Sunday, 7 September 2025

श्राद्ध : पितरों के आशीष और मोक्ष का अनंत द्वार

श्राद्ध : पितरों के आशीष और मोक्ष का अनंत द्वार 

भारतीय संस्कृति की जड़ें केवल वर्तमान में नहीं, बल्कि अतीत और भविष्य के संगम में निहित हैं। यह संस्कृति केवल जीवितों के लिए ही नहीं, बल्कि दिवंगत आत्माओं के लिए भी उतनी ही संवेदनशील है। यही कारण है कि श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान जैसे संस्कारों की परंपरा हजारों वर्षों से जीवित है। हमारे पूर्वजों ने इसे केवल कर्मकांड नहीं माना, बल्कि आत्मा और परमात्मा के संवाद का माध्यम समझा। इसी संदर्भ में गया श्राद्ध का महत्व सर्वोपरि माना गया है, जहां आस्था के दीपक पितरों के लिए जलते हैं और विश्वास के पुल स्वर्ग तक पहुंचा देते हैं. सनातन धर्म की आस्था में पितृपक्ष केवल अनुष्ठान का समय नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पर्व है। इस पावन अवसर पर बिहार का गया तीर्थ, आस्था और श्रद्धा का सबसे बड़ा केंद्र बन जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि गया में पिंडदान करने से 108 पीढ़ियों तक के कुल का उद्धार होता है। यही कारण है कि हर वर्ष पितृपक्ष में लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं और पिंडदान कर अपने पितरों के मोक्ष की कामना करते हैं 

सुरेश गांधी

सनातन धर्म में जीवन के सोलह संस्कार बताए गए हैं। इनमें श्राद्ध संस्कार भी शामिल है। श्राद्ध का शाब्दिक अर्थ है, श्रद्धा से किया गया अर्पण। इसका उद्देश्य है पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उनके ऋण का परिशोधन करना और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करना। हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक का सोलह दिवसीय कालखंड पितृपक्ष कहलाता है। मान्यता है कि इन दिनों में पितृ लोक के द्वार खुल जाते हैं और पूर्वज अपनी संतानों से आशीर्वाद की आकांक्षा लेकर पृथ्वी पर आते हैं। इन दिनों तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध करने से पितरों को तृप्ति मिलती है और वे अपने वंशजों को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। गया श्राद्ध केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आत्मा है। यह हमें बताता है कि जीवन और मृत्यु के बीच भी एक सेतु है। हमारे पूर्वज केवल अतीत नहीं, बल्कि वर्तमान की धड़कनों में भी जीवित हैं। कृतज्ञता और स्मरण ही संस्कृति की सच्ची पहचान हैं।

पितृपक्ष का यह पर्व हमें पारिवारिक एकता, परंपरा और मूल्यों से जोड़े रखता है। मतलब साफ है गया श्राद्ध केवल कर्मकांड की परंपरा नहीं, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा का संवाद है। पूर्वजों के प्रति स्मरण और कृतज्ञता का पर्व है। यह विश्वास है कि श्राद्ध से पितरों की आत्मा तृप्त होकर आशीर्वाद देती है, जिससे घर-परिवार में सुख, शांति और समृद्धि बनी रहती है। इसलिए धर्मशास्त्रों का यही संदेश है, “पितरों को स्मरण करो, उनका आदर करो, और उनके आशीष से जीवन का मार्ग प्रशस्त करो।यहां श्राद्ध करने वाला केवल अपने पितरों को तर्पण नहीं करता, बल्कि स्वयं को भी यह स्मरण कराता है कि मनुष्य नश्वर है और उसकी जड़ें पूर्वजों से जुड़ी हैं। गया की भूमि, जहां श्रीराम ने दशरथ को पिंडदान किया, जहां गयासुर ने अपना शरीर अर्पित किया, जहां प्रेतशिला अकाल मृत्यु वालों को मोक्ष देती है, वह वास्तव में मोक्ष का अनंत द्वार है। यही कारण है कि हर साल लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से यहां आते हैं और विश्वास करते हैं कि उनके पितरों की आत्मा यहां तृप्त होकर स्वर्ग लोक को प्राप्त करेगी। 

