महाकुंभ : एकता, श्रद्धा, भक्ति के साथ दुनियाभर में सनातन की गूंज
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था-’गर्व से कहो, हम हिंदू हैं’ और महाकुम्भ से भी कुछ इसी तरह का संदेश गूंज रहा है। या यूं कहे आस्था, एकता, सामाजिक समरसता और भारतीय संस्कृति का संगम बन चुके महाकुंभ के प्रति श्रद्धालुओं का अटूट विश्वास कुछ इस तरह का हो गया है, जो लाख संकट व झंझावतों के बाद भी 24 दिन में 53 करोड़ से अधिक आस्थावानों ने न सिर्फ डूबकी लगा चुके है, बल्कि सभी प्रमुख अमृत स्नानों के बीतने के बाद भी आवागमन थमने का नाम नहीं ले रहा। उमड़ती भीड़ अंदाजा लगाया जा सकता है ये आंकड़ा महाशिवरात्रि तक 60 करोड़ पार कर जायेगा। खास यह है कि जो लोग महाकुंभ पहुंच रहे हैं, वे सब इस तथ्य को सहज भाव से स्वीकार करते हैं कि महाकुंभ ने जाति, वर्ग, भाषा, प्रांत की सीमाओं को परे रख परंपरा से ओत-प्रोत रह प्रगति को गले लगा एक राष्ट्र की सामूहिक चेतना का संचार किया है। जो लोग कल तक सनातन को गालियां दे रहे थे, उनके लिए विश्व के इस सबसे बड़े आध्यात्मिक आयोजन में उमड़ रही लोगों की श्रद्धा और अपने संस्कृति के प्रति लगाव, यह बताने के लिए काफी है, सनातन न कभी झुका है और न ही टूटने वाला है। ये वही सनातन है, जिसके ज्वार ने मुगलियां आका्रंताओं को खदेड़ा तो ब्रतानियां हुकूमत की जड़े उखाड़ दीसुरेश गांधी
फिरहाल, कड़वा सच तो यही है कि महापर्व महाकुंभ की अलौकिक भव्यता और पवित्रता के बीच सनातन की गूंज पूरे विश्व में सुनाई दे रही है। मानवता के इस महापर्व में देश-विदेश के कोने-कोने से, अलग-अलग भाषा, जाति, पंथ, संप्रदाय के धार्मिक संत, संन्यासी और आम जनमानस सम्मिलित हो चुके है या होने वाले हैं। इस महाकुम्भ ने गांव-गिराव की आपसी वैमनस्यता को भी तिलाजंलि दे दी है। एकता, समता और समरसता के धागे में लोग कुछ इस तरह पिरो रहे है, जो कभी नहीं टूटने वाला है। जो भी इस महाकुम्भ को देख व समझ रहा है, उसके जुबान से सिर्फ यही निकल रहा है, यह महाकुंभ एकता व सनातन की बुलंदियों का महाकुंम होकर रह गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी विभिन्न मंचों से इस महाकुम्भ को सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा समागम बता चुके हैं और इसे चरितार्थ करते हुए उन्होंने इस बार विभिन्न वर्गों एवं संप्रदायों से आने वाले साधु संतों, सेलीब्रेटी से लेकर आम जनमानस तक का सम्मान व अभिनंदन कर एक नई पहल और उदाहरण प्रस्तुत किया है।
यूनेस्को ने महाकुम्भ को विश्व का सबसे बड़ा मानवीय और आध्यात्मिक सम्मेलन बताते हुए मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत घोषित किया है। उसका मानना है कि महाकुम्भ भारत की सांस्कृतिक विविधता में समायी हुई एकता और समता के मूल्यों का सबसे बड़ा प्रतीक बनकर उभरा है। यहां सब एक समान हैं। लोगों के मन में ये प्रश्न भी है कि इस आयोजन में ऐसा क्या है जिसमें लगा कि महाकुंभ सबका है। यह इसलिए क्योंकि देश के कोने-कोने से अलग-अलग पृष्ठभूमि से जुड़े लोगों से लेकर भारत के हर कोने की सभ्यता की ध्वनियां इस महाकुंभ में सुनाई दे रही है। एक तरह से सनातन सभ्यता की प्रत्येक ध्वनि, प्रत्येक भावना और प्रत्येक परंपरा की छाया इस महाकुंभ में नजर आयी। चाहे वो संतों और संन्यासियों में बड़ी संख्या में पहुंचे अनुसूचित जाति, घुमंतू जातियों, उत्तर पूर्व के साथ ही बौद्ध धर्म के विदेशी धार्मिक संत हो या नानक पंथी, बौद्ध हो सभी ने एकता, समता, समरसता को आत्मसात करते हुए सनातन के प्रति सम्मान पेश कर एकजुटता का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है।
