Thursday, 23 January 2025

महाकुंभ : अघोरियों को नहीं होता ‘मौत’ का खौफ 

महाकुंभ : अघोरियों को नहीं होता ‘मौतका खौफ  

महाकुंभ में लाखों-करोड़ों सनातनियों का जमघट अपने आप में रोचकता तो है ही, इससे भी अधिक जिज्ञासा कुंभ में आने वाले अखाड़ों के साधु-संत हैं। कोई भभूत लगाए, भस्म रमाए, कोई लंगोट पहने, त्रिपुंड सजाए, शस्त्र उठाए, धूनी रमाएं, तो कोई लंबही जटाओं के बीच हाड़-मांस के शरीर को कुछ इस तरह बना लिया है कि उस पर तपती धूप, बर्फीली ठंड मूसलाधार बारीश का असर ही नहीं है। इन्हीं साधु-संतों की झुंड में सबसे अलग-थलग अघोरियों की है। भगवान शिव के भैरव अवतार मां काली को अपना आराध्य मानने वाले अघोरी सांसारिक और गृहस्थ जीवन से दूर रहकर शिवजी की भक्ति में लीन रहते हैं. शरीर पर मुर्दो के मुंडों की माला यानी कपाल धारण किए अघोरी पुनर्जन्म के चक्र से मोक्ष प्राप्त करने के लिए तपस्या में लीन रहते हैं. इसलिए अघोरियों के दर्शन पाना काफी मुश्किल होता है. आमतौर पर ये कभी दिन के उजाले में नजर नहीं आते हैं. पर महाशिवरात्रि और कुंभ जैसे धार्मिक अवसरों पर जरुर इनके दर्शन होते हैं. उनका कहना है कि भगवान शिव ही परम विध्वंसक हैं और केवल वही उन्हें मोक्ष की प्राप्ति करवा सकते हैं. अघोरी भगवान शिव को सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला), सर्वव्यापी (सब जगह फैला हुआ) और सर्वशक्तिमान (सबसे अधिक शक्तीशाली) रूप को सर्वोच्च मानते हैं. अघोरियों को मृत्यु का कोई भय नहीं है. अक्सर वे मुर्दों के साथ खाना खाते हैं, साथ सोते है. कभी-कभी मृतकों के साथ संभोग भी करते हैं. सबसे पहले अघोरी की उत्पत्ति काशी से हुई थी और आज पूरे देश में विभिन्न रुपों में विचरण करते दिखाई देते है 

सुरेश गांधी

अघोरी शब्द संस्कृत के अघोर से है यानी जो निर्भय हो. रुद्राक्ष की माला और नर मुंड भी इनकी वेशभूषा का हिस्सा होते हैं. अघोरी साधु श्मशान या किसी दुर्गम इलाके में रहते हैं, जहां सभी का जाना मुमिकन नहीं होता, क्योंकि ऐसी जगह इनकी साधना के लिए सबसे अनुकूल मानी जाती है. अघोरी संप्रदाय 18वीं सदी में हुए बाबा कीनाराम का अनुसरण करते हैं और उनके द्वारा किए गए कामों को अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं. चिता से अधजला मांस खाने को भी वह अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं. मान्यता है कि अगर ऐसा करने में उन्हें डर लगे, घृणा हो तो वे अपनी साधना में पक्के हो रहे हैं. उनके जीवन का एक मंत्र है कि आप अपना काम करिए और हमें अपने मोक्ष मार्ग पर चलने दीजिए. कहा जा सकता है सनातन में अघोरी साधुओं को नागा साधुओं से भी बेहद खतरनाक है। अघोरी साधु जीवन और मृत्यु के बंधनों से दूर श्मशान भूमि में अपनी धूनि रमाए तप में लीन रहते हैं। अघोरी साधु तंत्र साधना भी करते हैं। अघोरी बनने की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति को अपने घृणा को निकालना होता है। इसलिए समाज जिन चीजों से घृणा करता है, अघोरी पंथ उसे ही अपनाता हैं। 

