Tuesday, 5 November 2024

‘‘छठ गीतों’’ से लोगों के दिलों में हमेशा रहेंगी शारदा सिन्हा

‘‘छठ गीतों’’ से लोगों के दिलों में हमेशा रहेंगी शारदा सिन्हा

अपनी मधुर आवाज से फैंस का दिल जीतने वाली शारदा अब हमेशा के लिए भले ही चुप हो गई हैं. लेकिन उनकी आवाज सदा चाहने वालों का मनोरंजन करती रहेगी। खासकर आस्था के महापर्व छठ से जुड़े उनके सुमधुर गीत उन्हें लोगों से दूर नहीं होने देंगी। सभी की यादों में वे जिंदा रहेंगी. उनके गाए मैथिली और भोजपुरी के लोकगीत पिछले कई दशकों से बेहद लोकप्रिय रहे हैं. यह संयोग नहीं महासंयोग है जिस छठ गीतों से उन्हें पहचान मिली, उसी छठ पर्व के दिन पंचत्तव में विलीन हो गयी। लेकिन शारदा सिन्हा का अंतिम छठ गीतदुखवा मिटाईं छठी मइयालोगों में उनकी मौजूदगी का एहसास कराती रहेगी। यह उनका आखिरी छठ गीत है. शारदा सिन्हा ने अपनी गायकी से परंपरा को जिंदा रखते हुए आधुनिकता को भी अपनाया है। वे सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय रहती हैं और अपने फैंस से जुड़ी रहती हैं। वे शाकाहारी हैं और स्वस्थ जीवनशैली में विश्वास रखती हैं 

सुरेश गांधी

बिहार कोकिलाकही जाने वालीं शारदा ने बॉलीवुड समेत, भोजपुरी फिल्मों के लिए भी गीत गाएं, लेकिन वो प्रमुख तौर पर अपने छठ गीतों के लिए बहुत पॉपुलर हुईं. अपने पूरे करियर में उन्होंने कुल 9 एल्बम में 62 छठ गीत गाए थे. उनके गीतों के बिना लोगों को छठ का त्यौहार अधूरा लगता है. शारदा का निधन छठ से ठीक पहले हुआ है. उनका निधन भोजपुरी लोक संगीत के लिए एक अपूरणीय क्षति है. उनके गाये छठ गीत सुनकर एक तरफ करोड़ों फैंस भक्ति की आस्था में हिलारे ले रहे है तो दूसरी तरफ उनके जाने का गम उन्हें मायुश कर रहा है। कहा जा सकता है उनके गीतों के बिना छठ पर्व का उत्सव अधूरा सा लगता है. उनके गाने छठ पूजा में एक अलग सा माहौल बना देते हैं. एक अलग सा रंग भर देते हैं. ऐसे में इस पर्व की शुरुआत के पहले ही दिन उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. बता दें, 2018 में उन्हें मल्टिपल मायलोमा होने की खबर सामने आई थी. ये एक घातक किस्म का ब्लड कैंसर है. तभी से लगातार उनका इलाज चल रहा था. उन्हें 26 अक्टूबर को एम्स, दिल्ली में भर्ती करवाया गया था. सितंबर में शारदा सिन्हा के पति, ब्रज किशोर का 80 साल की उम्र में, ब्रेन हैमरेज से निधन हो गया था. इस कपल की शादी को 54 साल हो चुके थे. रिपोर्ट्स में सामने आया कि पति के निधन से शारदा सिन्हा शॉक में हैं और तबसे उनकी तबियत भी और बिगड़ी है. 

