काशी विश्वनाथ, जहां साक्षात बसते हैं महादेव...
प्राचीन
से
भी
पुराना
सांस्कृतिक,
धार्मिक
एवं
आस्था
की
नगरी
काशी
में
देवादिदेव
महादेव
साक्षात
वास
करते
हैं.
गंगा
किनारे
एक-दो
नहीं
बल्कि
चमकते-दमकते
सौ
से
अधिक
घाटों
की
कतारबद्ध
श्रृंखलाओं
के
बीच
बजते
घंट-घडियालों
व
शंखों
की
गूंज।
कभी
ना
बुझने
वाली
मणकर्णिका
घाट
की
आगी।
स्वर्णिम
किरणों
में
नहाएं
घाटों
पर
अविरल
मंत्रोंचार।
कल-कल
बहती
पतित
पावनि
मां
गंगा।
ये
विहगंम
व
सुंदर
दृश्य
खुद-ब-खुद
कहती
है
यहां
एक
संस्कृति
है
- तैतीस
करोड़
देवी-देवताओं
की
स्थली
है।
इस
महात्य
के
पीछे
बड़ा
रहस्य
यह
है
कि
पूरी
काशी
देवादिदेव
महादेव
के
त्रिशूल
पर
टिकी
है।
धर्मग्रन्थों
और
पुराणों
के
अलावा
सप्तपुरियों
में
से
एक
काशी
को
मोक्ष
की
नगरी
भी
कहा
गया
है,
जो
अनंतकाल
से
बाबा
विश्वनाथ
के
भक्तों
के
जयकारों
से
गूंजती
आयी
है।
काशी
शिव
भक्तों
की
वो
मंजिल
है
जो
सदियों
से
यहां
मोक्ष
की
तलाश
में
आते
रहे
हैं.
कहते
है
काशी
के
कण-कण
में
चमत्कार
की
ढेरों
कहानियां
समेटे
और
बारह
ज्योर्तिलिंगो
में
एक
बाबा
विश्वनाथ
धाम
में
आकर
भक्तों
की
हर
मनोकामनाएं
पूरी
हो
जाती
हैं
औऱ
जीवन
धन्य
हो
जाता
है.
यहां
गंगा
स्नान
से
सभी
पाप
धुल
जाते
हैं.
ज्योतिषाचार्यों
का
दावा
है
अगर
भक्तों
के
जीवन
में
ग्रह
दशा
के
कारण
परेशानी
आ
रही
है,
ग्रहों
के
चाल
ने
जीना
दूभर
कर
दिया
है
तो
सच्चे
मन
से
बाबा
का
दर्शन
कर
रूद्राभिषेक
किया
जाएं
तो
ग्रह
बांधा
से
मुक्ति
तो
मिलेगी
ही
उसके
लिए
मोक्ष
के
द्वार
खुल
जाते
हैं
सुरेश गांधी
बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों
में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर
अनादिकाल से काशी में
है। यह स्थान शिव
और पार्वती का आदि स्थान
है। इसीलिए आदिलिंग के रूप में
अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम
लिंग माना गया है।
इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद के
साथ प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में भी किया
गया है। पुराणों के
अनुसार यह आद्य वैष्णव
स्थान है। पहले यह
भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी।
जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे
थे, वहां बिंदुसरोवर बन
गया और प्रभु यहां
बिंधुमाधव के नाम से
प्रतिष्ठित हुए। काशी का
इतना माहात्म्य है कि सबसे
बड़े पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के
नाम से एक विस्तृत
पृथक विभाग ही है। इस
पुरी के बारह प्रसिद्ध
नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तपरूस्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं।
भूमिष्ठापिन
यात्र
भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चौरधरूस्थापिया
या
बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तवरू।
या
नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरैरूसेव्यते।
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत।।
जो भूतल पर
होने पर भी पृथ्वी
से संबद्ध नहीं है, जो
जगत की सीमाओं से
बंधी होने पर भी
सभी का बन्धन काटने
वाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोक
पावनी गंगा के तट
पर सुशोभित तथा देवताओं से
सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान
विश्वनाथ की राजधानी वह
काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा
करे। सनातन धर्म के ग्रंथों
के अध्ययन से काशी का
लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा
जाता है कि यह
पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल
पर बसी है। अतः
प्रलय होने पर भी
इसका नाश नहीं होता
है। काशी नाम का
अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित
हो। भगवान शिव काशी को
कभी नहीं छोडते। जहां
देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त
हो जाय, वह अविमुक्त
क्षेत्र यही है। सनातन
धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास
है कि काशी में
देहावसान के समय भगवान
शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते
हैं। इससे जीव को
तत्वज्ञान हो जाता है
और उसके सामने अपना
ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है।
