खुद को खोजने का अवसर है दिवाली
प्रकाश
का
वास्तविक
अर्थ
अंधेरे
की
समाप्ति
है।
अंधेरा
सदैव
मानव
जाति
के
लिए
चुनौती
रहा
है।
यह
चुनौती
चाहे
निरक्षरता
के
रूप
में
रही
हो
या
अंधविश्वास,
गरीबी,
धार्मिक,
कट्टरता
के
रूप
में।
पर
यह
भी
सच
है
कि
मनुष्य
ने
इसे
कभी
हार
नहीं
मानी
और
निरंतर
संघर्षशील
रहा।
ज्योति
ही
अग्नि
है,
इसलिए
ज्योति
जनजीवन
के
प्रकाश
की
आहुति
है।
ज्योति
का
सरलतम
रूप
दीपक
है।
वह
हमारी
चेतना
का
प्रतिबिंब
भी
है।
स्त्री
हो
या
पुरुष
रोशनी
का
महत्व
सभी
के
लिए
है।
दीपावली
जीवन
की
भाग
दौड़
में
हमें
खुद
को
खोजने
और
जानने
का
अवसर
देती
है।
ये
रीति
रिवाज
व
धार्मिक
अनुष्ठान
हमसे
हमारा
परिचय
करते
हैं।
जब
हम
दीपावली
पर
गजानन
जी,
मां
लक्ष्मी
और
मां
सरस्वती
की
आराधना
करते
हैं
तो
एक
प्रकार
से
ईश्वर
के
प्रति
कृतज्ञा
प्रकट
करते
हैं।
इससे
उल्लास
कई
गुना
बढ़
जाता
है।
यह
उल्लास
हमें
जीवन
की
राहों
पर
उमंग
के
साथ
आगे
बढ़ाने
के
लिए
प्रेरित
करता
है।
दीपावली
पर
पूजन
के
साथ
अन्य
प्रयास
हमें
हमारी
समृद्धि
का
आभास
कराते
हैं।
आत्मविश्वास
बढ़ाते
हैं।
कहते
हैं
कि
जब
हम
अभाव
का
अनुभव
करते
हैं
तो
अभाव
होता
है
और
जब
हम
समृद्धि
का
अनुभव
करते
हैं
तो
सचमुच
समृद्धि
को
पा
लेते
हैं।
यह
संपन्नता
सिर्फ
धन
की
ही
नहीं
बल्कि
बुद्धि
की
भी
होती
है।
ज्ञान
की
भी
होती
है।
एक
भी
ना
हो
तो
अधूरी
सी
लगती
है
दीपावली।
यह
बात
समझने
की
है।
बुद्धि,
ज्ञान
और
शुभ
परस्पर
विरोधी
नहीं
पूरक
हैं।
हम
अक्सर
हमारी
संस्कृति
संपन्नता
को
जीवन
के
सार्थकता
मापने
का
आधार
बना
लेते
हैं।
संपन्नता
को
लेकर
सबका
अपना
नजरिया
है।
लेकिन
दीपावली
का
त्योहार
संपन्नता
के
अर्थ
को
बहुत
गहराई
से
सीखाता
है।
जैसे
परिवार
में
यदि
स्त्री
संतुष्ट
और
सुखी
है
तो
वह
परिवार
भी
बहुत
सुखी
होगा।
इसी
प्रकार
जिस
परिवार
में
ज्ञान
को
महत्व
दिया
जाता
है
वहां
दीपोत्सव
की
आभा
ही
अनोखी
होगी,
क्योंकि
बच्चे
संस्कार
और
संस्कृति
मां
से
ही
सीखते
हैं
सरेश गांधी
दीवाली का नाता भगवान
श्रीराम से है, जिन्हें
मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है।
जो कुरीतियों से जुझते हुए
सत्य के लिए लड़े।
जिन्होंने वनवासियों, भालू-बंदरों और
पिछड़ों को अपने से
जोड़ते हुए उन्हें एक
वृहद रुप एवं बड़ी
शक्ति में तब्दील कर
दिया। समुद्र पर पुल बनाने
से लेकर लंका जैसे
वैभवपूर्ण राज्य के रावण जैसे
प्रतापी राजा के पाप
का अंत करने तक
इन छोटे-छोटे जीवों
का साथ लिया। दीपावली
के दिन चंद्रमा रहित
आकाश से उत्पंन घने
अंधकार का मुकाबला कोई
एक बड़ा सूरज नहीं
, बल्कि हजारों-लाखों छोटे-छोट दीपक
मिलकर करते है। मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम जब तक इस
धरती पर रहे, तब
तक उस सत्य के
लिए जिये, जो उनकी प्रजा
के चित्त में आनंद पैदा
कर सके। श्रीराम ने
अपने समय की कुरीतियों
का जमकर विरोध किया।
वे जड़ता के विरुद्ध
परिवर्तन के प्रतीक थे।
उन्होंने यह भी साबित
किया कि पारिवारिक प्रेम
से सामाजिक मर्यादा ज्यादा जरूरी है।
