ट्रंप टैरिफः रणनीति और दबाव की राजनीति
अमेरिका की टैरिफ नीति और धमकियां दरअसल एक व्यापक रणनीतिक खेल का हिस्सा हैं। भारत ने जिस तरह दबाव में आने से इनकार किया है, वह उसकी परिपक्व कूटनीति और आत्मविश्वास का परिचायक है। आने वाले समय में आतंकवाद, सीमा सुरक्षा और वैश्विक दबाव जैसी चुनौतियां बनी रहेंगी, परंतु भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि उसकी नीति अपने दम पर बनेगी, न कि किसी और की शर्तों पर। मतलब साफ है भारत ने न झुका है, न झुकेगा; अमेरिकी धमकियों के पीछे छिपी है बड़ी चाल. भारत के लिए यही रास्ता सही है, आत्मनिर्भरता, गुणवत्ता और स्वाभिमान। यही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है
सुरेश गांधी
ट्रंप का यह कदम
केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि कूटनीतिक भूल है। भारत
जैसे उभरते महाशक्ति को नज़रअंदाज़ करना
या दबाव में लेना
संभव नहीं है। टैरिफ
दांव से न केवल
अमेरिकी अर्थव्यवस्था को झटका लगेगा,
बल्कि वैश्विक संतुलन भी बिगड़ेगा। अमेरिका
के हित इसी में
हैं कि वह अपने
फैसले पर पुनर्विचार करे
और भारत के साथ
सहयोग की राह पर
लौटे। भारत को अब और
अधिक धैर्य, आत्मनिर्भरता और वैश्विक साझेदारी
पर ध्यान देना होगा। टैरिफ
की यह आँच लंबे
समय तक झुलसाएगी, लेकिन
इससे भारत और मज़बूत
होकर उभरेगा—यह भी तय
है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ
संकेत दिया है कि
भारत दबाव की राजनीति
स्वीकार नहीं करेगा। रूस
से तेल खरीदना भारत
के लिए सिर्फ आर्थिक
निर्णय नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा की मजबूरी है।
इसी पृष्ठभूमि में मोदी सरकार
ने देशवासियों से ‘लोकल अपनाओ’
और घरेलू उत्पादों के प्रयोग की
अपील की है। यह
टैरिफ विवाद कहीं न कहीं
भारत की ‘आत्मनिर्भर भारत’
नीति को और मज़बूती
ही देगा।
अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर बढ़ा हुआ
टैरिफ अब लागू हो
चुका है। लेकिन यह
केवल “ट्रेड वॉर“ का मामला
नहीं है। यह कदम
उस व्यापक रणनीति का हिस्सा है,
जिसके जरिए अमेरिका भारत
को आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक दबाव
में लाना चाहता है।
यदि मुद्दा केवल व्यापारिक समझौतों
तक सीमित होता, तो बात इतनी
भर होती किकृचूंकि भारत
अमेरिका से इतना टैरिफ
वसूलता है, इसलिए वह
भी उतना ही लेगा।
परंतु रूस से सस्ता
तेल खरीदने पर दंडात्मक कार्रवाई
की चेतावनी देना और बार-बार भारत को
धमकाना इस बात का
स्पष्ट संकेत है कि खेल
कहीं गहरा है। यह
दरअसल भारत को घेरने
की पुरानी अमेरिकी नीति का ही
नया संस्करण है। ब्रिटेन के
अखबार द गार्डियन ने
इस टैरिफ को अब तक
की सबसे बड़ी क्षति
बताया है। सच यही
है कि दोनों देशों
के बीच आपसी भरोसा