शास्त्रों का उद्घोष है-
यत्र
कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वरः।
जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्।।
काशी में कहीं
पर भी मृत्यु के
समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान
में तारक मन्त्र का
उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र
सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो
जाता है। यह मान्यता
है कि केवल काशी
ही सीधे मुक्ति देती
है, जबकि अन्य तीर्थस्थान
काशी की प्राप्ति कराके
मोक्ष प्रदान करते हैं। इस
संदर्भ में काशीखण्ड में
लिखा भी है-
अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।
काशींप्राप्य
विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभिः।।
देवाधिदेव महादेव है बाबा विश्वनाथ
बाबा विश्वनाथ को देवाधिदेव महादेव इसलिए कहा गया है कि वे देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, किन्नर, गंधर्व पशु-पक्षी एवं समस्त वनस्पति जगत के भी स्वामी हैं। शिव की अराधना से संपूर्ण सृष्टि में अनुशासन, समन्वय और प्रेम भक्ति का संचार होने लगता है। इसीलिए, स्तुति गान कहता है- मैं आपकी अनंत शक्ति को भला क्या समझ सकता हूं। अतः में हे शिव, आप जिस रूप में भी हों उसी रूप को मेरा आपको प्रणाम। शिव शब्द का अर्थ है ‘कल्याण करने वाला’। शिव ही शंकर हैं। शिव के ‘श‘ का अर्थ है कल्याण और ‘क‘ का अर्थ है करने वाला। शिव, अद्वैत, कल्याण- ये सारे शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं। शिव ही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा ही शिव हैं। ब्रह्मा जगत के जन्मादि के कारण हैं।
मान्यता यह भी है कि जिस प्रकार भगवान शिव के त्रिशूल, डमरू आदि सभी वस्तुओं तथा शिव का संबंध नौ ग्रहों से जोडा गया है, उसी प्रकार भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों का संबंध बारह चन्द्र राशियों से जोडा गया है, जो इस प्रकार है-मेष राशि का संबंध श्रीसोमनाथ ज्योतिर्लिंग, वृष राशि का श्रीशैल ज्योतिर्लिंग, मिथुन राशि का श्रीमहाकाल ज्योतिर्लिंग, कर्क राशि का श्रीऊँकारेश्वर अथवा अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग, सिंह राशि का श्रीवैद्यनाथधाम ज्योतिर्लिंग, कन्या राशि का श्रीभीमशंकर ज्योतिर्लिंग, तुला राशि का श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिंग, वृश्चिक राशि का श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग, धनु राशि का श्रीविश्वनाथ ज्योतिर्लिंग, मकर राशि का श्रीत्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग, कुम्भ राशि का श्रीकेदारनाथधाम से मीन राशि का संबंध श्रीघुश्मेश्वर अथवा श्रीगिरीश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग से है।
बाबा विश्वनाथ धाम में गर्भगृह व कॉरीडोर में लगी देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों का दर्शन कर लोग जहां अपने आप को कृतार्थ करते हैं। पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक धरती के खत्म होने के बाद भी बचा रहेगा यह मंदिर, क्योंकि स्वयं महादेव करते हैं इसकी रक्षा! पुराणों के मुताबिक प्रलय आने पर भगवान भोलेनाथ इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल शुरू होने पर इसे त्रिशूल से नीचे उतार देते हैं. यहां भगवान शिव माता पार्वती के साथ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हैं. इसके अलावा धर्म ग्रंथों में यह भी उल्लेख है कि काशी में प्राण त्याग वाले व्यक्ति को जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है. काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग को लेकर पुराणों में कहा गया है कि भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह होने के बाद भी माता पार्वती अपने पिता के घर पर ही रहती हैं. एक बार उन्होंने अपने पति शिव जी से कहा कि वे उन्हें अपने साथ ले जाएं. इसके बाद भगवान शिव माता पार्वती को लेकर इसी पवित्र नगरी काशी में लाए थे और यहां आकर वो विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए. इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं.
