हरियाली की हंसी में गूंजती कजरी
"सावन का
महीना
केवल
ऋतु
परिवर्तन
नहीं,
बल्कि
लोक
जीवन
की
रचनात्मकता,
रिश्तों
की
मिठास
और
प्रकृति
के
साथ
संवाद
का
प्रतीक
है।
इसमें
जो
रस
है,
वह
केवल
भूमि
और
वर्षा
का
नहीं,
बल्कि
लोक
मन
के
उफान
का
है।
और
इसी
रसधारा
की
मुखर
अभिव्यक्ति
है—कजरी।"
“चन्दा
छिपे
चाहे
बदरी
मा,
जबसे
लगल
सवनवा
न...”
, “झूले की
पींगों
पर
रिश्ते
खनकते
हैं
और
कजरी
की
तान
में
विरह
और
संयोग
दोनों
बहते
हैं।”
"आज
जब
आधुनिकता
और
बाजारवाद
की
दौड़
में
लोकगीतों
की
आवाज
धीमी
होती
जा
रही
है,
कजरी
आज
भी
जीवन
की
मूल
संवेदनाओं
की
गूंज
बनकर
हमारे
बीच
जीवंत
है।
यह
गीत
नहीं,
जीवन
है।
जब
तक
धरती
पर
सावन
की
हरियाली
रहेगी,
तब
तक
कजरी
की
मिठास
भी
बनी
रहेगी।
यह
केवल
लोकगीत
नहीं,
लोकजीवन
की
आत्मा
है।"
सुरेश गांधी
"सावन और कजरी"
पर एक जीवंत, गहराई
से पगा हुआ सांस्कृतिक
दस्तावेज़ है—यह न
केवल साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध है
बल्कि लोक-संस्कृति की
अंतर्ध्वनि को भी अत्यंत
भावुकता व कलात्मकता से
अभिव्यक्त करता है। “सावन
के आइल महिनवा, ओ
सखी गावा कजरिया...“ या
यूं कहे जब धरती
हरी चुनरी ओढ़ती है, आकाश
काली घटाओं से ढँकता है
और बूंदों की रिमझिम तन-मन को भिगोने
लगती है, तब केवल
ऋतु नहीं बदलती, लोक
संवेदना, नारी मन, प्रकृति
और प्रेम के सभी रंग
जीवन में उतर आते
हैं। यही है सावन।
और सावन की आत्मा
है कजरी। कजरी केवल एक
गीत नहीं, बल्कि लोक जीवन की
सांस्कृतिक चेतना, स्त्री मन का भावनात्मक
प्रवाह और प्रकृति से
संवाद का माधुर्य है।
यह वह विधा है
जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी
चली आ रही है
और आज भी पूर्वांचल
की माटी से लेकर
सात समंदर पार बसे भारतवंशियों
के दिलों तक गूंजती है.
कजरी, केवल लोकगीत नहीं,
बल्कि लोकजीवन का जीवंत उत्सव
है। यह हमारी वाचिक
परंपरा, सांस्कृतिक चेतना और पर्यावरण से
जुड़े रिश्तों का जीवंत स्वर
है। जब तक धरती
पर हरियाली रहेगी, जब तक स्त्री
की भावनाएं बहती रहेंगी,
कजरी जीवित रहेगी. सावन का महीना
भारतीय लोकजीवन में केवल मौसम
परिवर्तन नहीं, बल्कि त्योहारों, रिश्तों, स्मृतियों और आस्था का
सबसे समृद्ध समय होता है।
खेतों में हरियाली, घरों
में उल्लास, मंदिरों में भजन और
बगीचों में झूले, यह
सब मिलकर एक समग्र लोक
उत्सव की रचना करते
हैं। बेटियों के लिए यह
मायके लौटने और सखियों संग
झूला झूलने का मौसम है।
घर-आंगन में सजी
रंगोलियों, गीतों की गूंज और
स्त्रियों की चहचहाहट के
बीच गूंजती है, कजरी। “रिमझिम
बरसेले बदरिया, गुइयां गावेले कजरिया. मोर सवरिया भीजै,