अघोरी को तो जीवन का मोह होता है और ही मृत्यु का डर। अघोरी बाबा भी शिवजी के अघोरनाथ रूप की उपासना करते हैं, जिसका वर्णन श्वेताश्वतरोपनिषद में मिलता है। इसके साथ ही बाबा भैरवनाथ को भी अघोरी अपना आराध्य मानते हैं। भगवान शिव के अवतार माने गए अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरु माना गया है। जब एक अघोरी किसी शव के ऊपर पैर रखकर साधना करता है, तो वह शिव और शव साधना कहलाती है। इस साधना में प्रसाद के रूप में मुर्दे को मांस और मदिरा चढ़ाई अर्पित की जाती है। अघोरी एक पैर पर खड़े होकर महादेव की साधना करते हैं और शमशान में बैठकर हवन करते हैं। अघोरी अपने पास नरमुंड यानी इंसानी खोपड़ी रखते हैं, जिसेकापालिकाकहा जाता है। साथ ही वह इसका प्रयोग भोजन के पात्र की तरह भी करते हैं। अघोरी अकसर कच्चे मांस यहां तक की मानव शव का भी भक्षण करते हैं। अघोरियों की एक पहचान यह भी है कि वह किसी से कुछ नहीं मांगते। अघोरी अपने शरीर पर चिता की राख लपेटे रहते हैं और चिता की अग्नि पर ही अपना भोजन पकाते हैं।

अघोरी बनने की प्रक्रिया बेहद कठिन है। इस दौरान अघोरी साधु बनने की लालसा वाले व्यक्ति को तीन कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। हरित दीक्षा, शिरीन दीक्षा और रंभत दीक्षा। अगर इन परीक्षाओं में कोई विफल हो जाएं तो वह अघोरी नहीं बन पाता। अघोरी शव पर एक पैर रख तपस्या करते हैं। ये भोलेनाथ के उपासक होते हैं। साथ ही ये मां काली की भी पूजा करते हैं। हरिता दीक्षा में ही अघोरी गुरु अपने शिष्य को गुरुमंत्र देता है। यह मंत्र शिष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण होता है। शिष्य को इस मंत्र का जाप नियमित रूप से करना होता है। इस जाप से शिष्य के मन-मस्तिष्क में एकाग्रता बनती है और वह आध्यात्मिक ऊर्जा हासिल करता है। शिरीन दीक्षा में सीखने वाले शिष्य को कई प्रकार की तंत्र साधना सिखाई जाती है। शिष्य को श्मशान भूमि में जाकर तपस्या करनी होती है। इस दौरान शिष्य को सांप, बिच्छू आदि का भय तो रहता ही है, साथ ही सर्दी, गर्मी, बारिश भी बर्दाश्त करनी होती है। रंभत दीक्षा अघोरी साधु के लिए सबसे कठिन और अंतिम दीक्षा होती है। इस दीक्षा में शिष्य को अपने जीवन और मृत्यु का अधिकार अपने गुरु को सौंपना होता है। गुरु जो भी कहे शिष्य को बिना सोचे या प्रश्न के वह करना ही पड़ता है। कहा जाता है कि इस दीक्षा में गुरु अपने शिष्य के अंदर भरे अहंकार को बाहर निकलवा देता है। इस दौरान अगर गुरु कहे कि अपने गर्दन पर चाकू रखना है तो शिष्य को बिना कोई सवाल के करना पड़ता है। इसलिए इस दीक्षा को बेहद कठिन माना जाता है। यही कारण है कि इन्हें अपनी जिंदगी या मौत का कोई भय नहीं रहता क्योंकि अघोरी अपने गुरु को इसका अधिकार दे देते हैं।

अघोरी और नागाओं की वेशभूषा दूसरे बाबाओं से काफी अलग होती है. वे भगवान शिव की तरह अपने शरीर पर श्मशान की भस्म लगते हैं और अपना ज्यादातर समय तंत्र साधना करते हुए ध्यान में लीन रहकर बिताते हैं. हालांकि नागा साधु और अघोरी एक ही होते हैं. लेकिन इसके बीच बुनियादी फर्क ये है कि नागा परंपरा अखाड़ों से निकली परंपरा है जिसके जनक आदिगुरु शंकराचार्य माने जाते हैं और यह 8वीं सदी के आसपास की परंपरा है. वहीं, अघोरी परंपरा के गुरु भगवान शिव-विष्णु और ब्रह्म के अवतार कहे जाने वाले भगवान दत्तात्रेय हैं. ये नागा धर्म के रक्षक कहे जाते हैं और शास्त्र विद्या में पारंगत होते हैं। जबकि अघोरी साधु सिर्फ शिव की साधना में मग्न रहते हैं. अघोरी और नागा साधुओं के बीच बड़ा अंतर ये है कि नागा साधु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और जीवित रहते ही अपना अंतिम संस्कार कर देते हैं. वहीं अघोरियों में ब्रह्मचर्य के पालन की कोई बाध्यता नहीं है.

