त्योहारों, उत्सवों के माह कार्तिक
की अंतिम तिथि देव-दीपावली
है। इसे देवताओं का
दिन भी कहा जाता
है। तभी तो ‘देव
दीपावली‘ का उत्साह चारों
ओर दिखाई देता है। कार्तिक
माह के प्रारंभ से
ही दीपदान एवं आकाश दीप
प्रज्जवलित करने की व्यवस्था
के पीछे धरती को
प्रकाश से आलोकित करने
का भाव रहा है,
क्योंकि शरद ऋुतु से
भगवान भास्कर की गति दिन
में तेज हो जाती
है और रात में
धीमी। इसका नतीजा यह
होता है कि दिन
छोटा होने लगता है
और रात बड़ी, यानी
अंधेरे का प्रभाव बढ़ने
लगता है। इसलिए इससे
लड़ने का उद्यम है
दीप जलाना। दीप को ईश्वर
का नेत्र भी माना जाता
है। इस दृष्टिकोण से
भी दीप प्रज्जवलित किए
जाते हैं। इस माह
की पवित्रता इस बात से
भी है कि इसी
माह में ब्रह्मा, विष्णु,
शिव, अंगिरा और आदित्य आदि
ने महापुनीत पर्वों को प्रमाणित किया
है।
इस माह किये
हुए स्नान, दान, होम, यज्ञ
और उपासना आदि का अनन्त
फल है। इसी पूर्णिमा
के दिन सायंकाल भगवान
विष्णु का मत्स्यावतार हुआ
था, तो इसी तिथि
को अपने अत्याचार से
तीनों लोकों को दहला देने
वाले त्रिपुरासुर का भगवान भोलेनाथ
ने वध किया। उसके
भार से नभ, जल,
थल के प्राणियों समेत
देवताओं को मुक्ति दिलाई
और अपने हाथों बसाई।
काशी के अहंकारी राजा
दिवोदास के अहंकार को
भी नष्ट कर दिया।
इसीलिए काशीपुराधिपति बाबा विश्वनाथ का
एक नाम त्रिपुरारी भी
है। त्रिपुर नामक राक्षस के
मारे जाने के बाद
देवताओं ने स्वर्ग से
लेकर काशी में दीप
जलाकर खुशियां मनाई। तभी से तीनों
लोकों में न्यारी काशी
में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवताओं
के दीवाली मनाने की मान्यता है।
देवताओं ने ही इसे
देव दीपावली नाम दिया। कहते
है उस दौरान काशी
में भी रह रहे
देवताओं ने दीप जलाकर
देव दीपावली मनाई। तभी से इस
पर्व को कार्तिक पूर्णिमा
के अवसर पर काशी
के घाटों पर दीप जलाकर
मनाया जाने लगा।
इस दिन घाटों की दीए देखने के बाद अद्भुत, अकल्पनीय, अविस्मरणीय, आनंदकारी, अद्वितीय, अलौकिक, अविश्वसनीय जैसे सारे शब्द कम पड़ जाते है। इस दिन कार्तिक पूर्णिमा के चंद्र की धवल किरणें गंगा की लहरों पर अठखेलियां कर रही होती है तो दूसरी ओर घाट की सीढ़ियों पर रोशन लाखों दीपक सितारों की फौज के धरती पर उतर आने का आभास करा रहे होते है। गंगा की लहरों पर हिचकोले खाती, सजी-धजी नौकाओं पर यह नजारा देखते ही बनता है। अस्सी से राजघाट के बीच घाट पर बने मठों, मंदिरों, महलों, शिवालों हर लम्हा रंग बदलती रोशनी और घाटों पर जगमग दीपकों के प्रतिबिंब गंगा की लहरों पर पड़ कर अलग ही चित्र संरचना कर रहे होते है। गंगा की लहरों पर पड़ती सतरंगी रोशनी, जलधारा पर तैरती चंद्रकिरणों के साथ मिल कर कभी जल में तैरते इंद्रधनुष सी नजर आती तो कभी गंगा की लहरों पर प्रवाहित हो रहे दीप गंगा में आकाश गंगा जैसी अनुभूति करा रहे होते है। ऐसा प्रतीत होता मानो सुनहरी और रूपहली किरणधाराएं सैकड़ों टिमटिमाते सितारों के बीच से होकर गुजर रही है।