नवों ही धानिया की
कियरिया...“. कजरी को “लोकगीतों
की रानी“ कहा गया है।
यह केवल गीत नहीं,
बल्कि स्त्री की मौन वेदना,
विरह की पीड़ा, संयोग
का उल्लास और सावन की
मस्ती का गीतात्मक दस्तावेज़
है। इसमें श्रृंगार और विरह दोनों
रसों की सहज अनुभूति
होती है।
कजरी की जड़ें
लोक में हैं, और
इसकी शाखाएं भारतीय समाज की चेतना
में फैली हैं। यह
गीत सावन के मौसम
से ही नहीं, बल्कि
नारी मन की अभिव्यक्ति,
ग्रामीण संस्कृति, सामूहिकता, और प्रकृति से
जुड़ी पर्यावरण चेतना से भी गहराई
से जुड़ा है। कजरी
के तीन प्रमुख स्वरूप,
बनारसी कजरी : यह कजरी अपनी
ठेठ बनारसी अक्खड़ता, बिंदास बोलों और “ना“ टेक
के लिए प्रसिद्ध है।
“पिया सड़िया लियाइब न, जेवना ना
बनईबा...” मिर्जापुरी कजरी : सबसे ज्यादा मंचीय
प्रस्तुतियों में गाई जाने
वाली शैली। इसमें भाभी-ननद, सखी-सहेली की छेड़छाड़ और
पारिवारिक भावनाएं प्रधान होती हैं। “बीरन
भइया अइले अनवइया, सवनवा
में ना जइबे ननदी...“
गोरखपुरी कजरी : हरे रामा” और
“ऐ हारी” टेक वाली यह
कजरी विशिष्ट धार्मिक और सांस्कृतिक आभा
लिए होती है। “हरे
रामा, कृष्ण बने मनिहारी, पहिर
के सारी, ऐ हारी...“
सावन का मौसम
विशेषतः स्त्रियों के भीतर की
भावनात्मक तरंगों को मुखर करने
का काल है। नवविवाहिताएं
मायके आती हैं, बगीचों
में झूले डालती हैं
और सखियों संग कजरी गाती
हैं। यह गायन मात्र
मनोरंजन नहीं, बल्कि एक प्रकार की
सांस्कृतिक आत्माभिव्यक्ति है। “कइसे जइबू
सावन में कजरिया, बदरिया
घिर आईल ननदी... यहां
नारी केवल श्रोता नहीं,
कथाकार और गायिका दोनों
होती है। वह प्रेम
में भीगी है, विरह
में तप रही है
और परंपराओं को सहेजे हुए
सहजता से अपनी पीड़ा
व उल्लास दोनों को गीत बना
रही है। पूर्वी उत्तर
प्रदेश के जिलों जैसे
मिर्जापुर, भदोही, जौनपुर और वाराणसी में
कजरी अखाड़ों की परंपरा आज
भी जीवंत है। आषाढ़ पूर्णिमा
को गुरुपूजन के साथ इनका
उद्घाटन होता है। यहां
कजरी लेखक गुरु अपने
गीत केवल अखाड़े के
गायकों को मौखिक रूप
में सिखाते हैं। कोई लिखित
रूप नहीं, कोई कॉपी नहीं।
कंठस्थ गायन ही माध्यम
है। इन अखाड़ों में
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती हैकृजहां संगीत,
संस्कार और परंपरा का
संगम देखने को मिलता है।
झूलन महोत्सव : जब भगवान भी कजरी सुनते हैं
सावन में राधा-कृष्ण को झूले पर
झुलाने की परंपरा झूलन
महोत्सव का हिस्सा है।
मंदिरों में भगवान को
झूलते हुए देखकर भक्त
कजरी गाते हैं :
“कान्हा हंसि-हंसि
बोलें,
बोड़ऊ
तो
करैं
ठिठोली
न...“
यह केवल भक्ति
नहीं, बल्कि श्रृंगार और आध्यात्म का
सामंजस्य है, जहां लोकगायक
