Wednesday, 12 March 2025

टूटता है अहंकार, मिलते है गले...

टूटता है अहंकार, मिलते है गले... 

होली पर रंगों की गहन साधना हमारी संवेदनाओं को भी उजला करती है। क्योंकि होली बुराईयों के विरुद्ध उठा एक प्रयास हैं। इसी से जिंदगी जीने का अंदाज मिलता है और दुसरों का दुःख-दर्द बाटा जाता है। बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। होली के नाम से ही जैसे दिल और दिमाग पे मस्ती सी छाने लगती है। बिना पिए ही उस आनंद में डूबने लगते हैं। पूरे बदन का पोर-पोर इशारे करने लगते हैं, होली गई हैं। होली के आते ही रंगमयी मौसम लगने लगता है, धरती से लेकर गगन तक सप्तरंगी हो जाते हैं। इस अवसर पर हम अहंकार का टूटना देखते है और उदार मन वाला होकर अपने को पूर्ण का अंश बनने के साक्षी बनते है। रंगो और प्रेम-भाव से सुवासित समानता और समता की गारंटी देने वाला होली का उत्सव हर किसी को आमंत्रित करता है कि अपने-अपने अहम् का विसर्जन कर आगे बढ़ों   

सुरेश गांधी

                प्रह्लाद को गोद में बिठा कर आग के बीच दहकती हिरणकश्यप की बहन होलिका का भस्म होना और भक्त प्रह्लाद का सुरक्षित बच निकलना बुराई पर अच्छाई की जीत है। इस जीत को ही अबीर-गुलाल उड़ा कर, ढोल-नगारे की थापों के बीच नाच-गाकर मनाया जाता है। हजारों वर्ष बाद भी भारत में उल्लास के साथ यह परंपरा जीवित है तो इसका अर्थ है कि हम आधुनिकता के इस भौतिक दौर में भी जीवन के सत्य को याद रखे हुए हैं। जीवन का यह सत्य ही मनुष्यता है, धर्म है, आनंद है। होली की ठिठोली के बीच मस्ती और हुड़दंग में इसे भूलें यही होली का संदेश है। होली में सभी का उत्साह बराबर होता है। पर होली का उत्साह बच्चों में कुछ खास ही होता है। होली का त्यौहार हो और पिया का प्यार हो फिर इस त्यौहार का मजा ही दुगुना हो जाता है। इस मौके पर जो आप जो रंग बिखेरते है, वही आपका हो जाता है। ठीक इसी तरह जीवन में जो कुछ भी आप देते है, वहीं आपका गुण हो जाता है। 

रंगों का महत्व इस मामले में भी है कि जिस रंग को आप परावर्तित करते है, वह अपने आप ही आपके आभामंडल से जुड़ जाता है। जो लोग आत्म संयम या साधना के पथ पर है, वे खुद से किसी भी नई चीज को नहीं जोड़ना चाहते। उनके पास जो है, वह उसके साथ ही काम करना चाहते हैं। यानी आप अभी जो है, उस पर ही काम करना बहुत ही मायने रखता है। एक-एक करके चीजो ंको जोड़ने से जटिलता पैदा होती है। इसलिए उन्हें कुछ नहीं चाहिए। मतलब साफ है वे जो कुछ भी है, उससे ज्यादा वे कुछ भी नहीं लेना चाहते।

होली के रंगों में भीगे कृष्ण और राधा सहित गोपियां के आख्यान हों या ईसुरी के फाग, सब मन को विभोर कर जाते हैं। ये सारे प्रसंग पुराने होकर भी हर साल नित्य नवीन जैसे लगते हैं। आदमी होली की मस्ती में डूब कर सब कुछ भूल जाता है और फिजाओं में गूंज उठते हैं ये स्वर- ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरौ सुना दे जरा बांसुरी  पिता हिरण्यकश्यपु की लाख प्रताड़नाओं यहां तक कि कई बार मार डालने की कोशिशों के बावजूद बालक प्रह्लाद की विष्णु के प्रति भक्ति अडिग रहती है। 

राक्षस कुल में जन्मे प्रह्लाद की भगवद-भक्ति हिरण्यकश्यपु केमैं ही विष्णु हूंजैसे अहंकार को चूर-चूर कर देती है। वह जितना जोर देकर अपने पुत्र को डराता है किविष्णु का नहीं मेरा नाम जपो‘, प्रह्लाद की भक्ति उतनी ही दृढ़ होती जाती है। वह डरता है और विचलित होता है। पिता के आदेश दर पर प्रह्लाद को पहाड़ की ऊंचाइयों से फेंका गया, उबलते तेल के कड़ाह में डाला गया, किंतु ये यातनाएं भी उसकी भक्ति को कमजोर नहीं कर सकी। प्रह्लाद की कथा से जुड़े ये सारे आख्यान और उसकी अविचल भक्ति आज भी बुराइयों से लड़ने की प्रेरणा देती है। कहा जा सकता है कोई भी डर, कोई भी प्रताड़ना या कोई भी प्रलोभन हमें अपने ईमान से, मनुष्यता के भाव से डिगा सके तो यह धरती ही स्वर्ग बन जाये। शक्ति के मन में कुल बुलाती बुराइयां, उसके अंतस में मचलता स्वार्थ-लोभ-लालच कब उसे इतना नीचे गिरा देता है कि वह इनसान से हैवान बन जाता है, यह वह समझ ही नहीं पाता। इन दुष्वृत्तियों के कारण मानो सारे रिश्ते बेमानी हो जाते हैं। आदमी इन रिश्तों का, इनसानियत का खून करने से भी नहीं हिचकता। यानी इंसान किसी किसी रंग में रंगा और अपने राग में मस्त है।

