श्रद्धा के दीप से आलोकित पितृपक्ष : स्मृति और कृतज्ञता का पर्व
जब
भाद्रपद
की
पूर्णिमा
ढलती
है
और
अमावस्या
की
ओर
सूर्य
अपनी
गति
बढ़ाता
है,
तभी
से
आरंभ
होता
है
वह
पखवाड़ा,
जिसे
पितृपक्ष
कहा
जाता
है।
यह
केवल
तिथियों
का
क्रम
नहीं,
बल्कि
स्मृतियों
का
उजाला
है।
यह
वह
समय
है
जब
जीवित
मनुष्य
अपने
दिवंगत
जनों
की
आत्माओं
से
संवाद
करता
है,
तर्पण
की
धारा
से,
पिंडदान
की
आहुति
से
और
श्रद्धा
के
पुष्प
से।
कहते
है
श्राद्ध
की
परंपरा
महर्षि
निमि
से
आरंभ
हुई।
अपने
पुत्र
की
अकाल
मृत्यु
से
व्यथित
होकर
उन्होंने
पितरों
का
आह्वान
किया।
पितरों
ने
प्रकट
होकर
कहा,
“तुमने
अपने
पुत्र
की
आत्मा
को
अर्पित
यह
अन्न
और
जल
हमें
भी
तृप्त
कर
गया।
यह
यज्ञ
अब
सनातन
धर्म
का
अभिन्न
अंग
बनेगा।”
तभी
से
श्राद्ध
केवल
कर्मकांड
नहीं,
बल्कि
आत्मा
और
आत्मीयता
के
बीच
का
सेतु
बन
गया
सुरेश गांधी
भारत की सांस्कृतिक
धारा विश्व की सबसे प्राचीन
और व्यापक परंपरा है। यहाँ हर
पर्व केवल उल्लास और
उत्सव का अवसर नहीं
होता, बल्कि जीवन के गहन
दर्शन और आत्मिक अनुशासन
से भी जुड़ा होता
है। दीपावली हमें प्रकाश और
समृद्धि का संदेश देती
है, होली रंगों के
साथ भाईचारे का। वहीं, पितृपक्ष
हमें स्मरण कराता है कि हमारा
अस्तित्व केवल वर्तमान का
परिणाम नहीं है, बल्कि
हमारे पूर्वजों की तपस्या, श्रम
और संस्कार की अमूल्य धरोहर
पर आधारित है। आश्विन मास
के कृष्णपक्ष की अमावस्या से
प्रारंभ होकर यह पखवाड़ा
सोलह दिनों तक चलता है।
इसे श्राद्ध पक्ष भी कहा
जाता है। इस अवधि
में हम अपने दिवंगत
पूर्वजों का स्मरण कर
उन्हें तर्पण, पिंडदान और दान के
माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित
करते हैं। यह काल
न केवल धार्मिक दृष्टि
से पवित्र है, बल्कि भावनात्मक
और सांस्कृतिक रूप से भी
महत्वपूर्ण है।
कहते है पितृपक्ष
में हमारे पितृ धरती पर
आते हैं। वे कभी
कौवे के रूप में,
कभी गाय, कभी कुत्ते
या चींटी के रूप में,
तो कभी देवताओं के
प्रतीक रूप में हमारे
घर-आंगन में विचरण
करते हैं। संतान द्वारा
किए गए कर्म, अर्पित
अन्न और प्रार्थनाओं को
वे स्वीकार कर आशीर्वाद देते
हैं। इसी कारण श्राद्ध
में भोजन का अंश
पाँचों प्रतीकों को अर्पित किया
जाता है, गाय, कुत्ता,
चींटी, कौवा और देवता।
इसे पंचबलि कहा जाता है।
पितृपक्ष हमें यह संदेश
देता है कि जीवन
केवल वर्तमान की उपलब्धि नहीं,
बल्कि अतीत की धरोहर
और भविष्य की जिम्मेदारी भी
है। अपने पितरों का
स्मरण करना, उनके प्रति श्रद्धा
व्यक्त करना और पंचतत्वों
के प्रति आभार जताना ही
इस पर्व का वास्तविक
सार है। श्राद्ध, तर्पण,
पिंडदान और दान केवल
कर्मकांड नहीं, बल्कि कृतज्ञता की अभिव्यक्ति हैं।
पूर्वजों के आशीर्वाद से
ही संतान का जीवन संतुलित,
समृद्ध और संस्कारित बनता
है। इसलिए पितृपक्ष केवल पितरों की
तृप्ति का नहीं, बल्कि
हमारी आत्मा के संस्कार का
भी पर्व है।
पंचबलि : पंचतत्वों का सम्मान
यह बलि किसी
प्राणी की हत्या नहीं,
बल्कि भोजन का अंश
है, जो पांचों जीवों
और उनके प्रतीक पंचतत्वों
को अर्पित किया जाता है।
गाय : पृथ्वी का प्रतीक, कुत्ता
: जल का प्रतीक, चींटी
: अग्नि का प्रतीक, कौवा
: वायु का प्रतीक, देवता
: आकाश का प्रतीक. अर्पण
करते समय यह मंत्र
बोला जाता है.
