Friday, 15 February 2019

संत रविदास जयंती विशेष : जिनकी भेंट लेने स्वयं प्रकट हो गईं थीं ‘मां गंगा’


संत रविदास जयंती विशेष  : जिनकी भेंट लेने स्वयं प्रकट हो गईं थींमां गंगा
संत शिरोमणि रविदास जी के बारे में यही कहा जाता है कि खुद गंगा मां इनकी सत्यता और निष्ठा को साबित करने के लिए एक कठौती में प्रकट हो गईं थीं। वैसे तो इस संत को लेकर अनेक किस्से प्रचलित हैं, लेकिन यह किस्सा सबसे ज्यादा मान्यता प्राप्त है। विद्वान इन्हें मीराबाई का गुरू भी मानते हैं। संत रविदास रैदास कबीर के समकालीन हैं। इस बार संत रविदास की जयंती 19 फरवरी को मनायी जाएगी। इस बार उनकी जन्मस्थली वाराणसी के सीरगोवर्धन एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मत्था टेकेंगे। इसके पहले मोदी फरवरी 2016 में इस मंदिर में मत्था टेकने आए थे। देशभर के रैदासी इस समारोह में हिस्सा लेने के लिए अभी से जुटने लगे हैं
सुरेश गांधी
माघ महीने की पूर्णिमा तिथि को शास्त्रों में बड़ा ही उत्तम कहा गया है। इसी उत्तम दिन को 1398 . में धर्म की नगरी काशी में संत रविदास का जन्म हुआ था। रविदास जी को रैदास जी के नाम से भी जाना जाता है। हर साल इसी दिन उनकी जयंती मनाई जाती है। इन्होंने अपनी आजीविका के लिए पैतृक कार्य को अपनाया लेकिन इनके मन में भगवान की क्ति पूर्व जन्म के पुण्य से ऐसी रची बसी थी कि, आजीविका को धन कमाने का साधन बनाने की बजाय संत सेवा का माध्यम बना लिया। उन्होंने अपने दोहों पदो के माध्यम से समाज को जागरुक करने का प्रयास किया। वे भक्त और साधक कवि थे, उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान सयाधना और आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रुप से देखी जा सकती है। उन्होंने भक्ति के मार्ग को अपनाया और सतसंग द्वारा अपने विचारों को आमजनमानस तक पहुंचाय।प्रभुजी तुम चंदन हम पानीकी रचना उन्होंने ही की थी। इस बार 19 फरवरी को उनकी 642वीं जयंती है।
भारत की मध्ययुगीन संत परम्परा में संत रविदास का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। 14वीं से 17वीं सदी के भारतीय इतिहास के पन्ने अपने आप में अपूर्व और महान है, इसके पहले किसी ने भी ब्रह्मज्ञान को इतना स्पष्ट रूप से प्रस्तुत नहीं किया, जितना कि इस सदी में अवतरित संतों ने किया। कहा  जाता है कि संत रविदास बेहद गरीब परिवार से थे, किंतु उनके हृदय में ईश्वर के प्रति अनन्य आस्था थी। एक बार एक ब्राम्हण गंगा मां के दर्शनों के लिए जा रहा था। उन्हें इसका पता चला, गरीबी के कारण वे जा नही सकते थे, किंतु उन्होंने अपनी मेहनत से कमाया हुआ एक सिक्का माता के पास भेजा और कहा, ये मेरी ओर से मां गंगा को भेंट कर देना। ब्राम्हण ने सिक्का लिया और चला गया, किंतु वह सिक्का गंगा मां को अर्पित करना भूल गया। इस पर रास्ते में उसे बेचैनी होने लगी, उसे लगा वह कुछ भूल गया है, किंतु क्या उसे स्मरण नही रहा। इस पर वह पुनः गंगा तट पर बैठा और स्मरण करने लगा। जैसे ही उसे याद आया उसने रैदास का सिक्का मां गंगा को अर्पित करने के लिए हाथ बढ़ाया, किंतु इससे पहले कि वह सिक्का अर्पित करता मां गंगा स्वयं प्रकट हो गईं और उसे सिक्के को अपने हाथों में ग्रहण कर लिया। 
रैदास का यह किस्सा जगजाहिर हुआ और लोग उनके भक्त बनने लगे। कहा यह भी बताया जाता है कि एक बार काशी के राजा ने ईश्वर के सच्चे भक्त को परखने के लिए गंगा नदी में भगवान की मूर्ति तैरने की शर्त रखी उन्होंने कहा, जिसकी मूर्ति नही डूबेगी वही सच्चा भक्त माना जाएगा। एक ब्राम्हण और रैदास दोनों ने मूर्तियां गंगा में उतारीं किंतु ब्राम्हण की मूर्ति डूब गई और रैदास की तैरने लगी। संत और फकीर जो भी इनके द्वार पर आते उन्हें बिना पैसे लिये अपने हाथों से बने जूते पहनाते। इनके इस स्वभाव के कारण घर का खर्च चलाना कठिन हो रहा था। इसलिए इनके पिता ने इन्हें घर से बाहर अलग रहने के लिए जमीन दे दिया। जमीन के छोटे से टुकड़े में रविदास जी ने एक कुटिया बना लिया। जूते बनाकर जो कमाई होती उससे संतों की सेवा करते इसके बाद जो कुछ बच जाता उससे अपना गुजारा कर लेते थे।
काशी मेंगोल्डन टेंपलके नाम से है भव्य मंदिर
