सत्ता का अधिपत्य नहीं, सांस्कृतिक चेतना है हिंदू राष्ट्र
मोहन
भागवत
का
संदेश
केवल
भाषण
नहीं,
बल्कि
भविष्य
का
खाका
है।
इसमें
हिंदू
राष्ट्र
की
व्यापक
अवधारणा,
शिक्षा-संस्कार
की
अनिवार्यता,
सामाजिक
सद्भाव
और
सेवा
भाव
जैसे
बिंदु
जुड़े
हैं।
भारत
की
आत्मा
उसकी
संस्कृति
और
परंपरा
में
है।
यदि
नई
पीढ़ी
इन
मूल्यों
को
आत्मसात
करेगी
तो
अगले
तीन
दशकों
में
भारत
न
केवल
आर्थिक
महाशक्ति
बनेगा,
बल्कि
दुनिया
का
मार्गदर्शक
भी
होगा।
आज
भी
संघर्ष
जारी
है,
मगर
हमें
विश्वास
है,
भारत
विश्वगुरु
बनेगा
और
मानवता
को
नई
दिशा
देगा।
मतलब
साफ
है
डॉ.
मोहन
भागवत
के
विचार
और
संघ
की
शताब्दी
वर्ष
की
व्याख्यान
माला
से
स्पष्ट
होता
है
कि
संघ
समय
के
अनुसार
अपनी
कार्यशैली
और
दृष्टिकोण
में
बदलाव
ला
रहा
है।
यह
बदलाव
संगठनात्मक
शक्ति
तक
सीमित
नहीं
है,
बल्कि
समाज
के
नैतिक,
सांस्कृतिक
और
वैचारिक
विकास
पर
केंद्रित
है।
संघ
का
समावेशी
दृष्टिकोण,
सामाजिक
समरसता
और
राष्ट्र
निर्माण
की
दिशा
में
योगदान
आज
अत्यंत
प्रासंगिक
है।
समाज
में
एकजुटता,
नैतिकता
और
समावेशिता
से
ही
राष्ट्र
सशक्त
और
आत्मनिर्भर
बन
सकता
है।
शताब्दी
वर्ष
का
यह
संदेश
न
केवल
संघ
के
स्वयंसेवकों
के
लिए
प्रेरणादायक
है,
बल्कि
पूरे
देश
के
नागरिकों
के
लिए
मार्गदर्शक
है।
राष्ट्र
निर्माण
केवल
राजनीतिक
निर्णयों
या
सत्ता
संघर्ष
से
नहीं
होता,
बल्कि
समाज
के
प्रत्येक
नागरिक
की
जिम्मेदारी,
जागरूकता
और
सक्रिय
भागीदारी
से
संभव
है।
या
यूं
कहे
आरएसएस
और
डॉ.
मोहन
भागवत
की
यह
यात्रा
भारतीय
समाज
के
समग्र
विकास,
सांस्कृतिक
जागरूकता
और
राष्ट्र
निर्माण
की
दिशा
में
प्रेरणादायक
मार्गदर्शन
प्रस्तुत
करती
है
सुरेश गांधी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का स्थापना वर्ष 1925 से लेकर आज तक भारतीय समाज और राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका उल्लेखनीय रही है। संघ ने समाज में नैतिकता, संस्कृति और सेवा के मूल्यों को मजबूत किया है। 2025 में संघ का शताब्दी वर्ष केवल संगठन की उपलब्धियों का उत्सव नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश लेकर आया है। संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यान माला ’100 वर्ष की संघ यात्राः नए क्षितिज’ में संघ की विचारधारा, कार्यशैली और भविष्य की दिशा पर विस्तार से विचार प्रस्तुत किए। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट है : राष्ट्र निर्माण केवल सत्ता या राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक जागरूकता के माध्यम से संभव है। डॉ. भागवत का यह संदेश वर्तमान समय में विशेष प्रासंगिक है, जब भारत के सामाजिक ताने-बाने में विविधता के बावजूद एकता बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है। उनका मानना है कि व्यक्ति और समाज दोनों का सशक्तिकरण राष्ट्र की मजबूती के लिए अनिवार्य है।