पंचबलि अर्पण मंत्र
ॐ पृथ्व्यै नमः।,
ॐ आपः नमः।, ॐ
अग्नये नमः।, ॐ वायवे नमः।,
ॐ आकाशाय नमः। इस प्रकार
पंचबलि केवल पितरों की
तृप्ति नहीं, बल्कि पंचतत्वों के प्रति हमारी
कृतज्ञता भी है।
श्राद्ध और तर्पण : श्रद्धा का विधान
शास्त्र कहते हैं, “श्राद्धं
श्रद्धया दीयते इति श्राद्धम्” अर्थात्
जो श्रद्धा से किया जाए
वही श्राद्ध है। श्राद्ध के
तीन प्रमुख अंग माने गए
हैं : 1. पिंडदान, जौ, तिल और
चावल से बने पिंड
अर्पित करना। 2. तर्पण : तिलयुक्त जल को अंजुलि
से अर्पित करना।, 3. दान : ब्राह्मणों, साधुओं और जरूरतमंदों को
अन्न, वस्त्र, धन देना।
श्राद्ध कर्म का आह्वान मंत्र
ॐ पितृभ्यः स्वधा
नमः। ॐ प्रजापतये स्वधा
नमः। ॐ सोमाय पितृमते
स्वधा नमः। ॐ अग्नये
काव्यवाहनाय स्वधा नमः।
पिंडदान का विधान
पिंडदान के समय श्रद्धापूर्वक
यह मंत्र बोला जाता है,
ॐ पितृभ्यो नमः। ॐ मातामहेभ्यः
नमः। ॐ प्रपितामहेभ्यः नमः।
ॐ स्वधाऽस्तु पितृभ्यः। मान्यता है कि पिंडदान
से पितरों को भोजन और
जल मिलता है और वे
वंशजों को दीर्घायु, संतान
सुख, धन-धान्य और
समृद्धि का आशीर्वाद देते
हैं।
तर्पण का महत्व
तर्पण, यानी तिलयुक्त जल
अर्पित करना, पितरों की आत्मा को
शांति देने का सबसे
सरल और प्रभावी मार्ग
माना गया है। तर्पण
मंत्र : ॐ पितृभ्यः तृप्यताम्।
ॐ मातामहेभ्यः तृप्यताम्। ॐ प्रपितामहेभ्यः तृप्यताम्।
ॐ सर्वे पितरः तृप्यताम्।
रामायण और महाभारत में श्राद्ध
रामायण में वर्णन है
कि भगवान राम और माता
सीता ने पिता दशरथ
के लिए श्राद्ध और
पिंडदान किया। महाभारत में भी भीष्म
पितामह ने युधिष्ठिर को
श्राद्धकर्म का महत्व बताया।
गरुड़ पुराण में कहा गया
है, “श्राद्धेन तृप्यते सर्वं जगत् स्थावरजंगमम्।” अर्थात्
श्राद्ध से समस्त जगत,
स्थावर-जंगम सभी तृप्त
होते हैं।
पितृ ऋण और मुक्ति
हिंदू धर्म तीन ऋणों
की बात करता है,
देव ऋण, ऋषि ऋण,
पितृ ऋण. श्राद्ध के
माध्यम से पितृ ऋण
का परिशोधन होता है। यह
केवल धार्मिक दायित्व नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है।
दान और सेवा : पितरों की सच्ची प्रसन्नता
श्राद्धकाल में अन्नदान, गोदान,
वस्त्रदान और काले तिल
का दान अत्यंत शुभ
माना गया है। काले
तिल का दान : पितृदोष
का निवारण करता है। गोदान
: सर्वश्रेष्ठ दान। अन्नदान : सबसे
बड़ा पुण्य। दान का स्वरूप
सामाजिक करुणा और धार्मिक पुण्य
दोनों है।
पितरों की स्मृति में लोकगीत
भारतीय लोकसाहित्य में पितरों की
स्मृति को लोकगीतों और
कहावतों में अमर किया
गया है। गांवों में
आज भी महिलाएं श्राद्ध
के दिनों में पितरों के
नाम दीपक जलाती हैं
और गीत गाती हैं,
“पितर आयो
घर
द्वारे,
आशीष
बरसावे।”
पितृपक्ष में क्या न करें
तामसिक आहार (मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज) वर्जित है। पितरों की
आलोचना न करें। असत्य
