‘अक्षयवट’ : जहां मिलता है ‘मोक्ष’ का वरदान, दर्शन बगैर अधूरा है संगम स्नान
ऋषि-मुनियों व यज्ञों की धरती प्रयागराज में गंगा जमुना में अदृश्य सरस्वती की मिलने से पवित्र संगम किनारे हजारों साल से अक्षयवट विराजमान है। यह वहीं अक्षय वट है, जिसकी गिनती द्वादश माधव के रुप में होती है। कहते है सृष्टि रचना से पहले परमपिता ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ किया था। प्रयाग में यज्ञ से सृष्टि की रचना हुई। खास यह है कि ब्रह्माजी ने जब प्रयाग में यज्ञ किया था अक्षयवट तब भी यहां मौजूद था। और जब राजा दशरथ की मृत्यु के बाद पिंड दान की प्रक्रिया आई तो भगवान राम सामान इकट्ठा करने चले गए। उस वक्त देवी सीता अकेली बैठी थी तभी दशरथ जी प्रकट हुए और बोले की भूख लगी है, जल्दी से पिंडदान करो। उस वक्त मां सीता कुछ नहीं सूझा, उन्होंने अक्षय वट के नीचे बालू का पिंड बनाकर राजा दशरथ के लिए दान किया। उस दौरान उन्होंने ब्राह्मण, तुलसी, गौ, फाल्गुनी नदी और अक्षय वट को पिंडदान से संबंधित दान दक्षिणा दिया। जब राम जी पहुंचे तो सीता ने कहा कि पिंड दान हो गया। दोबारा दक्षिणा पाने के लालच में नदी ने झूठ बोल दिया कि कोई पिंड दान नहीं किया है। लेकिन अक्षय वट ने झूठ नहीं बोला और रामचंद्र की मुद्रा रूपी दक्षिणा को दिखाया। इसपर सीता जी ने प्रसन्न होकर अक्षय वट को आशीर्वाद दिया। कहा, संगम स्नान करने के बाद जो कोई अक्षय वट का पूजन और दर्शन करेगा। उसी को संगम स्नान का फल मिलेगा। लेकिन यह पिछले 450 सालों से किले में कैद रहा। इसके चलते अक्षयवट और सरस्वती कूप का लोग दर्शन नहीं कर पाते थे। मोदी योगी के चलते श्रद्धालु कुंभ के बाद अब महाकुंभ दर्शन कर पायेंगे। प्रयाग महात्म्य, पद्म व स्कंद पुराण में अक्षयवट के दर्शन को मोक्ष का माध्यम बताया गया है। यह भगवान विष्णु का साक्षात विग्रह माना जाता है। यही कारण है कि सनातन धर्म में यह सबसे पवित्र व पूज्यनीय वृक्ष है। प्रस्तुत है सीनियर रिपोर्टर सुरेश गांधी की खास पेशकश :-
सुरेश गांधी
कहते है दर्शन मात्र से मानव को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इसी के चलते वर्तमान समय में अकबर के किले में स्थित इस वट वृक्ष की पूजा-अर्चना करना यहां आने वाले तीर्थ यात्री नहीं भूलते हैं। नाम से ही जाहिर है कि इसका कभी नाश नहीं होता है। इस वृक्ष को माता सीता ने आशीर्वाद दिया था कि प्रलय काल में जब धरती जलमग्न हो जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी अक्षयवट हरा-भरा रहेगा। एक मान्यता और भी है कि बालरूप में श्रीकृष्ण इसी वट वृक्ष पर विराजमान हुए थे। बाल मुकुंद रूप धारण करके श्रीहरि भी इसके पत्ते पर शयन करते हैं। पद्म पुराण में अक्षयवट को तीर्थराज प्रयाग का छत्र कहा गया है। वैसे भी कुंभ मानवता का सबसे बड़ा अध्यात्मिक और सांस्कृतिक समागम है। मानवता का ये संगम अलौकिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक घटना को लेकर जाना जाएगा। यूनेस्को ने इस आयोजन को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की