Sunday, 22 June 2025

क्या विश्व युद्ध के कगार पर है मानवता?

क्या विश्व युद्ध के कगार पर है मानवता? 

वैश्विक स्थिरता पर मंडराते अमेरिका की आक्रामक नीति के बादल मंडराने लगे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प की नेतृत्व शैली भले ही अमेरिका के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय हो, लेकिन उनका अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण दादागिरी, धमकी और दबाव की नीति दुनिया को युद्ध को मुहाने पर ला खड़ा दिखाई देने लगा है। जबकि दुनिया पहले से ही युद्ध, आतंकवाद, जलवायु संकट और आर्थिक अस्थिरता की मार झेल रही है. ऐसे में ट्रम्प की हालिया हरकते वैश्विक असंतुलन को और गंभीर बना सकती है। मतलब साफ है ट्रंप तो शांति के दूत साबित हो रहे हैं और ही पूर्ण युद्ध नेता, बल्कि वे एक ऐसे कूटनीतिक अभिनेता बन गए हैं जिनकी स्क्रिप्ट में शांति की कोई पंक्ति नहीं दिखती। उनकादुविधा भरा नेतृत्वशायद दुनिया को उस मोड़ पर ले जा रहा है जहां से लौटना नामुमकिन होगा. फिलहाल इसे तीसरे विश्व युद्ध की आहट कहना जल्दबाजी होगी। उनका मानना है कि वैश्विक शक्तियां भलीभांति जानती हैं कि युद्ध से किसी को लाभ नहीं होता, केवल विनाश होता है। रूस-यूक्रेन और इजरायल-गाजा संघर्ष इसके हालिया उदाहरण हैं, जहां वर्षों से अस्थिरता बनी हुई है। इजरायल या अमेरिकी सैन्य अड्डों को निशाना बना सकता है, लेकिन इससे युद्ध का विस्तार होने का खतरा बढ़ जाएगा। हालांकि, भारत के लिए यह स्थिति आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण हो सकती है। खासकर तेल की कीमतों में वृद्धि, महंगाई और चाबहार पोर्ट जैसे निवेशों पर असर पड़ सकता है 

सुरेश गांधी

ट्रम्प काअमेरिका फर्स्टएजेंडा जितना उनके देश के लिए बना था, उतना ही बाकी देशों के लिए परेशानी का कारण बन गया। नाटो देशों को चेतावनी दी कि खर्च बढ़ाओ वरना अमेरिका सुरक्षा नहीं देगा। जलवायु समझौतों और अंतरराष्ट्रीय संधियों से खुद को अलग कर लिया। ईरान परमाणु समझौते से हटना, मध्य-पूर्व में अस्थिरता की बड़ी वजह बना। चीन पहले ही ताइवान को लेकर आक्रामक है। ट्रम्प के दौर में चीन से रिश्ते सबसे निचले स्तर पर पहुंचे। उनके आने से आशंका है कि ताइवान मुद्दा अमेरिका-चीन के बीच सीधे टकराव का रूप ले सकता है। ट्रम्प की मध्य-पूर्व नीति ने फिलिस्तीनियों को नाराज किया और इस्राइल को खुला समर्थन दिया। फिलिस्तीन में विरोध भड़का और ईरान-इस्राइल के रिश्ते और तल्ख हुए। 

