रक्षाबंधन : भावनाओं से ओतप्रोत, जो राष्ट्रभक्ति की आत्मा से बंधा है
श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि... बहन की आंखों में प्रेम की चमक... भाई की कलाई पर रक्षा का वचन... और वातावरण में घुली रक्षासूत्र की मिठास। रक्षाबंधन केवल एक पर्व नहीं, एक ऐसी भावनात्मक परंपरा है जो भारतीय संस्कृति की आत्मा में रची-बसी है। यह पर्व भाई-बहन के रिश्ते की महिमा का प्रतीक तो है ही, साथ ही इसमें धर्म, ज्योतिष, परंपरा और लोकाचार का अनूठा समावेश है। रक्षाबंधन का पर्व इस बार पूर्ण शुभता और विशेष संयोगों के साथ 9 अगस्त को मनाया जाएगा। बहनों को भाइयों की कलाई पर स्नेह की डोर बांधने का पूरा दिन मिलेगा। इस वर्ष भद्रा का कोई प्रभाव नहीं रहेगा। पंचांग के अनुसार यह अवसर अत्यंत शुभ और दुर्लभयोगों से युक्त रहेगा। चार वर्षों बाद ऐसा संयोग बन रहा है, जब रक्षाबंधन पर भद्रा नहीं रहेगा। ज्योतिषाचार्यो के मुताबिक पूर्णिमा तिथि सुबह से ही प्रारंभ हो जाएगी और भद्रा काल एक दिन पूर्व ही समाप्त हो चुका होगा। ऐसे में बहनें दिनभर भाइयों को राखी बांध सकेंगी। 8 अगस्त दोपहर 2.13 से 9 अगस्त दोपहर 1.25 बजे तक राखी बांधना शुभ रहेगा। सूर्य उदय के बाद पूर्णिमा तिथि दो घंटे 24 मिनट से अधिक रहेगी। इसलिए रक्षाबंधन पर्व पूरे दिन मनाया जा सकेगा। इस बार लोगों की खुशियों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इस रक्षाबंधन पर सौभाग्य योग, शोभन योग और सर्वार्थसिद्धि योग जैसे तीन महाशुभसंयोग बन रहे हैं। ये सभी राशियों के जातकों के लिए फलदायक रहेंगे
सुरेश गांधी
राखी एक रेशमी
धागा जरूर है, लेकिन
यह धागा उस समाज
की बुनियाद बन सकता है
जहां नारी का सम्मान
सर्वोपरि हो। जहां बहन
को सिर माथे पर
बैठाया जाए, और उसके
हर सपने की रक्षा
हो। जब हम राखी
को केवल ’रक्षा’ से नहीं, ’सम्मान
और समानता’ से जोड़ेंगे, तभी
यह पर्व अपनी पूर्णता
को प्राप्त करेगा। रक्षाबंधन का शाब्दिक अर्थ
है “रक्षा का बंधन“।
यह पर्व मूलतः रक्षा
और प्रेम के उस पवित्र
अनुबंध का उत्सव है
जिसमें बहन अपने भाई
की सुख-समृद्धि की
कामना करते हुए उसकी
कलाई पर रक्षा-सूत्र
बांधती है और बदले
में भाई उसकी रक्षा
का संकल्प लेता है। लेकिन
समय के साथ यह
परंपरा केवल भाइयों तक
सीमित नहीं रही। अब
बहनें भी बहनों को
राखी बांधती हैं, परिवार से
बाहर शिक्षक, सैनिक, मित्रों, नेताओं व महापुरुषों को
राखी भेजी जाती है।
कई स्थानों पर वृक्ष, नदियों
व पशुओं को भी राखी
बांधकर पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया
जाता है। यही भारतीय
संस्कृति की वह आत्मा
है जो पर्वों को
सीमाओं से परे एक
जीवंत चेतना बना देती है।
धागा टूट जाए
तो जोड़ा जा सकता
