Tuesday, 16 July 2024

सावन में प्रेम की अनुभूति है कजरी

सावन में प्रेम की अनुभूति है कजरी

                जैसे बरसात में रिमझिम में समां होता है। वैसे ही झूले और कजरी के बिना सावन की कल्पना नहीं की जा सकती। सावन के मतवाले मौसम में कजरी और बारिश का अटूट सम्बन्ध है। इनसे ना जाने कितनी लोक-मान्यताएं और लोक-संस्कृति के रंग जुड़े हुए हैं, उन्हीं में से एक है- कजरी। उत्तर भारत में रहने वालों के लिए कजरी बहुत परिचित है। जिन लोगों का लगाव अभी भी ग्राम्य-अंचल से बना हुआ है, सावन आते ही उनका मन कजरी के बोल गुनगुनाने लगता है। कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गायी जाती हो पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूंज सुनायी देती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आजादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें- केतने गोली खाइके मरिगै। केतने दामन फांसी चढ़िगै। केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया। बदरिया घेरि आई ननदी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है 

सुरेश गांधी 

शहरी क्षेत्रों में भले ही संस्कृति के नाम पर फिल्मी गानों की धुन बजती हो, पर ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच लोक रंगत की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। इन्हीं में से एक है कजरी, जिसके बोल भला किसे प्रिय नहीं होंगे। लोग भले ही गांवों से नगरों की ओर प्रस्थान कर गये हों पर गांव के बगीचे में पेंग मारकर झूले झूलती महिलाएं, छेड़छाड़ के बीच रिश्तों की मधुर खनक भला किसे आकर्षित करती होगी। वस्तुतःलोकगीतों की रानीकजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है। इसकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विदेशों में बसे भारतीयों को अभी भी कजरी के बोल सुहाने लगते हैं, तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-

बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचानकी टेक होती है। जबकि विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर स्त्रियां उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वन्दता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में तो सार्वजनिक किया जाता है और ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है। बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यहहरे रामाऔर हारीके कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है। वैसे भी सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियां अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं -घरवा में से निकले ननद-भउजईया। जुलम दोनों जोड़ी सांवरिया। झूला-कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन है। सूरदास, प्रेमधन आदि कवियों ने भी कजरी के मनोहर गीत रचे थे, जो आज भी गाए जाते हैं। मगर हमारे गांंव अब वह नहीं रहे, जो कभी पहले थे। जैसे-जैसे गांव शहर और सभ्य बनते जा रहे हैं, वे अपनी लोक संस्कृति और लोक चेतना से कटते चले जा रहे हैं। आर्थिक विसंगतियां, प्रतिकूल परिस्थितियां भी इसमें बाधक हैं। यही वजह है कि सावन पहले-जैसा ही आता है, छहर-छहर बरसकर चला भी जाता है, मगर उल्लसित हो झूले झूलने और कजरी गाने-गवाने की पहले-जैसी मनोहारी छटाएं देखने को मन तरस-तरस जाता है।

संयोग और वियोग श्रृंगार के सावन में बदरी और कजरी का अनोखा मेल है। विरह वेदना के कजरी गीत को बचाने की जरुरत है। झूला लागल कदम की डारी। सावन का सुहाना माह। मैदानों में बिछी गुदगुदाने वाली हरी मखमली घास। खेतों और बगीचों में भी बस हरीतिमा ही हरीतिमा। आसमान में उमड़ते-घुमड़ते कजरारे बादलों की अनुपम छटा। मयूरों का नर्तन। बालू में नहाती हुई चिड़ियों का कलरव। सावन के झूले में झूलती हुई ललनाएं और पेंग बढ़ाते हुए ग्रामीण सुकुमार। तभी रिमझिम बारिश की झड़ी लग जाती है और अधरों पर रसीली कजरी के मधुर स्वर फूट पड़ते हैं -

झूला लागल कदम की डारी।

झूलें कृष्ण मुरारी ना।

राधा झूलें कान्ह झुलावें।

कान्हा झूलें राधा झुलावें।

पारा-पारी ना।

संयोग और वियोग श्रृंगार के अतिरिक्त कजरी में भक्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक चित्रण भी देखने-सुनने को मिलते हैं। मिर्जापुर और वाराणसी में कजरी गाने वालों के दो दलों में रात-रात भर प्रतियोगिताएं चलती हैं और विजयी कजरी-गवैयों को पुरस्कृत किया जाता है। छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूंज उनके प्रीतम तक पहुंचे और शायद वे लौट आयें -