अब ट्रम्प की वापसी वहां नई लड़ाई की आशंका को बल दे रही है। आज जब दुनिया यूक्रेन युद्ध, ताइवान तनाव और पश्चिम एशिया के संघर्ष से जूझ रही है, ऐसे में ट्रम्प जैसे नेता की दादागिरी इसे और विस्फोटक बना सकती है। इजराइल-ईरान युद्ध के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका पर अब सवाल उठ रहे हैं. उन पर इजराइल को धोखा देने का आरोप लग रहा है। ट्रंप ने कहा है, ’मैं अगले दो हफ्तों के भीतर जाने या जाने का फैसला करूंगा।इस बीच, इजराइल बिना अमेरिकी मदद के भी ईरान के खिलाफ कार्रवाई जारी रखे हुए है, जबकि ईरान भी झुकने को तैयार नहीं है। युद्ध में अमेरिका के शामिल होने को लेकर एक बड़ा बयान सामने आया है. इस बयान में कहा गया है कि जंग में शामिल होने का अंतिम फैसला ट्रंप को लेना है. वहीं, इजराइल ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका इस युद्ध में शामिल हो या हो, वह अपनी बेहतरी के लिए लगातार काम करता रहेगा. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के सामने इजरायल को अकेला छोड़ा? बता दें, इजरायल और ईरान के बीच 10 दिनों से जारी संघर्ष ने दुनियाभर के देशों की चिंता बढ़ा दी है. इजरायल के हवाई हमलों और ईरान के मिसाइल हमलों के बीच विश्व समुदाय युद्ध के विस्तार को लेकर सतर्क है.

फिलहाल अमेरिकी सरकार अभी सीधे युद्ध में शामिल नहीं हुई है, इसके पीछे भारी आर्थिक खर्च और कूटनीतिक पहल बताया जा रहा है. तर्क है अगर आप युद्ध में उतरते हैं तो हर दिन अरबों रुपये खर्च होंगे. इजरायल, पिछले दो सालों से फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास से लड़ रहा था और अब वो पिछले 10 दिनों से ईरान से जंग लड़ रहा है. अभी की जो स्थिति है उसमें इजरायल, ईरान के साथ युद्ध में बहुत दिनों तक टिक नहीं पाएगा, क्योंकि ..इजरायल पहले से ही फिलिस्तीन के साथ चल रहे युद्ध में काफी खर्चा कर चुका है. ईरान के साथ युद्ध में इजरायल हर दिन करीब 6 हजार 300 करोड़ रुपये खर्च कर चुका है

फिलिस्तीन युद्ध की वजह से इजरायल पर पहले से ही आर्थिक बोझ था, जो ईरान युद्ध की वजह से और बढ़ गया है. इजरायल के वित्त मंत्रालय का कहना है कि साल 2025 में देश की आर्थिक विकास दर का अनुमान पहले 4.6 प्रतिशत लगाया था. लेकिन अब उसे घटाकर 3.6 प्रतिशत कर दिया गया है. युद्ध की वजह से फैक्ट्रियों में प्रोडक्क्शन और लोगों की प्रोडक्टिविटी में कमी आई है, जिससे आर्थिक विकास रुक गया है. इजरायल की जीडीपी का 7 प्रतिशत हिस्सा रक्षा खर्च में जा रहा है जो यूक्रेनके बाद दूसरे नंबर पर है. रक्षा खर्च बढ़ने से बजट पर असर हो रहा है

अगर इजरायल-ईरान में युद्ध परमाणु त्रासदी तक पहुंचा तो, इस मौके का कई देश फायदा उठाना चाहेंगे. सबसे पहले ईरान के साथ खड़े चीन और रशिया, अमेरिका से भिड़ जाएंगे. अमेरिका और यूरोपीय देश मिलकर ईरान, चीन और रशिया पर मिसाइल अटैक कर सककर सकते हैं, और इसके जवाब में चीन और रशिया भी मिसाइल हमले करेंगेईरान भी इजरायल पर बड़े हमले शुरू कर देगा और इस बार उसके साथ इजरायल के पुराने दुश्मन भी होंगे. इजरायल को हराने के लिए ईरान, लेबनान, सीरिया और मिस्र एक साथ हमला कर सकते हैं. जिसमें मिस्र और लेबनान की थल सेना, इजरायल के न्यूक्लियर फेसिलिटेज़ी पर कब्जा करेंगी. उधर, ईरान और लेबनान मिलकर तेल अवीव पर मिसाइल हमले करते रहेंगे. अमेरिका अपनी लड़ाई में व्यस्त होगा, इसीलिए वो अपना ही राग अलापता नजर आयेगा। 