इस मंदिर का महत्व जितना बड़ा है, वैसी ही इसकी भव्यता भी कमाल की है. इस मंदिर का शिखर 51 फीट ऊंचा है और इस पर इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1777 में पांच पंडप बनवाए थे. बाद में 1853 में पंजाब के राजा रणजीत सिंह ने मंदिर के शिखरों को 22 टन सोने से स्वर्णमंडित करवाया था. खास बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब इसे विस्तार देने का संकल्प लिया तो देखते ही देखते मात्र दो सालों में कॉरीडोर के रुप में भव्य मंदिर बनकर तैयार हो गया। मंदिर में दर्शन और पूजन के लिए पूरे साल शिव भक्तों की भारी भीड़ जमा रहती है. चुनावी जीत से लेकर आम जीवन में चमत्कार की ख्वाहिश लिए लोग यहां न सिर्फ देश बल्कि विदेश से खिंचे चले आते हैं.
कहते है काशी में स्थित ज्योतिर्लिंग को शिवभक्त बाबा विश्वनाथ के रूप में इसलिए पूजते हैं क्योंकि वे सभी भक्तों को समान रूप से अपना आशीर्वाद देते हैं. देवी-देवता, दैत्य, किन्नर, गंधर्व से लेकर एक आम आदमी तक उनकी पूजा करके उनसे मनचाहा वरदान पा सकता है. हिंदू मान्यता के अनुसार काशी विश्वनाथ मंदिर में आदि शंकराचार्य से लेकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस, गोस्वामी तुलसीदास, संत एकनाथ, जैसे सिद्ध संतों ने दर्शन और पूजन किया था. काशी में आने वाले हर भक्त को बाबा विश्वनाथ उनकी मुक्ति का तारक मंत्र प्रदान करते हैं
.घाटों के बगैर गंगा अधूरी
जिस तरह गंगा के बिना काशी की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह घाटों के बगैर गंगा अधूरी हैं। यहां के घाट धर्म व ज्ञान के केंद्र रहे हैं। अपनी गौरवशाली अतीत व संस्कृति को दर्शाते हैं काशी के घाट। घाटों पर कहीं बिन्दु माधव मंदिर है तो कहीं बूंदी परकोटा महल। छः मील की परिधि में फैले प्रेक्षागृह की तरह शोभायमान सौ से अधिक गंगा घाटों की अलग-अलग महत्व है। चमत्कार की ढेरों की खूबिया समेटे इन घाटों की कहानियां भी कुछ न कुछ कहती है।
मुंडन
से लगायत मुखाग्नि तक के संस्कारों
के बीच छोटा से
छोटा व बड़े से
बडा उत्सव-महोत्सव भी इन घाटों
पर ही मूर्तरूप लेते
हैं। जी हां, दुनिया
की प्राचीनतम धर्म एवं अध्यात्म
की नगरी काशी की
विशेषता को परिलक्षित करते
हैं गंगा घाट। यहां
के गंगा घाट ही
काशी को मोक्षदाययिनी दर्जा
दिलाते है। तभी तो
गंगा तट पर बसी
काशी को तीनों लोकों
से न्यारी कहा जाता है।
यहां के पग-पग
में बसते है बाबा
विश्वनाथ। कोई ऐसी जगह
नहीं, जहां महादेव का
लिंग न हो। कोई
ऐसा मुहल्ल नहीं जहां चार-छह मंदिर न
हो। तभी तो यहां
की रग-रग में
रची-बसी है आस्था।
जहां महादेव संग आदि शक्ति
जगत जननी मां भगवती
जगदम्बिका स्वयं घाटों पर हर क्षण
विराजमान रहती है।
सवा तीन सालों में 16.46 करोड़ भक्तों ने किए दर्शन
काशी में ही
वेद व्यास ने चारों वेदों
का सर्वप्रथम उपदेश दिया था। यहां
56 विनायक हैं। इसके अलावा
मणिकर्णिका तीर्थ की स्थापना, ढुंढिराज
गणोश की प्रथम शिव
स्तुति, अष्ट भैरव की
स्थापना, भगवान शंकर का 64 योगिनियों
को काशी में भेजना,
भोलेनाथ के अष्ट मातृकाओं
की स्थापना, महाकवि कालिदास की शिव स्तुति
आदि का वर्णन भी
धाम की पट्टिकाओं पर
है। श्रीकाशी विश्वनाथ धाम में राग-विराग दोनों ही अपनी अलौकिक
आभा के साथ सुभाषित
व प्रकाशित हो उठा है।
13 दिसंबर 2021 को जब मोदी
ने 5,27,730 वर्ग फीट में