संज्ञा दी है। दुनिया के 71 देशों के राजदूत ने इस आयोजन में उपस्थित होकर अपने अपने देशों के राष्ट्र ध्वज को यहां स्थापित किया है। इसे वैश्विक मान्यता दी है। इस वक्त प्रयागराज में 71 देशों का ध्वज लहरा रहा है। ये घटना प्रयागराज कुंभ को मिले वैश्विक समर्थन का प्रतीक है। प्रयागराज में संगम के तट पर इन दिनों माहौल भक्तिमय हो चुका है। कुंभ के मेले में देश-विदेश से आ रहे साधु-संत और आमजन यहां डेरा डाल चुके हैं। संगम तट पर स्थित अक्षयवट लोगों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बनता जा रहा है। संगम तट से यमुना किनारे बने किले की ओर देखने पर डालियों से घना वृक्ष नजर आता है। यही वृक्ष अक्षयवट है। इसी वृक्ष के समीप सरस्वती कूप है।
भारत में चार प्राचीन वट वृक्ष माने जाते हैं। अक्षयवट- प्रयागराज, गृद्धवट-सोरों ’शूकरक्षेत्र’, सिद्धवट- उज्जैन एवं वंशीवट- वृंदावन शामिल हैं। कहा जाता है कि यहीं से सरस्वती नदी जाकर गंगा-यमुना में मिलती थी। पौराणिक मान्यता है कि धरती पर प्रलय आने पर भी अक्षयवट को क्षति नहीं पहुंची। प्रयाग महात्म्य, पद्म व स्कंद पुराण में अक्षयवट के दर्शन को मोक्ष का माध्यम बताया गया है। यह भगवान विष्णु का साक्षात विग्रह माना जाता है। यही कारण है कि सनातन धर्म में यह सबसे पवित्र व पूज्यनीय वृक्ष है। कहते है इस पेड़ पर चढ़कर लोग मोक्ष की कामना और पाप से मुक्ति के लिए यमुना नदी में कूद कर जान दे देते थे। इस परंपरा पर अकबर ने रोक लगा दी थी। इसके बाद यह किला बंद कर दिया गया। लेकिन महाकुंभ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 450 साल से बंद किले को खोल दिया है। इस अक्षय वट वृक्ष के दर्शन-पूजन के लिए कुंभ नहाने आएं श्रद्धालुओं का जमघट लगा रहता है। ब्रिटिश काल में यह किला अंग्रेजों के अधीन रहा। स्वतंत्रता के बाद किले की देखरेख सेना कर रही है। यहां सेना का आयुध सेंटर है। सेना के पुजारी ही पूजा-अर्चना करते हैं। आम लोगों के दर्शन के लिए लंबे समय से मांग उठाई जा रही थी। पिछले दिनों मोदी ने अक्षय वट और सरस्वती कूप आम श्रद्धालुओं को खोलने पर सहमति जताई थी। संगम तट से यमुना किनारे बने किले की ओर देखने पर डालियों से घना वृक्ष नजर आता है। यही वृक्ष अक्षयवट है। यह अनादिकाल से यमुना तट पर स्थित है।
पौराणिक मान्यता है कि धरती
पर प्रलय आने पर भी
अक्षयवट को क्षति नहीं
पहुंची। प्रयाग महात्म्य, पद्म व स्कंद
पुराण में अक्षयवट के
दर्शन को मोक्ष का
माध्यम बताया गया है। यह
भगवान विष्णु का साक्षात विग्रह
माना जाता है। यही
कारण है कि सनातन
धर्म में यह सबसे
पवित्र व पूज्यनीय वृक्ष
है। प्रलय के समय भगवान
विष्णु बालमुकुन्द का रूप धारण
कर उक्त अविनाशी वटवृक्ष
के पत्र पर शयन
करते हैं। उस समय
ये अपने मुख में
अपने कमलवत चरण के अंगूठे
को डालकर शयन मुद्रा में
लेटे रहते हैं। श्री
मद भागवत महापुराण मे मार्कडेंय मुनि
की एक कथा का
प्रसंग है कि वे
तपोबल से परमात्मा मे
इतने लीन थे कि
ईश्वरीय माया उन्हें छू