सवाल अब ये नहीं है कि ट्रंप क्या करेंगे, सवाल ये है कि क्या दुनिया ट्रंप जैसे नेता को युद्ध और शांति के बीच संतुलन का सूत्रधार मान सकती है? देखा जाएं तो डोनाल्ड ट्रंप एक ऐसा नाम है जो कभी अब्राहमिक समझौतों के लिए नोबेल पुरस्कार की चर्चा में था, तो कभी मध्य-पूर्व की राजनीति में एक तानाशाही दखल के लिए बदनाम। लेकिन आज, जब इज़राइल और ईरान युद्ध के सबसे भयावह मोड़ पर हैं, तब सवाल उठ रहा है क्या ट्रंप वास्तव में शांति दूत हैं या यह जंग उनके लिए वैश्विक मंच परपुरस्कारपाने का मौका बन चुके है? जबकि हालात बता रहे है यह सिर्फ एक पारंपरिक युद्ध नहीं, बल्कि तीसरे विश्व युद्ध की संभावित प्रस्तावना है। जब मास्को सीधा कह रहा है किखामेनेई को कुछ हुआ तो अमेरिका भुगतेगा”, और चीन भी चुपचाप युद्ध-स्थितियों पर नज़र गड़ाए बैठा है तो ट्रंप की चुप्पी क्या विश्व को युद्ध की आग में झोंकने की तैयारी नहीं तो और क्या है? अगर युद्ध लंबा खिंचा, तो इज़राइल के पास हथियार खत्म होने की कगार पर होंगे, और ईरान के शीर्ष सैन्य नेतृत्व का संकट और गहराएगा। चीन, रूस, तुर्किये जैसे देश एक तरफ, अमेरिका-इज़राइल दूसरी तरफ दुनिया फिर सेकोल्ड वॉर’ 2.0 की ओर बढ़ सकती है। 

भारत सहित एशिया के कई देश संकट में घिर सकते हैं, खासकर तेल कीमतों और सुरक्षा चिंताओं को लेकर। मतलब साफ है दुनिया एक बार फिर युद्ध की दहलीज़ पर खड़ी है। ईरान और इज़रायल के बीच जारी संघर्ष ने 10वें दिन भी अपनी विनाशलीला को नहीं रोका। इज़रायल के हमलों में ईरान में अब तक 500 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि ईरान के मिसाइल और ड्रोन हमलों ने तेल अवीव सहित इज़रायल के कई शहरों को दहला दिया है। इज़रायल ने एक बड़ा सैन्य ऑपरेशन चलाकर ईरान की खतरनाक सैन्य इकाई आईआरजीसी के दो बड़े कमांडरों सईद इजादी और बेहनाम शाहरियारी को मार गिराया है। जवाब में ईरान ने बेत शीआन में ड्रोन हमले कर भारी तबाही मचाई है। इन हमलों से स्पष्ट है कि यह युद्ध सिर्फ एक सीमित टकराव नहीं, बल्कि तीसरे विश्व युद्ध की भूमिका बनता जा रहा है। ईरान और इज़रायल की सीधी सरहद नहीं है, लेकिन सीरिया और इराक के वायुक्षेत्र से होते हुए मिसाइल और ड्रोन हमले जारी हैं। यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों की भी खुली अवहेलना है।