शारदा सिन्हा ने केवल छठ पर्व के गीतों से, बल्कि बॉलीवुड को भी कई हिट गाने देकर लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई है. ’मैंने प्यार कियाका गानाकहे तोसे सजनाहमेशा यादगार रहेगी. उनके ये सदाबहार गाने कभी पुराने नहीं होंगे. ये फिल्म 1989 में आई थी और आज भी ये गाना बहुत सुना जाता है और पसंद किया जाता है. ’हम आपके हैं कौनका गानाबाबुल जो तुमने सिखायाआज भी बेटियों की विदाई पर गाया और बजाया जाता है. आज भी इस गाने को सुनने के बाद आंखें नम हो जाती हैं. ’गैंग्स ऑफ वासेपुरका गानातार बिजली से पतलेगाना आज भी बेहद पसंद किया जाता है, जिसको कई शादी ब्याह के संगीत में बजाया जाता है
आज
भी ये गाना शादियों की महफिल में रंग जमा देता है. शारदा सिन्हा ये कुछ ऐसे बॉलीवुड गाने हैं, जो हमेशा सुने जाते हैं और आगे भी सुने जाते रहेंगे. उनके ये गाने कभी पुराने नहीं होंगे. शारदा सिन्हा का सबसे फेमस छठ का गानाहे छठी मइयाहर साल इस पावन पर्व पर खूब सुना जाता है और छठ पूजा के माहौल में चार चांद लगा देता है. छठ के दौरान ये गाना हर जगह गूंजता रहता है, चाहे वो नदी का किनारा हो या गांव की गलियां. ये गीत लोगों के दिलों में एक खास जगह बना चुका है और इसे सुनते ही हर कोई छठ पर्व की भक्ति और आस्था से भर उठता है. उनका सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाला छठ का गानापहिले पहिल छठी मईयालोगों के दिलों में खास जगह रखता है. ये गीत करीब 5 मिनट का है और छठ की भावना को बेहद खूबसूरती से बयां करता है. इस गीत की मिठास और भावनाओं ने इसे हर साल छठ पर्व का अहम हिस्सा बना दिया है. बिना इस गीत के छठ पर्व अधूरा सा लगता है. शारदा सिन्हा की आवाज में ये गीत लोगों के मन में बस चुका है और हर छठ पर इसकी गूंज सुनने का आनंद ही अलग होता है.

सफरनामा

1 अक्टूबर 1952 को सुपौल, बिहार के सुपौल जिले के हुलास में जन्मीं शारदा सिन्हा ने अपने अधिकतर गाने मैथिली और भोजपुरी भाषाओं में गाए. उन्होंने बैचलर ऑफ एजुकेशन और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से म्यूजिक में डॉक्टरेट किया है. उनके पिता सुखदेव ठाकुर शिक्षा विभाग में सीनियर अधिकारी हुआ करते थे. शारदा सिन्हा के पति का नाम ब्रजकिशोर सिन्हा था. हाल ही में ब्रेन हैमरेज से उनकी मौत हुई थी. उनके दो बच्चे हैं. बेटे का नाम अंशुमान सिन्हा और बेटी का नाम वंदना है बचपन से ही संगीत का शौक था। उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत और प्रतिभा से खेतों से लेकर बड़े मंचों तक का सफर तय किया। उनके ससुराल वाले बेगूसराय के सिहमा गांव के थे, जहां उन्हें मैथिली लोकगीत सुनने का मौका मिला। यहीं से संगीत के प्रति उनका प्रेम और गहरा होता गया। शारदा सिन्हा ने 1974 में पहला भोजपुरी गाना गाया था. लेकिन इसके बाद उनका संघर्ष जारी रहा. फिर साल 1978 में उन्होंने छठ गीतउग हो सुरुज देवगाया. इस गाने ने रिकॉर्ड बनाया और यही से शारदा सिन्हा और छठ पर्व एक दूसरे के पूरक हो गए. करीब 46 साल पहले गाए इस गाने को आज भी छठ घाटों पर सुना जा सकता है. इसके बाद तो उन्होंने छठ गीतों की झडी लगा दी। हे छठी मैया आई ना दुआरिया, पहिले पहिले हम कईनी, कार्तिक मास इजोरिया, कोयल बिन, दुखवा मिटाईं छठी मइया, हो दीनानाथ, केलवा के पात पर उगलन सूरजमल झुके झुके जैसे गीत उन्हें बुलंदियों तक पहुंचा दिया। 