भगवान को सखा-सखी
की तरह संबोधित करते
हैं। मध्यप्रदेश, बुंदेलखंड और छत्तीसगढ़ के
कुछ अंचलों में सावन अमावस्या
के बाद नवमी से
शुरू होकर कजरी पूर्णिमा
तक उत्सव मनाया जाता है। इसमें
महिलाएं खेत की मिट्टी
और फसल के अंश
घर लाकर कजमल देवी
की पूजा करती हैं।
अंतिम दिन तालाब में
विसर्जन से पहले महिलाएं
समूह में कजरी गाते
हुए जल खेल (जल
उलटना) करती हैं। यह
पर्यावरण, कृषि और स्त्री
पूजा का अनूठा समागम
है।
कजरी में पर्यावरण चेतना और सामाजिक व्यंजना
कजरी केवल प्रेम
गीत नहीं, यह सामाजिक प्रश्नों,
पर्यावरण चेतना और लोक सरोकारों
की वाहक भी है।
इसमें कृषक जीवन, वृक्षों
का महत्व, और ऋतु चक्र
का गहरा बोध छुपा
होता है। यह लोकगीत
आज भी पर्यावरणीय असंतुलन,
स्त्री असमानता या सामाजिक विषमता
को सवाल बनाकर प्रस्तुत
करता है, संकेतों में,
व्यंजना में।
स्वतंत्रता संग्राम और कजरी
जब देश आज़ादी
की लड़ाई लड़ रहा
था, तब भी कजरी
लोक चेतना की मशाल बनी।
“हरे रामा, सुभाष
चन्द्र
ने
फौज
सजाई
रे
हारी...
कड़ा-छड़ा
पैंजनिया
छोड़बै,
हाथ
में
झण्डा
लै
के
जुलूस
निकलबै
रे
हारी...“
कजरी : जब तक हरियाली है, तब तक इसकी गूंज रहेगी
कजरी की मिठास
बनारस की कचौड़ी गली
से लेकर मिर्जापुर की
घाटियों तक और अब
न्यूयॉर्क व लंदन के
भारतीय मंचों तक पहुंच चुकी
है। आज जबकि बाजारवाद
और ग्लैमर लोकगीतों को पीछे छोड़ते
जा रहे हैं, तब
भी कजरी अपनी जड़ों
से जुड़ी है। यह
जीवन, प्रेम, स्त्री, पर्यावरण और समाज का
समवेत गीत है।
“मिर्जापुर कइले
गुलजार
हो...
कचौड़ी
गली
सून
कइले
बलमू।
यही
मिर्जापुरवा
से
उड़ल
जहजिया,
पिया
चलि
गइले
रंगून
हो...“
अनोखा होता है सावन का रंग
सावन का रंग
अनोखा होता है। काली
घटाओं के बीच फैली
हरियाली जहां मन मोह
लेती है वहीं आसमान
से बरसती बूंदे तन को भी
भिगो जाती है। सावन
की बदरी और लोगों
के बीच गूंज रही
कजरी का अलग ही
नजारा है। सावन में
धर्म कर्म, विरह श्रृंगार सबकुछ
है। सावन के सुहाने
मौसम में मन मयूर
नाच उठता है। खिल
जाने को दिल करता
है। खुशी जैसे टपकने
लगती है। काले बादल
साल भर बाद जब
धरती से मिलते हैं
तो दिलों में प्रेम की
चरम की अनुभूति होती
है। गायकों के सुर रस
घोलने लगते हैं और
चित्रकारों की कूची रंगों
से खेलने को मचल उठती
है। कवि की नई
रचना जन्म लेती है
और कलाकारों की नृत्य भंगिमाएं
थिरकने को मजबूर कर
देती हैं। यह मन-भावन मौसम ही
है क्रिएटिविटी, उत्साह और परंपराएं निभाने
का। पर जिनके भीतर
अभी भी कोई बच्चा
मचलता है, उन्हें शायद
यह बताने की आवश्यकता नहीं
है कि मां की
गोद के बाद उन्होंने
झूले का आनंद कब
और कहां लिया था.