फैले कारीडोर यानी विस्तारित श्रीकाशी
विश्वनाथ धाम देश को
समर्पित किया तो हर
रोज शिवभक्तों का रेला उमड़ने
लगा है। श्री काशी
विश्वनाथ मंदिर न्यास के मुख्य कार्यपालक
अधिकारी विश्वभूषण मिश्र ने बताया कि
13 दिसंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने श्री काशी
विश्वनाथ धाम के लोकार्पण
किया था। इसके बाद
से 16 जून 2024 तक 16.46 करोड़ भक्त श्री
काशी विश्वनाथ मंदिर में शीश नवा
चुके हैं। खास यह
हे कि वित्तीय वर्ष
2017-18 में आय 22 से 23 करोड़ के आसपास
थी, जो 2023-24 में बढ़कर 86 करोड़
हो चुकी है। हाल
ही में एक भक्त
ने 32 किलों सोना दिना है,
जिजसे अब मंदिर का
गर्भगृह भी स्वर्णजड़ित हो
गया है।
उज्जयिन्यां
महाकालमोंकारं
परमेश्वरम्।।
केदारं
हिमवत्पृष्ठे
डाकियां
भीमशंकरम्।
वाराणस्यांच
विश्वेशं
त्र्यम्बकं
गौतमीतटे।।
वैद्यनाथं
चिताभूमौ
नागेशं
दारूकावने।
सेतूबन्धे
च
रामेशं
घुश्मेशंच
शिवालये।।
द्वादशैतानि
नामानि
प्रातरूत्थाय
यः
पठेत्।
सप्तजन्मकृतं
पापं
स्मरणेन
विनश्यति।।
यं
यं
काममपेक्ष्यैव
पठिष्यन्ति
नरोत्तमाः।
तस्य
तस्य
फलप्राप्तिर्भविष्यति
न
संशयः।।
भक्तों का है अटूट नाता
-मंदिर की दीवारों पर
की गई शिल्पकारी शिव
भक्ति का उत्कृष्ठ नमूना
है। कहते हैं सृष्टि
की रचना के समय
भी यह शिवलिंग मौजूद
था। ऋग्वेद में भी इसके
महत्व का बखान किया
गया है। पतित पावनी
मां गंगा साक्षात बाबा
विश्वनाथ से चंद कदम
की दूरी पर बहती
हैं। सोमवार का दिन बाबा
को बहुत प्रिय है।
काशी में मां गंगा
के जल से भगवान
भोलेनाथ का जलाभिषेक करने
से जन्म-जन्मांतर के
पापों से मुक्ति मिल
जाती है।
काशी ही एक ऐसा तीर्थस्थल है जहां महादेव के दो रूपों का दर्शन होता है। खासियत यह है कि महादेव के दोनों रुपों को बाबा विश्वनाथ के नाम से पुकारा जाता है। पहला दिव्य मंदिर मां गंगा किनारे स्थापित है तो दुसरा काशी हिन्दू विश्व विद्यालय परिसर में। मान्यता है कि अगर कोई भक्त बाबा विश्वनाथ के दरबार में हाजिरी लगाता है तो उसे जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। बाबा का आशीर्वाद अपने भक्तों के लिए मोक्ष का द्वार खोल देता है। ऐसी मान्यता है कि एक भक्त को भगवान शिव ने सपने में दर्शन देकर कहा था कि गंगा स्नान के बाद उसे दो शिवलिंग मिलेंगे और जब वो उन दोनों शिवलिंगों को जोड़कर उन्हें स्थापित करेगा तो शिव और शक्ति के दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी और तभी से भगवान शिव यहां मां पार्वती के साथ विराजमान हैं।
एक दूसरी मान्यता है कि मां भगवती ने खुद महादेव को यहां स्थापित किया था। सोमवार को चढ़ाए गए जल का पुण्य विशेष फलदायी होता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में मौजूद काशी विश्वनाथ मंदिर कहने को नया है, लेकिन इस मंदिर का भी महत्व उतना ही है जितना पुराने काशी विश्वनाथ का। नए विश्वनाथ मंदिर के बाबत कहा जाता है कि एक बार पंडित मदन मोहल मालवीय जी ने बाबा विश्वनाथ की उपासना की, तभी शाम के समय उन्हें एक विशालकाय मूर्ति के दर्शन हुए, जिसने उन्हें बाबा विश्वनाथ की स्थापना का आदेश दिया। मालवीय जी ने उस आदेश को भोले बाबा की आज्ञा समझकर मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। लेकिन बीमारी के चलते वो इसे पूरा न करा सके। तब मालवीय जी की मंशा जानकर उद्योगपति युगल किशोर बिरला ने इस मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। मंदिर में लगी देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों का दर्शन कर लोग जहां अपने आप को कृतार्थ करते हैं, वहीं मंदिर के आस-पास आम कुंजों की हरियाली एवं मोरों की आवाज से भक्त भावविभोर हो जाते हैं। इस भव्य मंदिर के शिखर की सर्वोच्चता के साथ ही यहां का आध्यात्मिक, धार्मिक, पर्यावरणीय माहौल दुनियाभर के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। विश्वविद्यालय के प्रांगण में होने के कारण खासकर युवा पीढ़ी के लिए यह मंदिर विशेष आकर्षण का केंद्र बन चुका है।
वैसे तो काशी
विश्वनाथ ज्योतिर्लिग के संबंध में
कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथानुसार
जब भगवान शंकर पार्वती जी
से विवाह करने के बाद
कैलाश पर्वत रहने लगे तब
पार्वती जी इस बात
से नाराज रहने लगीं। उन्होंने
अपने मन की इच्छा
भगवान शिव के सम्मुख
रख दी। अपनी प्रिया
की यह बात सुनकर
भगवान शिव कैलाश पर्वत
को छोड़ कर देवी
पार्वती के साथ काशी
नगरी में आकर रहने
लगे। इस तरह से
काशी नगरी में आने
के बाद भगवान शिव
यहां ज्योतिर्लिग के रूप में
स्थापित हो गए। तभी
से काशी नगरी में
विश्वनाथ ज्योतिर्लिग ही भगवान शिव
का निवास स्थान बन गया। माना
यह भी जाता है
कि काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिग
किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या
से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि
यहां निराकार परमेश्वर ही शिव बनकर
विश्वनाथ के रूप में
साक्षात प्रकट हुए।
खास बात यह है कि यहां बाबा विश्वनाथ की पांच बार आरती होती है। पुजारियों का कहना है कि आरती शब्द का अर्थ है, व्यापक और तल्लीन हो जाना। भगवान शिव ब्रह्मांड के पालनहार हैं। इन पांच आरतियों में शामिल होने वाला भक्त सौभाग्यशाली होता है। कहा जाता है कि उसे पापों से भी मुक्ति मिल जाती है। साथ ही विश्व में वास्तविक ऊर्जा का संचार होता है। सबसे पहले मंगला आरती भोर में दो बजे से तीन बजे तक होती है। इसे ‘ब्रह्म मुहूर्त‘ की आरती भी कहते हैं। माना जाता है कि इस समय यक्ष, गंदर्भ, नारद, ब्रह्मा, विष्णु सभी देवी-देवता मौजूद रहते हैं। इस दौरान देवगण गायन और वादन भी प्रस्तुत करते हैं। कोई वीणा बजाता है तो कोई राग गाता है। मंगला आरती में बाबा विश्वनाथ से पूरे ब्रह्मांड के कल्याण और मंगल की प्रार्थना की जाती है। बाबा का ये स्वरुप मंगलकारी होता है। मंगला आरती के बाबा पुनः औघड़दानी बनकर महाश्मशान मणिकर्णिका चले जाते हैं। दुसरी आरती को मध्याह्न की भोग आरती होती है, जो दोपहर साढ़े 11 से 12 बजे तक होती है। इस आरती के दौरान बाबा विश्वनाथ को पंचामृत से स्नान कराया जाता है, ताकि श्रृष्टि अन्न, धन्य और परोपकार से फलती-फूलती रहे।
इसके बाद भव्य श्रृंगार होता है। उन्हें फल, फूल, मेवा, दही, मिष्ठान, दूध और भांग का भोग लगाया जाता है। भगवान भोग ग्रहण करने के लिए खुद इस आरती में शामिल होते हैं। तीसरी आरती को सप्तऋषि आरती कहते है, यह सांय पौने 7 से साढ़े 7 बजे तक होती है। इस आरती के समय सप्त ऋषि मंडल और सप्त ऋषियों का समूह मौजूद रहता है। इस दौरान सभी बाबा का गुणानवाद करते हैं। साथ ही डमरू और घंटे की ध्वनि से पूरा परिसर गूंज उठता है। मृदंग की झंकृत ताल से निबद्ध होकर बाबा विश्वनाथ को पद्यात्मक