है, लेकिन जो रक्षासूत्र आत्मा
से जुड़ा हो, वह
हर जन्म में साथ
चलता है। रक्षाबंधन केवल
प्रेम का उत्सव नहीं,
यह एक धर्म है,
रक्षा धर्म। आइए, इस बार
हम राखी को सिर्फ
कलाई पर बांधने की
रस्म न मानें, बल्कि
इसे संवेदनशील समाज, मजबूत परिवार और संस्कारित राष्ट्र
के निर्माण का संकल्प बनाएं।
भारत की आत्मा उसकी
संस्कृति में बसती है।
और इस संस्कृति की
सबसे मजबूत पहचान उसके पारिवारिक मूल्य
और त्योहार हैं। रक्षाबंधन, जो
केवल भाई-बहन के
बीच स्नेह का नहीं, बल्कि
मानवता, सुरक्षा, कर्तव्य और सांस्कृतिक चेतना
का उत्सव है। आज जब
दुनिया भौगोलिक सीमाओं से परे जाकर
सांस्कृतिक जुड़ाव और मानवीय संवेदनाओं
की तलाश कर रही
है, रक्षाबंधन जैसे पर्व वैश्विक
मानचित्र पर भारत की
सांस्कृतिक कूटनीति के संवाहक बन
रहे हैं। रक्षाबंधन के
पीछे केवल एक धागा
नहीं, बल्कि एक दर्शन है,
जिसमें रक्षा का भाव केवल
शारीरिक नहीं, नैतिक और आध्यात्मिक भी
है। यह पर्व बताता
है कि रिश्ते अधिकारों
से नहीं, कर्तव्यों और विश्वास से
पोषित होते हैं। यही
भाव आज संयुक्त राष्ट्र
जैसे मंचों पर “वसुधैव कुटुंबकम्”
के विचार को सजीव बनाता
है। जब एक बहन
अपने भाई की कलाई
पर रक्षासूत्र बांधती है, वह केवल
उसकी लंबी उम्र की
कामना नहीं करती, बल्कि
यह भी प्रार्थना करती
है कि वह सदैव
धर्म और कर्तव्य के
मार्ग पर चले। यही
मूल्य आज के युद्ध-विकराल, भटकते विश्व को दिशा दे
सकते हैं।
पौराणिक मान्यताएं
महाभारत काल में श्रीकृष्ण
ने जब शिशुपाल वध
किया, तो उनकी उंगली
कट गई। द्रौपदी ने
अपनी साड़ी का टुकड़ा
फाड़कर उनकी उंगली पर
बांधा। इस प्रेम को
उन्होंने ’रक्षा सूत्र’ माना और चिरकाल
तक द्रौपदी की रक्षा की।
विष्णु पुराण में वर्णन है
कि इंद्र की पत्नी शची
(इंद्राणी) ने अपने पति
को युद्ध में विजयी बनाने
हेतु एक पवित्र धागा
उनके दाहिने हाथ में बांधा
था। यह दिन श्रावण
पूर्णिमा का ही था।
मध्यकालीन भारत में रानी
कर्णावती ने मुगल सम्राट
हुमायूं को राखी भेजकर
अपनी रक्षा की याचना की
थी। हुमायूं ने राखी की
लाज रखते हुए मेवाड़
की रक्षा की।
लोक परंपराएं और वर्तमान में पर्व का विस्तार
रक्षाबंधन केवल पूजा-पाठ
और राखी तक सीमित
नहीं है, बल्कि यह
एक सांस्कृतिक उत्सव बन चुका है।
राजस्थान और गुजरात में
महिलाएं केवल भाइयों को
नहीं, बल्कि राजा, देवताओं और पेड़-पौधों
को भी राखी बांधती
हैं। उत्तर भारत के कई
क्षेत्रों में इसे “सलूनी“
या “सलूनो“ कहा जाता है
और भाई को कान
के पीछे काजल लगाकर
बुरी नजर से बचाने
की रस्म होती है।
पूर्वांचल में बहनें राखी
बांधने के बाद “आरती“
करती हैं और तिलक
कर मिठाई खिलाती हैं। महिलाएं एक-दूसरे को भी राखी
बांधती हैं, जो “नारी