सावन की बूंदों
के पड़ते ही जैसे
हरी-भरी हो जाती
है वसुंधरा, वैसे ही मायके
पहुंचते ही चहकने लगती
हैं बेटियां। किसी भी उम्र,
वर्ग या समुदाय की
महिला से पूछ लीजिए
उसके लिए दुनिया की
सबसे आरामदायक (कम्फर्टेबल) जगह है मायका।
जहां पहुंचकर सिर्फ तन की ही
नहीं मन की थकान
भी फुर्र हो जाती है।
तभी तो तीज-त्योहारों
के बहाने आज भी मनाई
जाती हैं कि कुछ
ऐसी परंपराएं जिनसे सदा हरा-भरा
रहे मायके से बेटियों का
संबंध। सावन मास पर
ही भक्ति की रसधारा सबसे
अधिक बहती है। चाहे
वे सावन सोमवार हों
या फिर रक्षाबंधन, जन्माष्टमी,
कजली तीज आदि व्रत-त्योहारों का यही मौसम
है। यही वजह है
कि हर किसी को
सावन की रिमझिम फुहारों
का बेसब्री से इन्तजार है।
इसके साथ ही चारों
तरफ उल्लास छा जाता है।
जहां प्रकृति नित नये रंग
बदलती है वहीं पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, धरा
सभी की रंगत देखते
ही बनती है।
सावन के सुहाने
मौसम में मन मयूर
नाच उठता है। काले
बादल जब धरती से
मिलते हैं तो दिलों
में प्रेम की चरम की
अनुभूति होती है। अठखेलियां
कर रही प्रकृति के
साथ झूले के बिना
तो सावन की कल्पना
नहीं की जा सकती।
इनसे ना जाने कितनी
लोक-मान्यताएं और लोक-संस्कृति
के रंग जुड़े हुए
हैं। उन्हीं में से एक
है- कजरी। कजरी वह विधा
है, जिसे आज की
आधुनिकता या यूं कहें
फिल्मी गाने भी लेना
तो दूर उसे छू
तक नहीं सकी है।
ग्रामीण अंचलों में अभी भी
सावन की अनुपम छटा
के बीच लोक रंगत
की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं।
इसके बोल पर हर
कोई झूम उठता है
और गुनगुना उठता है-
रिमझिम
बरसेले
बदरिया,
गुईयां
गावेले
कजरिया
मोर
सवरिया
भीजै
न
वो
ही
धानियां
की
कियरिया
मोर
सविरया
भीजै
न।
बीरन
भइया
अइले
अनवइया
सवनवा
में
ना
जइबे
ननदी।
पिया
सड़िया
लिया
दा
मिर्जापुरी
पिया
रंग
रहे
कपूरी
पिया
ना
जबसे
साड़ी
ना
लिअईबा
तबसे
जेवना
ना
बनईबे
तोरे
जेवना
पे
लगिहैं
मजूरी
पिया
मेलवा
घुमाये
चला
ना
उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर
में कजरी भले ही
कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई
हो पर यह प्रकृति
से तादातम्य का गीत है
और इसमें कहीं न कहीं
पर्यावरण चेतना भी मौजूद है।
इसमें कोई शक नहीं
कि सावन प्रतीक है
सुख का, सुन्दरता का,
प्रेम का, उल्लास का
और इन सब के
बीच कजरी जीवन के
अनुपम क्षणों को अपने में
समेटे यूं ही रिश्तों
को खनकाती रहेगी और झूले की
पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार
यूँ ही लुटाती रहेगी।
कजरी में प्रेम के
दोनों पक्ष यानी संयोग
और वियोग दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसके पीछे
बड़ी मार्मिक दास्तान भी होती है।
कजरी ही है, जिसके
गीतों में हमारे बीर
जवान आज भी जिंदा
है। बनारस की कचौड़ी गली
में रहने वाली धनिया
का पति जब इस
अभियान पर रवाना हुआ
तो कजरी बनी। उसकी
व्यथा-कथा को सहेजने
वाली कजरी आपने जरूर
सुनी होगी- मिर्जापुर कइले गुलजार हो...कचौड़ी गली सून कइले
बलमू। यही मिर्जापुरवा से
उड़ल जहजिया, पिया चलि गइले
रंगून हो... कचौड़ी गली सून कइले
बलमू।
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