राष्ट्रवाद नहीं, अब जाति की कड़ाही में तलेगी-भुनेगी बीजेपी
एक दौर था जब भाजपा का चुनावी एजेंडा ’राष्ट्रवाद’ के इर्द-गिर्द घूमता था। पुलवामा, बालाकोट, कश्मीर से अनुच्छेद 370 का हटना, जैसे मुद्दों ने पार्टी को जनसमर्थन की ऊंचाइयों तक पहुंचाया। राष्ट्रभक्ति और सुरक्षा जैसे विषयों को पार्टी ने अपनी ताकत बना लिया था। परंतु 2024 के बाद के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो यह साफ होता है कि अब वह पुरानी राष्ट्रवादी लहर मंद पड़ गई है। और इस खाली होती जगह को भरने के लिए बीजेपी ने एक नया या यूं कहें पुराना हथियार निकाला है जाति। यूपी, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में पार्टी की रणनीति में अब जातिगत समीकरण अधिक प्रमुख होते जा रहे हैं। पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा, दलित, सवर्ण हर समूह को साधने के लिए पार्टी अब ’जाति सम्मेलन’, ’सामाजिक न्याय यात्राएं’, और ’समूह विशेष आरक्षण’ जैसे कदम उठा रही है। विपक्ष की ओर से जातीय जनगणना की मांग का जिस तरह बीजेपी ने पहले विरोध किया और अब उसमें रुचि दिखा रही है, वह इस बदलाव का बड़ा संकेत है। बीजेपी जानती है कि हिंदू पहले अपनी जाति का है उसके बाद ही वह हिंदू धर्म का है. शायद यही कारण है कि बिहार के चुनावों में पार्टी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है. जबकि संघ अब ये मानने लगा है कि जातियों बंटे होने के बावजूद हिंदुओं को संगठित किया जा सकता है. ऐसे में जाति जनगणना कराना गलत नहीं होगा.
सुरेश गांधी
फिरहाल, पहलगाम आतंकी हमले के बाद
देशभर में फैले आक्रोश
के बीच केंद्र सरकार
ने जनगणना में जातियों की
गणना कराने का फैसला किया
है. निश्चित ही केंद्र सरकार
का यह फैसला एक
बड़ा राजनीतिक कदम है. सरकार
ने यह फैसला बिहार
विधानसभा चुनाव से पहले लिया
है. बिहार की राजनीति में
जाति एक बड़ा मुद्दा
है. वैसे भी जाति
भारतीय राजनीति की सच्चाई है
और जातीय जनगणना इसकी धुरी. लोकतंत्र
इससे मज़बूत होगा. जहां तक इसके
सियासी नफा नुकसान का
सवाल है तो पहलगाम
के बाद देशभक्ति का
जो माहौल है और राष्ट्रीय
सुरक्षा के मुद्दे पर
लोग एकजुट हैं. ऐसे में
जातिगत गणना की बात
कर, भाजपा ने कुछ ही
महीने बाद बिहार व
2027 के यूपी चुनाव में
न सिर्फ भुनाएगी, बल्कि विपक्ष के सारे समीकरण
की हवा निकाल देगी.
भाजपा ने एक ऐसा
आसान रास्ता अपनाया है, जिसने विपक्ष
से यह मुद्दा छीनकर
उसकी धार काटने की
कोशिश की है. या
यूं कहे भाजपा के
नेतृत्व वाली मोदी सरकार
ने देश में जाति
जनगणना का ऐलान कर
विरोधी दलों के पैरों
तले से जमीन खिसका
दी है. जिस मुद्दे
के दम पर सपा
यूपी में 2027 विधानसभा चुनाव में फ़तह हासिल
करने का सपना देख
रही थी, बीजेपी ने
उसकी हवा ऋढ तोड़
दी है. बीजेपी के
इस फैसले के पीछे वो
पिछड़ा वर्ग अहम माना
जा रहा है जिसके
दम पर भाजपा ने
यूपी में लगातार दो
बार सरकार बनाने में सफलता हासिल
की. भाजपा नही चाहती कि
इस वर्ग में ऐसा
संदेश जाए कि वो
आरक्षण या पिछड़ों के
हितों के खिलाफ है.
