जब बनारस ने 1857 से पहले आजादी का शंखनाद किया...
इतिहास
जब
केवल
तारीख़ों
और
अध्यायों
तक
सिमट
जाए,
तब
वह
स्मृति
नहीं
रह
जाता,
औपचारिकता
बन
जाता
है।
लेकिन
जब
इतिहास
संवाद
बनकर
वर्तमान
से
बात
करे,
तब
वह
राष्ट्र
की
चेतना
को
झकझोर
देता
है।
365 दिनों
का
क्रांतिकारी
कैलेंडर
और
बाबू
जगत
सिंह
पर
आधारित
शोध
उसी
जीवित
इतिहास
का
उदाहरण
है,
जो
दीवारों
पर
टांगे
जाने
के
लिए
नहीं,
बल्कि
मन
में
उतरने
के
लिए
रचा
गया
है।
इस
ऐतिहासिक
पहल
ने
एक
बार
फिर
यह
प्रश्न
खड़ा
किया
है
कि
क्या
भारत
की
आज़ादी
की
कहानी
1857 से
ही
शुरू
होती
है?
पद्म
भूषण
से
सम्मानित
वरिष्ठ
विचारक
और
इंदिरा
गांधी
राष्ट्रीय
कला
केंद्र
के
अध्यक्ष
राम
बहादुर
राय
से
सीनियर
रिर्पोटर
सुरेश
गांधी
के
साथ
हुए
खास
बातचीत
में
ऐसे
ही
अनेक
स्थापित
मिथक
टूटते
हैं।
बातचीत
के
केंद्र
में
हैं
- बनारस,
जो
अब
केवल
आध्यात्मिक
राजधानी
नहीं,
बल्कि
1857 से
बहुत
पहले
उठे
संगठित
स्वतंत्रता
संग्राम
की
धरती
के
रूप
में
सामने
आता
है।
इस
संवाद
में
बाबू
जगत
सिंह
का
व्यक्तित्व
केवल
एक
योद्धा
के
रूप
में
नहीं,
बल्कि
जनचेतना
के
प्रतीक
के
रूप
में
उभरता
है,
एक
ऐसा
नायक
जो
पराजय
के
बाद
भी
नहीं
झुका,
जिसने
अंग्रेज़ी
सत्ता
के
भय
को
बनारस
की
गलियों
में
महसूस
करवाया।
सारनाथ
की
खुदाइयों
से
लेकर
अज्ञात
शहीदों
की
स्मृति
तक,
यह
लेख
इतिहास
की
उन
परतों
को
खोलता
है
जिन्हें
लंबे
समय
तक
अनदेखा
किया
गया।
मतलब
साफ
है
उनकी
बातें
केवल
अतीत
की
झलक
नहीं
देता,
बल्कि
इतिहास
जब
जीवित
होता
है,
तभी
भविष्य
आत्मविश्वास
से
आकार
लेता
है।
प्रस्तुत
है
बातचीत
के
प्रमुख
अंश
:-
प्रश्न
: सुरेश
गांधी
: राम
बहादुर
जी,
आज
जब
यह
365 दिनों
का
क्रांतिकारी
कैलेंडर
और
बाबू
जगत
सिंह
पर
आधारित
शोध
सामने
आया
है,
तो
क्या
इसे
केवल
एक
ऐतिहासिक
दस्तावेज़
माना
जाए
या
इससे
आगे
कुछ
और?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: देखिए, इसे केवल कैलेंडर
या पुस्तक कहना इसके महत्व
को कम करना होगा।
यह दरअसल इतिहास को दीवार से
उतारकर हृदय में उतारने
का प्रयास है। हम वर्षों
से इतिहास को तारीख़ों और
परीक्षाओं तक सीमित रखते
आए हैं। यह कैलेंडर
हर दिन यह याद
दिलाता है कि आज़ादी
सहज नहीं थी, यह
अनगिनत अज्ञात शहीदों की देन है।
यह राष्ट्र की स्मृति को
जगाने का उपक्रम है,
और स्मृति ही राष्ट्र की
आत्मा होती है।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: आप
बार-बार
कहते
हैं
कि
1857 को
“पहली
लड़ाई”
कहना
अधूरा
सत्य
है।
इस
शोध
ने
उस
धारणा
को
कैसे
तोड़ा?
