टूटता है अहंकार, मिलते है गले...
होली पर रंगों की गहन साधना हमारी संवेदनाओं को भी उजला करती है। क्योंकि होली बुराईयों के विरुद्ध उठा एक प्रयास हैं। इसी से जिंदगी जीने का अंदाज मिलता है और दुसरों का दुःख-दर्द बाटा जाता है। बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। होली के नाम से ही जैसे दिल और दिमाग पे मस्ती सी छाने लगती है। बिना पिए ही उस आनंद में डूबने लगते हैं। पूरे बदन का पोर-पोर इशारे करने लगते हैं, होली आ गई हैं। होली के आते ही रंगमयी मौसम लगने लगता है, धरती से लेकर गगन तक सप्तरंगी हो जाते हैं। इस अवसर पर हम अहंकार का टूटना देखते है और उदार मन वाला होकर अपने को पूर्ण का अंश बनने के साक्षी बनते है। रंगो और प्रेम-भाव से सुवासित समानता और समता की गारंटी देने वाला होली का उत्सव हर किसी को आमंत्रित करता है कि अपने-अपने अहम् का विसर्जन कर आगे बढ़ों
सुरेश गांधी
प्रह्लाद को गोद में बिठा कर आग के बीच दहकती हिरणकश्यप की बहन होलिका का भस्म होना और भक्त प्रह्लाद का सुरक्षित बच निकलना बुराई पर अच्छाई की जीत है। इस जीत को ही अबीर-गुलाल उड़ा कर, ढोल-नगारे की थापों के बीच नाच-गाकर मनाया जाता है। हजारों वर्ष बाद भी भारत में उल्लास के साथ यह परंपरा जीवित है तो इसका अर्थ है कि हम आधुनिकता के इस भौतिक दौर में भी जीवन के सत्य को याद रखे हुए हैं। जीवन का यह सत्य ही मनुष्यता है, धर्म है, आनंद है। होली की ठिठोली के बीच मस्ती और हुड़दंग में इसे न भूलें यही होली का संदेश है। होली में सभी का उत्साह बराबर होता है। पर होली का उत्साह बच्चों में कुछ खास ही होता है। होली का त्यौहार हो और पिया का प्यार हो फिर इस त्यौहार का मजा ही दुगुना हो जाता है। इस मौके पर जो आप जो रंग बिखेरते है, वही आपका हो जाता है। ठीक इसी तरह जीवन में जो कुछ भी आप देते है, वहीं आपका गुण हो जाता है।
रंगों का महत्व इस मामले में भी है कि जिस रंग को आप परावर्तित करते है, वह अपने आप ही आपके आभामंडल से जुड़ जाता है। जो लोग आत्म संयम या साधना के पथ पर है, वे खुद से किसी भी नई चीज को नहीं जोड़ना चाहते। उनके पास जो है, वह उसके साथ ही काम करना चाहते हैं। यानी आप अभी जो है, उस पर ही काम करना बहुत ही मायने रखता है। एक-एक करके चीजो ंको जोड़ने से जटिलता पैदा होती है। इसलिए उन्हें कुछ नहीं चाहिए। मतलब साफ है वे जो कुछ भी है, उससे ज्यादा वे कुछ भी नहीं लेना चाहते।
होली के रंगों में भीगे कृष्ण और राधा सहित गोपियां के आख्यान हों या ईसुरी के फाग, सब मन को विभोर कर जाते हैं। ये सारे प्रसंग पुराने होकर भी हर साल नित्य नवीन जैसे लगते हैं। आदमी होली की मस्ती में डूब कर सब कुछ भूल जाता है और फिजाओं में गूंज उठते हैं ये स्वर- ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरौ सुना दे जरा बांसुरी‘। पिता हिरण्यकश्यपु की लाख प्रताड़नाओं यहां तक कि कई बार मार डालने की कोशिशों के बावजूद बालक प्रह्लाद की विष्णु के प्रति भक्ति अडिग रहती है।
राक्षस कुल में जन्मे प्रह्लाद की भगवद-भक्ति हिरण्यकश्यपु के ‘मैं ही विष्णु हूं‘ जैसे अहंकार को चूर-चूर कर देती है। वह जितना जोर देकर अपने पुत्र को डराता है कि ‘विष्णु का नहीं मेरा नाम जपो‘, प्रह्लाद की भक्ति उतनी ही दृढ़ होती जाती है। वह न डरता है और न विचलित होता है। पिता के आदेश दर पर प्रह्लाद को पहाड़ की ऊंचाइयों से फेंका गया, उबलते तेल के कड़ाह में डाला गया, किंतु ये यातनाएं भी उसकी भक्ति को कमजोर नहीं कर सकी। प्रह्लाद की कथा से जुड़े ये सारे आख्यान और उसकी अविचल भक्ति आज भी बुराइयों से लड़ने की प्रेरणा देती है। कहा जा सकता है कोई भी डर, कोई भी प्रताड़ना या कोई भी प्रलोभन हमें अपने ईमान से, मनुष्यता के भाव से डिगा न सके तो यह धरती ही स्वर्ग बन जाये। शक्ति के मन में कुल बुलाती बुराइयां, उसके अंतस में मचलता स्वार्थ-लोभ-लालच कब उसे इतना नीचे गिरा देता है कि वह इनसान से हैवान बन जाता है, यह वह समझ ही नहीं पाता। इन दुष्वृत्तियों के कारण मानो सारे रिश्ते बेमानी हो जाते हैं। आदमी इन रिश्तों का, इनसानियत का खून करने से भी नहीं हिचकता। यानी इंसान किसी न किसी रंग में रंगा और अपने राग में मस्त है।या यूं कहे