डॉ. भागवत ने ’हिंदू’ की परिभाषा को पारंपरिक धार्मिक सीमाओं से हटाकर सांस्कृतिक और समावेशी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनके अनुसार हिंदू केवल जातीय या धार्मिक पहचान नहीं, बल्कि जीवन दर्शन और सांस्कृतिक मूल्य है। इस दृष्टिकोण से यह संदेश मिलता है कि हिंदूत्व में विविधताओं को स्वीकार करना और उनमें एकता बनाए रखना महत्वपूर्ण है।
उन्होंने कहाः
“जो सबको साथ लेकर
चलता है, वही हिंदू
है।“ यह विचार भारतीय
समाज में रूढ़िवाद को
चुनौती देता है और
आधुनिक भारत में व्यापक
पहचान स्थापित करता है। हिंदूत्व
केवल धार्मिक कर्मकांड या जातीयता तक
सीमित नहीं है, बल्कि
जीवन के नैतिक मूल्यों,
संस्कार और सामाजिक उत्तरदायित्व
से जुड़ा है। शताब्दी
वर्ष की तैयारी में
संघ ने दिल्ली विज्ञान
भवन में तीन दिवसीय
व्याख्यान माला आयोजित की।
इस कार्यक्रम में डॉ. भागवत
ने गंभीरता और संतुलन के
साथ संगठन की विचारधारा, कार्यप्रणाली
और भविष्य की दिशा को
रेखांकित किया। यह आयोजन केवल
संघ के भीतर के
लोगों के लिए नहीं,
बल्कि समाज के सभी
वर्गों के लिए एक
आमंत्रण था, संवाद और
विचार विमर्श के लिए।
संघ और भाजपा के संबंध
अक्सर यह कहा जाता
रहा है कि संघ
भाजपा को नियंत्रित करता
है। डॉ. भागवत ने
इसे पूरी तरह स्पष्ट
किया। उन्होंने कहा कि संघ
और भाजपा स्वतंत्र संस्थाएं हैं। संघ का
उद्देश्य केवल समाज को
जोड़ना और राष्ट्र निर्माण
में योगदान देना है, न
कि सत्ता में भागीदारी। उन्होंने
यह भी स्पष्ट किया
कि संघ भाजपा के
राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव में
कभी हस्तक्षेप नहीं करता। संघ
का कार्य है समाज को
नैतिक और वैचारिक रूप
से सशक्त करना, ताकि नागरिक अपने
कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को
समझ सकें। डॉ. भागवत ने
रिटायरमेंट और उम्र पर
भी अपनी राय दी।
उनका कहना था कि
उम्र केवल एक आंकड़ा
है; यदि व्यक्ति सक्षम
और सक्रिय है, तो 80 साल
की उम्र में भी
वह समाज और राष्ट्र
के लिए काम कर
सकता है। उन्होंने आदर्श
परिवार संरचना में तीन बच्चों
की सलाह दी, जिससे
सामाजिक और आर्थिक संतुलन
बनाए रखा जा सके।
काशी, मथुरा और ज्ञानवापी मुद्दे पर संघ की स्थिति
डॉ. भागवत ने
काशी, मथुरा और ज्ञानवापी जैसे
संवेदनशील मुद्दों पर संघ की
स्थिति स्पष्ट की। उनका कहना
था कि संघ इन
मुद्दों पर कोई आंदोलन
नहीं करेगा, लेकिन स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप से अपने
दृष्टिकोण और मान्यताओं के
अनुसार आंदोलन में भाग ले
सकते हैं। उन्होंने मुस्लिम
समुदाय से भी समझदारी
और संवेदनशीलता बनाए रखने का
आह्वान किया। यह दृष्टिकोण साम्प्रदायिक
सौहार्द और सामाजिक समरसता
को बढ़ावा देता है। संघ
केवल वैचारिक मार्गदर्शन देता है, प्रत्यक्ष
संघर्ष या हिंसा में
शामिल नहीं होता। संघ
का यह दृष्टिकोण समाज
के प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय को
संयम और समझदारी के
साथ कार्य करने का संदेश
देता है। यह भारतीय
लोकतंत्र और सामाजिक समरसता
को मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाता है।
आरक्षण और सामाजिक समरसता
डॉ. भागवत ने
आरक्षण के मुद्दे पर
संतुलित दृष्टिकोण पेश किया। उन्होंने
कहा कि निचले वर्गों
को सशक्त बनाने के लिए आरक्षण
आवश्यक है, लेकिन यह
तब तक होना चाहिए
जब तक वे स्वयं
इसे लेने से इनकार
न कर दें। साथ
ही उन्होंने सामाजिक मेल-जोल और
समानता पर जोर दिया।
उनका कहना था कि
दलितों और पिछड़ों के
साथ समानता और सम्मान के
साथ व्यवहार करने से समाज
में दूरी घटेगी और
एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण होगा।
संघ का यह दृष्टिकोण
केवल नीति तक सीमित
नहीं है। यह समाज
के आचरण और संस्कार
को बदलने की दिशा में
भी योगदान देता है। समावेशिता,
न्याय और सामाजिक सहभागिता
के माध्यम से संघ भारतीय
समाज में स्थायी सकारात्मक
परिवर्तन की दिशा में
कार्य करता है।
नेतृत्व और संघ का भविष्य
डॉ. भागवत ने
संघ के भविष्य और
नेतृत्व पर अपने विचार
साझा किए। उन्होंने कहा
कि संघ में समय
के अनुसार बदलाव संभव हैं, लेकिन
तीन मूलभूत तत्व अपरिवर्तनीय हैं
: व्यक्ति निर्माण से समाज के
आचरण में परिवर्तन संभव
है। पहले समाज बदलना
चाहिए, फिर व्यवस्था और
शासन बेहतर होंगे। हिंदुस्थान हिंदू राष्ट्र है। उन्होंने यह
भी कहा कि संघ
में स्वयंसेवकों को पद, पैसा
या सत्ता नहीं मिलता; उन्हें
केवल सेवा का अवसर
मिलता है। यह सेवा
समाज और राष्ट्र दोनों
के लिए है। संघ
का उद्देश्य सत्ता में भागीदारी नहीं,
बल्कि समाज और राष्ट्र
को नैतिक और वैचारिक रूप
से सशक्त बनाना है। डॉ. भागवत
का यह दृष्टिकोण स्पष्ट
करता है कि संघ
संगठनात्मक और नैतिक दृष्टि
दोनों से समाज में
बदलाव लाने का प्रयास
कर रहा है।
राष्ट्र निर्माण में संघ का योगदान
संघ का कार्य केवल संगठनात्मक विस्तार तक सीमित नहीं है। यह समाज की नैतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक मजबूती पर केंद्रित है। संघ ने शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास, सांस्कृतिक जागरूकता और सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। डॉ. भागवत ने भी इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्र निर्माण का मार्ग शिक्षा और मूल्य आधारित समाज से होकर गुजरता है। व्यक्ति के नैतिक और सामाजिक विकास के बिना राष्ट्र का सशक्त होना असंभव है। संघ के स्वयंसेवक गांव-गांव, नगर-नगर जाकर समाज की जागरूकता और सेवा का काम कर रहे हैं। संघ द्वारा चलाए जा रहे स्वयंसेवा शिविर, स्वास्थ्य जांच अभियान, पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम और शिक्षा संवर्धन परियोजनाएँ देशभर में समाज के कमजोर वर्गों तक पहुँच बनाती हैं। यह कार्य राष्ट्र निर्माण में संघ की व्यावहारिक भूमिका को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
शैक्षिक और सांस्कृतिक योगदान
डॉ. भागवत ने
संघ की शिक्षा और
संस्कृति पर आधारित पहलुओं
को भी रेखांकित किया।