इस संघर्ष का असर सिर्फ इन दोनों देशों तक सीमित नहीं है। यूक्रेन-रूस युद्ध पहले से जारी है, और अब यह तीसरा मोर्चा खुलने से वैश्विक महाशक्तियां दो खेमों में बंटती दिख रही हैं. इस संघर्ष का सबसे बड़ा खतरा है तेल की कीमतों में उछाल। पेट्रोलियम उत्पाद फिलहाल अपने न्यूनतम स्तर पर हैं, लेकिन यदि युद्ध लंबा चला तो विशेषज्ञों का अनुमान है कि कच्चे तेल की कीमतें 150 डॉलर प्रति बैरल तक जा सकती हैं। इससे पूरी दुनिया में महंगाई और मंदी दोनों का खतरा बढ़ जाएगा। भारत के लिए भी यह संकट चेतावनी है। एक ओर वह ईरान के साथ सदैव मित्रवत संबंधों में रहा है, तो दूसरी ओर इज़रायल से रणनीतिक साझेदारी भी है। यदि अमेरिका इस युद्ध में उतरता है, तो भारत के सामने कूटनीतिक संतुलन बनाए रखने की कठिन चुनौती खड़ी हो जाएगी. डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका इस पूरे घटनाक्रम में संदेह के घेरे में है। उन्होंने पहले गाजा पट्टी पर इज़रायली हमले रोकने की कोशिश की थी, लेकिन ईरान के मसले पर वे इज़रायल को खुली छूट दे चुके हैं। इस तरह उनकी रणनीति शांति के बजाय टकराव को बढ़ावा देने जैसी प्रतीत हो रही है। यदि यही स्थिति बनी रही, तो केवल मध्यपूर्व, बल्कि सम्पूर्ण एशिया युद्ध की चपेट में सकता है। इस युद्ध के गंभीर परिणाम होंगे. परमाणु खतरा, वैश्विक मंदी, नागरिक उड़ानों का अवरोध, और कूटनीतिक गठजोड़ों में भारी उलटफेर। ट्रम्प काअमेरिका फर्स्टएजेंडा एक राष्ट्रवादी नीति थी, जिसमें अमेरिका के हितों को सर्वोपरि रखते हुए वैश्विक सहयोग की धारणा को तिलांजलि दी गई। ट्रम्प ने नाटो देशों पर रक्षा खर्च बढ़ाने का दबाव बनाया और कहा किअगर वे खर्च नहीं करेंगे, तो हम उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं देंगे।इससे यूरोप में अमेरिका की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो गए। ट्रम्प का 2018 में इस समझौते से हटना मध्य-पूर्व में तनाव का बड़ा कारण बना।लिटिल रॉकेट मैनजैसे अपमानजनक शब्दों और न्यूक्लियर बटन की धमकी से दुनिया थर्रा उठी थी।

भारत की कूटनीति की परीक्षा

भारत को अमेरिका, ईरान और इजरायल के बीच संतुलन साधते हुए अपनी कूटनीति का प्रयोग करना होगा। ऐसे हालात में भारत की ऊर्जा सुरक्षा और विदेश नीति की समझदारी ही उसे संभावित नुकसान से बचा सकती है। इजरायल के अलावा आसपास बहरीन अन्य देशों में स्थित अमेरिकी अड्डों को निशाना बना सकता है, तेल परिवहन मार्ग हॉर्मुज जलडमरूमध्य में व्यवधान डाल सकता है। लेकिन ईरान सोच-समझकर ही ऐसा करेगा क्योंकि इससे युद्ध का विस्तार होने का खतरा है। यह संघर्ष लंबा नहीं चलेगा। यह कहना कठिन है लेकिन चीन और रूस के सीधे ईरान को सैन्य समर्थन की संभावना कम है, कूटनीतिक समर्थन दे सकते हैं। यही हाल पाकिस्तान सहित मुस्लिम देशों का रह सकता है। तेल की कीमतों में वृद्धि देश में ऊर्जा सुरक्षा की चुनौती महंगाई बढ़ा सकती है। भारत के लिए अपने नागरिकों की सुरक्षा और चाबहार पोर्ट जैसे रणनीतिक निवेश फिलहाल जोखिम में पड़ सकते हैं। भारत को कूटनीतिक दृष्टिकोण से अमेरिका-इजरायल ईरान के साथ सूझबूझ से संतुलित संबंध रखने होंगे। 