सावन बीत गयो मेरो रामा।

नाहीं आयो सजनवा ना।

भादों मास पिया मोर नहीं आये।

रतिया देखी सवनवा ना।

यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियां कजरी के बोलों में गाती हैं -

गौर-गौर गइले पिया।

आयो हुईका करिया

नौकरिया पिया छोड़ दे ना।

एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देविकजमलके चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है -

सावन हे सखी सगरो सुहावन।

रिमझिम बरसेला मेघ हे।

सबके बलमउवा घर अइलन।

हमरो बलम परदेस रे।

इस शीर्षक पंक्ति को हम सबने कभी कभी, कहीं कहीं निश्चित ही गुनगुनाया होगा। जिन्हें भूलने की आदत है, उन्हें यह बताना मुश्किल है कि उन्होंने उक्त पंक्तियाँ कब और कहाँ गुनगुनाई थी। पर जिनके भीतर अभी भी कोई बच्चा मचलता है, उन्हें शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि माँ की गोद के बाद उन्होंने झूले का आनंद कब और कहाँ लिया था। सावन-भादों के शुक्लपक्ष की तीज के दिन, जिसे कजली तीज कहा जाता है, गाये जाने वाले गीत को कजली अथवा कजरी कहा गया। कजली तीज के रोज जी भर कजरी गाने-गवाने की परंपरा अब भी जीवित है। ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैलीधुनमुनियाहै, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व कोकजरी पूर्णिमाके तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसेकजरी नवमीके नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं।

मीथिला में सावनी माह में हिंडोले पर बैठकर नर-नारी मल्हार के गीत गाते हैं। राजस्थान में तीज के अवसर पर गाये जाने वाले हिंडोले के गीत भी कजरी की ही कोटि में आते हैं। मथुरा में राधा-कृष्ण की रासलीला को माध्यम बनाकर नायिका अपनी सहेलियों के साथ ढोलक पर थाप दे-देकर अपने चितचोर को सुनाते हुए गा उठती है -

कान्हा हंसि-हंसि बोली बोलड़

तो करइ ठिठोली ना

सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों हो-

चन्दा छिपे चाहे बदरी मा

जब से लगा सवनवा ना।

विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-

पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से

जायके साइकील से ना।

इलाहाबाद और अवध अंचल तो कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहां मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैलीधुनमुनियाहै, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

कजरी में सिर्फ संयोग श्रृंगार की ही नहीं, बल्कि वियोग की भी मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है। झमाझम पानी बरस रहा है। सहेलियां उल्लसित, आह्लादित होकर झूला झूलने में मशगूल हैं। इधर ठंडी हवाएं छेड़छाड़ करने पर उतारू हो चली हैं। काले-कलूटे बादलों की गुर्राहट और बिजली की चकाचौंध जाने क्यों दिल में दहशत पैदा कर रही है। बावजूद इसके पिया-मिलन की आस में नयी नवेली दुल्हनें मटियामेट हो उठती है। आखिर परदेसी प्रियतम जो नहीं आए। आंखों से आंसू टपक रहे हैं - टप-टप।

करूं कौन जतन अरी री सखी

मोरे नयनों से बरसे बादरिया

उठी काली घटा, बादल गरजें

चली ठंडी पवन, मोरा जिया लरजे

थी पिया-मिलन की आस सखी

परदेश गए मोरे सांवरिया

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व कोकजरी पूर्णिमाके तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसेकजरी नवमीके नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलायें समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत् गाये जाते हैं।

कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गायी जाती हो पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूंज सुनायी देती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया - 

हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी

कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा

हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

कहा जा सकता है सावन सुख, समृद्धि, सुन्दरता, प्रेम, उल्लास का ही नहीं बल्कि इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ मनुहार यूं ही लुटाती रहेगी। अर्थात कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है। जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुंचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सावन में स्त्री-पुरुष को कौन कहे, मंदिर में भगवान को भी झूले में बिठाकार झुलाया जाता है। भक्तों की भीड़ इसझूलनको देखने के लिए उमड़ पड़ती है। वे झूले में झूलते भगवान के दर्शन कर उन्हें झूम-झूमकर मनभावनी कजरी सुनाते हैं।

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