नही पाई। भगवान ने
दर्शन देकर कुछ मागंने
को कहा तो उन्होंने
जवाब दिया कि उन्हें
कुछ नहीं चाहिए, केवल
एक बार वह भगवान
माया का प्रभाव देखना
चाहते हैं। कुछ समय
बाद एक शाम उन्होंने
देखा आँँधी, तूफान के साथ वर्षा
से पूरी पृथ्वी जलमग्न
हो गई, वे घबरा
गए। चारों ओर सब कुछ
डूब चुका था, जल
के बीच एकमात्र वृक्ष
अक्षयवट ही शेष था,
उसी के सहारे वे
रुके रहे। इस प्रकार
उन्होंने सृष्टि का सृजन और
प्रलय का पूरा चक्र
देखा, उसमें स्वयं को देखा तो
विचार शून्य हो गए। फिर
देखते हैं कि अक्षय
वट के पत्ते पर
एक नन्हा सुंदर बालक लेटा हुआ
है, अपने पैर के
अंगूठे को मुख मे
लिए हुए है। उस
नारायण भगवान के रुप को
देखकर वे मुग्ध व
कृतार्थ हुए। इसमे मार्कन्डेय
जी ने एक कल्प
के समय का अनुभव
किया। इस तरह धार्मिक
मान्यताएं हैं कि प्रलय
काल में भी अक्षय
वट और भगवान सदैव
रहते हैं। अपने गुरु
के निर्देश अनुसार भगवान राम ने वन
जाते समय एक रात
अक्षयवट के समीप वास
किया था।
23 बार काटा व जलाया गया, लेकिन
नष्ट नहीं हो सका अक्षयवट
कहते है प्रलय
और सृष्टि का साक्षी, प्रयाग
की पहचान है अक्षयवट। लेकिन
पीढ़ियों से अक्षयवट किले
में बंदथा। इस बार यहां
आने वाला हर श्रद्धालु
प्रयागराज की त्रिवेणी में
स्नान करने के बाद
अक्षयवट के दर्शन-पूजन
कर रहा है। इतना
ही नहीं, सरस्वती कूप दर्शन भी
संभव हो पा रहा
है। अक्षयवट अपनी गहरी जड़ों
की वजह से बार-बार पल्लवित होकर
हमें भी जीवन के
प्रति ऐसा ही जीवट
रवैया अपनाने की प्रेरणा देता
है। सुरक्षा का हवाला देकर
आम श्रद्धालुओं को वहां जाने
से रोका जाता था।
अकबर ने यमुना किनारे
किला बनवाने के लिए 1574 में
नींव रखी। किला बनने
में 42 साल लग गए।
नींव रखने के बाद
अकबर ने अक्षयवट को
समाप्त करने के लिए
भरसक प्रयास किया. हिंदुओं की धार्मिक मान्यता
व भावना को चोट पहुंचाने
के लिए अकबर ने
अक्षयवट को 23 बार काटा व
जलवाया, लेकिन उसे नष्ट करने
में विफल रहा। काटने
व जलाने के चंद माह
बाद वह पुनः पुराने
स्वरूप में आ जाता।
इससे हारकर अक्षयवट को बंद करने
का निर्णय हुआ, जिसके लिए
विशाल घेरा बनाया गया,
उसमें किसी को जाने
की अनुमति नहीं थी। तब
से अक्षयवट कैद था। वहां
लोगों के आवागमन को
रोककर किले का निर्माण
कराया गया। मुगल शासनकाल
के बाद अंग्रेजी हुकूमत
में भी अक्षयवट के
दर्शन पर पाबंदी थी।
अंग्रेजों ने किले को
कब्जे में लेकर अपनी
छावनी बना ली थी।
जहां हथियार बनाए जाते थे।
इससे आम लोगों का
किले के अंदर प्रवेश
करना तो दूर यमुना
नदी में किले के
पास से नाव में
गुजरने पर भी पाबंदी
थी। देश को आजादी
मिलने के बाद अक्षयवट
को आम श्रद्धालुओं के
दर्शन के लिए खोलने
के लिए समय-समय
पर मांग उठती रही
है, लेकिन सेना के होने
के चलते उसे नहीं
खोला गया। प्रयागराज के
पुजारियों का कहना है
कि इसी वृक्ष के
नीचे भगवान राम और सीता
वनगमन के दौरान तीन
रात तक विश्राम किया
था. इस किले के
अंदर स्थित पातालपुरी मंदिर में अक्षयवट के
अलावा तिरालिस देवी-देवताओं की
मूर्तियां भी स्थापित है.