भले कभी ‘पूर्ण’ नहीं
रहा हो, लेकिन रणनीतिक
संबंध लगातार मज़बूत हो रहे थे।
रक्षा सहयोग, क्वाड, इंडो-पैसिफिक रणनीति—ये सब साझेदारी
की मिसाल थे। अब यह
रिश्ता तनाव की भट्ठी
में झोंक दिया गया
है।
स्वतंत्रता के बाद से
ही अमेरिका ने पाकिस्तान को
भारत के खिलाफ एक
मोहरे की तरह इस्तेमाल
किया है। 1965 और 1971 के भारत-पाक
युद्धों में अमेरिका ने
खुले तौर पर इस्लामाबाद
को धन और हथियारों
से मदद दी। इतना
ही नहीं, 1971 में जब भारत
ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का साथ दिया,
तब अमेरिकी नौसैनिक बेड़ा “एंटरप्राइज“ को बंगाल की
खाड़ी में भेज दिया
गया था। हालांकि, अमेरिका
को हमेशा यह गलतफहमी रही
कि वह भारत को
दबा सकता है। लेकिन
इतिहास गवाह हैकृहर बार
भारत ने अपनी संप्रभुता
की रक्षा की है। 9/11 हमलों
के बाद आतंकवाद के
मुद्दे पर अमेरिका भारत
के करीब जरूर आया,
पर वह भी स्थायी
नहीं था। अमेरिकी नीति
कभी स्थायित्व वाली नहीं रही।
उसकी रणनीति हमेशा यही रही है
किकृजिस देश की अर्थव्यवस्था
तेजी से बढ़ रही
हो, उसे उसके पड़ोसी
से भिड़ा दो। युद्ध
का भारी-भरकम खर्च
उस देश को दशकों
पीछे धकेल देता है।
अमेरिका की चाल केवल
हथियार बेचने तक सीमित नहीं
है। उसकी रणनीति है,
पहले दुश्मनी भड़काओ। फिर “मदद“ के
नाम पर हथियार दो।
बाद में उन्हीं हथियारों
की मनमानी कीमत वसूलो। और
अंत में जब वह
देश भुगतान न कर पाए,
तो उसके प्राकृतिक संसाधनों
पर कब्जा कर लो। यह
नीति आज यूक्रेन के
सामने है। रूस से
युद्ध में उलझे यूक्रेन
को अमेरिका और पश्चिमी देशों
ने “मदद“ के नाम
पर अरबों डॉलर के हथियार
दिए। अब उन हथियारों
और पैकेज की कीमत संसाधनों
और खनिजों पर कब्जे की
शर्तों के साथ वसूली
जा रही है। ब्राजील,
रूस, भारत और चीन
जैसे देश पहले ही
ट्रंप की ‘टैरिफ राजनीति’
के खिलाफ एकजुट होते दिख रहे
हैं। यह स्थिति अमेरिका
को अलग-थलग कर
सकती है। दुनिया के
सबसे बड़े लोकतंत्र—भारत
और अमेरिका—के बीच बढ़ता
तनाव लोकतांत्रिक सहयोग की दिशा को
भी कमजोर करेगा।
भारत की मजबूती
अमेरिका को असहज कर
रही है। इसलिए पहले
कोशिश की गई कि
भारत को चीन से
भिड़ा दिया जाए। पर
जब भारत ने अपने
राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी
और अमेरिकी दबाव में आने
से इनकार कर दिया, तो
पुराने मोहरे पाकिस्तान को फिर से
सक्रिय कर दिया गया।
आज पाकिस्तान के ही नेता
स्वीकार कर चुके हैं
कि उन्होंने अमेरिका के कहने पर
ही आतंकवाद को पैदा किया,
पाला-पोसा और दूसरे
देशों पर हमले कराए।
यही कारण है कि
आने वाले समय में
पाकिस्तान के जरिए भारत
पर नए आतंकवादी हमलों
की संभावना से इनकार नहीं
किया जा सकता। इस
बार पाकिस्तान केवल चीन और
तुर्की से मिले हथियारों
पर ही निर्भर नहीं