सशक्तिकरण“ और “आपसी सौहार्द“
का प्रतीक है।
सामाजिक समरसता का पर्व
आज जब रिश्ते
औपचारिक होते जा रहे
हैं, रक्षाबंधन जैसे पर्व हमें
आत्मीयता का भाव सिखाते
हैं। यह केवल खून
के रिश्तों तक सीमित नहीं
बल्कि हर उस संबंध
को मान्यता देता है जिसमें
सुरक्षा, विश्वास और प्रेम हो।
रक्षा सूत्र की डोर आज
एक सामाजिक अनुबंध का रूप ले
चुकी है, चाहे वह
बहन-भाई हो, शिक्षक-छात्र हो या जन-जन हो। आज
जब महिलाएं हर क्षेत्र में
आगे बढ़ रही हैं
- सैनिक, डॉक्टर, वैज्ञानिक, पत्रकार, तो यह पर्व
समानता और सहभागिता का
उत्सव बन चुका है।
रक्षाबंधन जैसे पर्व केवल
भावनाओं का उत्सव नहीं
होते, ये हमारे संस्कार,
संस्कृति और सामाजिक संतुलन
के संवाहक होते हैं। जब
एक बहन राखी बांधती
है, तो वह केवल
अपने भाई की सुरक्षा
नहीं मांगती, वह एक मर्यादा,
एक भरोसा और एक सामाजिक
अनुबंध भी करती है।
रक्षा सूत्र की यह डोर
घर-परिवार से निकलकर अब
समाज और राष्ट्र के
ताने-बाने को बाँध
रही है। 2025 में जब पूरा
देश प्रौद्योगिकी, उदारीकरण और तेजी से
बदलते मूल्यों के दौर से
गुजर रहा है, ऐसे
में रक्षाबंधन भारतीय संस्कृति के मूल भाव
- रिश्तों, ज़िम्मेदारियों और आत्मीयता को
जीवंत बनाए रखने का
संदेश देता है।
रक्षा का यह पर्व एक आत्मिक बंधन है
रक्षाबंधन का पर्व हमें
ज्योतिषीय शुभता, पौराणिक प्रेरणा और सामाजिक सौहार्द
का समन्वय प्रदान करता है। यह
केवल ‘राखी बांधने’ की
रस्म नहीं, संस्कारों, जिम्मेदारियों और आशीर्वादों का
वह बंधन है, जो
हर वर्ष हमसे कहता
है, “एक-दूसरे की
रक्षा केवल शरीर से
नहीं, मन और विश्वास
से भी करो।“ रक्षाबंधन
केवल एक पर्व नहीं,
बल्कि हमारी संस्कृति, परंपरा और पारिवारिक मूल्यों
का वह प्रतीक है
जो हर साल हमें
यह स्मरण कराता है कि रिश्ते
केवल खून से नहीं,
विश्वास, समर्पण और उत्तरदायित्व से
भी बनते हैं। राखी
महज एक रेशमी धागा
नहीं है, यह उस
भाव का प्रतीक है
जिसमें रक्षा, आदर और अटूट
स्नेह समाया होता है। समय
के साथ भाई-बहन
के इस रिश्ते में
भावनात्मक गहराई तो बनी रही,
पर उसका स्वरूप और
अर्थ अवश्य विस्तृत हुआ है। पहले
भाई बहन की रक्षा
का वचन देता था,
आज कई उदाहरण ऐसे
हैं जहां बहनों ने
भाइयों की जान बचाने
के लिए अंगदान तक
किया है। कुछ बहनों
ने आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर
बनकर अपने भाइयों के
कठिन समय में उन्हें
संबल दिया है। बचपन
में भाई के अपराध
की डांट खुद सहने
वाली बहन आज अपने
हिस्से का सुख त्याग
कर भी भाई के
लिए खड़ी है। यह
प्रेम इतना निःस्वार्थ है
कि उसका मुकाबला केवल
मातृत्व कर सकता है।
बहनें अब जवानों को भी बांधती है राखी
राखी को अब
केवल भाई-बहन तक
सीमित नहीं देखा जा
सकता। यह उस हर
रिश्ते में बंधी जा