देवताओं ने तोड़ा दिवोदास का अहंकार
कहते है त्रिपुर
नामक राक्षस द्वारा काशी में उस
दौरान देवताओं के प्रवेश पर
प्रतिबंद्ध लगा दी गई
थी। उसके अहंकार से
देवलोक में हड़कंप मच
गया। कोई देवी-देवता
काशी आने को तैयार
नहीं होता। कार्तिक मास में पंच
गंगा घाट पर गंगा
स्नान के महात्म्य का
लाभ का लेने के
लिए चुपके से साधुवेश में
देवतागण आते थे और
गंगा स्नान कर चले जाते।
उसी दौरान त्रिपुर नामक दैत्य को
भगवान भोलेनाथ ने वध किया
और अहंकारी राजा दिवोदास के
अहंकार को नष्ट कर
दिया। राक्षस के मारे जाने
के बाद देवताओं की
विजय स्वर्ग में दीप जलाकर
देवताओं ने खुशी मनाई।
इस दिन को देवताओं
ने विजय दिवस माना
और खुशी मनाने के
लिए कार्तिक पूर्णिमा पर काशी आने
लगे। काशी आने का
मकसद भगवान भोलेनाथ की महाआरती करने
का भी था। वैसे
भी कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा का
सम्पूर्ण प्रकाश पृथ्वी को प्रकाशित करता
है तथा दीयों के
प्रकाश के साथ मिल
कर एक विशेष प्रकार
की आभा उत्पन्न करता
है, जिससे देवताओं की प्रसन्नता की
अनुभूति होती है। ऐसा
लगता है मानो पृथ्वी
पर पूरा दिव्यलोक उतर
आया हो। देव दीपावली
दीयों से संबंधित उत्सव
है। काशी के गंगाघाट
पर इस दिन सूर्यास्त
के पश्चात चन्द्रोदय के समय गंगा
की विधिवत पूजा एवं अर्चना
के साथ दीये जलाएं
जाते हैं। परम्परा और
आधुनिकता का अदभुत संगम
देव दीपावली धर्म परायण महारानी
अहिल्याबाई से भी जुड़ा
है। अहिल्याबाई होल्कर ने प्रसिद्ध पंचगंगा
घाट पर पत्थरों से
बना खूबसूरत हजारा दीप स्तंभ स्थापित
किया था जो इस
परम्परा का साक्षी है।
आधुनिक देव दीपावली की
शुरुआत दो दशक पूर्व
यहीं से हुई थी।
पंचगंगा घाट
बनारस में पंचगंगा घाट
का संबंध कबीर से है।
इसी घाट की सीढ़ियों
पर लेटे कबीर को
स्वामी रामानंद ने राम नाम
की दीक्षा दी थी। कार्तिक
पूर्णिमा के दिन इसी
घाट पर देव दीपावली
मनाई जाती है। इस
घाट पर अहिल्याबाई होल्कर
द्वारा बनवाया गया खूबसूरत हजारा
दीप स्तंभ भी है। सीढ़ियों
पर जगमगाते हजारों दीप और सामने
कलकल बहती गंगा की
लहरों पर थिरकते छोटे-छोटे दीप मन
को बांध लेते थे।
लेकिन 1980 के दशक से
देव दीपावली का विस्तार होता
गया और अब यह
आयोजन सभी चौरासी घाटों
तक फैलकर महोत्सव का रूप ले
चुका है। अब इसकी
ख्याति सात समुद्र पार
तक पहुंच गई है। काशी
में केवल घाटों पर
ही नहीं, बल्कि नगर के तालाबों,
कुंओं एवं सरोवरों पर
भी देव दीपावली मनाई
जाने लगी है। गंगा
पार रेती पर भी
लाखों दीपक जलाए जाते
हैं।
ज्योतिरुप में प्रकट हुए थे महादेव