काशी में संत रविदास के मंदिर को काशी विश्वनाथ मंदिर के बाद दूसरेगोल्डन टेंपलके नाम से जाना जाता है। संत रविदास मंदिर के शिखर का कलश और मंदिर में संत रविदास की पालकी से लेकर छत्र तक सब कुछ सोने का है। जिनका दर्शन जयंती समारोह के दौरान ही मिलता है। हर साल देश-विदेश से बड़ी तादाद में संत के अनुयायी जयंती पर मत्था टेकने यहां आते हैं। संत रविदास की पालकी 130 किलो वजनी सोने की है। इसे 2008 में यूरोप के अनुयायियों ने पंजाब के जालंधर में बनवाई थी। इसका अनावरण बसपा सुप्रीमो मायावती ने फरवरी 2008 में किया था। इस पालकी को साल में एक बार जयंती के दिन निकाला जाता है। मंदिर प्रबंधन ने बताया कि पहला स्वर्ण कलश 1994 में संत गरीब दास ने संगत के सहयोग से चढ़ाया था।  2012 में 35 किलो का सोने का स्वर्ण दीपक बनवाया गया। इसमें अखंड ज्योति जल रही है।
ऐसा चाहू राज मैं, जहां मिलई सबन के अन्न
ऐसा चाहू राज मैं, जहां मिलई सबन के अन्न। छोट-बड़ेन सब सम बसे, रविदास रहे प्रसंन।। जी हां संत शिरोमणि रविदास जी की यह सोच थी। इस सोच को आत्मसात करने-कराने के लिए लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी प्रयासरत है। उनकी जयंती समेत प्रमुख पर्वो पर बड़े पैमाने पर लंगर का आयोजन करने के साथ ही आस्थावानों को संदेश दिया जाता है। जहां तक उनके जन्मस्थली का सवाल है, वह धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के सीर गोवर्धन में एक गरीब परिवार में हुआ। जब तक वह बड़े होकर शिक्षा-दिक्षा अर्जित करते, समाज में व्याप्त कुरीतियां, जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य उनके समक्ष बाधा बनकर खड़ा हो गया। लेकिन इन कुरीतियों से विचलित हुए बिना उन्होंने इसके समूल नाश का संकल्प लिया। अनेक मधुर भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया। देखा जाय तो रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु उन्होंने अथक प्रयास किया। इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वह कहते हैं- तीर्थ यात्राएं भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो।का मथुरा, का द्वारिका, का काशी-हरिद्वार। रैदास खोजा दिल आपना, तह मिलिया दिलदार।। उनके जीवन की घटनाओं से उनके गुणों का ज्ञान होता है।
बेहद सरल व्यक्तित्व के स्वामी थे रविदास 
संत रविदास बेहद सरल व्यक्तित्व के स्वामी थे। उन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है। जो मिला उसे सहर्ष अपनाया। संत रविदास को जूते बनाने का काम पैतृक व्यवसाय के तौर पर मिला। उन्होंने इसे खुशी से अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन से करते थे। यही नहीं वे समय के पाबंद भी थे। सबकी मदद करते थे। रैदास की खासियत ये थी कि वे बहुत दयालु थे। दूसरों की मदद करना उन्हें भाता था। कहीं साधु-संत मिल जाएं तो वे उनकी सेवा करने से पीछे नहीं हटते थे। अन्याय को कभी नहीं सहा। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। छुआछूत आदि का उन्होंने विरोध किया और पूरे जीवन इन कुरीतियों के खिलाफ ही काम करते रहे। कभी किसी की आलोचना नहीं की। संत रविदास के बारे में कहा जाता है कि वे जूते बनाने का काम बड़ी मेहनत से किया करते थे. वे समाज की कुरीतियों के खिलाफ आवाज तो उठाते थे पर उन्होंने कभी किसी की आलोचना नहीं की. 14वीं सदी के दौरान को हिन्दी साहित्यिक जगत में इस समय को मध्यकाल कहा जाता है। मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल में साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों ने जन्म लिया है। समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। लेकिन संत शिरोमणि रविदास जी ने जो किया वह अद्भूत, अकल्पनीय बेमिसाल रही। वे अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा भी प्रदान की। उनका जीवन ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्यों को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
अपनी कविताओं से समाज में जगाई अलख