हालांकि बीजेपी के लिए यह
एक दोहरे जोखिम का मामला है।
एक ओर वह अपनी
पुरानी पहचान ’राष्ट्रवादी पार्टी’ से अलग हो
रही है, और दूसरी
ओर वह उसी राजनीति
में कदम रख रही
है जिसका विरोध वह वर्षों से
करती आई है। यह
परिवर्तन सिर्फ रणनीति नहीं, विचारधारा की उलझन को
भी दर्शाता है। विपक्षी दलों
ने इस स्थिति को
भांप लिया है और
अब बीजेपी को उसी भाषा
में घेर रहे हैं
जाति की। सवाल अब
राष्ट्र की सुरक्षा या
सांस्कृतिक अस्मिता का नहीं, बल्कि
‘हमारी जाति को क्या
मिला?’ का बनता जा
रहा है। और यही
वह कड़ाही है जिसमें अब
बीजेपी खुद को तला
और भूना पाएगी। ऐसे
में बड़ा सवाल तो
यही है क्या यह
बदलाव बीजेपी को लाभ पहुंचाएगा
या उसके पुराने समर्थकों
को भ्रमित करेगा? यह तो चुनाव
परिणाम ही तय करेंगे।
पर इतना तय है
कि राष्ट्रवाद का नारा अब
पीछे छूटता दिख रहा है,
और जाति की राजनीति
की तपती कड़ाही में
बीजेपी खुद को एक
बार फिर से ’पकते’
हुए देख रही है।
देखा जाएं तो देश
में इससे पहले जातीय
जनगणना 1931 में उस समय
कराई गई थी, जब
देश में अंग्रेजी सरकार
थी. लोकसभा चुनाव 2024 में जिस तरह
पिछड़े और दलित वर्ग
के लोगों ने सपा और
कांग्रेस के समर्थन में
वोट किया उससे उत्तर
प्रदेश में भाजपा का
झटका लगा था. इन
नतीजों के बाद से
ही बीजेपी के अंदर से
कई नेताओं द्वारा जातीय जनगणना का समर्थन में
आवाजें उठ रहीं थी.
इस ऐलान के बाद
बीजेपी मिशन 2027 में एक बार
फिर से पिछड़ों और
दलितों को अपने साथ
लाने की कोशिश में
हैं. माना जा रहा
है इसका असर पार्टी
के संगठन में भी दिख
सकता है.
वैसे भी बीजेपी
को 2027 के चुनाव को
लेकर चिंता सताने लगी थी कि कहीं
2024 की तरह पार्टी को
संघर्ष न करना पड़े.
इस चुनाव में सपा ने
पीडीए और संविधान का
नारा दिया था, जिसके
बाद बड़ी संख्या में
ओबीसी और दलित वोट
बीजेपी से छिटक गया
था. आरएसएस की चिंतन बैठक
में भी ये मुद्दा
उठा था. जिसके बाद
केंद्रीय नेतृत्व नहीं चाहता था
कि दोबारा ऐसे हालात बने.
बीजेपी के कई पिछड़े
नेताओं के साथ उसके
सहयोगी दल भी जातीय
जनगणना की मांग कर
रहे थे. इनमें अनुप्रिया
पटेल की अपना दल
सोनेलाल, ओम प्रकाश राजभर
और संजय निषाद जैसे
नेता भी शामिल हैं.
बीजेपी नहीं चाहती है
कि आने वाले चुनाव
में उसे अपने सहयोगियों
का विरोध भी झेलना पड़े.
बीजेपी दोनों वर्गों के वोटरों को
अपने साथ जोड़कर रखना
चाहती है. बसपा के
कमजोर होने के बाद
बीजेपी की नज़र दलितों
के वोट बैंक पर
है. बसपा भी लगातार
जातीय जनगणना के मुद्दे को
उठा रही थी. वहीं
सपा और कांग्रेस भी
इन वर्गों को लुभाने की
कोशिश में जुटे हुए
हैं. दोनों पार्टियां रणनीति बनाकर इन वर्गों की
हिस्सेदारी बढ़ाने पर जोर दे
रही हैं ताकि दलितों
को अपने पाले में
लाया जा सके. ऐसे
में बीजेपी के इस ऐलान
से विरोधियों की इस क़वायद
को झटका लगा है.
बीजेपी भी अपने दलित
नेताओं के ज़रिए सपा-कांग्रेस जैसे दलों को
जवाब देने के लिए
आगे कर रही है.