संघ के द्वारा चलाए
जाने वाले विद्यालय और
प्रशिक्षण केंद्र युवा पीढ़ी में
नैतिकता, नेतृत्व क्षमता और सामाजिक जिम्मेदारी
विकसित करते हैं। संघ
का मानना है कि युवा
राष्ट्र के भविष्य का
आधार हैं। इसलिए उनका
प्रशिक्षण केवल अकादमिक ज्ञान
तक सीमित नहीं, बल्कि व्यक्तित्व विकास, सामाजिक चेतना और सेवा भावना
तक विस्तारित है। सांस्कृतिक दृष्टि
से भी संघ ने
विविधताओं में एकता बनाए
रखने का काम किया
है। भारत के विभिन्न
राज्यों में आयोजित सांस्कृतिक
कार्यक्रम, लोक कला और
भाषा संवर्धन योजनाएँ यह सुनिश्चित करती
हैं कि देश की
विविध सांस्कृतिक धरोहर बनी रहे और
आने वाली पीढ़ियों तक
पहुंचे। डॉ. मोहन भागवत
के विचार और संघ की
शताब्दी वर्ष की व्याख्यान
माला से यह स्पष्ट
होता है कि संघ
समय के अनुसार अपनी
कार्यशैली और दृष्टिकोण में
परिवर्तन ला रहा है।
यह बदलाव संगठनात्मक शक्ति तक सीमित नहीं
है, बल्कि समाज के नैतिक,
सांस्कृतिक और वैचारिक विकास
पर केंद्रित है। संघ का
समावेशी दृष्टिकोण, सामाजिक समरसता और राष्ट्र निर्माण
की दिशा में योगदान
आज अत्यंत प्रासंगिक है।
नैतिकता और समावेशिता से ही आत्मनिर्भर बन सकता है भारत
डॉ. भागवत का संदेश यह स्पष्ट करता है कि समाज में एकजुटता, नैतिकता और समावेशिता से ही राष्ट्र सशक्त और आत्मनिर्भर बन सकता है। शताब्दी वर्ष का यह संदेश न केवल संघ के स्वयंसेवकों के लिए प्रेरणादायक है, बल्कि पूरे देश के नागरिकों के लिए मार्गदर्शक है। राष्ट्र निर्माण केवल राजनीतिक निर्णयों से नहीं होता, बल्कि समाज के प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी, जागरूकता और सक्रिय भागीदारी से संभव है। संक्षेप में, आरएसएस और डॉ. मोहन भागवत की यह यात्रा भारतीय समाज के समग्र विकास, सांस्कृतिक जागरूकता और राष्ट्र निर्माण की दिशा में प्रेरणादायक मार्गदर्शन प्रस्तुत करती है। मोहन भागवत का स्पष्ट विचार है कि भारत अगले 20 से 30 वर्षों में विश्वगुरु बनेगा। मगर इसके लिए समाज को शिक्षा, संस्कार और आत्मगौरव से भरी नई पीढ़ी तैयार करनी होगी। उन्होंने मिशनरी गतिविधियों, भारतीय परंपरा, जनसंख्या, सरकार-संघ संबंध और हिंदू राष्ट्र जैसे मुद्दों पर खुलकर अपनी बात रखी। भागवत ने कहा कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने भारत की छवि बिगाड़ने की साजिश की। देश के बारे में भ्रांतियां फैलाई गईं, ताकि भारत कभी सिर न उठा सके। लेकिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में अपने विचारों से इन सबको करारा जवाब दिया। आज भी हमारे खिलाफ झूठ और विकृति फैलाई जाती है, ताकि प्रगति रुक जाए। मगर भारत अब जाग चुका है। संघ प्रमुख ने मिशनरी संस्थाओं के कामकाज पर निशाना साधते हुए कहा कि असली सेवा तो भारत के संत और समाजसेवी कर रहे हैं। “मिशनरी संस्थाओं के मुकाबले हमारे संत कहीं अधिक काम करते हैं। सेवा हमारे जीवन का अंग है, दिखावे का साधन नहीं।”
शिक्षा का असली अर्थ : संस्कार और आत्मगौरव
