पितृ पक्ष : स्मृति, श्रद्धा और संस्कारों का अमर उत्सव
पितृ ऋण का निर्वहन और भारतीय आत्मा
भारतीय संस्कृति का स्वरूप केवल परंपराओं का संग्रह नहीं है, बल्कि यह कृतज्ञता की एक शाश्वत गाथा है। यहां हर मनुष्य अपने जीवन में तीन ऋण लेकर जन्मता है, देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इनमें से पितृ ऋण वह अनिवार्य बंधन है, जो हमें अपने पूर्वजों, अपने कुल और अपने परिवार की जड़ों से जोड़ता है। पितृ पक्ष, या श्राद्ध पक्ष, उसी बंधन को स्मरण करने का पर्व है, जहां श्रद्धा और संस्कार की ज्योति जलाकर हम अपने पुरखों की आत्मा का वंदन करते हैं। मतलब साफ है पितृ पक्ष केवल कर्मकांड नहीं, यह हमारी जड़ों से पुनः संवाद का समय है। यह हमें स्मरण कराता है कि हम अकेले नहीं, बल्कि एक परंपरा की श्रृंखला हैं। पितरों के आशीर्वाद से ही वंश आगे बढ़ता है, और जीवन की दिशा तय होती है। इस अमावस्या की गहराई में, जब दीपक जलते हैं और पितरों का स्मरण होता है, तब लगता है मानो समय की धारा रुककर हमें अपने अतीत की गहराईयों से मिला रही हो
सुरेश गांधी
“पितरों की छाया, हर
पीढ़ी की सांसों में
रची है, श्राद्ध की
अर्पण धारा, आशीष बनकर बही
है।“ जी हां, भारतीय
संस्कृति में ‘ऋण’ की
अवधारणा अत्यंत गहन और दार्शनिक
है। मनुष्य तीन प्रकार के
ऋणों के साथ जन्म
लेता है, देव ऋण,
ऋषि ऋण और पितृ
ऋण। देवताओं की पूजा से
देव ऋण चुकता होता
है, ज्ञानार्जन और आचरण से
ऋषि ऋण निवृत्त होता
है और पितरों की
स्मृति, तर्पण, श्राद्ध और पिण्डदान से
पितृ ऋण का निर्वहन
संभव है। इन्हीं कारणों
से भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन
मास की अमावस्या तक
का समय पितृ पक्ष
या श्राद्ध पक्ष कहलाता है।
यह कालखंड केवल धार्मिक अनुष्ठान
का अवसर ही नहीं,
बल्कि पारिवारिक कृतज्ञता, स्मृति और आत्मीयता का
पर्व भी है। पितृ
पक्ष का वर्णन महाभारत,
गरुड़ पुराण, मनुस्मृति, मत्स्य पुराण और अग्नि पुराण
तक में मिलता है।
कहा गया है,
“यः पितृणां न
करोत्यर्चां
श्राद्धं
वा
विधिपूर्वकम्।
तस्य
पुत्राः
प्रहीयन्ति
पितृणां
च
न
तुष्यति।।“
अर्थात्, जो व्यक्ति अपने
पितरों का श्राद्ध नहीं
करता, उसके पुत्र-पौत्र
भी कष्ट भोगते हैं
और पितर कभी संतुष्ट
नहीं होते। श्राद्ध संस्कृत शब्द है। पितरों
के प्रति श्रद्धापूर्वक किए गए कर्म
ही श्राद्ध कहलाते हैं। पितृ पक्ष
केवल धार्मिक आस्था ही नहीं, बल्कि
ज्योतिषीय दृष्टि से भी अत्यंत
महत्वपूर्ण काल है। इस
समय सूर्य कन्या राशि में और
चंद्रमा पितृ लोक से
संबद्ध नक्षत्रों से जुड़ा होता
है। भाद्रपद पूर्णिमा से अमावस्या तक
चंद्रमा क्रमशः क्षीण होता है। क्षयमान
चंद्रमा को पितरों का
प्रतीक माना गया है।
ज्येष्ठा, मघा और मूल
जैसे नक्षत्र विशेषकर पितृ तर्पण हेतु
शुभ माने गए हैं।
मघा नक्षत्र तो स्वयं पितृगणों
का प्रतीक है। अष्टमी, नवमी
और अमावस्या को श्राद्ध करना
विशेष फलदायी है। महालय अमावस्या
को समस्त पितरों के लिए सामूहिक
श्राद्ध करने की परंपरा
है। गरुड़ पुराण में
कहा गया है कि
यदि पितरों का श्राद्ध न
किया जाए तो आत्माएं
असंतुष्ट होकर वंशजों को
दुःख देती हैं। महाभारत
में भीष्म ने कहा कि
“पितर ही हमारे अदृश्य
संरक्षक हैं।” मनुस्मृति के अनुसार, पितरों