नीदरलैंड के हेग में 24 से 26 जून तक होने वाले नाटो शिखर सम्मेलन पर भी युद्ध की छाया नजर आएगी। अब तक साइबर सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता के अलावा रूस के साथ युद्ध में फंसे यूक्रेन को समर्थन जैसे विषयों पर सम्मेलन केंद्रित था। लेकिन अब ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमरीकी हमले और इसके बाद पश्चिम एशियाई देशों की संभावित प्रतिक्रिया से निपटने जैसी रणनीति शिखर सम्मेलन का हिस्सा हो सकती है। ईरान के परमाणु ठिकानों फोर्डों, नतांज और इस्फहान पर अमेरिका ने बी-2 स्टील्य बॉम्बर से 14 बंकर बस्टर बमों का गिराया है। इनमें से 12 बम फोर्डो पर गिराए और शेष दो नतांज पर। युद्ध क्षेत्र में यह इनका पहला इस्तेमाल है। बी-2 स्टेल्थ बॉम्बर बी-2 स्टील्थ बॉम्बर में एयर डिफेंस भेदने की अद्धुत क्षमता है। खास फ्लाइंग विंग डिजाइन और बेहद कम इंफ्रारेड के चलते यह सिर्फ 0.001 वर्ग मीटर का रडार क्रॉस सेक्शन बनाता है जो छोटी चिड़िया के आकार से ज्यादा नहीं होता। इसलिए पकड़ में नहीं आता। बी-2 स्टोल्थ बॉम्बर की खासियत ये है कि इसे आसानी से टैक नहीं किया जा सकता। साथ ही यह बेहद उंचाई पर दूर तक उड़ान भर सकता है, जिससे एयर डिफेंस के लिए भी इसे भेद पाना बेहद मुशिकल है। साथ ही यह एक बार में 6 हजार नोटिकल मील (11100 किमी) की दूरी तय कर सकता है। 

अमेरिका ने दावा किया है कि फोर्दो परमाणु साइट पर 30,000 (करीब 13600 किलो) पाउड के मैसिव ओर्डिनेंस पैनिटेटर या बंकर बस्टर बम गिराए है। इन बमों में की खूबी यह है कि यह 200 फीट से ज्यादा नीचे टारगेट को निशाना बना कर तबाह कर सकते है। यह बम जीपीएस गाइडेड होने के कारण सटीक निशाना साधते हैं। अमेरिका हमले में पनडुब्बी से हॉहॉक सबसोनिक क्रूज मिसाइल के जरिए ईरान की नतांज और इस्फाहन साइट पर हमला किया गया। यह मिसाइल 1000 पॉड का वारहेड लेकर 1550 से 2500 किमी तक हमला कर सकती है।चीन की विस्तारवादी नीतियां पहले से दक्षिण एशिया क्षेत्र में चिंताएं बढ़ा रही हैं। चीन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआइ) प्रोजेक्ट के जरिए पाकिस्तान के अलावा नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार में जिस तरह पैर फैला रहा है, भारत की सुरक्षा और कूटनीति के लिए गंभीर खतरा है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा भी बीआरआइ का हिस्सा है। यह पाकिस्तान के बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को गिलगित-बाल्टिस्तान के रास्ते चीन के शिनजियांग से जोड़ता है। भारत इस गलियारे का विरोध करता रहा है। आशंका है कि ग्वादर बंदरगाह को चीन भविष्य में सैन्य ठिकाने के रूप में इस्तेमाल कर सकता है।