रंगों का पर्व होली
हर बार एकरस जीवन
में उत्साह भरने, व्यस्त दिनचर्या को बदलने तथा
खुद पर और दूसरों
पर हंसने के अवसर के
रूप में आता है।
जिस पर्व में फाल्गुन
पूर्णिमा की पवित्रता, आम
के बौरों की सुगंध, होलिका
की पृष्ठभूमि और मदनोत्सव की
परंपरा हो, उसकी विशिष्टता
की कल्पना भर ही की
जा सकती है। आपसी
प्रेम और सामाजिक सद्भाव
के इस मौके पर
लोगों में जो उत्साह
देखने को मिलता है,
वह सहज और स्वाभाविक
है। कहा जा सकता
है कि यदि हमारी
संस्कृति में अगर होली
जैसे पर्व न होते
तो आज के आत्मकेंद्रित
और मशीनी दौर में मौज
मस्ती व हंसी-ठिठोली
के मौके तलाशने तक
दूभर हो जाते। होली
का यह पर्व ऐसे
समय आता है, जब
नई फसलें कटकर घर आती
हैं और किसानों का
मन खिला-खिला रहता
है। प्रकृति भी विभिन्न रंगों
के फूलों के परिधान में
निखरी-निखरी नजर आती है।
फाल्गुनी हवा हर किसी
के नवजीवन में प्राण भरती
है। इस त्योहार की
सबसे बड़ी खासियत है
कि यह ऊंच-नीच,
छोटे-बड़े, जाति भेद
की दीवारों को तोड़कर हमारी
बहुलतावादी सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करता
है। जीवंतता का यह उत्सव
जड़ता को तोड़कर नवीनता
का संदेश देता है। इसके
अलावा यह खतरे उठाकर
की जाने वाली अभिव्यक्ति
का त्योहार भी है। ऐसा
इसलिए क्योंकि होली के अवसर
पर ऐसे आचरण और
अभिव्यक्ति की भी छूट
है, जो हमारे नियंत्रित
और अनुशासित जीवन में संभव
नहीं है। होली के
बाद मन निर्मल होकर
उत्साहपूर्वक अपने काम में
लग जाता है। लेकिन
तमाम अच्छाइयों के बीच बुरा
पक्ष यह है कि
होली की मस्ती के
नाम पर उच्छृंखलता भी
यदा-कदा चरम पर
पहुंच जाती है। कई
बार इसके नतीजे आपसी
सद्भाव बिगडऩे के खतरे तक
पहुंच जाते हैं। इसे
रोकने की जरूरत है।
चिंता इस बात की
भी है कि आज
सोशल मीडिया के युग में
सामाजिकता आपसी मेलजोल के
नाम पर किसी पोस्ट
को लाइक और शेयर
करने तक सीमित रह
गई है। होली, नवजीवन
का संदेश लेकर आए ताकि
बहुलतावादी नए विकसित भारत
के निर्माण में हम योगदान
दे सकें। हर बार की
तरह सबके जीवन में
खुशियों के रंग भरकर
तमाम वर्जनाओं को तोडऩे वाले
इस त्योहार की गरिमा इसी
में है कि हम
इसकी मर्यादा बनाए रखें और
पर्व का मौलिक आनंद
लें। इस पर्व की
पहचान देश की संस्कृति
के रूप में होती
है. वसंत ऋतु जनजीवन
में नयी चेतना का
संचार कर रही होती
है, फागुन की सुरमई हवाएं
वातावरण को मस्त बनाती
हैं. तभी होली के
रंग हमारे लोकजीवन में घुल जाते
हैं. इन्हीं दिनों नयी फसल भी
तैयार होती है. किसानों
के लिए यह उल्लास
का समय होता है.
तभी होली के बहाने
नये अन्न की पूजा
पूरे देश में की
जाती है. दिलचस्प यह
है कि दुनियाभर में
अलग-अलग समय में
होली की ही तरह
के त्योहार मनाये जाते हैं, जिनका
असल मकसद तनावों से
दूर कुछ पल मौज-मस्ती के बिताना होता
है. होली का अर्थ
है-हो ली, यानी
जो बीत गयी, सो
बीत गयी, अब आगे
की सुध लो. गिले-शिकवे मिटाओ, गलतियों को माफ करो
और एक-दूसरे को
रंगों में सराबोर कर
दो। होली का उद्देश्य
समाज में समरसता बनाये
रखना, अपने परिवेश की
रक्षा करना और जीवन
में मनोविनोद बनाये रखना है. यही
इसका मूल दर्शन है.
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