मान्यता है कि इस दिन देवताओं का पृथ्वी पर आगमन होता है। इस प्रसन्नता के वशीभूत दीये जलाये जाते हैं। वैसे भी इस समय प्रकृति विशेष प्रकार का व्यवहार करती है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है और वातावरण में आह्लाद एवं उत्साह भर जाता है। इससे समस्त पृथ्वी पर प्रसन्नता छा जाती है। पृथ्वी पर इस प्रसन्नता का एक खास कारण यह भी है कि पूरे कार्तिक मास में विभिन्न व्रत-पर्व एवं उत्सवों का आयोजन होता है, जिनसे पूरे वर्ष सकारात्मक कार्य करने का संकल्प मिलता है। इसके अलावा नरकासुर को मारने के लिए अग्नि और वासुदेव के यहयोग से जन्मे कार्तिकेय को देवसेना का अधिपति बनाया गया, लेकिन भाई गणेश का विवाह कर दिये जाने के कारण कार्तिकेय रुष्ट होकर कार्तिक पूर्णिमा को ही क्रौंच पर्वत पर चले गए थे। कार्तिकेय के स्नेह माता पार्वती एवं पिता महादेव वहां ज्योति रुप में प्रकट हुए थे।
छह कृतिकाओं
से पालित कार्तिकेय के क्रौंच पर्वत
पर जाने और ज्योति
रुप में पार्वती-महादेव
के प्रकट होने को यदि
योगशास्त्र के कसौटी पर
कसा जाएं, तो षटचक्रो, यथा-मूलाधार, स्वाधिष्ठान,, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र
को जाग्रत कर सहस्त्रार में
ज्योति रुप में शिवा-शिव का प्रकट
होना परिलक्षित होता है। कार्तिक
पूर्णिमा को भगवान शंकर
द्वारा त्रिपुरासुर के बध से
साफ लगता है कि
योग की उच्चतम स्थिति
समाधि के देवता भगवान
शंकर दैहिक, दैविक और भौतिक तपों
या सत-रज-तमों
गुणों से उपर उठकर
देवत्व तक पहुंचने का
संदेश दे रहे हैं।
ऐसी स्थिति में यह परमानंद
से जुड़ने का काल है।
आकाश में कृतिका नक्षत्र,
चंद्र-सूर्य राशियों में परिर्वतन की
स्थिति में इस अवधि
में साधना कर पूरे वर्ष
तक आनंद, परमानंद का दीप प्रज्जवलित
किया जा सकता है।
महाभारत के शांति पर्व
के अनुसार, कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष
की एकादशी से पूर्णिमा तक
शर-शैया पर लेटे
भीष्म ने योगेश्वर कृष्ण
की उपस्थिति में पांडवों को
राष्ट्रधर्म, दानधर्म और मोक्षधर्म का
उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण
ने इस अवधि को
भीष्म पंचक कहा। स्कंदपुराण
में ज्ञान का यह काल
इतना शुभ है कि
इस अवधि में व्रत,
उपवास, सदाचार, दान का विशेष
महत्व है। विभिन्न पुराणों
में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव
मंदिरों, नदी के तटों
पर दीप जलाने का
प्रावधान है। ज्ञान, सदाचार,
सद्भाव आदि भी व्यक्ति
के जीवन में आत्मबल
के दीपक बनकर रोशनी
करते हैं।
15 को है देव दीपावली
इस बार देव
दीपावली 15 नवंबर को है। अयोध्या
के दीपोत्सव के बाद अब
देवों के देव महादेव
की नगरी काशी की
विश्वप्रसिद्ध देव दीपावली के
जरिये सनातन धर्म की आभा
विश्व को प्रभावित करेगी।