वैसे भी दीवाली
की पहली शर्त है
रोशनी की, अंधेरे को
मिटा देना। अंधेरा फिर चाहे अशिक्षा
का हो, अभाव का
या भ्रम का या
परंपरा के नाम पर
समाज में कैंसर की
तरह जड़े जमा चुके
कुरीतियों का। अंधेरे की
इस कालिमा से अपने-अपने
अंदाज में लड़ रहे
रोशनी के छोटे-छोटे
दीयों को संवारने एवं
शक्ति देने की। अंधेरे
को कोसना बेकार है, जरुरत है
एक दीया जलाने की।
अर्थात सही मायनों में
दीवाली तभी सार्थक होंगी
जब हम छोटी-छोटी
बुराईयों की तरफ ध्यान
देने के बजाय स्वच्छता,
शुद्ध पर्यावरण, शिक्षित समाज का संकल्प
लें और तमस से
ज्योति की ओर प्रस्थान
करें। क्योंकि दीपक का प्रकाश
भले ही सूर्य जितना
न हो, लेकिन मनुष्य
को प्रेरणा देता है कि
घोर अंधकार में भी वह
एक दीपक जैसी छोटी
इकाई की तरह अपने
जीवन काल में संघर्ष
करके आसपास के अज्ञान और
अन्याय रूपी अंधकार को
दूर कर लोगों को
उजाला दे सकता है।
आज भारत में बुद्धिमान होने के बजाय अमीर होने की कामना ज्यादा दिखाई देती है। जब हम खुद को नॉलेज इकोनॉमी बताते हैं तो हम यह कहते है कि सरस्वती की मदद से लक्ष्मी को बुलायेंगे। लेकिन बीते दिनों हमने ज्ञान का उपयोग सिर्फ चतुर होने में किया है बुद्धिमान होने में नहीं। शिक्षा नौकरी पाने की एक औजार बन गयी है, वह बुद्धि प्राप्त करने की राह नहीं रही। प्राचीन ग्रंथ हमें चेताते है कि लक्ष्मी की अनुपस्थिति के साथ ही उसकी उपस्थिति भी एक चिंता की बात है। जब लक्ष्मी आती है तो वह सरस्वती को जाने के लिए कहती है।ऐसा तब नहीं होता जब हमारा आचरण धर्म सम्मत रहें। जब हम आदर्श की राह चलें। हमें अपने आचरण के बारे में इस समय सोचना चाहिए। उत्सव का और एक अर्थ है- अपने मतभेदों को मिटा कर अद्वैत आत्मा की ज्योति से अपने सच्चिदानंद स्वरूप में विश्राम करना।
दिव्य समाज की स्थापना के लिए हर दिल में ज्ञान व आनंद की ज्योति जलानी होगी। और वह तभी संभव है, जब सब एक साथ मिल कर ज्ञान का उत्सव मनाएं। बीते हुए वर्ष के झगड़े-फसाद और नकारात्मकताओं को छोड़ कर अपने भीतर उदित हुए ज्ञान पर प्रकाश डाल कर एक नई शुरुआत करना ही दीपावली है। जब सच्चा ज्ञान उदित होता है, तब उत्सव होता है। उत्सव में अधिकतर हम अपनी सजगता या एकाग्रता खोने लगते हैं। उत्सव में सजगता बनाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने प्रत्येक उत्सव को पावन बना कर पूजा विधियों के साथ जोड़ दिया। दीवाली का आध्यात्मिक पहलू उत्सव में गहराई लाता है। प्रत्येक उत्सव में अध्यात्म होना चाहिए, क्योंकि अध्यात्म के बिना उत्सव छिछला होता है। जो ज्ञान में नहीं हैं, उनके लिए वर्ष में एक बार ही दिवाली आती है, किंतु जो ज्ञानी हैं, उनके लिए प्रत्येक दिन, प्रतिक्षण दिवाली है। इस दिवाली को ज्ञान के साथ मनाएं और मानवता की सेवा करने का संकल्प लें।स्वच्छता का संकल्प