गया : मोक्षदायिनी भूमि

बिहार का गया जिला केवल भूगोल का हिस्सा नहीं, बल्कि धर्म और संस्कृति का जीवंत तीर्थ है। इसे लोग आदर से गयाजी कहते हैं। यहां की हर शिला, हर नदी, हर मंदिर एक कथा कहता है। यहां स्थित फल्गु नदी को पितृ तर्पण की साक्षी माना जाता है। विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु के चरणचिह्न अंकित हैं, जिन्हें स्वयं पितृदेव का रूप माना गया है। अक्षयवट वृक्ष को पितरों का शाश्वत प्रतीक माना जाता है, जो काल के चक्र से परे होकर अनंत तक आशीर्वाद प्रदान करता है। पुराणों के अनुसार, गया में पिंडदान करने से केवल एक परिवार ही नहीं, बल्कि सात पीढ़ियों और 108 कुलों का उद्धार होता है।

रामकथा से जुड़ा गया

गरुड़ पुराण और वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीराम ने माता सीता और लक्ष्मण के साथ मिलकर यहीं पर अपने पिता महाराज दशरथ का पिंडदान किया था। कथा है कि जब राम-लक्ष्मण सामग्री लेने नगर गए, तब माता सीता ने समय निकलता देख बालू का पिंड बनाकर दशरथ जी को अर्पित किया। फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और ब्राह्मण साक्षी बने। तभी से गया में बालू से पिंडदान की परंपरा प्रचलित हुई।

गयासुर की कथा

गया की पहचान केवल रामकथा से नहीं, बल्कि गयासुर नामक दैत्य की कथा से भी जुड़ी है। कहा जाता है कि गयासुर ने कठोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और वर मांगा कि उसके दर्शन से पाप नष्ट हो जाएं। लोग पाप करके भी उसके दर्शन से स्वर्ग जाने लगे। तब देवताओं ने गयासुर से यज्ञ भूमि मांगी। गयासुर ने अपना विशाल शरीर ही अर्पित कर दिया, जो पांच कोस तक फैला था। तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने वरदान दिया कि इस भूमि पर जो भी श्राद्ध करेगा, उसे मोक्ष मिलेगा। यही भूमि आगे चलकर गया तीर्थ कहलायी।

प्रेतशिला : अकाल मृत्यु वालों का उद्धार

गया से लगभग दस किमी दूर स्थित प्रेतशिला पर्वत विशेष महत्व रखता है। यह पर्वत 876 फीट ऊंचा है और यहां तक पहुंचने के लिए लगभग 400 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। मान्यता है कि अकाल मृत्यु को प्राप्त आत्माएं यहां पिंडदान से शांति पाती हैं। श्रद्धालु यहां सत्तू का पिंड बनाकर चढ़ाते हैं और परिक्रमा करते हैं। इस शिला पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिमाएं आज भी मौजूद हैं। कहा जाता है कि यहां आत्माएं सूर्यास्त के बाद अपनी उपस्थिति का आभास भी कराती हैं।

कौआ और पितरों का संबंध

गरुड़ पुराण में कौए को यमराज का प्रतीक माना गया है। श्राद्ध में जब कौए को भोजन कराया जाता है, तो विश्वास किया जाता है कि पितरों ने अन्न ग्रहण कर लिया। मान्यता है कि यदि कौआ भोजन कर ले, तो पितरों की आत्मा तृप्त हो जाती है और वंशजों को उनका आशीर्वाद मिलता है। इसी कारण श्राद्ध में पंचबली भोग (कौए, गाय, कुत्ते, चींटी और देवताओं को अन्न अर्पित करना) अनिवार्य माना गया है।