उत्तर,
राम
बहादुर
रायः
बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इतिहास को
लंबे समय तक औपनिवेशिक
चश्मे से पढ़ाया गया।
अंग्रेज़ों ने 1857 को “पहली लड़ाई”
इसलिए कहा क्योंकि उससे
पहले के संघर्ष उनके
लिए अधिक असुविधाजनक थे।
इस शोध से प्रमाणित
होता है कि 1760 से
1780 के दशक में ही
बनारस की धरती पर
संगठित सशस्त्र प्रतिरोध शुरू हो चुका
था। बाबू जगत सिंह
और वज़ीर अली शाह
के नेतृत्व में यह कोई
स्थानीय उपद्रव नहीं, बल्कि जन-आंदोलन था,
जिसमें डेढ़ लाख तक
लोगों की सहभागिता के
संकेत मिलते हैं। यह भारत
की स्वाधीन चेतना का आरंभिक विस्फोट
था।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: बनारस
को
अब
तक
आध्यात्मिक
राजधानी
कहा
जाता
रहा
है।
क्या
यह
शोध
बनारस
की
ऐतिहासिक
छवि
को
भी
बदलता
है?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: बिलकुल बदलता है, और यह
परिवर्तन आवश्यक भी है। बनारस
केवल मोक्ष की नगरी नहीं,
बल्कि प्रतिरोध की नगरी भी
है। यहां अध्यात्म और
संघर्ष एक-दूसरे के
विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। जिस
धरती पर बुद्ध ने
पहला उपदेश दिया, उसी धरती पर
जगत सिंह ने गुलामी
के विरुद्ध तलवार उठाई। बनारस का इतिहास हमें
सिखाता है कि धर्म
जब चेतना बनता है, तो
वह अन्याय के विरुद्ध खड़ा
होता है। इतिहास को
अब “औपनिवेशिक चश्मे” से नहीं, बल्कि
भारतीय दृष्टि से पढ़े जाने
की आवश्यकता है।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: बाबू
जगत
सिंह
के
व्यक्तित्व
का
कौन-सा
पक्ष
आपको
सबसे
अधिक
प्रभावित
करता
है?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: उनका हार के बाद
भी न झुकना। इतिहास
में अक्सर विजेताओं को महिमामंडित किया
जाता है, लेकिन असली
चरित्र पराजय के बाद सामने
आता है। जगत सिंह
युद्ध हारने के बाद नेपाल
नहीं भागे। वे सीधे बनारस
लौटे। यह बनारसी स्वाभिमान
था कि जो किया,
खुलेआम किया। इसीलिए अंग्रेज़ों को उन्हें गिरफ्तार
करने में तीन महीने
लगे। वे एक व्यक्ति
नहीं, एक चेतना थे।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: इस
शोध
में
सारनाथ
को
लेकर
जो
तथ्य
सामने
आए
हैं,
वे
भी
बेहद
चौंकाने
वाले
हैं।
इसे
आप
कैसे
देखते
हैं?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: सारनाथ का मामला केवल
पुरातत्व का नहीं, बल्कि
इतिहास की राजनीति का
भी है। 1787 में बाबू जगत
सिंह द्वारा कराई गई खुदाई
में जो बौद्ध अवशेष
मिले, उन्होंने यह सिद्ध किया
कि सारनाथ एक जीवंत ऐतिहासिक
केंद्र था। लेकिन लंबे
समय तक इन तथ्यों
को या तो दबाया
गया या विकृत किया
गया। आज जब एएसआई
के पास प्रमाण हैं,
तो यह साफ़ है
कि भारतीयों ने ही अपने
इतिहास की खोज की,
अंग्रेज़ों ने नहीं। यह
औपनिवेशिक दावे का खंडन
है। बाबू जगत सिंह
के जीवन से जुड़े
अनेक तथ्य अब सामने
आ रहे हैं। शोध