इस दिन चारों ओर घना अंधेरा छाया रहता है जो नन्हे से दीयों की रोशनी से ही दूर होता है। इसके अंतर्गत घर की साफ-सफाई करके बंदनवार बांधना, मांडने-रंगोली मांडना, स्वयं का रूप निखारना, धनलक्ष्मी की पूजा करना से लेकर भाई-बहन का रिश्ता निभाने और जान-पहचान वालों से मेल मुलाकात करने तक बहुत कुछ आ जाता है। इस त्योहार में झाडू से लेकर चांदी के सिक्के तक हर छोटी बड़ी चीज महत्वपूर्ण है, पूजन योग्य है। दीपावली वो अवसर है जो अमावस को भी रोशन कर देता है। इसमें बहुत बड़ा संदेश छुपा है, ‘दीप जलाओ-अंधेरा भगाओ‘ का संदेश। कहते हैं देवी लक्ष्मी को गंदगी नहीं पसंद है, वे वहां नहीं पधारतीं जहां कूड़ा-कड़कट और मलेच्छ हो, इसीलिए दीपावली के पूर्व घरों के हर ओने-कोने की सफाई कर ली जाती है ताकि लक्ष्मीजी प्रवेश कर सकें। मगर, विडंबना यह है कि लक्ष्मी पूजक भारतीय अपने घर से बाहर निकलते ही यह बात भूल जाते हैं और दुनिया भर में सबसे ज्यादा गंदगी फैलाने वाले माने जाते हैं।
हम अपने सड़क,
गांव, शहर, परिवेश को
बेहद गंदा रखते हैं।
जब पूरा जगत अंधेरे
में डूबा होता है,
पूरी सृष्टि विचारशून्य होती है, उस
समय लक्ष्मी जी प्रकट होती
हैं। अरबों दियों की रोशनी में
प्रकाश फैल जाता है।
जब तक लक्ष्मी जी
का आगमन नहीं होता,
तब तक अलक्ष्मी अर्थात्
दरिद्रता का राज होता
है। दीपावली बुराई पर अच्छाई की,
अंधकार पर प्रकाश की
और अज्ञान पर ज्ञान की
विजय का त्योहार है।
इस दिन घरों में
की जाने वाली रोशनी
न केवल सजावट के
लिए होती है, बल्कि
वह जीवन के गहरे
सत्य को भी अभिव्यक्त
करती है। हरेक दिल
में प्रेम और ज्ञान की
लौ प्रज्ज्वलित करें और सभी
के चेहरों पर सच्ची मुस्कान
लाएं। प्रत्येक मनुष्य में कुछ सद्गुण
होते हैं। आपके द्वारा
प्रज्जवलित प्रत्येक दीपक इसी का
प्रतीक है। कुछ में
धैर्य होता है, कुछ
में प्रेम, शक्ति, उदारता तो अन्य में
लोगों को साथ मिला
कर चलने की क्षमता
होती है। आप में
स्थित अव्यक्त गुण दीपक के
समान हैं। केवल एक
ही दीप जला कर
संतुष्ट न होंय हजारों
दीप प्रज्ज्वलित करें, क्योंकि अज्ञान के अंधकार को
दूर करने के लिए
अनेक दीपक जलाने होंगे।
ज्ञान की ज्योति प्रज्जवलित
होने से आत्मस्वरूप के
सभी पहलू जाग्रत हो
जाते हैं। और उनका
जाग्रत और प्रकाशित हो
जाना ही दीपावली है।
उजाला बनाम अंधेरा
मानव मात्र के कल्याण एवं मंगल के लिए सामंजस्यपूर्ण जीवन प्रणाली और प्रगतिशील सामाजिक संस्कृति को स्वीकारना होगा। हम सभी की जिम्मेदारी है कि सभी वर्गो को एक साथ करके पूरे जनमानस के चारों ओर छाए अन्धकार को दूर करें और आलोक पर्व मनाएं तो तमसो मां ज्योतिर्गमय, सच सिद्ध होगा। श्रमपूर्ण संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा ही भारत को अजेय प्रकाशवानों की राष्ट्र बना पायेगी। जीवन में मानवीय मूल्यों की स्थापना करना, मानव जीवन में वास्तविक मूल्यों का प्रकाश भरना ही वक्त की आवाज है। सदाचार बनाम भ्रष्टचार, सच्चरित्रता बनाम चरित्रहीनता, साक्षरता बनाम निरक्षरता, मूल्य बनाम अवमूल्यन आदि की परिस्थिति से गुजरते हुए हमारा जीवन व्यतीत होता है। सभी शबनामों का मर्म एक ही है उजाला बनाम अंधेरा। आज की पीढ़ी में यह संस्कार पश्चिमीकरण की आंधी में शिथिल अवश्य होने लगे हैं, पर समाप्त नहीं हुए हैं।