सकती है जहाँ प्रेम,
कर्तव्य और सुरक्षा की
भावना है। यही कारण
है कि आज बहनें
रक्षा सूत्र सीमा पर खड़े
जवानों को, पुरोहितों को,
वृक्षों को और यहाँ
तक कि पर्यावरण को
भी बांध रही हैं।
यह नारी का रक्षक
नहीं, बल्कि रक्षक बनकर खड़े होने
का उद्घोष है। रक्षा बंधन
की परंपरा कोई नई नहीं
है। वेदों में यज्ञ के
समय रक्षासूत्र बांधने का उल्लेख मिलता
है। गुरुकुल परंपरा में गुरु और
शिष्य एक-दूसरे को
रक्षा सूत्र बांधते थे, जिससे यह
भाव प्रकट हो कि ज्ञान
और धर्म की रक्षा
मिलकर करनी है। महाभारत
में जब द्रौपदी ने
श्रीकृष्ण को राखी बांधी,
तब उन्होंने उसकी लाज की
रक्षा के लिए चीर
बढ़ाया। इससे स्पष्ट होता
है कि राखी केवल
दायित्व नहीं, बल्कि धर्म का भी
प्रतीक है। हमें यह
समझना होगा कि रक्षाबंधन
केवल एक व्यक्तिगत रिश्ता
नहीं, एक सामाजिक अनुबंध
भी है। यदि हर
व्यक्ति अपने-अपने जीवन
में इस पर्व की
भावना को आत्मसात कर
ले, तो यह समाज
और मजबूत, और सहिष्णु बन
सकता है।
डोर तो छोटी है, पर इसके वचन असीम हैं...
भारतीय संस्कृति में त्योहार केवल
उत्सव नहीं, आत्मीयता, आस्था और आध्यात्मिक चेतना
के सूत्र होते हैं। उन्हीं
में एक है रक्षाबंधन.
एक ऐसा पर्व जो
स्नेह की रेशमी डोर
से भाई-बहन को
नहीं, पूरे समाज को
बांधता है। रक्षाबंधन परंपरा,
श्रद्धा और शुभ संकेतों
का वह संगम है,
जो समय के साथ
और भी पवित्र होता
जा रहा है।
“येन बद्धो बलिर्राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचलः।।
अर्थात जिस रक्षासूत्र को
महान पराक्रमी दानवराज बलि को बांधा
गया था, उसी से
मैं तुम्हें बांधती हूं, यह रक्षा-सूत्र कभी विचलित न
हो। रक्षा नहीं, सम्मान का व्रत है
राखी, बहन का प्यार
ही स्वस्थ समाज की बुनियाद
है, राखी अब रक्षक
की नहीं, रक्षक बनने की घोषणा
है. रक्षा करने वाले के
प्रति आभार का सबसे
सुंदर प्रतीक है ‘राखी’।
समय के साथ बहुत
कुछ बदला है, लेकिन
भाई-बहन के रिश्ते
में जो स्नेह और
संबल है, वह आज
भी वैसा ही है
-शुद्ध, निर्मल और अटूट। अब
केवल भाई ही बहन
की रक्षा नहीं करता, बहनें
भी भाई के लिए
संबल बनकर खड़ी हैं।
कई बहनों ने ज़रूरत पड़ने
पर अपने भाई को
किडनी या अन्य अंगदान
कर जीवनदान दिया है। कहीं
बहनें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर
बनकर भाई के संकट
में सहारा बनी हैं। बचपन
में भाई के अपराध
का दंड खुद लेकर
डांट से बचाने वाली
बहनें आज भी अपने
हिस्से की मिठाई, चॉकलेट,
सम्मान और संवेदना भाई
के नाम करती हैं।
भाई सिर पर हाथ
रखे तो बहन भी
तो मां जैसी ममता
रखती है। रक्षाबंधन इस
भाव का त्योहार है।
यह केवल एक बहन
द्वारा भाई की कलाई
पर धागा बांध देने
का उत्सव नहीं है, यह
उस अटूट रिश्ते का
