काशी के घाटों पर सजेगी सुरों की महफिल, गंगा की लहरों पर खेलेंगे अबीर-गुलाल
बुढ़वा मंगल
: अस्सी
से
राजघाट
तक
बजड़ों
पर
मनेगा
जश्न
कलाकारों के
कमाल
की
प्रस्तुति
को
देखने
देश
ही
नहीं
विदेशों
सैलानी
भी
नजर
आते
हैं
नए परिधानों के बीच ठंडाई और बनारसी मिठाई का भी उठाते हैं लुत्फ
सुरेश गांधी
वाराणसी। होली के बाद पहले मंगलवार यानी 18 मार्च को बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में ‘बुढ़वा मंगल’ है। इस दिन काशी में रंगोत्सव का समापन भी खास अंदाज में होता है। इस दिन काशी में गीत, गुलाल और खुशियों के साथ अनोखा जश्न मनाया जाता है। इस दौरान अस्सी से राजघाट तक गंगा की लहरों पर बजड़े सजाए जाते हैं। फूलों की लड़ियों से सजी नाव-बजड़े, चांदनी-मसनद, शमादान और गलीचे पर सजी संगीत की महफिल के बीच लोग एक-दुसरे को अबीर-गुलाल लगाते है।
बता दें, होली
के बाद आने वाले
मंगलवार तक बनारसियों में
खुमारी छाई रहती है।
मंगलवार को ‘बुढ़वा मंगल’
के साथ इसका समापन
होता है। बुढ़वा मंगल
की परंपरा सालों पुरानी है और इस
परंपरा को बनारस आज
भी संजोए हुए है। वाराणसी
में इस त्योहार को
लोग होली के समापन
के रूप में भी
मनाते हैं जहां होली
की मस्ती के बाद बनारसी
जोश के साथ अपने
पुराने काम के ढर्रे
पर लौट जाते हैं।
मंगलवार को बनारस के
कई घाटों पर इस परंपरा
का निर्वहन होता है। दशाश्वमेध
घाट से अस्सी घाट
तक बुढ़वा मंगल की खुमारी
में लोग डूबते उतराते
दिखते हैं। गंगा नदी
में खड़े बजड़े में
लोकगायक अपनी प्रस्तुति देते
हैं। इसमें बनारस और आस पास
के जिलों के कई लोकगायक
और कलाकार शामिल होते हैं। बनारसी
घराने की होरी, चैती,
ठुमरी से शाम और
सुरीली हो उठती है।
कलाकारों के कमाल की
प्रस्तुति को देखने के
लिए आम जन बड़ी
संख्या में जुटते हैं।
देश ही नहीं बल्कि
विदेशों से भी सैलानी
बनारस की बुढ़वा मंगल
की परंपरा का लुत्फ उठाते
नजर आते हैं। बुढ़वा
मंगल केवल गीत संगीत
ही नहीं, बल्कि खान-पान, गुलाल
और पहनावे का भी जश्न
है! इस दिन बनारसी
नए कपड़े पहनकर पहुंचते
हैं। कुल्हड़ में ठंडाई और
बनारसी मिठाई का भी स्वाद
उठाते हैं। कन्हईराम का
कहना है कि होली
के बाद तो हम
लोगों को बुढ़वा मंगल
का इंतजार रहता है। इस
दिन घरों में भी
पकवान बनता है और
दोस्तों और परिवार में
होली मिलने जाने का अंतिम
दिन होता है। इस
दिन के बाद घरों
से गुलाल-अबीर को अगले
साल होली आने तक
के लिए रोक दिया
जाता है। घाट पर
जाकर लोकगीत और त्योहार के
रंग को सेलिब्रेट करते
हैं।
कई घाटों पर होता है परंपरा का निर्वहन
होली के बाद
पड़ने वाले पहले मंगलवार
को बनारस के कई घाटों
पर इस परंपरा का
निर्वहन होता है। दशाश्वमेध
घाट से अस्सी घाट
तक बुढ़वा मंगल की खुमारी
में लोग डूबते उतराते
हैं। गंगा नदी में
खड़े बजड़े में लोकगायक
अपनी प्रस्तुति देते हैं। इसमें
बनारस और आसपास के
जिलों के कई लोकगायक
कलाकार शामिल होते हैं। बनारसी
घराने की होरी, चैती,
ठुमरी से शाम सुरीली
हो उठती है। होली
की मस्ती के बाद, बनारसी
जोश के साथ लोग
अपने पुराने काम के ढर्रे
पर लौट जाते हैं।
No comments:
Post a Comment