लक्ष दीप और अंडमान निकोबार से लेकर लद्दाख के सुदुर पर्वतों तक, मिजोरम एवं नागभूमि के हरित वनों से लेकर मरुभूमि की रेत के साथ समग्र देश इस महाकुंभ का साक्षी बना। श्रद्धालु, समस्त साधु, संन्यासियों का आशीर्वाद लेकर लौट रहे हैं, मंदिरों में दर्शन कर अन्नक्षेत्र में एक ही पंगत में बैठ कर भण्डारों में खाना खा रहे हैं। कहा जा सकता है महाकुम्भ भारत की सांस्कृतिक विविधता में समायी हुई एकता और समता के मूल्यों का सबसे बड़ा प्रदर्शन स्थल बन चुका है, जिसे दुनिया भर से आये पर्यटक देखकर आश्चर्यचकित हैं, कैसे अलग-अलग भाषायी, रहन-सहन, रीति-रिवाज को मानने वाले एकता के सूत्र में बंधे संगम में स्नान करने चले आते हैं। साधु-संन्यासियों के अखाड़े हों या तीर्थराज के मंदिर और घाट, बिना रोक टोक श्रद्धालु दर्शन, पूजन कर रहे हैं। संगम क्षेत्र में चल रहे अनेक अन्न भण्डार सभी भक्तों, श्रद्धालुओं के लिए दिनरात खुले हैं जहां सभी लोंग एक साथ पंगत में बैठ कर भोजन ग्रहण कर रहे हैं। महाकुम्भ मेले में भारत कि विविधता इस तरह समरस हो जाती है कि उनमें किसी तरह का भेद कर पाना संभव नहीं है।
इस महाकुंभ की सफलता का बड़ा कारण यह भी रहा कि यह पूरी तरह से धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्वरुप लिए हुआ है। इसमें झोपडी से लेकर महलों तक में रहने वालों की भागीदारी न सिर्फ दिखी, बल्कि डुबकी भी लगाती नजर आय। राष्ट्र और सनातन सभ्यता के विभिन्न उद्गम स्थलों से निकलने वाले नवीन और प्राचीन परंपराओं की झलक दिखी। सभी अखाड़े, कबीर पंथी, रैदासी, निरंकारी, नामधारी, निहंग, आर्यसमाज, सिंधी, निम्बार्क, पारसी, धर्मगुरु, बौद्ध, लिंगसायत, रामकृष्ण मिशन, सत्राधिकर जैन, बंजारा समाज, मैतेई, चकमा, गोरखा, खासी, रामनामी आदि प्रमुख परंपराएं महाकुंभ में सम्मिलित दिखी। देश के कोने कोने से पहुंचे लोगों को देखकर यही लगा जैसे महाकुंभ नगर एक तरह से संपूर्ण भारत का गांव, मोहल्ला बन गया है, जो अब तक नहीं जा पाएं है, वे महाजाम में फंसकर तीन-चार दिन भूखे-प्यासे रहकर पहुंचने की कोशिश में लगे है। उनका मन-मष्तिष्क सिर्फ महाकुंभ की ओर है। मतलब साफ है यह महाकुंभ दैवीय अनुभूति व आध्यात्मिक यात्रा में परिवर्तित हो चुका है, जिसका लगाव सिर्फ और सिर्फ सनातन है।इस महाकुम्भ में सनातन परंपरा को मनाने वाले शैव, शाक्त, वैष्णव, उदासीन, नाथ, कबीरपंथी, रैदासी से लेकर भारशिव, अघोरी, कपालिक सभी पंथ और संप्रदायों के साधु, संत एक साथ मिलकर अपने-अपने रीति-रिवाजों से पूजन-अर्चन और गंगा स्नान कर रहे हैं।
संगम तट पर लाखों की संख्या में कल्पवास करने वाले श्रद्धालु देश के कोने-कोने से पहुचे हैं। अलग-अलग जाति, वर्ग, भाषा को बोलने वाले साथ मिलकर महाकुम्भ की परंपराओं का पालन कर रहे हैं। महाकुम्भ में अमीर, गरीब, व्यापारी, अधिकारी सभी तरह के भेदभाव भुलाकर एक साथ एक भाव में संगम में डुबकी लगा रहे हैं। महाकुम्भ और मां गंगा, नर, नारी, किन्नर, शहरी, ग्रामीण, गुजराती, राजस्थानी, कश्मीरी, मलयाली किसी में भेद नहीं करती। अनादि काल से सनातन संस्कृति की समता, एकता कि ये परंपरा प्रयागराज में संगम तट पर महाकुम्भ में अनवरत चलती आ रही है और हर सीमाओं को पार रखे हुए परंपरा से ओत-प्रोत रहते हुए प्रगति को गले लगा एक राष्ट्री की सामूहिक चेतना का संचार किया है। यह महाकुंभ एकता, अखंडता और श्रद्धा के रुप में लोगों के मानस पटल पर युगो-युगो तक अंकित रहेगा। एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति! अर्थात् न ऐसा महाकुंभ कभी हुआ और न भविष्य में हो सकेगा।