हां, मात्रा का भेद जरूर
आ गया है। समय
की धारा को मोड़ने
का साहस रखने वाला
मनुष्य स्वयं ही खो गया
है। पर जो नया
सृजन कर रहा है
उसे अन्धकार कब तक दबा
सकता है। वह तो
अन्धकार को चीरकर बाहर
निकल जाएगा और पूरे वातावरण
में आलोक भर देगा।
समझने की बात है
कि घर के मुंडेर
पर दीपक इसलिए नहीं
रखते कि पड़ोसी से
प्रतियोगिता करनी है। मेरा
घर जगमग हो तो
पड़ोसी का भी हो।
मेरे आंगन में ही
अकेली रोशनी क्यों हो, दूसरे के
आंगन में मेरे आंगन
से ज्यादा रोशनी हो। आस-पास
हर घर में दीपक
जले इसकी एक अघोषित
चिंता और व्यवस्था का
संस्कार ले कर बड़े
हुए हैं हम, इस
मूलभावना को हमें नहीं
भूलना चाहिए। त्योहार हमें त्याग सिखाते
हैं। समाज में दूसरे
के प्रति संवेदनशीलता और सहअस्तित्व से
जीना सिखाते हैं।
सच के साथ होती है मां लक्ष्मी
जब लोग कहते
है कि लक्ष्मी और
सरस्वती कभी साथ नहीं
रहती तो मैंने पाया
कि उनका आशय यही
होता है कि धनवान
लोग हमेसा कम विद्वान होते
है और विद्वान ज्यादातर
गरीब ही होता है।
लेकिन इस वाक्य का
गंभीर अर्थ भी है।
वह यह कि अगर
आप वाकई विद्वान है
तो धन के सही
अर्थ को समझते है
और उसका पूर्ण उपयोग
करते है। तब आप
धन को कब्जे में
नहीं रखना चाहते और
उसे अपने उपर शासन
करने का मौका नहीं
देते। जो विद्वान है
वो जानते है कि धन
से सुरक्षा का बोध नहीं
आ सकता और वह
आपको शक्तिशाली भी नहीं बना
सकता, लेकिन वह आपको प्रसंनता
दे सकता है। कई
बार हम यह देखकर
थोड़ा क्रोधित होते हैं कि
हम जिन लोगों को
पसंद नहीं करते हैं
लक्ष्मी उन्हीं के पास है।
ऐसे लोग जिन्हें हम
अपराधी और दुराचारी मानते
है। हम चाहते है
कि लक्ष्मी को उन अनैतिक
और पथभ्रष्ट लोगों का त्याग कर
देना चाहिए। लेकिन वे उनके साथ
बनी रहती है और
यह हमें बहुत नागवार
होता है। पौराणिक कथाओं
में सभी खलनायक धनवान
रहे। रावण सोने की
लंका में रहता था
और दुर्योधन अपनी मृत्यु तक
राजसी सुखों के बीच रहा।
इसके विपरीत राम को बिना
किसी गलती के चौदह
सालों तक वन में
बीताने पड़े और पांडवों
का तो जन्म ही
जंगल में हुआ और
वे घोर गरीबी में
लंबे समय तक जंगल
में ही रहे। आखिर
ऐसा क्यों? क्या लक्ष्मी का
बुरे लोगों के प्रति कोई
आकर्षण है? देखा जाय
तो प्राचीन समय में साधुओं
ने धन के स्वभाव
के बारे में काफी
गहराई से सोचा है।
उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त
किया उसे कथाओं, लक्ष्मी
के प्रतीकों और परंपराओं के
जरिए अगली पीढ़ी तक
पहुंचाया। लक्ष्मी जीवन के उन
चार लक्ष्यों में एक है
जो संतों ने हमें बताएं
है, अन्य तीन है
धर्म : जिनसे सामाजिक व्यवस्थाएं बनी है, काम
: जिसका उद्देश्य आनंद की खोज
है और मोक्ष यानी
आध्यात्मिक उत्कर्ष की राह। कुछ
ग्रंथ बताते है कि लक्ष्मी
हमेसा श्रीविष्णु का अनुपालन करती
है जो धर्म के
पालक हैं। लेकिन उनके
आगमन के साथ ही
लड़ाईया और दुख भी
आता है। तो यह
रहस्य आखिर है क्या?
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