आरती समर्पित की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि महादेव को संगीत काफी प्रिय है। चौथी आरती को श्रृंगार आरती कहा जाता है जो रात नौ बजे से 10 बजे तक होती है। इस आरती में बाबा विश्वनाथ राज वेश धारण करते हैं। साथ ही राजा के रूप में आरती में शामिल होते हैं। इसमें राजोपचार पूजन होता है। बाबा विश्वनाथ श्रृष्टि के राजा हैं। उन्हें सोने का मुकुट पहनाया जाता है। बाबा स्वर्ण आभूषण धारण करते हैं। साथ ही हीरा जणित छत्र और चांदी का नाग लगाकर महाराज की तरह अलंकरण होता है। पांचवीं आरती शयन आरती होती है, जो रात साढ़े 10 से 11 बजे तक होती है। बाबा विश्वनाथ सारे संसार के लोकपाल हैं। दुनिया में मनुष्य, प्राणी, पशु-पक्षी सभी को जगाना और सुलाना उन्हीं के हाथ में है। काशी में भक्त महादेव को शयन कराते हैं। इसके लिए वे गान भी करते हैं। शयन आरती में बाबा को सभी के जीवन में सुखमय निद्रा के लिए समर्पित किया जाता है।
पहली किरण काशी में ही पड़ी
प्रातःकाल सुनहरी धूप में चमकते
गंगा तट के मंदिर,
मंत्रोच्चार और गायत्री जाप
करते ब्राह्मणों और पूजा-पाठ
में लीन महिलाओं के
स्नान- ध्यान के क्रम के
साथ ही दिन चढ़ता
जाता है, जो गोधूली
बेला में गंगा आरती
के बाद देर रात
तक दर्शन-पूजन के बीच
आबाद रहता है। कहते
है जब पृथ्वी का
निर्माण हुआ तो प्रकाश
की प्रथम किरण काशी की
धरती पर पड़ी। तभी
से काशी ज्ञान तथा
आध्यात्म का केंद्र माना
जाता है। गंगा हमारी
सांस्कृतिक माता है तथा
हमारी पवित्रता, मुक्ति एवं सांस्कृतिक प्रवाह
की निरंतरता की प्रतीक है।
पुष्प और पूजन सामग्रियों
से सजे गंगा तट
तथा पानी में तैरते
फूलों की शोभा मनमोहक
होती है। घाटों पर
चारों पहर दिव्य छटा
देखने को मिलती है।
आध्यात्मिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन
घाटों की शोभा में
चार चांद लगाते हैं।
कहा जा सकता है
काशी का असली जीवन
घाटों पर ही बसता
है। गंगा गोमुख से
निकलीं। इस नदी का
प्रवाह उत्तर से पश्चिम की
ओर रहा किंतु काशी
आकर मां गंगा ने
विश्वेश्वर को प्रणाम किया
और फिर प्रवाह न
सिर्फ स्थिर हो गया बल्कि
उत्तरवाहिनी हो गईं। इसमें
कई घाट मराठा साम्राज्य
के अधीनस्थ काल में बनवाये
गए थे। वर्तमान वाराणसी
के संरक्षकों में मराठा, शिंदे
(सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार
रहे हैं। अधिकतर घाट
स्नान-घाट हैं, कुछ
घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। कई
घाट किसी कथा आदि
से जुड़े हुए हैं,
जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि कुछ
घाट निजी स्वामित्व के
भी हैं। पूर्व काशी
नरेश का शिवाला घाट
और काली घाट निजी
संपदा हैं। बूढ़े, औरतें
और बच्चे सूर्य निकलने से पहले ही
गंगा के किनारे पहुंच
जाते हैं। सूर्य की
पहली किरण निकलते ही
ये लोग गंगा में
डुबकी लगाते हैं। वैसे भी
प्रातः निकलते सूर्य को देखना एक
उत्तम दृश्य होता है। हजारों
तीर्थ यात्रियों, श्रद्धालुओं, सैलानियां, विदेशियों को एक साथ
नहाते हुए देखना एक
भव्य दृश्य उपस्थित करता है। बच्चे,
बूढ़े, अमीर, गरीब, जवान लोग, मर्द,
औरतें, अपने सामाजिक स्तर
को भुला कर, अपने
कपड़े अलग रख कर,
नहाते हुए एक दूसरे
पर पानी उछालते हुए,
हाथ जोड़ कर सूर्य
को नमस्कार करते हुए, देखते
बनता है, मानो सारा
विश्व उमड़ पड़ा है।
नौकायन द्वारा काशी के घाटों