नागा साधु भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन करते हैं और जो भी मिलता है, उसमें संतुष्टि रखते हैं. वहीं अघोरी चिता के मांस से लेकर कुछ भी खाने के लिए स्वतंत्र हैं. इसके पीछे भी कई बार वे प्रकृति चक्र का हवाला देते हैं और उनका मानना है कि उस मांस को कोई छूता तक नहीं है, ऐसे में उसे खाने में कोई बुराई नहीं है. नागा और अघोरी साधु दोनों ही शिव की पूजा करते हैं, लेकिन साधना के तौर-तरीके अलग हैं. जैसे नागा साधुओं का काम इंसानों और धर्म की रक्षा करना है. इसके लिए उन्हें पारंपरिक हथियार चलाने की दीक्षा भी दी जाती है. वहीं दूसरी तरफ अघोरी शिव की पूजा करते हुए तंत्र साधना करते हैं. वे इस ताकत का इस्तेमाल लोगों की मदद करने में करते हैं. अघोरी मुख्य रूप से तीन तरह की साधना करते हैं, शव साधना, जिसमें शव को मांस और मदिरा का भोग लगाया जाता है. शिव साधना, जिसमें शव पर एक पैर पर खड़े होकर शिव की साधना की जाती है और श्मशान साधना, जहां हवन किया जाता है.

किनाराम को मानते है अपना आदर्श

अघोरी साधु बाबा किनाराम को काफी अधिक मानते हैं। मान्यता है कि बाबा को कई सिद्धियां प्राप्त थी। अघोराचार्य बाबा कीनाराम सन 1609 से 1769 तक बाबा अघोर संप्रदाय के अनन्य आचार्य थे। माना जाता है कि इनका जन्म 1609 में चंदौली के रामगढ़ गांव में हुआ था। बाबा बचपन से ही संसार से विरक्त रहते थे। बाबा को कई सिद्धियां प्राप्त थी। उन्होंने अपने जीवन में कई चमत्कार किए हैं जिस कारण उन्हें अघोरी आज भी पूजते हैं। कहा जाता है कि बाबा किनाराम का विवाह 12 वर्ष की आयु में कर दिया गया था, जबकि बाबा विवाह के लिए राजी नहीं थे। एक दिन उन्होंने रात में अपनी मां से हठपूर्वक दूध-चावल मांग कर खाया और सुबह उनकी पत्नी की मौत की खबर गई, लोग अचरज में पड़ गए कि इन्हें पत्नी की मौत का आभास पहले कैसे हो गया। बता दें कि सनातन धर्म में मृतक संस्कार के बाद दूध-चावल एक कर्मकांड है। इसके बाद बाबा कामेश्वर धाम में रामानुजी संप्रदाय के संत शिवाराम की शरण में गए। कुछ समय बाद दीक्षा देने के पहले महात्मा जी ने परीक्षा लेने के इरादे से किनाराम से स्नान ध्यान के सामान लेकर गंगातट पर चलने को कहा। फिर बाबा किनाराम पूजनादि की सामग्री लेकर गंगातट से कुछ दूर पहले ही रुक गए और गंगाजी को झुककर प्रणाम करने लगे। फिर जब सिर उठाया तब देखा कि गंगा का जल बढ़कर इनके चरणों तक गया। किनाराम ने इस घटना