दुनिया के रंगमंच पर विभिन्न भूमिकाएं अदा कर रहे इंसान अलग-अलग रंगों की शरण लेते हैं। साधु-संयासी गेरुआ पहनते है, तो समाजसेवी सफेद, वहीं सिनेमा के पर्दे पर अभिनय करने वाले कलाकर दर्शकों का दिल जीतने बहलाने के लिए रंग-बिरंगे कपड़े धारण करते हैं। जबकि सच तो यही है कि ब्रह्मांड के किसी भी चीज में रंग नहीं हैं। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन हैं। यहां तक की जीन चीजों को आप देखते है, वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश में होता है। रंग वह नहीं है जो दिखता है, बल्कि वह है जो त्यागता है। आप जो रंग बिखेरते है, वही आपका रंग हो जाऐगा। ठीक इसी तरह जीवन में जो कुछ भी आप देते है, वही आपका गुण हो जाता है। अगर आनंद देंगे तो लोग कहेंगे आप एक आनंदित इंसान है। आपके व्यवहार आचरण ही बताएंगा कि आप किस रंग की छाप हैं। भक्त प्रह्लाद भी बुराइयों से लड़कर मनुष्यता को बचाने का प्रयास करते है। यानी जब व्यक्ति का अहंकार उसे भगवान से भी ऊंचा मानने लगता है तो उसका पतन निश्चित है। इसीलिए ज्ञान विद्या का पहला लक्षण विनम्रता ही है। विद्या ददाति विनयं, विनयात याति सुपरत्रताइस विनय से ही व्यक्ति सुपात्र बनता है। विनय साधुता और अहंकार दुष्टता का लक्षण है। प्रह्लाद ने अपने पिता की दुष्टता हिंसा का विरोध नहीं किया, बल्कि अपनी सारी शक्ति अपनी भक्ति को अडिग रखने में लगायी।  यह दृढ़ विश्वास ही उनकी विजय का मूल बना। प्रह्लाद की भक्ति और विश्वास के सामने हिरण्यकश्यपु के सभी अत्याचारी उपक्रम निष्फल और असहाय साबित हो रहे थे। उसका राक्षसी अहंकार यह मानने को कतई तैयार नहीं था कि एक छोटा सा बालक, वह भी उसका पुत्र राजाज्ञा का उल्लंघन कर विष्णु-विष्णु जपता रहे। प्रहलाद के इस अडिगता को परास्त करने के लिए ही उनकी बहन होलिका को सामने लाया गया, जिसे वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। होलिका बालक प्रह्लाद को गोद में लेकर बैठी, अग्नि प्रज्जवलित की गयी, लेकिन होलिका जल मरी, प्रहलाद सही सलामत बाहर निकल आए। उनकी भक्ति के आगे पिता की शक्ति हार गयी। 

कहा जा सकता है जीवन में भक्ति और शक्ति का समन्वय है। भक्ति सुमति देती और शक्ति जगत का कल्याण करती है। इसे दुष्टता से नहीं, सुमति से ही समझा जा सकता है। यही आदर्श जाति-मजहब और रंगभेद से ऊपर शांति-सदभाव-बंधुता और परस्पर सौहार्द से युक्त वैश्विक जीवन का विश्वास जगाते हैं। यही वजह है कि जीवन में रंग महती भूमिका निभाते हैं। रंगों के माध्यम से ही हम प्रकृति की हरियाली से लेकर सुरज की सुनहरी रोशनी, आसमान का नीलापन और चंद्रमी की उजास देख पाते हैं। बादलों के बीच दिखती सात रंगों की इंद्रधनुषी रेखाएं प्रत्येक रंग की सुंदर कहानियां बयां करती है, जिन्हें देखकर मन रंग-बिरंगी दुनिया का हिस्सा बन जाता है। सही मायनों में जीवन को रंग-बिरंगा या रंगहीन बनाना सबकुछ स्वयं के आचरण सोच पर निर्भर करता है। आप जैसा सोचेंगे, जीवन में वैसा ही होता चला जायेगा। कोई पूर्वाग्रह होता ही नहीं। आप जहां भी होते है, उसी का हिस्सा हो जाते हैं। वह रंग एक पल के लिए आप से चिपकता नहीं। आप केवल उसके ही नहीं होते, आप सबके होते हैं। इसलिए जीवन को सफल बनाने के लिए प्रहलाद जैसा आत्मनिर्भर लक्ष्य  के प्रति अडिग बनना होगा। होली का पर्व मन की इसी धूल को जो हमें भरमाये रहती है, जीवन की सच्चाई को समझने के बीच भ्रम का परदा डाले रहती है, उसे झाड़ कर और उसकी साफ-सफाई करके मन को निर्मल बना लेना, उसे बुराइयों से मुक्त कर दूसरों के साथ प्यार से जोड़ लेना सिखाता है। 