रहेगा, बल्कि संभावना है कि अमेरिकी
तकनीककृज्भ्।।क्, च्ंजतपवज और ळवसकमद क्वउम
जैसे हथियार भी अप्रत्यक्ष रूप
से उसके हाथों में
पहुंचे। यह भारत के
लिए एक नई चुनौती
होगी।
भारत और अमेरिका
के बीच कूटनीतिक बातचीत
आगे भी होती रहेगी,
लेकिन आपसी विश्वास को
जो क्षति पहुंची है, उसकी भरपाई
मुश्किल है। अमेरिका बार-बार “लोकतंत्र“ और
“मानवाधिकार“ के नाम पर
भारत की आलोचना करता
है, जबकि खुद उसकी
नीतियां दोहरे मानदंडों पर आधारित होती
हैं। भारत यह अच्छी
तरह समझ चुका है
कि, अमेरिका किसी का स्थायी
मित्र नहीं हो सकता।
उसका मित्र केवल वही है,
जिसके हित उसके आर्थिक
और सामरिक एजेंडे से मेल खाते
हों। जैसे ही हित
टकराते हैं, वह वही
पुराना खेल खेलना शुरू
कर देता है। जहां
तक टैरिफ की बात है,
भारत के सामने सबसे
बड़ा हथियार उसकी गुणवत्ता और
आत्मनिर्भरता है। यदि हमारे
उत्पादों की गुणवत्ता उच्च
स्तर की रही, तो
दुनिया के किसी न
किसी बाजार में उसकी मांग
बनी रहेगी। मुनाफा थोड़ा कम-ज्यादा
हो सकता है, लेकिन
भारत की संप्रभुता और
आत्मसम्मान सुरक्षित रहेगा। आज भारत का
संदेश स्पष्ट है, पाकिस्तान या
चीन से संबंध भारत
अपनी रणनीति के हिसाब से
तय करेगा। अमेरिका या किसी अन्य
महाशक्ति के इशारे पर
नहीं। आर्थिक दबाव या टैरिफ
युद्ध हमें झुका नहीं
सकता।
भारत-अमेरिका संबंधों के प्रमुख मोड़
1965 : भारत-पाक युद्ध
में अमेरिका ने पाकिस्तान को
हथियारों और आर्थिक सहायता
से खुलकर मदद दी।
1971 : बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारत के
खिलाफ अमेरिका ने “यूएस एंटरप्राइज“
नौसैनिक बेड़ा बंगाल की
खाड़ी भेजा।
1974 : भारत के पहले
परमाणु परीक्षण (“स्माइलिंग बुद्धा“) के बाद अमेरिका
ने प्रतिबंध लगाए।
1998 : पोखरण-2 परमाणु परीक्षण के बाद कड़े
अमेरिकी प्रतिबंध लगे, परंतु भारत
झुका नहीं।
2001 : 9/11 हमले के बाद
आतंकवाद-विरोधी मोर्चे पर भारत-अमेरिका
सहयोग बढ़ा।
2005 : भारत-अमेरिका असैन्य
परमाणु समझौते की शुरुआत हुई।
2008 : भारत-अमेरिका असैन्य
परमाणु करार (123 एग्रीमेंट) लागू हुआ, लेकिन
इसके पीछे अमेरिकी कंपनियों
को भारी लाभ मिला।
2016 : भारत को अमेरिका
ने “मेजर डिफेंस पार्टनर“
का दर्जा दिया।
2020 : ट्रंप शासनकाल में व्यापारिक तनाव
चरम पर पहुँचा, भारत
पर टैरिफ बढ़ाए गए।
2022 : रूस-यूक्रेन युद्ध
में भारत ने स्वतंत्र
रुख अपनाया, सस्ता तेल खरीद जारी
रखा, अमेरिका ने दबाव बनाने
की कोशिश की।
2025 : अमेरिकी टैरिफ फिर बढ़ा, रूस
से ऊर्जा खरीदने पर दंडात्मक कार्रवाई
की धमकी, कूटनीतिक अविश्वास गहरा हुआ।
अमेरिका का ‘टैरिफ दांव’ और भारत का धैर्य
अमेरिका और भारत के
रिश्ते दशकों से रणनीतिक साझेदारी
के रूप में देखे
जाते रहे हैं। लोकतांत्रिक
मूल्यों और वैश्विक स्थिरता