भागवत ने शिक्षा को केवल साक्षरता नहीं, बल्कि “मनुष्य निर्माण” बताया। उन्होंने कहा, सच्ची शिक्षा से इंसान विष को भी अमृत बना सकता है। बच्चों को तकनीक का उपयोग करना आना चाहिए, लेकिन तकनीक मालिक न बने। शिक्षा का उद्देश्य नौकरी नहीं, बल्कि मनुष्य को मनुष्य बनाना है। उन्होंने इतिहास और परंपरा से जुड़ाव को जरूरी बताते हुए कहा कि बच्चों के भीतर गौरव और आत्मविश्वास तभी आएगा जब वे जानेंगे कि भारत की जड़ें कितनी गहरी हैं।
हिंदू राष्ट्र का मतलब : सबका सम्मान, सबका विकास
भागवत ने साफ किया
कि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को
लेकर फैलाई गई भ्रांतियां गलत
हैं। “हिंदुत्व का मतलब संकीर्णता
नहीं, बल्कि सेवा, सत्य और करुणा
का मार्ग है। हमारे धर्म
अलग हो सकते हैं,
मगर समाज के नाते
हम सब एक हैं।
यही एकता भारत को
विश्वगुरु बनाएगी।” भागवत का यह बयान
सबसे ज्यादा चर्चा में रहा, “भारतीय
परिवारों को कम से
कम तीन बच्चे पैदा
करने चाहिए।” इस पर सामाजिक
हलकों में बहस छिड़
गई। कुछ ने इसे
145 करोड़ की आबादी वाले
देश के लिए चुनौती
बताया, तो समर्थकों ने
इसे हिंदू समाज की जनसंख्या
संतुलन बनाए रखने की
आवश्यकता बताया। 75 वर्ष की उम्र
पूरी करने के बाद
उनके “सेवानिवृत्त“ होने की चर्चाओं
पर उन्होंने कहा, ना तो
मैं रिटायर होऊंगा और ना ही
किसी और को कहूंगा।
मैं 75 के बाद भी
काम करने के लिए
तैयार हूं।
विश्वगुरु का मार्ग : शिक्षा, सेवा और आत्मगौरव
संघ प्रमुख ने
कहा कि भारत का
लक्ष्य केवल आर्थिक ताकत
बनना नहीं है। असली
लक्ष्य है, नई पीढ़ी
को मूल्य आधारित शिक्षा देना, समाज में सद्भाव
और एकता स्थापित करना,
तकनीक को मानवता की
सेवा में लगाना, आत्मगौरव
और आत्मविश्वास को जगाना. हमको
केवल राज्य नहीं चलाना है,
हमें प्रजापालन करना है। उसके
लिए आने वाली दो-तीन पीढ़ियों को
बनाना होगा। तभी भारत विश्वगुरु
बनेगा।
अफ़ज़ाल का मक़सद राजनीतिक संतुलन साधना
पूर्वांचल की राजनीति हिंदू-मुस्लिम संतुलन पर टिकी है।
तारीफ़ करके अफ़ज़ाल अंसारी
यह संदेश देना चाहते हैं
कि वे केवल मुस्लिम
वोट बैंक तक सीमित
नहीं हैं। अंसारी परिवार
की छवि अक्सर विवादों
से जुड़ी रही है।
संघ या हिंदुत्व की
तारीफ़ से वे सकारात्मक
और सर्वसमावेशी चेहरा दिखाना चाहते हैं। मौजूदा दौर
में बीजेपी-आरएसएस का प्रभाव बहुत
बड़ा है। तारीफ़ करके
वे सत्ता से सीधा टकराव
टालना चाहते हैं। गाज़ीपुर और
पूर्वांचल में बड़ी संख्या
में हिंदू मतदाता हैं। इस बयान
से वे उन्हें भी
संदेश देना चाहते हैं।
यह भी संकेत हो
सकता है कि अंसारी
आने वाले चुनावी समीकरणों
और गठबंधनों को ध्यान में
रखकर अपनी पोज़िशनिंग बदल
रहे हैं। कुल मिलाकर,
अफ़ज़ाल अंसारी की तारीफ़ें सिर्फ़
औपचारिक नहीं, बल्कि संतुलन साधने और भविष्य की
राजनीति को ध्यान में
रखकर दी गईं रणनीतिक
टिप्पणियां मानी जा रही
हैं।
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