महाकुंभ में घूमते हुए, कोई भी व्यक्ति सनातन धर्म के शाश्वत संदेश को आसानी से समझ सकता है। हमारे रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन हमारी मंजिल - मोक्ष - एक ही है। गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के पवित्र संगम पर डुबकी लगाते हुए लोगों का एक समूह एक साथ चलता है। पुरुष और महिलाएं, बच्चे और बूढ़े, ब्राह्मण और शूद्र, ग्रामीण, वनवासी और शहरवासी, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय, भारतीय और विदेशी, अमीर और गरीब, यात्री, फ़ोटोग्राफ़र और आस्तिक - सभी एक साथ आते हैं, जिससे प्रयागराज वास्तव में एक पवित्र संगम, मानवता का एक संगम और दुनिया में अपनी तरह का सबसे बड़ा समागम बन जाता है। करोड़ों लोग खुद को ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ पाते हैं, वाहनों की तेज आवाज, भारी पुलिस बल की मौजूदगी और लोगों की भीड़ एक-दूसरे से टकराने की स्थिति के बावजूद लोगों का रुख सिर्फ और सिर्फ संगम की ओर। चाहे वह विभिन्न संप्रदायों के वैष्णव हों (विष्णु भक्त), शाक्त (शक्ति उपासक), शैव (शिव भक्त), तपस्वी, नागा संन्यासी (कपड़े रहित संन्यासी), या अघोरी (श्मशान-निवासी जो मानव मांस का सेवन करते हैं), सभी संप्रदाय विभिन्न अखाड़ों से मौजूद लोगों के दिलोदिमाग में सिर्फ संगम में किसी तरह डुबकी लग जाए। आध्यात्मिक विविधता ब्रह्माकुमारियों, महिला संन्यासियों, उदासीन सिखों, किन्नरों (ट्रांसजेंडर्स), बौद्धों और यहां तक कि प्रमुख भारतीय आचार्यों और विश्व हिंदू परिषद और इस्कॉन जैसे धार्मिक संगठनों का प्रतिनिधित्व
करने वाले अस्थायी मंदिरों तक से जुडे लोगों की सोच एक ही है संगम में डुबकी।भारी भीड़ के
बावजूद, कुछ हादसों को
छोड़ दें तो सभी
प्रकार के तीर्थयात्रियों के
लिए महाकुंभ शांतिपूर्ण और सुचारू रहा।
इस तरह की भीड़
को प्रबंधित करना एक बहुत
बड़ा काम है, जो
ड्रोन और एआई-सक्षम
कैमरों सहित उच्च तकनीक
वाले सुरक्षा उपायों के माध्यम से
संभव हुआ है। हालाँकि,
इस अद्वितीय आयोजन के पीछे प्रेरक
शक्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर
प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ की भारतीय परंपराओं
को संरक्षित करने की प्रतिबद्धता
है। एक ऐसी दुनिया
में जो अक्सर विभिन्न
धर्मों के प्रति असहिष्णुता
से जूझती है, महाकुंभ शांतिपूर्ण
सह-अस्तित्व का सबसे अच्छा
उदाहरण है। भारत की
विशिष्टता आध्यात्मिक अन्वेषण के अपने लंबे
इतिहास में निहित है।
इस भूमि ने हमेशा
साधकों का स्वागत किया
है, चाहे वे श्मशान
घाटों में मुक्ति के
लिए प्रयोग करने वाले अघोरी
हों, अपने शरीर पर
राख मलते हों, मानव
खोपड़ी को बर्तन के
रूप में इस्तेमाल करते
हों, या मानव मांस
खाते हों, या सभी
भौतिक संपत्ति और सामाजिक मानदंडों
को त्यागने वाले नागा साधु
हों। यहां, लोग विभिन्न आध्यात्मिक
मार्गों का अनुसरण करते
हैं, अपने सच्चे स्व
की खोज करते हैं
और दिव्यता में डूब जाते
हैं। भारत एक ऐसी
भूमि है जहां साधक
प्रश्न करते हैं, प्रयोग
करते हैं और अपनी
आस्था पाते हैं।
अपने पूरे इतिहास
में, आध्यात्मिक साधकों ने राजाओं और