से यह प्रमाणित हुआ
है कि 1857 से पहले भी
बनारस की धरती पर
अंग्रेजों के खिलाफ संगठित
संघर्ष हुआ था। जगत
सिंह और वजीर अली
के नेतृत्व में डेढ़ लाख
से अधिक लोगों ने
अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े
होने का संकल्प लिया।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: प्रधानमंत्री
नरेंद्र
मोदी
द्वारा
“अनसंग
हीरोज़”
की
बात
बार-बार
कही
जाती
है।
क्या
यह
शोध
उस
राष्ट्रीय
सोच
का
विस्तार
है?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: निस्संदेह। प्रधानमंत्री का यह कथन
केवल भाषण नहीं, बल्कि
नीति का संकेत है।
आज इतिहास को फिर से
लिखने का नहीं, फिर
से खोजने का समय है।
बाबू जगत सिंह जैसे
नायक हमें बताते हैं
कि आज़ादी की लड़ाई कुछ
महान नामों तक सीमित नहीं
थी। यह जन-जन
की लड़ाई थी। यह
शोध उसी राष्ट्रीय आत्मबोध
का हिस्सा है। इतिहास का
एक महत्वपूर्ण पक्ष सारनाथ से
भी जुड़ता है। शोध में
सामने आया कि 1787 में
बाबू जगत सिंह की
कोठी निर्माण के दौरान हुई
खुदाई से बौद्ध अवशेष
प्राप्त हुए, जिसने सारनाथ
की ऐतिहासिक पहचान को और पुष्ट
किया। यह तथ्य लंबे
समय तक इतिहास की
परतों में दबा रहा।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: कैलेंडर
को
आपने
“स्वतंत्रता
संग्राम
की
गंगा”
कहा।
यह
उपमा
कैसे
उपयुक्त
है?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: क्योंकि गंगा की तरह
ही स्वतंत्रता संग्राम भी एक प्रवाह
है। गंगोत्री से निकलकर गंगा
हर घाट पर आस्था
जगाती है, अनुभव देती
है और अंततः गंगासागर
में विलीन होती है। यह
कैलेंडर भी वैसे ही,
हर दिन एक क्रांतिकारी,
हर दिन एक स्मृति,
हर दिन एक प्रेरणा।
यह हमें बताता है
कि हम किस प्रवाह
से आए हैं। इतिहास
केवल अतीत नहीं, बल्कि
वर्तमान से भविष्य को
जोड़ने वाली दृष्टि है।
जब समाज अपने विस्तृत
इतिहास से परिचित होता
है, तो राष्ट्र की
चेतना और अधिक सशक्त
होती है। बाबू जगत
सिंह जैसे क्रांतिकारियों पर
हो रहा यह शोध
केवल अतीत की खोज
नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा है।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: नई
पीढ़ी,
जो
इतिहास
से
दूरी
महसूस
करती
है,
उसके
लिए
यह
पहल
कितनी
उपयोगी
है?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: इतिहास से दूरी इसलिए
बनी क्योंकि इतिहास को बोझ बना
दिया गया। जब इतिहास
कथा बनता है, संवाद
बनता है, तो वह
जीवित होता है। यह
कैलेंडर और यह पुस्तक
इतिहास को मानवीय बनाते
हैं। जब युवा जानता
है कि उसके शहर,
उसकी गली, उसके मोहल्ले
से कोई नायक उठा
था, तो उसका आत्मविश्वास
बढ़ता है। राष्ट्र निर्माण
की शुरुआत यहीं से होती
है। स्वतंत्रता संग्राम के उन प्रसंगों
को कुरेदने की जरुरत है,
जहां क्रांतिकारियों ने भूख, यातना
और काले पानी की
सजा को भी राष्ट्र
के लिए स्वीकार किया।