को गुरु की महिमा मानी। हालांकि शिवाराम जी दूर से यह सब देख रहे थे। उन्होंने बाबा किनाराम को असामान्य सिद्ध माना और दीक्षा मंत्र दिया। एक अन्य कहानी के मुताबिक, कामेश्वर धाम में साधना के दौरान एक दिन वह घूमते-घामते नईडीह गांव पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक वृद्धा बहुत रो रही थी। पूछने पर बताया कि उसके इकलौते पुत्र को लगान देने की खातिर जमींदार के सिपाही पकड़ ले गए हैं। इसके बाद बाबा किनाराम उस वृद्धा के साथ जमींदार के द्वार पर पहुंचे और देखा कि उस लड़के को जमींदार ने धूप में बैठा राख है। पहले किनाराम ने जमींदार से उसे मुक्त करने को कहा जब जमीदार नहीं माना और लगान को लेकर अड़ा रहा तो किनाराम ने जमींदार से कहा कि जहां लड़का बैठा है वहाँ की धरती खुदवा ले और जितना तेरा पैसा हो, वहां से ले ले। इसके बाद जमीदार ने उस जमीन पर खुदाई शुरू करवाई 2-3 फीट गहराई तक खुदवाने पर वहाँ काफी पैसे पड़े देखकर सब दंग रह गए। इसके बाद जमींदार ने लड़के को तुरंत बंधनमुक्त कर ही दिया, और कीनाराम बाबा से क्षमा मांगी। इसके बाद वृद्धा ने उस लड़के को किनाराम बाबा को ही सौंप दिया। उसका नाम बीजाराम था और किनाराम बाबा के समाधि पश्चात् वाराणसी के उनके मठ की गद्दी पर अधिष्ठित हुआ। अघोर साधक मानते हैं कि बाबा किनाराम को सिद्धियां प्राप्त थीं, इस कारण वे बाबा किनाराम को आज भी खूब मानते
हैं और उनकी पूजा करते हैं।

भारत के कई मंदिरों में है

अघोरी करते है तंत्र साधना

वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के पास मणिकर्णिका घाट को अघोरी तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र मानते हैं। कहा जाता है कि अघोरी यहां शवों को खाते हैं और नर खोपड़ी में पानी पीते हैं। मणिकर्णिका घाट पर आपको अघोर साधक आसानी से देखने को मिल जाएंगे। विंध्याचल में मां विंध्यावासिनी माता का मंदिर हैं। मान्यता है कि महिषासुर वध के बाद मां दुर्गा इसी जगह आराम के लिए ठहरी थीं। भगवान राम खुद यहां मां सीता के साथ आए थे और तप किया था। यहां आसपास कई गुफाएं हैं, जिनमें रहकर अघोर साधक अपनी साधना करते हैं। नेपाल के काठमांडू में स्थित अघोर कुटी सबसे प्राचीन स्थानों में से एक है. कहते है यह

स्थान भगवान राम के अनन्य भक्त बाबा सिंह शाक द्वारा बनाया गया था. तब से अब तक यह कुटी अपनी सामाजिक सेवाओं के लिए प्रसिद्ध है. काली मठ उन शक्तिपीठों में से एक है जहां देवी सती का पिंड गिरा था. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, यात्रा करने के बाद कई अघोरी अंत में यहां आकर बसते हैं. पश्चिम बंगाल के रामपुरहाट में बना मंदिर को तांत्रिक मंदिर के रूप में जाना जाता है. देवी सती को यहां तारा देवी के रूप में पूजा जाता है. इसके बगल में स्थित श्मशान घाट कई तांत्रिक अनुष्ठानों और अघोरियों का घर है. कहा जाता है कि साधक बामखेपा (पागल संत) इस मंदिर में पूजा करते थे. उन्होंने शमशान घाट में रहकर कई योग और तांत्रिक कलाओं का अभ्यास किया था. तब से कई अघोरी तंत्र-मंत्र का ज्ञान लेने के लिए यहा आते हैं. कपालेश्वर, मदुरै स्थित मंदिर को अघोरियों के मंदिर के रूप में जाना जाता है। मंदिर के पास एक आश्रम है जहां अघोरियों के सभी अनुष्ठान किए जाते हैं. चित्रकूट में भगवान दत्तात्रेय (त्रिगुणात्मक त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिदेव के ही रूप हैं) का जन्म हुआ था. कहते है किशोरावस्था के शुरुआती वर्षों में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया था और नग्न, इधर-उधर भटकने लगे थे. ऐसे में सच्चे आत्म की तलाश करने के लिए वे अंत में अघोरी बन गए. उन्होंने वेद और तंत्र को मिलाने में मदद की थी. कई अघोरिया यहां उनसे प्रार्थना करने और उनके दर्शन के लिए आते हैं. कोलकाता के प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर काली मंदिर कालीघाट के पास स्थित है. देवी सती की मृत्यु के बाद उनके बाएं पैर की चार अंगुली इस स्थान पर गिरी थी. इसलिए मोक्ष पाने और तांत्रिक साधना करने के लिए कई अघोरी यहां आते हैं. अफगानिस्तान में जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल के अंदर संतों को कुछ जमीन दी थी. औघड़ रतनलालजी पहले अघोर गुरु थे जो वहां बस गए. इसलिए तब से कई अघोरी ने उनके रास्ते पर चलते रहे हैं.