अक्षयवट में भगवान विष्णु
बालरूप में करते है शयन
अक्षयवट पृथ्वी का सबसे प्राचीन
वृक्ष है। भागवत पुराण
में कहा गया है
कि अक्षयवट में भगवान विष्णु
बालरूप में शयन करते
हैं। यह न सिर्फ
प्रयाग बल्कि पूरी धरती के
प्रहरी माने जाते हैं।
धरती पर प्रलय आने
पर भी इसकी क्षति
नहीं होगी। वह बताते हैं
कि प्रयाग महात्म्य, पद्म व स्कंद
पुराण में अक्षयवट के
दर्शन को मोक्ष का
माध्यम बताया गया है। यह
भगवान विष्णु का साक्षात विग्रह
है। पद्म पुराण में
अक्षयवट को तीर्थराज प्रयाग
का छत्र कहा गया
है। अक्षयवट का उल्लेख वाल्मीकि
रामायण में भी मिलता
है। वनवास के लिए निकले
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जब प्रयाग में
महर्षि भारद्वाज के पास आए
तो उन्होंने यमुना तट पर स्थित
अक्षयवट की महिमा बताई।
इसके बाद श्रीराम, सीता
व लक्ष्मण ने अक्षयवट का
दर्शन किया था। माता
सीता ने अक्षयवट का
पूजन कर आशीर्वाद पाने
को याचना की थी। रामचरित
मानस में वर्णित है
:-
पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता।
अक्षयवट यानी जो अक्षय
है, जिसका कभी क्षय नहीं
हो सकता। पौराणिक कथाओं में है कि
जब संत मार्कंडेय ने
भगवान नारायण से अपनी ईश्वरीय
शक्ति दिखाने का आग्रह किया
था तो क्षण भर
के लिए उन्होंने सारे
संसार को जलमग्न कर
दिया। उस समय पृथ्वी
की सारी वस्तुएं जल
में समा गई। लेकिन
प्रयाग में स्थित अक्षयवट
का ऊपरी भाग दिखाई
दे रहा था। बताते
हैं कि गुप्तकाल में
कालीदास द्वारा रचित ’रघुवंश’ में प्रयाग में
यमुना के दक्षिण तट
पर श्याम नामक वटवृक्ष का
उल्लेख है। यही उल्लेख
हमें आठवीं शताब्दी में भवभूति द्वारा
रचित उत्तररामचरित में भी मिलता
है। जबकि 573 ई. के स्वामीराज
के नगरधन ताम्र लेख से भी
संगम के निकट एक
वटवृक्ष की पुष्टि होती
है। वहीं 644 ई. में चीनी
यात्री ह्वेनसांग के विवरण में
अक्षयवट का उल्लेख मिलता
है। इसी प्रकार 1030 ई.
के अलबरूनी के विवरण में
प्रयाग के वृक्ष के
रूप में अक्षयवट की
महिमा बखानी गई है। जबकि
11वीं शताब्दी के मध्य में
महमूद गरदीजी संगम के निकट
एक विशाल बातू (वट) का उल्लेख
करता है।
सरस्वती कूप
ऐसा कहा जाता
है कि एक बार
भगवान ब्रह्मा जी सरस्वती जी
पर मोहित हो गए थे।
इसके बाद मां सरस्वती
धरती में समा गई
थीं। इसके बाद प्रयागराज
के नगर देवता भगवान
वेणी माधव ने मां
सरस्वती की आराधना की।
उनकी आराधना से प्रसन्न होकर
ही मां सरस्वती ने
इस कूप से निकलकर
वेणी माधव को दर्शन
दिए। बाद में वेणी
माधव ने मां सरस्वती
से प्रार्थना की कि गंगा
और यमुना नदियां श्रद्धा और भक्ति के
रूप में विद्यमान हैं,
आप भी यहां पर
ज्ञान की देवी के
रुप में सदा के
लिए विराजमान हों। अक्षयवट की
तरह किले में बंद
सरस्वती कूप का दर्शन
भी श्रद्धालु कर सकेंगे। सरस्वती
कूप पृथ्वी के सबसे पवित्रतम्
कूप (कुआं) है। मान्यता है
कि संगम जो अदृश्य
सरस्वती हैं उनका वास
इसी कूप में है।
बताते हैं कि मत्स्य
पुराण में सरस्वती कूप
की महिमा बखानी गई है। जैसे
गंगा जी गंगोत्री और
यमुना जी यमुनोत्री से
निकली हैं। इसी प्रकार
उत्तराखंड के बद्रीनाथ के
पास माणा गांव के
ऊपर पवर्तीय क्षेत्र से सरस्वती नदी
निकली हैं। पांडव इसी
नदी को पार करके
स्वर्गलोक की सीढ़ी चढऩे
गए थे। वहां आज
भी भीम शिला रखी
है। प्राचीनकाल में सरस्वती नदी
प्रयाग आती थीं, लेकिन
सदियों पहले लुप्त हो
गईं। यमुना तट पर बने
कुआं में आज भी
उनका जल है। सरस्वती
कूप का दर्शन मनोवांछित
फल की प्राप्ति होती
है।
पौराणिक मान्यताएं
पौराणिक कथाओं के अनुसार जब
एक ऋषि ने भगवान
नारायण से ईश्वरी शक्ति
को दिखाने के लिए कहा.