चीन से सर्तकता जरुरी  

चीन की टेढ़ी चाल को देखते हुए सामान्य रिश्तों की बहाली की कोशिशों के दौरान भारत को फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने की जरूरत है। सीमा विवाद को सुलझाए बगैर चीन के साथ रिश्ते पूरी तरह निरापद नहीं हो सकते। जब तक यह नहीं होता, आर्थिक और बहुपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर फोकस किया जा सकता है।मेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पाक सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल आसिम मुनीर से लंच पर मुलाकात को भारत समेत दुनिया भर में आश्चर्य के साथ देखा गया, तो इसकी वजहें हैं. आश्चर्य इस पर है कि अमेरिका ने पहले आसिम मुनीर को आमंत्रित किये जाने से इनकार किया था. फिर ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रपति ट्रंप ने मुनीर को व्हाइट हाउस में लंच पर बुला लिया? ट्रंप पाक सेनाध्यक्ष से औपचारिक बातचीत भी तो कर सकते थे. लेकिन लंच पर बुलाकर ट्रंप ने इस मुलाकात को महत्वपूर्ण बना दिया. आश्चर्य इस कारण भी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति आमतौर पर दूसरे देशों के सेनाध्यक्षों से नहीं मिलते

बेशक अतीत में पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्षों की तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों से मुलाकातें हुई हैं. जैसे, जनरल अयूब खान की जॉन एफ कैनेडी से, जियाउल हक की जिमी कार्टर रोनाल्ड रीगन से और परवेज मुशर्रफ की जॉर्ज बुश से मुलाकातें हुई हैं. लेकिन अयूब खान, जियाउल हक और परवेज मुशर्रफ तब सिर्फ सेनाध्यक्ष नहीं थे, बल्कि सत्ता उनके पास थी. जबकि आसिम मुनीर सेनाध्यक्ष हैं, जिन्हें हाल ही में फील्ड मार्शल बनाया गया है. आसिम मुनीर से व्हाइट हाउस में मुलाकात कर ट्रंप ने जता दिया है कि अमेरिका के लिए पाक सेनाध्यक्ष वहां के प्रधानमंत्री की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण है. यही वास्तविकता भी है. नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका और पाकिस्तान के सैन्य रिश्ते काफी मजबूत हैं तथा पाकिस्तान अमेरिका का गैर-नाटो सहयोगी भी है. हालांकि भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति का आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में आमंत्रित करना भारत के लिए असहज करने वाला है. यह बात समझ लेनी चाहिए कि अमेरिका महाशक्ति देश है और वह अपना हित आगे रखता है.

हमेशा से ही अमेरिका की यह नीति रही है. तिस पर डोनाल्ड ट्रंप ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिन्हें दूसरे देशों या नेताओं की गरिमा या भावना का ख्याल के बराबर है. वह व्हाइट हाउस में कैमरे के सामने सार्वजनिक तौर पर यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित कर चुके हैं. इसलिए ट्रंप से सौजन्यता की आशा नहीं करनी चाहिए. सवाल यह है कि फिलहाल आसिम मुनीर से मुलाकात के पीछे अमेरिका का क्या हित हो सकता है. अपने पहले राष्ट्रपति काल में ट्रंप के लिए जो पाकिस्तान आतंकवादियों का अड्डा था, दूसरे राष्ट्रपति काल में वही पाकिस्तान अब ट्रंप के लिए इतना प्रिय कैसे बन गया? दरअसल माना यह जा रहा है कि अमेरिका अब इस्राइल के साथ मिलकर ईरान पर हमला बोलने वाला है. ट्रंप ने हाल ही में जिस तरह ईरान से आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, उसे इसी संदर्भ में देखना चाहिए. जहां तक पाकिस्तान की बात है, तो वह ईरान के साथ खड़ा है