पर्व है, जिसमें रक्षा,
प्रेम, विश्वास, समर्पण और उत्तरदायित्व, सब
कुछ समाहित होता है।
राखी का बदलता सामाजिक स्वरूप
आज की आत्मनिर्भर
बहन केवल सुरक्षा की
याचना नहीं करती, बल्कि
स्वयं रक्षक बन रही है।
यही कारण है कि
रक्षाबंधन को अब एक
दिशा देने वाले पर्व
के रूप में देखा
जा रहा है। यह
सिर्फ बहनों की रक्षा का
संकल्प लेने का दिन
नहीं, बल्कि समूचे नारी समाज के
सम्मान और अधिकारों की
रक्षा का संकल्प लेने
का अवसर बन चुका
है। राखी अब महज
भाई-बहन के बीच
नहीं, बल्कि हर उस रिश्ते
में बंधी जा रही
है जहां प्रेम और
उत्तरदायित्व है। रक्षा सूत्र
अब उन सैनिकों की
कलाई पर भी बंधता
है जो सीमाओं की
रक्षा करते हैं, और
उन पुरोहितों को भी बांधा
जाता है जो आध्यात्मिक
संरक्षक हैं। कई स्थानों
पर महिलाएं वृक्षों को भी राखी
बांधती हैं, प्रकृति की
रक्षा की शपथ के
साथ.
धार्मिक परंपराएं और ऐतिहासिक संदर्भ
रक्षाबंधन की परंपरा वैदिक
काल से चली आ
रही है। यज्ञ के
समय पंडित यजमान को मंत्रोच्चार के
साथ रक्षासूत्र बांधते हैं। प्राचीन काल
में युद्ध पर जाते समय
वीरों को विजय की
कामना के साथ रक्षा
सूत्र बांधा जाता था। महाभारत
में द्रौपदी द्वारा श्रीकृष्ण को बांधी गई
राखी, और कृष्ण का
उनके चीर की रक्षा
करना, इस पर्व की
संवेदना को दर्शाता है।
गुरुकुल परंपरा में विद्यार्थी जब
गुरु के आश्रम से
विदा लेते, तो उन्हें रक्षासूत्र
बांधते थे, इस वचन
के साथ कि वे
ज्ञान का सदुपयोग करेंगे।
आज भी पूजा-पाठ
में जो कलावा बांधा
जाता है, वह इसी
रक्षा सूत्र का प्रतीक हैकृरक्षा
के साथ-साथ श्रद्धा
और वचनबद्धता का भी।
संस्कारों से जुड़ी डोर
रक्षाबंधन का रिश्ता खून
का ही हो, ये
आवश्यक नहीं। यह अपनत्व, स्नेह
और कर्तव्य की डोर है।
विवाह के बाद भी
बहन मायके से दूर होते
हुए भी राखी भेजना
नहीं भूलती। भले ही भाई
आए या डाक से
राखी पहुंचे, भावनाओं की डोर हमेशा
जुड़ी रहती है। यही
परंपरा भारतीय संस्कृति की गहराई को
दर्शाती है। आज जब
समाज में महिला उत्पीड़न
और लैंगिक असमानता की घटनाएं बढ़
रही हैं, तब रक्षाबंधन
जैसे त्योहार हमें स्मरण कराते
हैं कि बहन का
प्रेम, बेटी का मान
और स्त्री का सम्मानकृये तीनों
ही समाज की बुनियाद
हैं। जिस दिन हम
बहन को सिर्फ संबंध
नहीं, एक सामाजिक उत्तरदायित्व
की तरह देखेंगे, उसी
दिन एक सुरक्षित, समतामूलक
और स्नेहिल समाज का निर्माण
संभव होगा।
रक्षाबंधन का नया अर्थ गढ़ने का समय
यह पर्व हमें
यह सोचने पर विवश करता
है कि अब केवल
बहन की रक्षा की
बात नहीं होनी चाहिए,
बल्कि उसके सपनों, अधिकारों
और अस्तित्व की भी रक्षा
जरूरी है। अगर हम
इस राखी को नारी
गरिमा की रक्षा का
प्रतीक बना दें, तो
न केवल इस पर्व