के हित में दोनों
देशों का सहयोग हमेशा
महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत
टैरिफ लगाने के फैसले ने
इस साझेदारी पर गहरी चोट
की है। पश्चिमी मीडिया
से लेकर अमेरिकी विश्लेषकों
तक का कहना है
कि यह कदम अमेरिका
के हितों के लिए उलटा
पड़ सकता है। सीएनएन ने
तो यहां तक लिख
दिया है कि “अमेरिका
ने भारत को खो
दिया”। यह कथन
सतही नहीं है, बल्कि
वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था के
व्यापक समीकरणों की ओर इशारा
करता है। भारत अब
केवल एक ‘बाजार’ नहीं,
बल्कि ऊर्जा, टेक्नोलॉजी, रक्षा और भू-राजनीति
का केंद्रीय खिलाड़ी है। ऐसे में
भारत को नाराज़ करना
अमेरिका के लिए रणनीतिक
भूल साबित हो सकती है।
अमेरिकी नुकसान की शुरुआत
टैरिफ का सीधा असर
अमेरिका की ही जनता
पर पड़ रहा है।
भारत से आने वाले
सामान की कीमतें बढ़ने
लगी हैं। सीएनएन और
रॉयटर्स जैसे अमेरिकी मीडिया
संस्थान यह स्वीकार कर
रहे हैं कि टैरिफ
से अमेरिकी कंपनियां और उपभोक्ता पहले
से महंगाई का शिकार हो
रहे हैं। लेबर मार्केट
की हालत बिगड़ रही
है और भारतीय उत्पादों
पर महंगे टैरिफ से स्थिति और
गंभीर हो सकती है।
ट्रंप का टैरिफ दांव, रिश्तों पर भारी
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से
आने वाले उत्पादों पर
50 प्रतिशत टैरिफ लगाकर न केवल व्यापारिक
रिश्तों को झटका दिया
है, बल्कि रणनीतिक भरोसे पर भी चोट
पहुंचाई है। अमेरिका भारत
का सबसे बड़ा ट्रेड
पार्टनर है और दोनों
देशों के बीच पिछले
एक दशक में रणनीतिक
साझेदारी मजबूत हुई थी। लेकिन
ट्रंप का यह कदम
रिश्तों में सबसे बड़ी
दरार के रूप में
देखा जा रहा है।
सीएनएन ने लिखा है कि
इस टैरिफ का नुकसान अमेरिका
को ही होगा। महंगाई
पहले से ही बढ़ी
हुई है और भारतीय
सामान पर अतिरिक्त टैक्स
से अमेरिकी कंपनियों व उपभोक्ताओं पर
और बोझ बढ़ेगा। वहीं
द गार्डियन ने इसे भारत-अमेरिका संबंधों की अब तक
की सबसे बड़ी क्षति
करार दिया है।
“ट्रंप ने सब कुछ गंवा दिया।”
भारत ने भी
अमेरिकी दबाव के आगे
झुकने से इनकार किया
है। मोदी सरकार रूस
से तेल खरीदने पर
अडिग है और देशवासियों
से ‘मेक इन इंडिया’
उत्पाद अपनाने की अपील कर
रही है। इस कदम
ने भारत के भीतर
आत्मनिर्भरता के स्वर को
और मजबूत कर दिया है।
इस बीच ब्राजील, रूस, भारत और
चीन ने भी ट्रंप
के टैरिफ का विरोध कर
एक तरह से विकल्पी
वैश्विक धुरी बनाने के
संकेत दिए हैं। यह
स्पष्ट है कि ट्रंप
का टैरिफ दांव उनके ही
खिलाफ पड़ सकता है।
कुल मिलाकर, यह कदम दिखाता
है कि अंतरराष्ट्रीय रिश्ते
केवल व्यापार पर नहीं बल्कि
भरोसे और दूरदर्शिता पर
टिके होते हैं। ट्रंप
ने इस भरोसे को
गहरा आघात पहुंचाया है।
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