तब उन्होंने क्षण भर के
लिए पूरे संसार को
जलमग्न कर दिया था.
फिर इस पानी को
गायब भी कर दिया.
इस दौरान जब सारी चीजें
पानी में समा गई
थी तब सिर्फ अक्षय
वट का ऊपरी भाग
दिखाई दे रहा था.
अक्षयवट वृक्ष के पास कामकूप
नाम का एक तालाब
था. इसी तालाब में
स्नान करने से लोगों
को मोक्ष की प्राप्ति होती
थी. इसे प्राप्त करने
के लिए कई राज्यों
से लोग यहां आते
थे और वृक्ष पर
चढ़कर तालाब में छलांग लगाने
का प्रयास करते थे. चीनी
यात्री ह्वेनसांग ने भारत भ्रमण
के दौरान अपनी किताब में
इस तालाब का जिक्र किया
है.
महाकुंभ में होगा आकर्षण का केन्द्र
अकबर के किला
परिसर में तीन मंदिरों
को मिलाकर बनाया जा रहा अक्षयवट
कॉरिडोर श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण
का केंद्र होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप
के बाद आमजन के
लिए खोले जाने के
बाद अब राज्य सरकार
के सहयोग से अक्षयवट कॉरिडोर
का निर्माण कार्य अंतिम दौर में है।
मकराना का मारबल से
बना यह कॉरीडोर इसकी
खूबसूरती को चार चांद
लगा रहा है। अक्षयवट
कॉरिडोर के तहत सरस्वती
कूप भी है, जहां
सरस्वती का वास माना
गया है। इसके चारों
ओर फाउंटेन लगाए जा रहे
हैं। पातालपुरी मंदिर में स्थित अक्षय
वट सबसे पुराना मंदिर
बताया जाता है। इसमें
ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित
वो शूल टंकेश्वर शिवलिंग
भी है, जिस पर
मुगल सम्राट अकबर की पत्नी
जोधा बाई जलाभिषेक करती
थी। शूल टंकेश्वर मंदिर
में जलाभिषेक का जल सीधे
अक्षय वट वृक्ष की
जड़ में जाता है।
वहां से जमीन के
अंदर से होते हुए
सीधे संगम में मिलता
है। ऐसी मान्यता है
कि अक्षय वट वृक्ष के
नीचे से ही अदृश्य
सरस्वती नदी भी बहती
है। संगम स्नान के
बाद अक्षय वट का दर्शन
और पूजन यहां वंशवृद्धि
से लेकर धन-धान्य
की संपूर्णता तक की मनौती
पूर्ण होती है। ब्रह्मा
जी ने वटवृक्ष के
नीचे पहला यज्ञ किया
था। इसमें 33 करोड़ देवी-देवताओं
का आह्वान किया गया था।
यज्ञ समाप्त होने के बाद
ही इस नगरी का
नाम प्रयाग रखा गया था,
जिसमें ’प्र’ का अर्थ
प्रथम और ’त्याग’ का
अर्थ यज्ञ से है।
पातालपुरी मंदिर में है 43 देवी-देवताओं की मूर्ति
पातालपुरी मंदिर के अंदर अक्षयवट,
धर्मराज, अन्नपूर्णा विष्णु भगवान, लक्ष्मी जी, श्री गणेश
गौरी, शंकर महादेव, दुर्वासा
ऋषि बाल्मीकि, प्रयागराज, बैद्यनाथ, कार्तिक स्वामी, सती अनुसुइया, वरुण
देव, दंड पांडे महादेव
काल भैरव ललिता देवी,
गंगा जी, जमुना जी,
सरस्वती देवी, नरसिंह भगवान, सूर्यनारायण, जामवंत, गुरु दत्तात्रेय, बाणगंगा,
सत्यनारायण, शनि देव, मार्कंडेय
ऋषि, गुप्त दान, शूल टंकेश्वर
महादेव, देवी पार्वती, वेणी
माधव, कुबेर भंडारी, आरसनाथ-पारसनाथ, संकट मोचन हनुमान
जी, कोटेश्वर महादेव, राम- लक्ष्मण सीता,
नागवासुकी दूधनाथ, यमराज, सिद्धिविनायक एवं सूर्य देव
की मूर्ति स्थापित है।
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