सबकुछ बदलेगा

महाकुंभ में आएं अघोरी बाबा का नाम कालपुरुष है. उनका भस्म से सना लाल चेहरा देखकर हर कोई हैरान रह जाता है. उनके हाथों में एक इंसानी खोपड़ी है, जिससे वह पानी पीते हैं. बताया जाता है कि हिमालय में ध्यान लगाने से उनकी आवाज ऊंची हो गई है. उनका कहना है कि आने वाले दिनों मेंचिता जल जाएगी और हवा काली हो जाएगी. नदी को वह सब याद है, जो आदमी भूल गया है. जब गंगा रोयेगी तो उसके आंसू मैदानों पर गिरेंगे. यह शुरू हो गया है. उनका कहना है किमैं पिछले सात महाकुंभों में जा चुके है। लेकिन इस बार संकेत अलग हैं. दाह संस्कार स्थल पर कौवे एक अलग ही गाना गा रहे हैं. मुर्दे ज्यादा बेचैन होते हैं. धरती अपनी सांसें बदल रही है. जब नदी अपना रास्ता बदलेगी, तो शहरों को एहसास होगा कि वे उधार की जमीन पर बसे हैं. अगले चार वर्ष वह आकार देंगे जिसे मनुष्य स्थायी या शाश्वत मानता है. खास यह है कि उनकी कई भविष्यवाणियां पानी पर केंद्रित हैं. पानी की कमी और आपदाओं पर आधारित हैं, जो कई बार सटीक साबित हुई हैं. वह कहते हैं, ‘पहाड़ अपना बर्फ छोड़ देंगे. पहले धीरे-धीरे, फिर एक साथ पवित्र नदियां नए रास्ते खोजेंगी. कई मंदिर धरती पर लौट आएंगे. वह कहते हैं, ‘यह संगम बदल जाएगा. नदी बह रही है. समय के साथ संगम को नया स्थान मिलेगा. जहां आज रण है, भविष्य की पीढ़ी वहां कुंभ का आयोजन करेगी. हालांकि आने वाला परिवर्तन पृथ्वी पर नहीं होगा. युवा पीढ़ी वह याद रखेगी जो मध्य पीढ़ी भूल गई है. अब जन्म लेने वाले बच्चों को वह याद होगा जो हम भूल चुके हैं. वे हवा को समझेंगे. उन्हें पता चल जाएगा कि पृथ्वी कब घूमने वाली है. युवा पीढ़ी फिर से आसमान को पढ़ना सीखेगी.