का स्वरूप नया होगा, बल्कि
समाज में बहनों की
वह जगह भी सुनिश्चित
होगी जिसकी वे सच्ची हकदार
हैं। रक्षाबंधन केवल पर्व नहीं,
एक विचार है- रक्षा का,
प्रेम का, सम्मान का।
यह बंधन रेशम का
जरूर है, लेकिन इसकी
गांठ में छिपा भाव
-समाज की सबसे मजबूत
डोर बन सकता है,
बशर्ते हम उसे समझें,
निभाएं और व्यापक दृष्टिकोण
से देखें।
डिजिटल युग में राखी
आज जब बहनें
विदेशों में रहती हैं,
तो ऑनलाइन राखी भेजने की
परंपरा तेजी से बढ़ी
है। वीडियो कॉल पर राखी
बांधने के दृश्य इस
बात का प्रमाण हैं
कि परंपरा बदली नहीं, बस
उसके रूप आधुनिक हुए
हैं। यह दिन हमें
न केवल अपने प्रियजनों
की सुरक्षा के लिए संकल्प
लेने का अवसर देता
है, बल्कि समाज, पर्यावरण, राष्ट्र और मूल्यों की
रक्षा का भी आह्वान
करता है। आज जब
भारतीय प्रवासी समुदाय विश्व के हर कोने
में फैला है, तो
रक्षाबंधन भी सीमाओं से
परे हो चुका है।
न्यूयॉर्क, लंदन, टोरंटो, सिडनी से लेकर दुबई
और सिंगापुर तककृहर जगह बहनें भाइयों
को डाक से राखी
भेजती हैं, और ऑनलाइन
वीडियोकॉल पर भावनाओं की
डोर बांधती हैं। यह केवल
एक व्यक्तिगत पर्व नहीं रह
गया, बल्कि भारतीयता का वैश्विक उत्सव
बन चुका है। संयुक्त
राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधियों
द्वारा वहां के सुरक्षाकर्मियों
को राखी बांधना, या
भारतीय सांस्कृतिक केंद्रों द्वारा विदेशों में रक्षाबंधन उत्सव
मनानाकृये महज़ रस्में नहीं,
सांस्कृतिक कूटनीति के मजबूत सूत्र
हैं। ये रिश्ते जोड़ते
हैं, देश नहीं, दिलों
के बीच।
जब रक्षा की भावना हो सर्वजनीन
रक्षाबंधन अब केवल भाई-बहन का त्योहार
नहीं रहा, बल्कि यह
विश्व में सुरक्षा और
संवेदनशीलता की साझी चेतना
का प्रतीक बनता जा रहा
है। भारत में तो
बहनें सैनिकों, डॉक्टरों, पुलिसकर्मियों और समाज के
रक्षकों को राखी बांधती
हैं, लेकिन अब यही परंपरा
अंतरराष्ट्रीय सैनिक मिशनों, शांति सेनाओं, और सामाजिक कार्यकर्ताओं
तक भी पहुँच रही
है। रक्षाबंधन के बहाने भारत
यह संदेश दे रहा है
कि जब भी कोई
ताकत कमजोर की रक्षा के
लिए खड़ी होती है,
वह भाई होता है,
और जब भी कोई
प्रार्थना उस रक्षा के
लिए उठती है, वह
बहन होती है।
विश्व को जोड़ती भारतीय संस्कृति
जब दुनिया युद्धों,
तनावों और टूटते रिश्तों
के दौर से गुजर
रही है, तब भारतीय
परंपराएं समाधान देती हैं, संवाद
से, संस्कार से और संवेदना
से। रक्षाबंधन उस विचार को
पोषित करता है जो
कहता है कि ‘रक्षा’
एक साझी जिम्मेदारी है,
न केवल व्यक्तियों की,
बल्कि समाजों, राष्ट्रों और सभ्यताओं की
भी। इसलिए आज रक्षाबंधन भारत
की एक सांस्कृतिक सॉफ्ट
पावर बनता जा रहा
है, जो विश्व मंच
पर हमारी सभ्यता के ‘मूल्य निर्यात’
का माध्यम है।
स्नेह, संस्कार और समर्पण का पर्व