की तृप्ति से देवताओं की
कृपा मिलती है। पितृ पक्ष
केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक
निरंतरता का उत्सव भी
है। यह हमें अपने
पूर्वजों की स्मृति से
जोड़ता है। परिवार में
बुजुर्गों के महत्व को
रेखांकित करता है। समाज
में दान-पुण्य और
सहानुभूति की परंपरा को
मजबूत करता है। इसे
पर्यावरणीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण
माना गया है क्योंकि
इस समय पीपल, तुलसी
और जल संरक्षण का
विशेष महत्व बताया गया है।
पितृ पक्ष की अनेक कथाएं :-
दानवीर का भूखा स्वर्ग
महाभारत में वर्णन है
कि युद्ध के बाद जब
कर्ण स्वर्ग पहुंचे, तो उन्हें केवल
सोना और आभूषण मिले,
अन्न का एक कण
भी नहीं। उन्होंने पूछा, “यह क्यों?” यमराज
का उत्तर था “पृथ्वी पर
तुमने सबको सोना दिया,
पर अपने पितरों के
लिए कभी अन्न का
श्राद्ध नहीं किया।” तब
कर्ण को एक वर्ष
के लिए पृथ्वी पर
लौटकर श्राद्ध करने का अवसर
मिला। यही कथा पितृ
पक्ष की उत्पत्ति का
आधार बनी।
यमराज और सूर्य कथा
पुराणों में वर्णन है
कि जब सूर्यपुत्र यम
को अपनी माता संज्ञा
ने शाप दिया कि
कोई भी स्त्री तुम्हारी
पूजा नहीं करेगी, तो
वे व्यथित होकर भगवान सूर्य
के पास गए। तब
सूर्य ने वरदान दिया
कि भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से अमावस्या तक
यदि कोई अपने पितरों
का श्राद्ध करेगा तो यमराज स्वयं
उसके पितरों को तृप्त करेंगे
और श्राद्धकर्ता को आयु, आरोग्य
और संतान सुख का आशीर्वाद
मिलेगा।
श्राद्ध पक्ष की तिथियां और महत्त्व
पितृ पक्ष 16 दिन
का होता है। प्रत्येक
तिथि किसी न किसी
पितृ के लिए समर्पित
मानी जाती है। प्रतिपदा
से त्रयोदशी तक, जिनकी मृत्यु
जिस तिथि को हुई
हो, उसी दिन उनका
श्राद्ध किया जाता है।
चतुर्दशी - दुर्घटनाग्रस्त, असामयिक या अकाल मृत्यु
को प्राप्त व्यक्तियों का श्राद्ध। अमावस्या
(महालय) समस्त पितरों का सामूहिक श्राद्ध।
महाभारत में भीष्म पितामह
ने युधिष्ठिर को यही बताया
था कि श्राद्ध अमावस्या
को सर्वश्रेष्ठ होता है।
आरंभ : 7 सितम्बर 2025 (रविवार) पूर्णिमा श्राद्ध
समापन : 21 सितम्बर 2025 (रविवार) सर्वपितृ अमावस्या (महालय)
दिन-प्रतिदिन श्राद्ध तिथियां
7 सितम्बर : पूर्णिमा श्राद्ध
8 सितम्बर : प्रतिपदा
9 सितम्बर : द्वितीया
10 सितम्बर : तृतीया, चतुर्थी
11 सितम्बर : पंचमी (महा भरनी)
12 सितम्बर : षष्ठी
13 सितम्बर : सप्तमी
14 सितम्बर : अष्टमी
15 सितम्बर : नवमी
16 सितम्बर : दशमी
17 सितम्बर : एकादशी
18 सितम्बर : द्वादशी
19 सितम्बर : त्रयोदशी एवं मघा श्राद्ध
20 सितम्बर : चतुर्दशी (अकाल मृत्यु श्राद्ध)
21 सितम्बर : सर्वपितृ अमावस्या
श्राद्ध और तर्पण की विधि
श्राद्ध कर्म अत्यंत विधिपूर्वक
किया जाता है। पवित्र
स्थल जैसे नदी तट,
पीपल वृक्ष के नीचे या
अपने घर के आंगन
में। कुश, तिल, जल,
दूध, शहद, अक्षत, पका
हुआ अन्न, पका फल। कुश
की अंगूठी बनाकर दक्षिण दिशा की ओर
मुख करके तिल और
जल से तर्पण किया
जाता है। चावल, जौ,
तिल और घी मिलाकर
पिण्ड बनाए जाते हैं
और पितरों को अर्पित किए
जाते हैं। श्राद्ध के
उपरांत ब्राह्मणों और गरीबों को
भोजन कराया जाता है। इसे
ही पितरों को संतुष्ट करने
का श्रेष्ठ माध्यम माना गया है।
पितृ दोष और ज्योतिषीय समाधान
ज्योतिष के अनुसार यदि