का नजारा बरबस ही आकर्षित
करता है।
वरुणा व अस्सी से बना वाराणसी
हरिवंशपुराण के अनुसार काशी
को बसाने वाले भरतवंशी राजा
‘काश‘ थे। काशी उस
समय विद्या तथा व्यापार दोनों
का ही केंद्र थी।
काशी के सुंदर और
मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है।
बुद्ध पूर्वकाल में काशी देश
पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल
का बहुत दिनों तक
राज्य रहा। ‘काशी‘ नगरनाम के अतिरिक्त एक
देश या जनपद का
नाम भी था। उसका
दूसरा नगरनाम ‘वाराणसी‘ था। इस प्रकार
काशी जनपद की राजधानी
के रूप में वाराणसी
का नाम धीरे-धीरे
प्रसिद्ध हो गया और
कालांतर में काशी और
वाराणसी ये दोनों अभिधान
समानार्थक हो गए। वरुणा
और असि नामक नदियों
के बीच पांच कोस
में बसी होने के
कारण इसे वाराणसी भी
कहते हैं। गौतम बुद्ध
के समय में काशी
राज्य कोसल जनपद के
अंतर्गत था। कोसल की
राजकुमारी का मगधराज बिंबिसार
के साथ विवाह होने
के समय काशी को
दहेज में दे दिया
गया था। बुद्ध ने
अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के संनिकट सारनाथ
में दिया था जिससे
उसके तत्कालीन धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व
का पता चलता है।
बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु
ने काशी को मगध
राज्य का अभिन्न भाग
बना लिया और तत्पश्चात्
मगध के उत्कर्षकाल में
इसकी यही स्थिति बनी
रही। बौद्ध धर्म की अवनति
तथा हिंदू धर्म के पुनर्जागरण
काल में काशी का
महत्व संस्कृत भाषा तथा हिंदू
संस्कृति के केंद्र के
रूप में निरंतर बढ़ता
ही गया, जिसका प्रमाण
पुराणों में है। चीनी
यात्री फाह्यान (चौथी शती ई.)
और युवानच्वांग अपनी यात्रा के
दौरान काशी का विस्तार
से वर्णन किया है।
मुगल आक्रांता भी कर चुके है आक्रमण
भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भांति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा। 1193ई में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश भी, जो इस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के ही अंक में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुनः वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया। काशी पुनः अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। लेकिन औरंगजेब ने फिर से काशी पर अपना आधिपत्य जमाना चाहा। उसने काशी के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करा दिया।
मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मस्जिद बनवाई जो आज भी है। खास यह है कि न्यायालय ने भी एएसआई रिर्पोटों व साक्ष्यों के आधार पर माना है कि ज्ञानवापी ही बाबा विश्वेश्वरनाथ है। यह अलग बात है कि दावों प्रतिदावों के बीच अब मामला न्यायालय में अटका पड़ा है। मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफदरजंग ने काशी पर अपना शासन चलाया, लेकिन उसके पौत्र ने काशी को ईस्ट इंडिया कंपनी के हवाले कर दिया। काशी नरेश के पूर्वज बलवंत सिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंध विच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज से लोहा लिया था, इन्हीं के पुत्र थे। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् काशी की रियासत भारत राज्य का अविच्छिन्न अंग बन गई।
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