देव दीपावली पर संस्कृति, विरासत
और परंपरा के संरक्षण के
साथ ही अब आधुनिकता
का समावेश भी दिखेगा। काशी
के ऐतिहासिक घाट की दीवार
पर सनातन धर्म के अभिन्न
अध्यायों का थ्रीडी प्रोजेक्शन
के जरिये चित्रण करेगी। चेतसिंह घाट पर थ्रीडी
प्रोजेक्शन मैपिंग लेजर शो के
माध्यम से आधे घंटे
का शिव महिमा और
मां गंगा के अवतरण
पर आधारित शो होगा। प्रक्रिया
के अंतर्गत आधे घंटे का
शो होना निर्धारित है,
जो तीन बार प्रसारित
किया जाएगा। खास यह है
कि इस बार उत्तरवाहिनी
जाह्नवी के दोनों तट
पर देव दीपावली और
भी विहंगम होगा। एक तरफ अंर्ध
चंद्राकार घाटों पर 15 लाख दीएं जलेंगे
तो दुसरी तरफ शहर के
स्वयंसेवी संगठनों, व्यापारिक संगठनों के अलावा विभिन्न
मंदिरों की तरफ से
पांच लाख दीये जलाये
जायेंगे। इसके अलावा कुंडों,
तालाबों और सरोवरों के
किनारे भी दीपों की
रोशनी से जगमग होंगे।
श्री काशी विश्वनाथ धाम
के गंगा द्वार के
सामने उस पार रेत
पर शिव के भजनों
और धुनों पर ग्रीन क्रैकर्स
के जरिये ईको-फ्रेंडली की
अद्भुत रोशनी में छटा बिखरेगी।
आकाश को जीवंत करती
रंगों और पैटर्न से
रोशन करने वाले क्रैकर
शो, लेज़र शो और
संगीत के संगम अद्भूत
नजारा होगा।
श्रीकृष्ण ने की थी रासलीला
भागवतकथा के अनुसार श्रीकृष्ण
ने शरद पूर्णिमा को
रासलीला की थी। लोक
भी यही मानता है।
शरदोत्फुल्ल मल्लिका वाली रातों में
जिसने रासलीला की, मनोहर कल्पना
की वह भी साक्षात
रसमूर्ति था। वह काशी
लोक की इसी भावभूमि
पर स्थित है। यह हमारा
लोकमंगल ही है जो
पूरे कार्तिक मास को उत्सव
का महीना बना देता है
और पूर्णिमा के दिन अपने
भावों को शत-शत
दीयों के माध्यम से
प्रकृति के इस अनोखे
सौंदर्य के प्रति समर्पित
कर देता है।
अंतरराष्ट्रीय ख्याति
देव दीपावली का
यह आकर्षण अब अंतरराष्ट्रीय हो
गया है। यह उत्सव
काशी की संस्कृति की
अपनी पहचान बन गया है।
हां, इस सबके बीच
मेरा मन गंगा की
धार के साथ जुड़
जाता है। दीया प्रकाशक
तत्व है। इसलिए वह
ज्ञान का प्रतीक है।
दीप जलाने का अभिप्राय देवता
की उपस्थिति का ज्ञान होना
है और देवता के
साथ मनुष्य के संबंध का
ज्ञान होना है। हम
प्रयास करें कि इस
दिन जलने वाले लाखों
दीये हमारे देवत्व से हमारा परिचय
करा सकें।
देव दीपावली की वैश्विक पहचान
काशी का सांस्कृतिक
गौरव देव दीपावली महोत्सव,
जिसका देश-विदेश में
हर किसी को बेसब्री
से इन्तजार होता है। राष्ट्रवाद,
संस्कृति, स्वच्छता को समर्पित इस
लोकपर्व को वैश्विक आकर्षण
का केन्द्र बनाने में संस्थाओं का
विशेष योगदान है। इस लोकपर्व
को कैसे संस्कृति व
परम्परा के साथ अलग
अंदाज में दुनिया के
सामने प्रस्तुत किया जाए, इसे
लेकर संस्थाएं महीनेभर पहले से अपने-अपने तरीके से
जुटे रहते है। देव
दीपावली महासमिति के अध्यक्ष पं.