रविदास ने अहम का त्याग किया और सर्वस्व समर्पण कर वश परमात्मा की शरण में अपने आप की समर्पित किया। रविदास ने मानव जीवन को दुर्लभ बताया है, उन्हें कहा, मानव जीवन एख हीरे की तरह है, परन्तु उसकी भौतिक सुख अर्जित करने में यदि किया जाय, तो यह जीवन को नष्ट करना होगा।रैनी गंवाई सोय करि, दिवस गंवायो खाय। हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदले जाये।रविदास जी ने बताया कि परमात्मा हम सबके अन्दर है, बाहरी वेश भूषा बनाना व्यर्थ है, और भ्रामक भी, सच्चे भक्त बाह्य क्रियाओं से कोई संबंध नहीं रखते, बल्कि अपने ध्यान को बाहर से समेट कर अन्दर ले जाते हैं। मानव जब पूर्ण रूप से भगवान की शरण में जाता है तो मंदिर मस्जिद और राम रहिम में कोई फर्क नहीं दिखता, जब लोग धर्मवाद की लड़ाई लड़ रहे थे, रविदास ने अपने कविता समस्त मानव को जगाने का काम किया। उन्होंने कहा-‘रविदास पुजइ देहरा, अरू मस्जिद जाय, जहे तह ईश का वाश है, तहं तहं शीश नवाय।रविदास जी ने कहा कि ईश्वर की आराधना करने के लिए गेरूवा वस्त्र, चन्दन, हवन की जरूरत नहीं है। उनकी पूजा सरल, सर्वसाध्य एवं बेमिसाल थी। उनकी भक्तिप्रभु जी तुम चन्दन हम पानीआज भी बड़े प्रेम से लोग गाते हैं, उन्होंने अभिव्यक्त किया।मन ही पूजा मन नहीं धूप, मन ही सेवो सहज स्वरूप। पूजा अर्चना जानू तेरी, कह रैदास कवन गति मेरी।।
रविदास जी कहते हैं कि हे स्वामी मैं तो अनाड़ी हूं। मेरा मन तो माया के हाथ बिक गया है, कहा जाता है कि तुम जगत के गुरू हो जगत के स्वामी हो, मैं तो कामी हूं। मेरा मन तो इन पांच विकारों ने बिगाड़ रखा है। जहां देखता हूं वहीं दुरूख ही दुःख है, आखिर क्या करूं प्रभु को छोड़कर किसकी शरण में जाऊं। जिसका मन चित गंगा की तरह पवित्र है और उसके पास संतोष रूपी धन हो तो उसे किसी भी तीर्थ स्थान में जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उसके पास अमूल्य आध्यात्मिक दौलत है। ऐसे संत का दीर्घ जीवन मानव की सेवा में रहा। बाद में इनके विचारों को ही दयानन्द सरस्वती, राजा राम मोहन राम, महात्मा गांधी, स्व. भीमराव अम्बेडकर आदि ने ग्रहण कर समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। और जब तक जन्मना-ऊंच-नीच की भावना इस देश में मौजूद रहेगी संत रविदास की वाणी बार-बार गुंजती रहेगी। संत शिरोमणि गुरु रविदास के पद चिन्हों पर चलने से ही रविदास समाज का विकास संभव है। समाज में व्याप्त कुरीतियों अंधविश्वास को दूर करने के लिए हमें आगे आना होगा। उन्होंने कहा है समाज के शिक्षित हुए बिना हक अधिकार नहीं मिल सकता है। सन्त रविदास ने मनुष्य की मूर्खता पर व्यंग्य कसते हुए कहा कि वह नश्वर और तुच्छ हीरे को पाने की आशा करता है लेकिन जो हरि हरि का सच्चा सौदा है, उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता है। हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस। ते नर जमपुर जाहिंगे, सत आषै रविदास।। उन्होंने सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए भी समाज में जागृति पैदा की। उन्होंने कहा, रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।। हिन्दु तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा। दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।। सन्त रविदास ने इसी सन्दर्भ में ही कहा है- मुसलमान सो दोस्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत। रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।। रैदास एक बूंद सो सब ही भयो वित्थार। मूरखि है जो करति है, वरन अवरन विचार।।
का मथुरा का द्वारिका, का कासी हरिद्वार
जब तक वह बड़े होकर शिक्षा-दिक्षा अर्जित करते, समाज में व्याप्त कुरीतियां, जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य उनके समक्ष बाधा बनकर खड़ा हो गया। लेकिन इन कुरीतियों से विचलित हुए बिना उन्होंने इसके समूल नाश का संकल्प लिया। अनेक मधुर भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया। देखा जाय तो रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु उन्होंने अथक प्रयास किया। इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वह कहते हैं- तीर्थ यात्राएं भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो।का मथुरा, का द्वारिका, का काशी-हरिद्वार।

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