भाषण और कटुता से
बचें।
आशीर्वाद की प्रार्थना
श्राद्ध के अंत में
पितरों से आशीर्वाद प्राप्त
करने हेतु यह प्रार्थना
बोली जाती है, ॐ
पितरः प्रीयन्ताम्। आयुष्मान भव। पुत्रपौत्रसम्पन्नो भव। विद्यावान्
भव। धनधान्यसमृद्धो भव। सर्वत्र सुखी
भव।
पौराणिक कथाओं का आलोक
महाभारत में भीष्म पितामह
ने युधिष्ठिर को श्राद्ध का
महत्व समझाया। गरुड़ पुराण में
उल्लेख है कि अत्रि
मुनि ने ही महर्षि
निमि को इसका ज्ञान
दिया था। दानवीर कर्ण
की कथा तो हर
घर में सुनाई जाती
है, स्वर्ग में जब उन्हें
भोजन के स्थान पर
सोना मिला तो ज्ञात
हुआ कि उन्होंने जीवन
भर दान तो दिया,
पर अपने पितरों को
अन्न अर्पित नहीं किया। उन्हें
धरती पर भेजा गया,
जहाँ उन्होंने पूरे पितृपक्ष में
तर्पण-पिंडदान कर अपने पूर्वजों
को तृप्त किया। इन कथाओं में
संदेश छिपा है कि
पितृपक्ष केवल विधि-विधान
का समय नहीं, बल्कि
कर्तव्य और स्मरण का
पर्व है।
श्राद्ध की पवित्र परंपरा
श्राद्ध में सबसे पहले
जल अर्पित होता है, हथेली
के अंगूठे से बहता हुआ।
यही पितृतीर्थ है। इसके बाद
पिंडदान और तर्पण की
क्रिया होती है। ब्राह्मण
भोजन कराए बिना श्राद्ध
अधूरा माना जाता है,
क्योंकि माना गया है
कि ब्राह्मण भोजन में पितरों
की आत्मा स्वयं सम्मिलित होती है। श्राद्ध
का अन्न केवल मनुष्यों
तक सीमित नहीं रहता। उसका
एक अंश कौए को
दिया जाता है, जो
यम का दूत माना
गया है। गाय को
अर्पित होता है, जो
धरती पर देवताओं का
निवास है। कुत्ते को
रोटी दी जाती है,
जिसे कुक्करबलि कहते हैं, यमराज
के मार्ग का प्रहरी मानकर।
चींटी और अन्य जीव
भी अंश पाते हैं।
इसे पञ्चबलि कहा जाता है,
जो पंचतत्वों के प्रति आभार
का प्रतीक है। श्राद्ध के
दौरान कुशा की अंगूठी
धारण की जाती है।
मान्यता है कि इसके
अग्रभाग में ब्रह्मा, मध्य
में विष्णु और मूल भाग
में महादेव निवास करते हैं। इसी
से पवित्र होकर पितरों का
आह्वान किया जाता है।
सावधानियों का धर्म
इस पखवाड़े में
कच्चे अनाज का भक्षण
वर्जित है। मसूर की
दाल, मूली, आलू और अरबी
भी निषिद्ध हैं। मांगलिक कार्य,
विवाह, उपनयन, मुंडन, नहीं किए जाते।
किंतु अन्न और वस्त्र
का दान विशेष पुण्यकारी
है। नए मकान, भूमि
या वाहन खरीदने पर
कोई रोक नहीं, बल्कि
यह पितरों को सुखद लगता
है।
जीवितों के लिए पितरों का आशीष
पितृपक्ष में किया गया
श्राद्ध केवल दिवंगत आत्माओं
की शांति नहीं देता, बल्कि
जीवितों के जीवन में
सुख-शांति और उन्नति का
मार्ग भी खोलता है।
यह केवल मृतकों के
लिए अर्पित अन्न नहीं, बल्कि
परंपरा का अमर दीप
है, जो पीढ़ी दर
पीढ़ी चलता आया है।
यही पितृपक्ष का संदेश है,
“पूर्वजों को स्मरण करो,
उनके चरणों में श्रद्धा अर्पित
करो। क्योंकि उनकी कृपा ही
है जो जीवन को
स्थिरता और दिशा देती
है।”
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