वागीशदत्त मिश्र कहते हैं कि
यह स्थिति सरकार की कोशिश नहीं,
बनारस में कई दशकों
से काम कर रही
संस्थाओं के मजबूत प्रयास
का परिणाम रहा है। इसमें
कोई दीप तो कोई
तेल की व्यवस्था करता
है। तो कोई आयोजन
को नई थीम देता
है। आयोजन में करीब
पांच हजार से अधिक
लोगों की सहभागिता होती
है। जिनमें नाविक से लेकर फूल-माला बेचने वाले
तक होते हैं। गंगा
सेवा निधि के अध्यक्ष
पं. सुशांत मिश्र ने बताया कि
देवदीपावली की गंगा आरती
के लिए दो माह
पहले से तैयारी शुरू
हो जाती है। उसमें
200 से अधिक लोगों की
सहभागिता रहती है।
परंपरा का विस्तार
काशी जीवन के अंतिम सत्य का शहर होने के साथ ही यह जीवंतता का भी शहर है। यहां मृत्यु जितनी शाश्वत है उतना ही जीवन है। जीवन के हर रंग यहां देखने को मिलते है। जिस तरह गंगा के बिना काशी की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह घाटों के बगैर गंगा अधूरी हैं। यहां के घाट धर्म व ज्ञान के केंद्र रहे हैं। अपनी गौरवशाली अतीत व संस्कृति को दर्शाते हैं काशी के घाट। घाटों पर कहीं बिन्दु माधव मंदिर है तो कहीं बूंदी परकोटा महल। छः मील की परिधि में फैले प्रेक्षागृह की तरह शोभायमान चौरासी घाटों की अलग-अलग महत्व है। मुंडन से लगायत मुखाग्नि तक के संस्कारों के बीच छोटा से छोटा व बड़े से बडा उत्सव-महोत्सव भी इन घाटों पर ही मूर्तरूप लेते हैं। कहते है जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तो प्रकाश की प्रथम किरण काशी की धरती पर पड़ी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है।
काशी की इन्हीं विशेषताओं के बीच पिछले तीन दशकों में जाह्वी के सुरम्य तट पर देव दीपावली ने ऐसा रुप धारण किया कि पूरी दुनिया से लोग इसे देखने आने लगे। कहते है इस दिन काशी के घाटों पर एक-दो नहीं, बल्कि साक्षात 33 करोड़ देवी-देवता का वास होता है। चौरासी घाटों पर 51 लाख से भी अधिक जलते दीपों के बीच स्वर्ग की अनुभूति होती है। काशी में देव दीपावली मनाने की परंपरा अति प्राचीन काल में सिर्फ पंच गंगा घाट पर ही थी, लेकिन धीरे धीरे इसका विस्तार होता गया और 1989 से सभी चौरासी घाटों पर परंपरा शुरु हो गयी जो अब महोत्सव का रुप ले चुका है। हाल के वर्षो में यह जल-ज्योति पर्व यानी देव दीपावली भारत ही नहीं सात समुन्दर पार भी ख्यातिलब्ध हो गयी। अब तो पूरे देश में यह पर्व मनाया जाने लगा है। हाल यह है कि गंगा घाट ही नहीं नगर के तालाबों, कुओं एवं सरोवरों पर भी देव दीपावली की परम्परा मनाई जाने लगी है। कहा यह भी जाता है कि देव दीपावली की रात देवता पृथ्वी पर उतरते हैं। इसलिए देव आराधना का यह पर्व आध्यात्मिक-धार्मिक लोगों की आस्था और आकर्षण का केंद्र बन गया। गंगा घाटों के साथ ही गंगा के उस पार रेत पर भी लाखों दीपक जलाएं जाते है। इस कारण इसमें किये गये दान, जपादि का दस यज्ञों के समान फल होता है।
गंगाजी की अद्भूत आरती