बीजेपी को पता है
कि वो अगड़ी जातियों
और कुछ अन्य पिछड़े
और दलित वोटों के
भरोसे चुनाव नहीं जीत सकती
है. उसे पिछड़े-दलितों
के वोट पाने के
लिए दूसरे सहयोगियों पर निर्भर रहना
पड़ता है. इसी वोट
के लिए उसे पिछड़ी
जातियों को साधने की
ज़रूरत है. बीजेपी को
यह भी पता है
जिस तरह से पिछड़े
और दलितों की आवाज़ मुखर
हुई है, उसे बहुत
दिनों तक दबाया नहीं
जा सकता. लेकिन केवल गणना कराने
से क्या हासिल होगा
और इससे मिले आंकड़ों
का क्या किया जाएगा
यह भविष्य में पता चलेगा.“
चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए. आख़रिकार साल 2010 में बड़ी संख्या में सांसदों की मांग के बाद सरकार इसके लिए राज़ी हुई थी. जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया था कि 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की उसकी कोई योजना नहीं है.
इसके कुछ ही महीने पहले साल 2021 में एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा था कि ’साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं. इसमें जो आंकड़े हासिल हुए थे वे ग़लतियों से भरे और अनुपयोगी थे.’केंद्र का कहना था कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज़्यादा थी. 2011 में की गई जातिगत जनगणना में मिले आंकड़ों में से महाराष्ट्र की मिसाल देते हुए केंद्र ने कहा कि जहां महाराष्ट्र में आधिकारिक तौर पर अधिसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी में आने वाली जातियों कि संख्या 494 थी, वहीं 2011 में हुई जातिगत जनगणना में इस राज्य में कुल जातियों की संख्या 4,28,677 पाई गई. साथ ही केंद्र सरकार का कहना था कि जातिगत जनगणना करवाना प्रशासनिक रूप से कठिन हैँ.देखा जाय तो जाति जनगणना की मांग का बीजेपी ने कभी-कभी सीधे विरोध नहीं किया था. लेकिन वह कभी खुलकर सामने नहीं आई थी. पिछले साल के शुरू में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि बीजेपी जाति जनगणना की विरोधी नहीं है. इसके बाद सितंबर 2024 में केरल के पलक्कड़ में आयोजित आरएसएस की अखिल भारतीय समन्वय बैठक से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने जातीय जनगणना का समर्थन किया था. संघ के मुख्य प्रवक्ता सुनील आंबेकर ने जातीय जनगणना को राष्ट्रीय एकीकरण के लिए महत्वपूर्ण बताया था. उन्होंने कहा था, ’’देश और समाज के विकास के लिए सरकार को डेटा की जरूरत पड़ती है. समाज की कुछ जाति के लोगों के प्रति विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है. इन उद्देश्यों के लिए इसे (जाति जनगणना) करवाना चाहिए. इसका इस्तेमाल लोक कल्याण के लिए होना चाहिए. इसे पॉलिटिकल मुद्दा नहीं बनाना चाहिए. नई रणनीति हिंदू वोटों को धार्मिक आधार पर एकजुट करने की बीजेपी की कोशिश को विफल करने वाली है, इससे जाति के आधार पर वोटों का विभाजन हो सकता है, हालांकि, यह नई रणनीति भाजपा के उस लंबे प्रयास को कमजोर करती है, जिसके जरिए वह धार्मिक एकता के नाम पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर रही थी।
जातिगत जनगणना के बाद यदि वोटर फिर से स्थानीय उम्मीदवार की जाति को ध्यान में रखकर वोट डालते हैं, तो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की पिच कमजोर हो सकती है. यह स्थिति भाजपा के लिए चिंता का कारण बन सकती है. इसके साथ ही यह फैसला बीजेपी के शहरी और मध्यम वर्गीय वोटरों को भी निराश कर सकता है, जो इसे मंडल युग की राजनीति में वापसी के रूप में देख सकते हैं.आज जब समाज में जातिविहीन व्यवस्था की मांग जोर पकड़ रही है, तब भाजपा का यह कदम उसके ही विकास और समरसता के एजेंडे से एक कदम पीछे हटने जैसा लग सकता है. कई लोग इसे कृषि विधेयकों की तरह भाजपा द्वारा एक कदम पीछे हटने के रूप में देखते हैं. विपक्ष पिछले कुछ समय से भाजपा की पिच पर खेल रहा है. लेकिन जातिगत जनगणना का मुद्दा एक ऐसा मौका है, जो भाजपा को विपक्ष की पिच पर खींच सकता है. अब देखना यह है कि क्या विपक्ष इस मौके का फायदा उठाकर भाजपा को पूरी तरह घेरने में सफल होता है, या नहीं. इसका जवाब समय ही देगा. सूत्रों की मानें तो मुस्लिम समुदाय में भी कई जातियां हैं और इस बार की जनगणना में यह जानकारी भी सामने लाई जाएगी. सूत्रों का यह भी कहना है कि मुस्लिम आरक्षण से जुड़ी कोई भी मांग सरकार स्वीकार नहीं करेगी. इसके पीछे धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं होने की दलील दी जा रही है.