1990 में शारदा सिन्हा ने बॉलीवुड फिल्ममैंने प्यार कियामेंकहे तोसे सजनागीत गाया, जो जबरदस्त हिट हुआ. इस गीत ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में एक नया मुकाम दिलाया और तब से उनकी पहचान केवल लोक संगीत के गायन तक सीमित नहीं रही, बल्कि वे बॉलीवुड में भी एक प्रमुख गायिका बन गईं. इस फिल्म में सलमान खान के साथ इस गीत ने दर्शकों के बीच अपार लोकप्रियता हासिल की. इसके बाद, शारदा सिन्हा ने लोक संगीत की समृद्ध परंपरा को कायम रखते हुए अपनी गायकी जारी रखी, लेकिन हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि वे कभी भी द्विअर्थी गीत गाएं. उनका संगीत शुद्ध और भावनात्मक रूप से प्रामाणिक रहता था, जो उनके शास्त्रीय और लोक धारा के प्रति समर्पण को दर्शाता है. मैथिली, मगही, भोजपुरी और बज्जिका में गाए लोक गायिका शारदा सिन्हा के गीत पूर्वांचल के लोक पर्व की सांस्कृतिक पहचान बन चुके हैं. उनकी गायकी में सबसे अनोखापन उनकी देशज आवाज का अपना ठाठ था, जिसकी गरिमा उन्होंने पूरी जिंदगी साधे रखी. शारदा सिन्हा नहीं होतीं तो संभव है पूर्वांचल के शादी-ब्याह, लोकगीत, छठ पर्व की वह संगीतमय रौनक आज देखने को नहीं मिलती, जिसके लिए दुनिया उनकी मुरीद बनी हैं. समस्तीपुर महिला कॉलेज में संगीत विभाग की विभागाध्यक्ष रहीं शारदा सिन्हा ने भोजपुरी, बज्जिका, मगही और मैथिली भाषाओं में विवाह और छठ जैसे विशेष अवसरों पर सैकड़ों पारंपरिक गीत गाए हैं। उनकी आवाज ने बिहार की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखा।

सम्मान

शारदा सिन्हा को उनके संगीत योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले, जिनमें 1991 में पद्मश्री, 2000 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2006 में राष्ट्रीय अहिल्या देवी अवार्ड, 2015 में बिहार सरकार पुरस्कार, और 2018 में पद्मभूषण के अलावाबिहार कोकिलाऔरभोजपुरी कोकिलाजैसे खिताबों से नवाजा गया। उन्हेंभिखारी ठाकुर सम्मान’, ’बिहार गौरव’, ’बिहार रत्न’, औरमिथिला विभूतिसहित कई अन्य पुरस्कार मिले। उन्होंने अपनी मधुर आवाज और लोक संगीत के माध्यम से केवल बिहार बल्कि पूरे देश को गौरवान्वित किया। उनके गीतों में जो आत्मीयता और संस्कृति की झलक मिलती थी, वह अमूल्य थी। शारदा ने सिर्फ मैथिली ही नहीं, बल्कि भोजपुरी, मगही और हिंदी में भी अपनी आवाज का जादू बिखेरा। उन्हें प्रयाग संगीत समिति ने अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका दिया।

अधूरी रह गयी विश्वनाथ धाम में सुरों से हाजिरी

आज वह हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी एक आखिरी इच्छा बाबा श्री काशी विश्वनाथ धाम में अपने सुरों से हाजिरी लगाने की अधूरी रह गयी। आखिरी बार शारदा सिन्हा काशी साल 2018 में आई थी. हालांकि उस समय उन्होंने बीएचयू में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल हुई थीं. उसके बाद उन्हें कभी काशी आने का मौका नहीं मिला. अपने निधन से कुछ साल पहले उन्होंने कहा था- लोकगीतों या भोजपुरी गीतों में सफाई अभियान चलाना चाहती हूं. उन्होंने खुलकर कहा था- वो नई पीढ़ी को तैयार करना चाहती हूं. लेकिन आज उनकी वह ख्वाहिश अधूरी रह गई.उनकी आवाज में जो देशज ठाठ था, उसकी तलाश जारी रहेगी. शारदा सिन्हा ने जिस दौर में गाना प्रारंभ किया, उस समय एक संभ्रांत परिवार की महिला का स्टेज पर चढ़कर गाना बहुत आसान नहीं था. यह परंपरा और परिवेश को झकझोर देने वाला विद्रोह था. शारदा सिन्हा की जीवन यात्रा, उनके आत्मसंघर्ष, कला साधना में परिवर्तनकारी आयामों को समेटे हुए है.