दशाश्वमेध घाट काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही स्थित है। कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने इसका निर्माण भगवान भोलेनाथ के स्वागत में किया था। ब्रह्माजी ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रत्येक संध्या पुजारियों का एक समूह यहां अग्नि-पूजा करता है, जिसमें भगवान शिव, गंगा नदी, सूर्यदेव, अग्निदेव एवं संपूर्ण ब्रह्मांड को आहुतियां समर्पित की जाती हैं। यहां देवी गंगा की भी भव्य आरती की जाती है। प्रतिदिन सूर्यास्त के पश्चात गोधुलि बेला में काशी के अधिकतर घाटों पर ‘गंगा आरती’ का आयोजन होता है, परन्तु दशाश्वमेघ घाट पर होने वाली गंगा आरती अद्भुत है। रोजाना बड़ी संख्या में श्रद्धालु ऐतिहासिक दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती के दर्शन के लिए जुटने शुरू हो जाते हैं। गंगा आरती की अद्भुत छटा को देखकर श्रद्धालु भावविभोर हो उठते हैं और विदेशी पर्यटक इस दृश्य को पूरी तन्मयता से अपने कैमरों में कैद करने में जुटे रहते हैं। इस आरती के नजारों को पर्यटक बड़े चाव से देखते हैं एवं आस्था में डूब जाते हैं।
गंगा आरती करने वाले ब्राह्मणों की एक-एक गतिविधि देखकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। गंगा आरती के दौरान अगरबत्ती से आरती करने का तरीका, चंवर डुलाने का अंदाज एवं शंखध्वनि श्रद्धालुओं का ध्यान अपनी तरफ खींचती है। यह आराधना पूरे विश्व में ‘गगा आरती’ के रूप में विख्यात है। आरती के लिये घाट की सिढ़ियों पर विशेष तौर से चबूतरो का निर्माण कराया गया है। चबूतरों पर 5,7,11 की संख्या में प्रशिक्षित पण्डों द्वारा घण्टा-घड़ियाल एवं शंखों के ध्वनि के साथ गंगा की आरती एक साथ सम्पन्न की जाती है। इन पण्डों की समयबद्धता इतनी सटीक होती है कि झाल आरती पात्र (हर पात्र में 108 दीप होते हैं), से आरती, पुष्प वर्षा एवं अन्य क्रिया एक समय में एक साथ होता है। दर्शक घाट की सिढ़ियों एवं नौकाओं से इस आराधना का साक्षी बनने के लिये उत्सुक रहते हैं। आरती के समय दर्शक भाव विभोर होकर माँ गंगा की वन्दना की धारा में प्रवाहमान होते हैं।
महीनों पहले बुक हो जाते है बजड़े व होटल
देव दीपावली के
दिन घाटों पर उमड़ी देशी-विदेशी दर्शकों की भीड़ के
कारण तिल रखने की
भी जगह नहीं मिलती।
दोपहर से ही घाटों
पर बैठकर उस ऐतिहासिक क्षण
की प्रतीक्षा करते देखा जा
सकता है, जब देव
दीपावली के दीपों के
प्रकाश से पूरा क्षेत्र
आलौकित हो उठता है।
खास बात यह है
कि ऐसा भव्य आयोजन
दुनिया की किसी भी
नदी के किनारे नहीं
आयोजित होता। देव दीपावली का
यह तिलस्मी आकर्षण अब अंतर्राष्ट्रीय होता
जा रहा है। दीपावली
के 15 दिन बाद कार्तिक
पूर्णिमा को काशी में
गंगा के घाटों की
साफ-सफाई होने लगती
है। दीपों का अदभुद जगमग
प्रकाश देवलोक जैसा वातावरण प्रस्तुत
करता है। यह महोत्सव
देश की सांस्कृतिक राजधानी
काशी की संस्कृति की
भी पहचान बन चुकी है।
गंगा के करीब तीन
किलोमीटर में फैले अर्द्धचन्द्राकार
घाटों तथा लहरों में
जगमगाते, इठलाते बहते दीप एक
अलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं। इसकी
महत्ता का अंदाज इसी
बात से लगाया जा
सकता है कि इस
न्यारी छटा को देखने
के लिए देश एवं
विदेश के लाखों पर्यटक
आते हैं। इसके लिए
महीनों पहले से ही