पाकिस्तान ने पहले कहा भी था कि इस्राइल ने अगर ईरान पर परमाणु हमला किया, तो वह इस्राइल पर परमाणु बम गिरायेगा. ट्रंप पाकिस्तान को इसी से विरत कराना चाहते हैं. पाकिस्तान परमाणु शक्तिसंपन्न देश है, यह अमेरिका को भलीभांति मालूम है. यही नहीं, दुनिया को यह भी पता है कि पाकिस्तान अपने परमाणु बम को इसलामी बम कहता आया है. लिहाजा ईरान पर परमाणु हमला होता है, तो वह चुप नहीं बैठेगा. कहा यह जा रहा है कि ईरान पर हमला करने के लिए अमेरिका पाकिस्तान का एयरबेस इस्तेमाल करना चाहता है. लेकिन ऐसा होगा नहीं. पाकिस्तान ने बेशक पहले अमेरिका को अपना एयरबेस इस्तेमाल करने दिया था, लेकिन ईरान के खिलाफ वह अमेरिका की मदद कतई नहीं करने वाला. ऐसे में, ट्रंप की कोशिश पाकिस्तान को यह बताने में है कि वह ईरान के मामले से दूर रहे. अगर पाकिस्तान तब भी माने, तो उसे लालच देकर इस युद्ध में तटस्थ बने रहने के लिए कहा जा सकता है. मुनीर से ट्रंप की मुलाकात को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. लेकिन इस घटनाक्रम को भारतीय विदेश नीति और कूटनीति के लिए झटका माना जा रहा है. एक अर्थ में ऐसा है भी

यह मानने का कारण है कि ट्रंप भारत से बहुत खुश नहीं है. इसका तात्कालिक कारण भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम का मुद्दा रहा है. ट्रंप कम से कम चौदह बार कह चुके हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम उन्होंने कराया है. दुनिया के कई देश ट्रंप के कहे पर यकीन भी कर चुके हैं. जैसे, रूस का मानना है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम ट्रंप के हस्तक्षेप से संभव हुआ. लेकिन भारत शुरू से ट्रंप के इस दावे को खारिज करता आया है. भारत का साफ कहना है कि संघर्षविराम में अमेरिका या ट्रंप की कई भूमिका नहीं थी. ट्रंप को भारत का यह रवैया नागवार लगा हो, तो आश्चर्य नहीं.  अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस दौरान ट्रंप के साथ टेलीफोन पर बातचीत के दौरान कई चीजें साफ कर दीं. एक तो यही कि ट्रंप ने जी-7 की बैठक से लौटते हुए मोदी से अमेरिका में रुकने का आग्रह किया था, जिसे प्रधानमंत्री ने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया

ट्रंप का सारा ध्यान फिलहाल इस्राइल-ईरान युद्ध पर है, ऐसे में, प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका जाने के निर्णय को भारत के इन दोनों देशों के साथ संबंध, कूटनीतिक संतुलन, तटस्थता की नीति और सामरिक हित के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. भारत पश्चिम एशिया में अपनी तटस्थ छवि बनाये रखना चाहता है. इस्राइल के साथ अपने रक्षा संबंधों को मजबूती देते हुए भी भारत ने सुनिश्चित किया है कि इससे ईरान के साथ उसके रिश्ते प्रभावित हों. ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक और सामरिक रिश्ते हैं. भारत के लिए ईरान मध्य एशिया तक पहुंचने का प्रवेश द्वार तो है ही, चाबहार बंदरगाह परियोजना भी उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए इस युद्ध में भारत किसी एक के पक्ष में खड़े होने से बचना चाहता है. फिर चूंकि इस दौरान पाक सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर अमेरिका में थे, जिसने सुनियोजित भारत-विरोधी टिप्पणियों के जरिये पहलगाम हमले की पटकथा बुनी थी. इसलिए भी प्रधानमंत्री ने अमेरिका जाने का सही निर्णय लिया. विदेश सचिव ने ट्रंप के साथ प्रधानमंत्री मोदी की बातचीत का हवाला देते हुए फिर जोर देकर कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी की मध्यस्थता तो पहले स्वीकार्य थी, अब स्वीकार्य है. प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप से फोन पर बातचीत में भी यह स्पष्ट किया कि संघर्षविराम अमेरिकी मध्यस्थता या किसी व्यापारिक समझौते के कारण नहीं, बल्कि पाकिस्तान के अनुरोध पर हुआ. ट्रंप के सामने प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी वैचारिक दृढ़ता और कूटनीतिक तटस्थता का जैसा प्रदर्शन किया, वह निश्चित रूप से उल्लेखनीय है.

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