कुंडली में पितृ दोष
हो तो व्यक्ति को
जीवन में बाधाएँ आती
हैं। विवाह में विलंब, संतान
सुख की कमी, आर्थिक
हानिकृये लक्षण बताए गए हैं।
उपाय
पितृ पक्ष में
श्राद्ध और तर्पण करना।
पीपल वृक्ष की पूजा। गरीबों
और गौ-संरक्षण हेतु
दान। गीता, गरुड़ पुराण का
पाठ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पितृ पक्ष
आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी
में लोग अक्सर पितृ
पक्ष को केवल एक
औपचारिक कर्मकांड मानने लगे हैं। किंतु
यह पर्व हमें यह
स्मरण कराता है कि हमारी
जड़ें कितनी गहरी हैं। पितरों
का आशीर्वाद ही वंश की
उन्नति और सुख-समृद्धि
का आधार है। आधुनिकता
में भी लोग घरों
में सामूहिक श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन और गौसेवा
के रूप में इसे
निभाते हैं। गया जी,
बनारस, प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार आदि स्थलों पर
पितृ पक्ष के अवसर
पर लाखों लोग पिण्डदान करते
हैं। भारतीय साहित्य में पितृ पक्ष
की छाप स्पष्ट दिखाई
देती है। संस्कृत के
कवि, हिंदी के भक्तिकालीन कवि
और आधुनिक साहित्यकारकृ, सभी ने पितरों
की स्मृति और आशीष को
अपने लेखन में स्थान
दिया है। तुलसीदास ने
रामचरितमानस में माता-पिता
और पूर्वजों के आशीर्वाद को
सर्वोपरि बताया। मुंसी प्रेमचंद ने ‘पितृ भक्ति’
को भारतीय परिवार की रीढ़ कहा।
पितृ पक्ष का शाश्वत संदेश
पितृ पक्ष केवल
16 दिनों का अनुष्ठान नहीं,
बल्कि जीवन दर्शन है।
यह हमें सिखाता है,
हम केवल अपने लिए
नहीं, बल्कि अपने पितरों और
आने वाली पीढ़ियों के
लिए भी जी रहे
हैं। कृतज्ञता और स्मरण ही
हमारी संस्कृति की आत्मा है।
जीवन क्षणभंगुर है, परंतु परंपराएं
अमर हैं। अतः पितृ
पक्ष हमें यह अवसर
देता है कि हम
अपने पूर्वजों को स्मरण करें,
उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट
करें और उनके आशीर्वाद
से अपने जीवन को
सार्थक बनाएं।
ग्रह-नक्षत्र और खगोलीय संगति
पितृ पक्ष केवल
धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि खगोलीय ऊर्जा का विशेष समय
है। सूर्य इस दौरान कन्या
राशि में रहता है।
चंद्रमा कृष्ण पक्ष में घटता
हैकृजिसे पितृ लोक से
जुड़ा माना गया है।
मघा नक्षत्र तो स्वयं पितरों
का प्रतीक है। इस पक्ष
में कुतुप मुहूर्त (11ः45 से 12ः40)
और रोहिणी मुहूर्त श्राद्ध के लिए अत्यंत
शुभ हैं।
तर्पण
कुश की अंगूठी
धारण कर दक्षिण दिशा
की ओर मुख करके
तिल, जल और अक्षत
से तर्पण। “ॐ पितृभ्यः स्वधा
नमः“ मंत्र का जप करते
हुए जल अर्पण।
पिण्डदान
चावल, जौ, तिल और
घी से बने पिण्ड
पितरों को अर्पित। यह
केवल अन्नदान नहीं, बल्कि आत्मा से आत्मा का
संवाद है।
ब्राह्मण भोजन और दान
ब्राह्मणों, निर्धनों और गौ को
भोजन करानाकृयही पितरों की वास्तविक संतुष्टि
का माध्यम है।
पवित्र स्थल
गया, वाराणसी, प्रयागराज,
हरिद्वार जैसे तीर्थों पर
पिण्डदान का विशेष महत्व
है। विशेषकर गया के फल्गु
तीर्थ पर पिण्डदान को
मोक्षदायी माना गया है।
सांस्कृतिक और सामाजिक आयाम
पितृ पक्ष हमें
परिवार और वंश की
स्मृति से जोड़ता है।
दान, सहानुभूति और सेवा की
संस्कृति को पुनः जीवित
करता है। यह पीढ़ियों
को एक सूत्र में
पिरोने वाला पर्व है।
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