छोटी-बड़ी नावों के
साथ बजड़े, तोटर बोटों की
बुकिंग हो जाती है।
आलम यह होता है
कि होटलों, लाजों एवं धर्मशालाओं में
आश्थावानों की जमघट लग
जाता है। गंगा पूजन
के बाद सभी 80 घाटों
पर दीपों की लौ जगमग
कर देती है। सभी
घाट दीपों की रोशनी से
नहा उठते है। काशी
की गंगा आरती का
सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक महत्व
है। प्रतिवर्ष 50 लाख से ज्यादा
देशी और विदेशी पर्यटक
वाराणसी आते हैं।
स्वर्ग की अनुभूति
घाटों
के नीचे कल-कल
बहती गंगा की लहरें,
घाटों की सीढ़ियों पर
जगमगाते लाखों दीपक एवं गंगा
के समानांतर बहती हुई दर्शकों
की जनधारा आधी रात तक
अनूठा दृश्य अविस्मरणीय एवं मनोहारी दृश्य
का एहसास कराती है। गंगा की
धारा में हजारों नावों
और बजड़ों (दो मंजिली बड़ी
नावों) पर बैठे दर्शनार्थी
इस अद्भुत दृश्य को अपने आंखों
एवं कैमरे में कैद करते
देखा जा सकता है।
रात में दीपों से
गंगा की गोद ऐसी
टिमटिमा उठती है जैसे
आसमान से आकाश गंगा
जमीन पर उतर आई
हों। वैसे भी शरद
ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण
की महा रासलीला का
काल माना गया है।
श्री मदभागवत् गीता के अनुसार
शरद पूर्णिमा की चांदनी में
श्रीकृष्ण का महारास सम्पन्न
हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा
के दिन ही काशी
के गंगा घाटों पर
लाखों लोग स्नान कर
पुण्य लाभ कमाते हैं
एवं गंगा में दीपदान
कर सुख समृद्धि की
कामना करते है।
पौराणिक मान्यताएं
कहा जाता है
कि त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र
ने अपने तपोबल से
स्वर्ग पहुंचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो
गए और त्रिशंकु को
देवताओं ने स्वर्ग से
भगा दिया। श्रापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके
रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से
निष्कासित किए जाने से
क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग
आदि से मुक्त एक
नई समूची सृष्टि की ही अपने
तपोबल से रचना प्रारंभ
कर दी। उन्होंने कुश,
मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़,
नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना
का क्रम प्रारंभ कर
दिया। इसी क्रम में
विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा
बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण
फूंकना आरंभ किया। इससे
सारी सृष्टि डांवाडोल हो उठी। हर
ओर कोहराम मच गया। हाहाकार
के बीच देवताओं ने
राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की।
महर्षि प्रसन्न हो गए और
उन्होंने नई सृष्टि की
रचना का अपना संकल्प
वापस ले लिया। देवताओं
और ऋषि-मुनियों में
प्रसन्नता की लहर दौड़
गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस
अवसर पर दीपावली मनाई
गई। यही अवसर अब
देव दीपावली के रूप में
विख्यात है। कहा जाता
है कि वामन अवतार
लेने के बाद जब
नारायण स्वर्गलोक पहुंचे तो वहां उनका
भव्य स्वागत किया गया। देवताओं
ने हरि का वैसा
ही अभिनंदन किया जैसा कि
अयोध्या लौटने पर श्रीराम का
हुआ था। जिस दिन