आम लोगों दोनों को धर्म के
सही सिद्धांतों को बनाए रखने
के लिए प्रेरित किया
है। हालांकि भारत ने विदेशी
शासन के दौर का
सामना किया है, लेकिन
इसकी भावना कभी पराजित नहीं
हुई है - भारतीय गुरुओं
की बुद्धिमत्ता और लचीलेपन के
लिए धन्यवाद। महाकुंभ इस विरासत को
फिर से जागृत करता
है। जबकि तीर्थयात्रियों का
प्राथमिक उद्देश्य मोक्ष के लिए पवित्र
स्नान करना है, कुंभ
के भव्य होर्डिंग्स पर
प्रदर्शित नारे आगंतुकों को
एक बड़े उद्देश्य की
याद दिलाते हैं। “महाकुंभ का लक्ष्य महान,
एक रहेगा हिंदुस्तान“। ये शक्तिशाली
शब्द लोगों को धर्म को
बनाए रखने और इस
प्राचीन सभ्यता की रक्षा करने
के लिए प्रेरित करते
हैं। कहा जा सकता
है महाकुंभ भारत की शाश्वत
आध्यात्मिक विरासत का एक और
दावा है। सनातन के
चिरंतन, निरंतर व नित्य नवीन
तथ्यों की खोज और
उन्हें आत्मसात करने की परंपरा
का साक्ष्य है। सनातन के
सांस्कृतिक अभ्युदय का शंखनाद है।
मानव सभ्यता की यात्रा है।
सनातन की गाथा है।
संस्कृति के रहस्यों का
विवेचन है। शस्त्र और
शास्त्र के संयोजन और
संतुलन के कौशल की
परीक्षा है। दान-धर्म
के महत्व का संदेश है।
आत्मा के परमात्मा से
मिलन का अनुभव है।
सनातन संस्कृति में अनुशासन के
महत्व का उद्घोष है।
सत्य की सतत जिज्ञासा
है। राशियों व नक्षत्रों का
योग और संयोग के
रहस्यों का उद्घाटन है।
पृथ्वी के साथ प्रकृति
के संतुलन और संबंधों के
रहस्यों की व्याख्या है।
मतलब साफ है
कुंभ के अनेक मंतव्य
हो सकते है, लेकिन
अमृत की आकांक्षा और
अमरत्व की अभिलाषा पूरी
करनी है तो समाज
को बैर-भाव भूलकर
एक साथ समुद्र मंथन
के लिए एकजुट होना
पड़ेगा। कहा जा सकता
है कि कुंभ समाज
के संचालन का सिद्धांत भी
है और सामाजिक दायित्व
के प्रतिपालन का सूत्र भी।
समुद्र सिर्फ अथाह जल से
भरा हिंद, प्रशांत या अरब सागर
मात्र नहीं है। सनातन
दर्शन में तो संसार
को ही समुद्र माना
गया है। समाज और
परिवार तक इसी का
छोटा रूप हैं। व्यक्ति
से लेकर समष्टि तक
प्रत्येक शरीरधारी संसार रूपी समुद्र में
छिपा कुंभ है। सिर्फ
शरीरधारी ही क्यों, प्रकृति
से लेकर परमात्मा तक।
जितना मथोगे अर्थात चिंतन करोगे, उतनी ही निधियां
निकलेंगी। पर, अमृत सबकी
इच्छा मोक्ष है। हमारे पूर्वजों
ने ऋषियों और मनीषियों की
कुंभ की परिकल्पना में
यही भाव देखा होगा।
कुंभ की सबसे चर्चित
समुद्र मंथन की कथा
जितनी समझ में आती
है, उससे यही संदेश
दिखता है कि समाज
में एकता और संतुलन
के लिए सज्जन और
दुष्ट दोनों के सामने उनके
हित का लक्ष्य होना
जरूरी है। गोस्वामी तुलसीदास
के शब्दों में - जाकी रही भावना
जैसी; प्रभु मूरत देखी तिन
तैसी। कहा जा सकता
है कि परमात्मा की
तरह कुंभ से भी
परे कुछ नहीं है।
जैसा शास्त्रों में कहा गया
है कि संसार, समाज
और शरीर भी एक
तरह के समुद्र ही
हैं, तो अमृत अर्थात
सुख और अमरत्व मतलब
सबल व सक्षम बनने
के लिए सज्जनों और
दुर्जनों में संघर्ष होना
भी आवश्यक है। अमृत के
लिए सज्जनों का दुष्टों के
साथ मंथन करने अर्थात
समाज की समस्याओं के
समाधान के व्यापक हित
में उनसे संवाद करना
अपरिहार्य है। समुद्र मंथन
की कथा परिणाम के
लिए कर्म की उपयोगिता
भी बताती है। भगवान श्रीकृष्ण
ने भी संभवतः इसी
मंथन को द्वापर में
अर्जुन को दिए ज्ञान
में कर्मयोग नाम दिया होगा।
कुंभ का उद्देश्य सनातन
संस्कृति में व्याप्त इसी
परम रहस्य की खोज को
निरंतरता देना दिखाई देता
है।
No comments:
Post a Comment