श्राद्ध के नियम और निषेध

गया तीर्थ पर श्राद्ध करने वाले यात्रियों को विशेष आचरण का पालन करना होता है : - पराया अन्न नहीं खाना, जमीन पर सोना, एकांतवास करना, मांसाहार, प्याज, लहसुन, मसूर, काली उड़द, बैंगन, खीरा आदि का त्याग करना, ब्राह्मणों को भोजन कराना और भगवान विष्णु की पूजा करना, मान्यता है कि इन नियमों का पालन करने से श्राद्ध कर्म पूर्ण होता है और पितृदोष दूर होता है।

गया के अलावा अन्य तीर्थ

यद्यपि पिंडदान के लिए भारत में कई तीर्थ हैं, परंतु गया का स्थान सर्वोपरि है। अन्य महत्वपूर्ण स्थलों में, हरिद्वार (नारायणी शिला), प्रयागराज (त्रिवेणी संगम), उज्जैन (शिप्रा तट), काशी (गंगा तट), मथुरा (वायु तीर्थ), पुष्कर (राजस्थान), जगन्नाथ पुरी (ओडिशा), बद्रीनाथ (ब्रह्मकपाल घाट), फिर भी कहा जाता है, “गयायां दत्तमक्षय्यमस्तुअर्थात गया में दिया गया पिंडदान अक्षय है।

पहला श्राद्ध महर्षि निमि ने अपने पुत्र

की आत्मा की शांति के लिए किया

शास्त्रों में उल्लेख है कि सबसे पहला श्राद्ध महर्षि निमि ने अपने पुत्र की आत्मा की शांति के लिए किया था। तभी से यह परंपरा सनातन धर्म में एक अनिवार्य कर्म बन गई। महाभारत के अनुसार, श्राद्ध कर्म की विधि भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताई थी। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि अत्रि मुनि ने महर्षि निमि को श्राद्ध का ज्ञान दिया। जब निमि ने अपने दिवंगत पुत्र के लिए पितृ-आह्वान किया, तो पितर प्रकट हुए और उन्होंने इसे पितृयज्ञ घोषित किया। तभी से श्राद्ध का महत्व स्थिर हो गया। एक अन्य कथा के अनुसार, दानवीर कर्ण ने जीवन भर सोना-रत्न दान किए, लेकिन पितरों को अन्न नहीं अर्पित किया। मृत्यु के बाद उन्हें खाने में सोना मिला। जब उन्होंने कारण पूछा तो इंद्रदेव ने यही बताया। कर्ण को पुनः धरती पर भेजा गया, जहाँ उन्होंने पूरे पितृपक्ष में श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण किया। तभी से यह अनुष्ठान और भी व्यापक बन गया।

अनुष्ठान की परंपरा

श्राद्ध में तर्पण, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन तीन मुख्य विधियाँ मानी जाती हैं। जल अर्पण अंगूठे से किया जाता है, जिसे पितृतीर्थ कहा जाता है। श्राद्ध के समय कुशा की अंगूठी पहनने की परंपरा है, जिसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव का प्रतीक माना जाता है। श्राद्ध का अंश कौए, कुत्ते और गाय को खिलाया जाता है, क्योंकि इन्हें क्रमशः पितृ, यमदूत और देवताओं का वाहक माना गया है। श्राद्ध के भोजन का पञ्चबलि रूप से पांच अंश निकालना आवश्यक है, गाय, कुत्ता, चींटी, कौआ और देवताओं के लिए। यह पंचतत्वों के प्रति आभार का प्रतीक है।

सावधानियां और वर्जनाएं

पितृपक्ष में कच्चा अनाज, मसूर दाल, मूली, अरबी और आलू का सेवन वर्जित है। मांगलिक कार्य जैसे विवाह, मुंडन या उपनयन संस्कार नहीं किए जाते। नए वस्त्र भी नहीं खरीदे जाते, लेकिन भूमि, मकान या वाहन की खरीद पर कोई रोक नहीं है। 

ब्राह्मण भोजन का महत्त्व  

श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराना अनिवार्य माना गया है। शास्त्र कहते हैं कि ब्राह्मण भोजन के साथ ही पितर तृप्त होते हैं। भोजन के बाद ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक विदा करना चाहिए, क्योंकि उनके साथ-साथ पितर भी घर से विदा होते हैं।

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