गृह मंत्री अमित शाह भी कई मौकों पर यह कह चुके हैं कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है और जब तक बीजेपी का एक भी सांसद संसद में है, हम धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं होने देंगे. राम मनोहर लोहिया ने आज से 50 साल पहले इस मुद्दे को उठाया था। उन्होंने कहा था कि इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की राजनीति की सच्चाई यहां की जाति है।पिछड़े वर्ग को आरक्षण
का लाभ देने के
लिए भी जातीय आबादी
को ही आधार बनाया
गया था। बहुजन समाज
पार्टी के संस्थापक कांशीराम
ने भी ‘जिसकी जितनी
हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी’
सिद्धांत पर जोर दिया
था। दुर्भाग्यवश जिन नेताओं ने
इस मुद्दे को उठाया, वे
स्वजाति केंद्रित राजनीति तक ही सीमित
रहे, जिससे दूसरी जातियों को उनका हक
नहीं मिल सका। हालांकि
जातीय जनगणना के बाद इसका
समाजशास्त्रीय विश्लेषण होना ही चाहिए।
इसके साथ ही यह
भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए
कि इससे भारत की
एकता पर कोई आंच
नहीं आए। जातीय आधार
पर समाज में विभाजन
नहीं बढऩा चाहिए। तात्कालिक
आरक्षण जैसे लाभों के
लिए जातिगत जनगणना निश्चित रूप से एक
सकारात्मक परिवर्तन लाएगी।
जातीय आधार के साथ
आर्थिक आधार पर भी
जनगणना अति आवश्यक होगा,
क्योंकि मुख्य रूप से प्रति
व्यक्ति आय ही सही
सच्चाई है पिछड़ेपन की।
देश की जनता की
सही आर्थिक तस्वीर सामने आए और हम
देखें की प्रति व्यक्ति
आय की दृष्टि से
कौनसा व्यक्ति-समाज कहां है,
तब इस गणना का
लक्ष्य पूरा होगा, नहीं
तो यह जातियों के
वर्चस्व की पुनर्स्थापना का
माध्यम बन जाएगी। जिस
भारत का हम स्वप्न
देखना चाहते हैं, वहां जातीय
भेद नहीं होना चाहिए।
जातीय और धार्मिक भेदभाव
से परे उठकर ही
कोई देश विकास की
गति पर आगे बढ़
सकता है। हर समुदाय
का विकास होना चाहिए। भारत
मे अन्य पिछड़ा वर्ग
की आबादी कुल आबादी का
40-50 फीसदी हिस्सा है, जो उत्तर
प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, और महाराष्ट्र जैसे
राज्यों में एक शक्तिशाली
वोट बैंक है. आरएसएस
ने पिछले दिनों ये इशारा कर
दिया था कि उसे
जाति जनगणना से कोई विरोध
नहीं है. बशर्ते इस
आधार पर राजनीति न
हो. हालांकि बीजेपी खुद इस आधार
पर राजनीति करेगी. भविष्य में बीजेपी कोई
ऐसी तरकीब जरूर निकालेगी जिससे
जाति जनगणना को भी कैश
कर सके. क्योंकि हिंदू
शब्द को पिछल 10 सालों
में इतना बड़ा बन
चुका है कि पार्टी
को कोई चिंता नहीं
है. हिंदू धर्म के झंडे
के नीचे बहुत सी
जातियां और सेक्ट भी
अब खुशी खुशी रहने
के लिए उत्सुक हैं.
पावर बहुत सी समस्याओं
का सबसे आसान समाधान
होता है. कुछ साल
पहले तक जैन धर्म
खुद को अल्पसंख्यक घोषित
करवाने के लिए संघर्ष
कर रहा था पर
आज खुद को हिंदू
धर्म के एक सेक्ट
के तौर पर बताने
में फख्र महसूस करता
है. यही हाल बौद्ध
और अन्य संप्रदायों का
है. सिख भी बहुत
जल्दी प्राइड के साथ कहेंगे
कि हम हिंदू ही
हैं. यही हाल जातियो
का भी है. हिंदू
धर्म इतना बड़ा हो
चुका है कि जातियां
कुछ दिनों में गौण हो
जाएंगी.
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