 शरीर तपाने के बाद बनते है नागा

नागा संन्यासी या बनना, यानी बेहद ही कठिन प्रक्रिया और साधना से गुजरना. यह पूरी प्रक्रिया कोई एक दिन, एक साल या एक बार की बात नहीं है, बल्कि ये सभी कुछ वर्षों की साधना की सतत प्रक्रिया है. इसमें कुछ विधान तो इतने कठिन हैं, कि उनके बारे में जानकार आम आदमी की रूह कांप जाए. नागा साधु बनने की प्रक्रिया में..लिंग निष्क्रिय (तंगतोड़) किया जाता है, इससे पहले एक क्रिया पंचकेश (शरीर के सभी भागों के बाल उतारना) होती है. ब्रह्म मुहूर्त में 108 बार की डुबकी और फिविजया हवन भी इसमें शामिल है. नागा साधु बनने के लिए जरूरी है इच्छाशक्ति, लेकिन सिर्फ इच्छा ही काफी नहीं है. जो भी कोई नागा संन्यासी बनने का इच्छुक होता है, उसे पहले दो-तीन वर्षों तक अखाड़े के इतिहास, परंपरा आदि को ठीक तरीके से समझना होता है. गुरु की . सेवा, अखाड़े के कार्यों में सहयोग और सहभागिता बेहद जरूरी होती है. इस दौरान प्रवेशी पर समय-समय पर नजर भी रखी जा रही होती है कि कहीं वह मोह में भटक तो नहीं रहा है. इन वर्षों में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है. 2-3 साल को इस दौर में अगर यह पाया जाए कि साधु नियम मानने में कोताही बरत रहा है, या फिर भटक रहा है तो उसे परिवार में वापस लौट जाने को कह दिया जाता है. अधिकांश अखाड़े तो उसी समय कई इच्छुक लोगों...को बार-बार वापस होने के लिए कहते हैं, जब वह संन्यास लेने के लिए अखाड़े में पहुंचते हैं. फिर भी वह अपने फैसले पर अडिग रहता है तो परिवार की सहमति के बाद..ही उसे अखाड़े में रहने और सेवा की अनुमति दी जाती है.3 साल के इस परीक्षण और जांच की प्रोसेस के बाद सफल व्यक्ति कोमहापुरुषघोषित करके उसका पंच संस्कार किया जाता है. इस प्रक्रिया में भगवान शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु के रूप में स्थापित किया जाता है..व्यक्ति को अखाड़े में उसके गुरु द्वारा नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत और अन्य नागा संन्यासियों के प्रतीक चिह्न दिए जाते हैं. इस दौरान गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा (सिर के बाल या चोटी) काटते हैं. महापुरुष बनाए जाने से .हले गुरु शिष्य से तीन बार सांसारिक जीवन में लौटने का आग्रह करते हैं. यदि वह लौटने से मना कर देता है, तो उसे संन्यास जीवन की प्रतिज्ञा दिलाकर महापुरुष बना दिया जाता है. जब संन्यासी महापुरुष बन जाते हैं तो फिर अगली प्रक्रियाअवधूत.दीक्षा की होती है. यह प्रक्रिया बेहद लंबी और मुश्किल है. जिस दिन से ये प्रोसेस शुरू होनी होती है, उस दिन की शुरुआत सुबह ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4 बजे से)होती है. नित्यकर्म और पूजा-पाठ के बाद सभी अपनी-अपनी मढ़ियों में इकट्ठा होते हैं. यहाँ से वे अपने-अपने गुरु और महंत के नेतृत्व में नदी (प्रयाग में संगम.तट, हरिद्वार में गंगा तट आदि) पर कतार में खड़े होते हैं. यहां पर नाई पंचकेश संस्कार के तहत सभी के सिर, मूंछ, दाढ़ी और शरीर के बाल हटा देते हैं, जिससेउन्हें नवजात शिशु के समान कर दिया जाता है. मुंडन के बाद ये नदी में स्नान करते हैं और अपनी पुरानी लंगोटी त्यागकर नई लंगो.टी त्यागकर नई लंगोटी धारण करते हैं. गुरु इन्हें जनेऊ पहनाते हैं और दंड-कमंडल और भस्म भी देते हैं. इसके बाद इनसे 17 पिंडदान करवाया जाता है, 16 उनके पूरर्वजों के लिए और एक स्वयं का. इस पिंडदान के साथ ही वे खुद को मृत मान लेते हैं, उनका पूर्व जन्म समाप्त हो जाता है, और वे सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त  हो जाते हैं. नए जीवन का संकल्प लेकर वे अपने-अपने अखाड़े में लौटते हैं. अखाड़े.में देर रात को  विजया हवन होता है. इसके बाद मध्य रात्रि में आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर इन्हें दीक्षा देते हैं और गुरुमंत्र देते हैं. गुरुमंत्र.को प्रेयस मंत्र भी कहा जाता है. इसे देने से पहले अंतिम बार सांसारिक जीवन में लौटने की सलाह दी जाती है.गुरुमंत्र प्राप्त करने के बाद ये सभी धर्म-ध्वजाके नीचे बैठकरऊँ नमः शिवायका जाप करते हैं. सुबह चार बजे इन्हें फिर से नदी तट पर लाया जाता है, जहां ये 108 डुबकियां लगाकर स्नान करते हैं और दंड-कमंडल का त्याग कर देते हैं. यहां से लौटकर वे अपने गुरु से अपनी चोटी कटवाते हैं. इसी के साथ सभी महापुरुषों का अवधूत संस्कार पूरा हो जाता है. अवधूत बनने .की इस 24 घंटे की प्रक्रिया के दौरान सभी को उपवास रखना पड़ता है. अखाड़े में अवधूत संन्यासियों को विशेष सम्मान और स्थान दिया जाता है. इन्हें अखाड़े में प्रवेश के बाद रुद्राक्ष की माला पहनाई जाती है. यदि कोई साधु सांसारिक जीवन की ओर झुकाव दिखाता है..तो उसे कड़े अनुशासन और निगरानी में रखा जाता है. यह निगरानी शिविरों में होती है, जहां उनकी योग्यता और निष्ठा परखी जाती है. जो इस प्रक्रिया में खरा उतरतता है, उसे नागा संन्यासी घोषित कर दिया जाता है. अवधूत बनने के बाद साधु कोदिगंबरदीक्षा लेनी होती है. यह दीक्षा कुंभ मेले के अवसर पर शाही स्नान से ठीक पहले दी जाती है. यह प्रक्रिया बेहद गोपनीय होती है, इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है. इस प्रोसेस के दौरान भी सिर्फ वरिष्ठ साधु ही भाग लेते हैं. तंगतोड़ विधि, यानी लिंग निष्क्रिय करना। वरिष्ठ नागा साधु बताते हैं कि दिगंबर बनने की प्रक्रिया नए साधुओं के लिए सबसे कठिन होती है. इस प्रक्रिया के तहतसाधु को अखाड़े की धर्म-ध्वजा के नीचे 24 घंटे तक बिना कुछ खाए-पिए रहना होता है. इसके बाद अनुभवी साधु वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक विशेष प्रक्रिया को पूरा करते हैं, जिसेसंतोड़ायातंगतोड़कहा जाता है. इस प्रक्रिया में लिंग को निष्क्रिय कर दिया जाता है.

