यूपी में बेटियों को बराबरी का हक
विवाह अब
नहीं
बनेगा
हक़
की
दीवार,
बेटियां
पाएंगी
खेत-खलिहान
में
अपना
हिस्सा
सुरेश गांधी
वाराणसी। उत्तर प्रदेश सरकार महिलाओं के अधिकारों को
लेकर एक ऐसा कदम
उठाने जा रही है,
जो केवल कानूनी सुधार
ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक
पुनर्जागरण भी होगा। खास
यह है कि यह
न केवल कानूनी सुधार
होगा बल्कि समाज की सोच
में भी नव चेतना
जगाएगा। अब तक विवाह,
बेटी और खेत, इन
तीन शब्दों के बीच एक
अदृश्य दीवार खड़ी कर देता
था। पिता के खेत-खलिहान में शादीशुदा बेटी
को अधिकार नहीं मिलता था।
या यूं कहे सदियों
से पिता की विरासत
को लेकर बेटियों के
हिस्से में बस ममता
की स्मृतियां आती रही हैं,
खेत-खलिहान पर उनका नाम
नहीं लिखा जाता था।
विवाह, जो जीवन का
उत्सव होना चाहिए था,
बेटियों के लिए हक
खोने की घोषणा बन
जाता था।
यह व्यवस्था लंबे
समय से भेदभाव और
पीड़ा का प्रतीक मानी
जाती रही है। अब
यह अन्याय मिटने जा रहा है।
अब उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद ने जिस संशोधन
का प्रस्ताव तैयार किया है, उससे
यह अन्याय मिटने की दिशा में
उम्मीद की नई किरण
फूटी है। मतलब साफ
है यह फैसला केवल
कानून की किताब में
बदलाव नहीं है, बल्कि
संस्कृति और समाज की
आत्मा में सुधार है।
यह उन बेटियों के
लिए न्याय है, जो अब
तक विवाह के नाम पर
अपनी जन्मभूमि से कट जाती
थीं। उत्तर प्रदेश की मिट्टी अब
अपनी बेटियों से नहीं कहेगी,
“तुम पराई हो।” बल्कि
कहेगी, “तुम भी मेरी
संतान हो, और तुम्हारा
भी उतना ही हिस्सा
है जितना तुम्हारे भाई का।”
विवाह से परे समानता का अधिकार
वर्तमान राजस्व संहिता-2006 की धारा 108(2) के तहत विवाह, बेटी और जमीन के बीच एक कृत्रिम दीवार खड़ी कर देता था। पिता की मृत्यु पर जमीन विधवा, पुत्र और अविवाहित पुत्री के नाम दर्ज होती, जबकि विवाहित बेटी को उसका हिस्सा नहीं मिलता। यह मानो विवाह के बाद बेटी अपने ही घर और खेत से पराई हो जाती। या यूं कहे पिता की मृत्यु के बाद जमीन पर अधिकार विधवा, पुत्र और अविवाहित पुत्री को तो मिलता, पर विवाहित बेटी को नहीं। यह स्थिति उस समाज में और भी कटु प्रतीत होती थी, जो बेटी को “लक्ष्मी” मानकर घर से विदा करता है। प्रस्तावित संशोधन में अब “विवाहित” और “अविवाहित” शब्द हट जाएंगे। इसका अर्थ है कि बेटी चाहे विवाहिता हो या अविवाहिता, वह उत्तराधिकारी है, और बराबरी से है।
परंपरा और प्रगतिशीलता का संगम
भारतीय परंपरा में पृथ्वी को
‘धरणी माता’ कहा गया है,
और पुत्री को भी माता
की प्रतिछाया माना गया है।
फिर कैसा यह विरोधाभास
कि भूमि पर बेटी
का अधिकार विवाह के नाम पर
छिन जाए? महाभारत में
द्रौपदी ने जुए के
दांव में अपने अपमान
पर जो प्रश्न उठाया
था, वह दरअसल स्त्री
की अस्मिता और अधिकार का
प्रश्न था। आज उत्तर
प्रदेश सरकार का यह कदम
उसी प्रश्न का नया उत्तर
हैकृस्त्री का सम्मान और
अधिकार दोनों अक्षुण्ण हैं।
खेत-खलिहान में समान सूर्योदय
जमीन केवल संपत्ति
नहीं, बल्कि परिवार की स्मृतियों और
संस्कारों का दस्तावेज़ होती
है। जिस मिट्टी में
बेटी ने बचपन के
खेल खेले, उसी पर उसका
अधिकार न होना पीड़ा
का कारण रहा है।
यह संशोधन खेतों में भी बराबरी
का सूरज उगाएगा। जैसे
सूर्य अपने प्रकाश में
भेद नहीं करता, वैसे
ही अब भूमि पर
अधिकार भी विवाह की
दीवार से बँधा नहीं
रहेगा।
अन्य राज्यों से प्रेरणा
मध्य प्रदेश और
राजस्थान पहले ही विवाहित
बेटियों को यह अधिकार
दे चुके हैं। अब
उत्तर प्रदेश भी उस पथ
पर चलकर समानता की
धारा में शामिल हो
रहा है। यह निर्णय
केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक मानसिकता में सुधार का
प्रतीक है।
आगे की प्रक्रिया
संशोधन का प्रस्ताव शासन
स्तर पर परीक्षण के
बाद कैबिनेट में जाएगा। विधानसभा
और विधान परिषद की मंजूरी मिलते
ही यह कानून बन
जाएगा। उस दिन को
इतिहास याद रखेगा, जब
यूपी ने विवाह और
विरासत के बीच की
दीवार गिराकर बेटियों को उनका हक
लौटाया।
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