धागा नहीं, रक्षासूत्र
है, यह रक्षाबंधन केवल
एक पर्व नहीं, बल्कि
भाई-बहन के शुद्ध
प्रेम और विश्वास का
प्रतीक है। यह पर्व
दर्शाता है कि रिश्ते
खून से नहीं, भावनाओं
और भरोसे की डोर से
बंधे होते हैं। बहन
द्वारा भाई की कलाई
पर बांधा गया रक्षा-सूत्र,
न केवल उसकी सुरक्षा
की कामना करता है, बल्कि
भाई भी उस धागे
को जीवनपर्यंत उसकी रक्षा के
संकल्प के रूप में
अपनाता है।
भूलकर भी न दें ये 5 चीजें उपहार में
रक्षाबंधन पर उपहार देना
परंपरा है, लेकिन कुछ
चीजें ऐसी हैं जिन्हें
भूलकर भी उपहार में
नहीं देना चाहिए, क्योंकि
ज्योतिष और धार्मिक मान्यताओं
के अनुसार ये वस्तुएं रिश्तों
में दरार या नकारात्मकता
ला सकती हैं -
1. लेदर की
वस्तुएं
(विशेषकर
चमड़े
के
बैग
या
बेल्ट)
2. काले रंग
के
कपड़े
या
वस्तुएं
3. जूते-चप्पल
4. घड़ी
5. नुकीली वस्तुएं
जैसे
चाकू,
कैंची
आदि।
राखी कब और कैसे उतारनी चाहिए?
धार्मिक परंपराओं के अनुसार राखी
को रक्षाबंधन के 24 घंटे बाद या
जन्माष्टमी के दिन उतारना
शुभ माना गया है।
राखी उतारने के बाद उसे
बहते पानी में प्रवाहित
करें या किसी पवित्र
पेड़ पर बांध दें।
पितृपक्ष आरंभ होने से
पहले राखी अवश्य उतार
देनी चाहिए, क्योंकि इस अवधि में
इसे धारण करना अशुद्ध
माना जाता है।
धर्म से ऊपर उठकर रिश्तों का पर्व
भारत की विशेषता
है कि यहां हर
त्योहार सामाजिक समरसता का प्रतीक बन
जाता है। रक्षाबंधन भी
केवल हिन्दू धर्म तक सीमित
नहीं, बल्कि सिख, जैन और
ईसाई समुदाय के लोग भी
इसे आत्मीयता से मनाते हैं।
बहनें सीमा पर तैनात
सैनिकों को राखियां भेजकर
राष्ट्ररक्षा के भाव को
भी जोड़ती हैं। यहां तक
कि राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री
कार्यालय तक में रक्षाबंधन
का उत्सव उल्लास के साथ मनाया
जाता है।
ऋग्वेद से राष्ट्रवाद तक
रक्षाबंधन का उल्लेख ऋग्वेद
में यम-यमी संवाद
में मिलता है। यम अपनी
बहन यमी को इस
संबंध की मर्यादा का
बोध कराते हैं। यह रिश्ता
सिर्फ भाई द्वारा बहन
की रक्षा तक सीमित नहीं,
बल्कि बहन भी हर
आपदा में भाई का
संबल बनती है। यह
पर्व केवल उपहारों, मिठाइयों
या रस्मों तक सीमित नहीं
है। यह उस भावनात्मक
डोर का नाम है
जिसमें, बहनें बचपन की यादों
को संजोती हैं, भाई हर
परिस्थिति में साथ देने
का वादा करता है,
और हर साल यह
धागा रिश्ते की मजबूती को
और भी प्रबल कर
देता है। रक्षाबंधन भारतीय
संस्कृति का वह उत्सव
है, जहां रक्षा का
भाव केवल शरीर की
नहीं, सम्मान, आत्मा, संस्कृति और देश की
रक्षा तक विस्तारित होता
है। यह पर्व हमें
सिखाता है कि सच्चे
रिश्ते दिखावे से नहीं, त्याग,
समर्पण और विश्वास से
बनते हैं।
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