स्नान से पहले नागा साधु करते हैं इष्टदेव की पूजा

नागा साधु अमृत स्नान से पहले अपने देव की पूजा करते हैं। मान्यताओं के मुताबिक, नागा साधु अमृत स्नान से पहले अपने ईष्टदेव की पूजा करते हैं, इसके बाद ही वे स्नान करते हैं। हालांकि अलग-अलग अखाड़ों के अपने ईष्टदेव हैं। जूना अखाड़े के ईष्टदेव भैरव हैं, महानिर्वाणी अखाड़े के ईष्टदेव कपिल मुनि, निरंजनी अखाड़े के कार्तिकेय, अटल अखाड़े के ईष्टदेव हैं गणेश भगवान। ऐसे में अन्य अखाड़ों के ईष्टदेव हैं। महाकुंभ स्नान में मां गंगा का विशेष स्थान है। महाकुंभ मेले के दौरान मां गंगा की पूजा की जाती है। साधु-संत अपनी तपस्या के बाद मुक्तिदायनी मां गंगा को नमन करने आते हैं और उन्हें अपने पुण्य प्रताप से उन्हें पवित्र करते हैं। ऐसे में नागा साधु भी मां गंगा की पूजा अर्चना और पवित्रता का ध्यान रखते हैं। उनके मन में मां गंगा के लिए अटूट विश्वास रहता है। नागा साधु महाकुंभ में अपना डेरा जमाए हुए हैं। महाकुंभ में अमृत स्नान का खासा महत्व है। पहला अमृत स्नान 14 जनवरी को हो चुका है। 29 जनवरी को दूसरा अमृत स्नान आयोजित होगा। ऐसे में नागा साधुओं का पहला स्नान करने का हक दिया गया है। इसके बाद अन्य श्रद्धालुओं को स्नान का मौका मिलेगा। बता दें कि नागा साधु मां गंगा के प्रति अटूट आस्था रखते हैं। वे इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि उनकी पवित्रता को ठेस पहुंचे। मां गंगा के प्रति नागा साधुओं की गहरी आस्था होती हैं। सभी नागा गंगा स्नान के समय उनकी पवित्रता का विशेष ख्याल रखते हैं। स्नान के दौरान उनके मैल या अन्य गंदगी नदी के पवित्र पानी में चली जाए इसके लिए वह पहले अपने शिविरों में स्नान करके ही गंगा स्नान को जाते हैं। फिर नागा अपने शरीर पर भस्म रमाकर गंगा में पवित्र डुबकी लगाते हैं। नागा साधु भस्म को भगवान शिव की पवित्रता के प्रतीक के रूप में लगाते हैं।

 

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