या यूं कहे रंगों का पर्व होली हर बार एकरस जीवन में उत्साह भरने, व्यस्त दिनचर्या को बदलने तथा खुद पर और दूसरों पर हंसने के अवसर के रूप में आता है। जिस पर्व में फाल्गुन पूर्णिमा की पवित्रता, आम के बौरों की सुगंध, होलिका की पृष्ठभूमि और मदनोत्सव की परंपरा हो, उसकी विशिष्टता की कल्पना भर ही की जा सकती है। आपसी प्रेम और सामाजिक सद्भाव के इस मौके पर लोगों में जो उत्साह देखने को मिलता है, वह सहज और स्वाभाविक है। कहा जा सकता है कि यदि हमारी संस्कृति में अगर होली जैसे पर्व होते तो आज के आत्मकेंद्रित और मशीनी दौर में मौज मस्ती हंसी-ठिठोली के मौके तलाशने तक दूभर हो जाते। होली का यह पर्व ऐसे समय आता है, जब नई फसलें कटकर घर आती हैं और किसानों का मन खिला-खिला रहता है। प्रकृति भी विभिन्न रंगों के फूलों के परिधान में निखरी-निखरी नजर आती है। फाल्गुनी हवा हर किसी के नवजीवन में प्राण भरती है। इस त्योहार की सबसे बड़ी खासियत है कि यह ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, जाति भेद की दीवारों को तोड़कर हमारी बहुलतावादी सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करता है। जीवंतता का यह उत्सव जड़ता को तोड़कर नवीनता का संदेश देता है। इसके अलावा यह खतरे उठाकर की जाने वाली अभिव्यक्ति का त्योहार भी है। ऐसा इसलिए क्योंकि होली के अवसर पर ऐसे आचरण और अभिव्यक्ति की भी छूट है, जो हमारे नियंत्रित और अनुशासित जीवन में संभव नहीं है। होली के बाद मन निर्मल होकर उत्साहपूर्वक अपने काम में लग जाता है। लेकिन तमाम अच्छाइयों के बीच बुरा पक्ष यह है कि होली की मस्ती के नाम पर उच्छृंखलता भी यदा-कदा चरम पर पहुंच जाती है। कई बार इसके नतीजे आपसी सद्भाव बिगडऩे के खतरे तक पहुंच जाते हैं। इसे रोकने की जरूरत है।

चिंता इस बात की भी है कि आज सोशल मीडिया के युग में सामाजिकता आपसी मेलजोल के नाम पर किसी पोस्ट को लाइक और शेयर करने तक सीमित रह गई है। होली, नवजीवन का संदेश लेकर आए ताकि बहुलतावादी नए विकसित भारत के निर्माण में हम योगदान दे सकें। हर बार की तरह सबके जीवन में खुशियों के रंग भरकर तमाम वर्जनाओं को तोडऩे वाले इस त्योहार की गरिमा इसी में है कि हम इसकी मर्यादा बनाए रखें और पर्व का मौलिक आनंद लें। इस पर्व की पहचान देश की संस्कृति के रूप में होती है. वसंत ऋतु जनजीवन में नयी चेतना का संचार कर रही होती है, फागुन की सुरमई हवाएं वातावरण को मस्त बनाती हैं. तभी होली के रंग हमारे लोकजीवन में घुल जाते हैं. इन्हीं दिनों नयी फसल भी तैयार होती है. किसानों के लिए यह उल्लास का समय होता है. तभी होली के बहाने नये अन्न की पूजा पूरे देश में की जाती है. दिलचस्प यह है कि दुनियाभर में अलग-अलग समय में होली की ही तरह के त्योहार मनाये जाते हैं, जिनका असल मकसद तनावों से दूर कुछ पल मौज-मस्ती के बिताना होता है. होली का अर्थ है-हो ली, यानी जो बीत गयी, सो बीत गयी, अब आगे की सुध लो. गिले-शिकवे मिटाओ, गलतियों को माफ करो और एक-दूसरे को रंगों में सराबोर कर दो। होली का उद्देश्य समाज में समरसता बनाये रखना, अपने परिवेश की रक्षा करना और जीवन में मनोविनोद बनाये रखना है. यही इसका मूल दर्शन है.

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