भगवान विष्णु स्वर्गलोक पहुंचे वो कार्तिक पूर्णिमा
का ही दिन था।
वो दिन आज भी
देवदीपावली के रूप में
मनाया जाता है। मान्यता
है कि भगवान शिव
ने जब त्रिपुरासुर नामक
दैत्य का वध किया
तब स्वर्ग में देवताओं ने
देव दीपावली मनाई थी और
तभी से इस पर्व
को मनाने का चलन है।
पितरों को श्रद्धांजलि
इस अवसर पर
दीपों के माध्यम से
पुरखों और पितरों को
भी श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।
पं रामदुलार उपाध्याय का कहना है
कि शरद ऋतु को
भगवान श्रीकृष्ण की महा रासलीला
का काल माना गया
है। श्री मदभागवत् गीता
के अनुसार शरद पूर्णिमा की
चांदनी में श्रीकृष्ण का
महारास सम्पन्न हुआ था। कार्तिक
पूर्णिमा के दिन ही
काशी के गंगा घाटों
पर लाखों लोग स्नान कर
पुण्य लाभ कमाते हैं
एवं गंगा में दीपदान
कर सुख समृद्धि की
कामना करते है।
घाटों की दीया प्रतियोगिता
देव दीपावली के
दिन घाटों पर दीयो को
जलाने की लेकर जबरदस्त
प्रतियोगिता देखी जा सकती
है। एक तरफ सिंधिया
घाट, भोसला, रामघाट, बालाजी, पंचगंगा, दुर्गाघाट, बूंदी परकोटा, गायघाट आदि और दुसरी
तरफ ललिता घाट, मीरघाट, त्रिपूरा
भैरवी, मान मंदिर, राजेन्द्र
घाट, दशाश्वमेघ घाट आदि पर
दीयों की श्रृंखला देखने
को मिलती है। इसी तरह
मैसूर घाट, हनुमान घाट,
शिवाला, चेतसिंह, जैन, तुलसी व
अस्सी घाट तो दुसरी
ओर लाली, केदारघाट, मानसरोवर, पांडेय, राणामहल, घाटों पर सजीं दीयों
की श्रृखला भी श्रद्धालुओं को
मुग्ध करती है। दीप
तो अस्सी से आदि केशव
घाट तक के चार किमी
के दायरे में जलते है
लेकिन देव दीपावली के
मुख्यकेन्द्र दशाश्वमेघ से किसी भी
तरफ चलें तो दीपों
के बीच एकतरफ आप
मणिकर्णिका घाट और दुसरी
तरफ हरिश्चंद घाट तक ही
जा सकते है। इस
प्रकार उल्लास के इस पर्व
पर दोनों महाश्मशान मनुष्य को चेताते रहते
है कि जितना शाश्वत
जीवन है उतनी ही
मृत्यु भी है और
यही काशी की संस्कृति
हैं। कहा जाता है
कि भगवान विष्णु ने शिव की
तपस्या करते हुए अपने
सुदर्शन चक्र से मणिकर्णिका
घाट पर एक कुण्ड
खोदा था। उसमें तपस्या
के समय आया हुआ
उनका स्वेद भर गया। जब
शिव वहां प्रसन्न हो
कर आये तब विष्णु
के कान की मणिकर्णिका
उस कुंड में गिर
गई थी। कहा यह
भी जाता है कि
भगवाण शिव को अपने
भक्तों से छुट्टी ही
नहीं मिल पाती थी।
देवी पार्वती इससे परेशान हुईं,
और शिवजी को रोके रखने
हेतु अपने कान की
मणिकर्णिका वहीं छुपा दी
और शिवजी से उसे ढूंढने
को कहा। शिवजी उसे
ढूंढ नहीं पाये और
आज तक जिसकी भी
अन्त्येष्टि उस घाट पर
की जाती है, वे
उससे पूछते हैं कि क्या
उसने देखी है? प्राचीन
ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका
घाट का स्वामी वही
था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को
खरीदा था। उसने राजा
को अपना दास बना
कर उस घाट पर
अन्त्येष्टि करने आने वाले
लोगों से कर वसूलने
का काम दे दिया
था। इस घाट की
विशेषता ये है, कि
यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं
व घाट पर चिता
की अग्नि लगातार जलती ही रहती
है, कभी भी बुझने
नहीं पाती।
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