कभी पलट के नहीं देखा

मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी शारदा सिन्हा के पिता सुखदेव ठाकुर बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में अधिकारी थे. इनके पिता ने अपनी बेटी के संगीत प्रेम को बचपन में ही पहचान लिया और ट्रेनिंग शुरू करा दी. घर पर ही इन्हें संगीत की शिक्षा मिलने लगी. हालांकि, पढ़ाई भी साथ-साथ जारी रही. पटना विश्वविद्यालय से शारदा सिन्हा ने कला वर्ग में स्नातक किया. शादी के बाद उनकी गायकी को लेकर ससुराल में आपत्ति हुई लेकिन उनके पति ने उनका साथ दिया और संगीत साधना में रमी रहीं. हाल फिलहाल तक शारदा सिन्हा समस्तीपुर में ही रहती थीं और एक कॉलेज में संगीत की शिक्षा भी देती थीं. 80 के दशक में मैथिली, भोजपुरी और मगही भाषा में परंपरागत गीत गाने वाली गायिका को तौर पर शारदा सिन्हा को प्रसिद्धि मिलने लगी. उन्हें अक्सर इस क्षेत्र के लिए एक सांस्कृतिक राजदूत के रूप में जाना जाता है। 

सिन्हा छठ पूजा उत्सव के दौरान नियमित रूप से प्रस्तुति देती हैं और मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम के बिहार दौरे के समय भी उन्होंने मंच की शोभा बढ़ाई थी। परंपरागत लोकगीतों में नये प्रयोग शास्त्रीय संगीत के साथ उनका संयोजन कर प्रस्तुति देने का उनका अपना अलहदा अंदाज रहा. शारदा सिन्हा पान की शौकीन थीं. कहती थीं कि पान महज होठों को लाल करने वाला या नशे की हुड़क मिटाने वाली कोई खुराक नहीं है. ये तो एक तहजीब है. अंदाज है. दूसरों के प्रति सम्मान दिखाने वाला हमेशा तैयार एक भेंट है.‘दुखवा मिटाईं छठी मईया३गीत को शारदा सिन्हा के ऑफिसियल यूट्यूब चैनल पर अपलोड किया गया है.

गीत की संस्कृति ही उनकी पहचान रही

शारदा सिन्हा ने छठ गीतों को अपनी आवाज देकर उनका इतना विस्तार किया कि वह गीत बिहार से निकलकर ना सिर्फ देश के विभिन्न इलाकों तक पहुंचा बल्कि विदेशों में भी उनकी धूम मची. शारदा सिन्हा एक तरह से छठ गीतों की पर्याय बन गई, हालांकि शारदा सिन्हा का कला प्रेम और व्यक्तित्व इससे काफी बड़ा है. शारदा सिन्हा ने जिस वक्त गीत गाना शुरू किया उस दौर में कई तरह के प्रयोग किए जा रहे थे और भोजपुरी गीतों पर अश्लीलता फैलाने का आरोप भी लग रहा था, लेकिन उस दौर में भी शारदा सिन्हा ने कभी कोई समझौता नहीं किया. वो हमेशा मर्यादित गीत और संगीत के साथ ही जुड़ी रहीं. वो गीतों को जीती थीं, उन्होंने बिहारी लोकगीतों को नई पहचान दी और एक संगीत शिक्षिका के रूप में उनका संरक्षण भी किया

भाषा को लेकर भी शारदा सिन्हा बहुत सजग रहती थीं और यह कोशिश करती थीं कि उन शब्दों को जीवित किया जाए जो आजकल की बोलचाल से गायब होते जा रहे हैं. एक संगीत शिक्षिका के रूप में उन्होंने लोक गीतों को समृद्ध किया और मैथिली, भोजपुरी, अंगिका और मगही के गीतों को एक तरह से यूनिफॉर्मिटी भी दी. शारदा सिन्हा दरभंगा रेडियो स्टेशन की कलाकार थीं

उन्होंने दूरदर्शन पर भी कई कार्यक्रम किए थे। गुलशन कुमार की कंपनी टी सीरीज के लिए खूब छठ गीत गाए. इससे छठ गीतों का खूब प्रसार हुआ और वे देश-विदेश तक पहुंचे. लेकिन शारदा सिन्हा ने कभी भी अपनी शैली में कोई बदलाव नहीं किया. वे यह कोशिश नहीं करती थीं कि गीत बेहतर से बेहतर बने और इसके लिए वो खूब मेहनत भी करती थीं. उन्होंने अपने परिवेश से बाहर जाकर या लोकप्रियता के लिए कोई समझौता नहीं किया. यहां तक की वे गीतों की रिकॉर्डिंग के लिए भी बाहर जाना पसंद नहीं करती थीं और पटना में ही गीतों की रिकॉर्डिंग करवाती थीं.

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