स्वतंत्रता आंदोलन में कोई भूख
से नहीं मरा, लेकिन
काले पानी की जेल
में अनेक क्रांतिकारियों ने
अन्न और जल त्याग
कर शरीर का बलिदान
दे दिया। यही वह चेतना
है, जिसने आज़ादी को संभव बनाया।
रामप्रसाद बिस्मिल की पंक्तियां, उस
दौर की पीड़ा केवल
शब्द नहीं, बल्कि एक पूरा युग
था, जहां समुद्र भी
हौसले नहीं तोड़ सका।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: आप
इतिहास
को
वर्तमान
और
भविष्य
से
कैसे
जोड़कर
देखते
हैं?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: इतिहास यदि केवल अतीत
बन जाए, तो वह
मृत हो जाता है।
इतिहास का काम है,
वर्तमान को जड़ देना
और भविष्य को दिशा देना।
जब हम अपने विस्तृत
इतिहास से परिचित होते
हैं, तब हमें समझ
आता है कि भारत
केवल 5000 साल पुराना नहीं,
बल्कि लाखों वर्षों की चेतना का
देश है। यही बोध
भारत को शक्ति देता
है।
प्रश्न,
सुरेश
गांधी
: इस
शोध,
पुस्तक
और
कैलेंडर
को
आप
किस
रूप
में
देखते
हैं,
समापन
या
शुरुआत?
उत्तर,
राम
बहादुर
राय
: यह शुरुआत है। आगे अंग्रेज़ी
संस्करण आएगा, अनुवाद होंगे, छोटी पुस्तिकाएँ होंगी,
कविता, नाटक और लोककथाएँ
बनेंगी। बाबू जगत सिंह
केवल इतिहास नहीं, सांस्कृतिक प्रतीक बनेंगे। और जब ऐसा
होगा, तब हम कह
सकेंगे कि हमने अपने
इतिहास के साथ न्याय
किया। क्रांतिकारी पंचांग इतिहास को दीवार पर
नहीं, हृदय में उतारने
का प्रयास है. अज्ञात शहीदों
के साहस को नमन,
बाबू जगत सिंह को
समर्पित ‘क्रांतिकारी पंचांग : 2026’ इस बात का
गवाह है कि काशी
से उठी आज़ादी की
मशाल आज भी मिट्टी
में सांस लेती है.
अतीत का पाठ हमें
हर दिन यह याद
दिलाता है कि इतिहास
केवल स्मृति नहीं, बल्कि चेतना है। यह सहज
नहीं, बल्कि संघर्षों से उपजा वह
आसन है, जहां अज्ञात
शहीदों का साहस मात्र
शांति से भी ऊंचा
खड़ा दिखाई देता है। यह
पंचांग बाबू जगत सिंह
को समर्पित है. यह केवल
गौरव का विषय नहीं,
बल्कि एक वंश की
स्मृति और राष्ट्र के
प्रति उत्तरदायित्व है। बाबू जगत
सिंह केवल एक योद्धा
नहीं थे, बल्कि वे
काशी में औपनिवेशिक सत्ता
के विरुद्ध पहली संगठित चेतना
के सूत्रधार थे। जब देश
सोया हुआ प्रतीत होता
था, तब काशी की
धरती पर उन्होंने स्वतंत्रता
की मशाल जलाई। उनका
विद्रोह भले ही इतिहास
की पुस्तकों में सीमित कर
दिया गया हो, लेकिन
उनका साहस आज भी
काशी की मिट्टी में
सांस लेता है। इतिहास
तभी जीवित रहता है, जब
समाज उससे जुड़ता है।
यह पंचांग केवल तिथियों का
संग्रह नहीं, बल्कि राष्ट्र के प्रति दैनिक
संकल्प बने, इसी भावना
के साथ इसका लोकार्पण
किया गया। मतलब साफ
है यह संवाद केवल
अतीत की चर्चा नहीं,
बल्कि भविष्य की तैयारी है।
जब इतिहास जीवित होता है, तब
राष्ट्र जागता है। और शायद
यही इस क्रांतिकारी कैलेंडर
और बाबू जगत सिंह
की सबसे बड़ी उपलब्धि
है।

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