धर्म ध्वजाएं अखाड़ों की आन, बान और शान का प्रतीक
प्रयागराज
में
त्रिवेणी
के
तट
पर
विश्व
के
सबसे
बड़े
आध्यात्मिक
और
सांस्कृतिक
समागम
महाकुंभ
में
आस्था
की
अलौकिक
दुनिया
साकार
होने
के
साथ
ही
अखाड़ों
के
धर्मध्वजा
महाकुंभ
का
आकर्षण
का
केन्द्र
बन
चुके
हैं।
धर्मध्वज
संस्कृत
शब्द
है,
धर्म
और
ध्वज
से
बना
है।
कुंभ
में
अलग-अलग
अखाड़ों
की
धर्मध्वजाएं
होती
है।
दरअसल
धर्मध्वजाएं
अखाड़ों
की
आन,
बान
और
शान
का
प्रतीक
हैं.
अखाड़ों
में
लहराती
धर्म
ध्वजाएं
महाकुंभ
क्षेत्र
में
सहज
ही
आकर्षित
कर
लेती
हैं.
यही
वजह
है
कि
अखाड़े
किसी
भी
परिस्थिति
में
धर्मध्वजा
के
झुकने
को
स्वीकार
नहीं
करते.
यह
सनातन
का
अभिमान
है
और
पुण्य
उदय
से
ही
धर्म
ध्वजा
को
फहराने
की
परंपरा
है।
कुंभ
मेले
का
शुभारंभ
होने
पर
सभी
अखाड़ों
की
तरफ
से
धर्म
ध्वजा
की
स्थापना
की
जाती
है.
धर्म
ध्वजा
के
नीचे
ही
सन्यासियों
को
दीक्षा
देने
की
परंपरा
है.
वैसे
भी
धर्म
ध्वजा
स्थापित
होने
के
बाद
ही
अखाड़ों
में
मेले
की
शुरुआत
होती
है.
धर्म
ध्वजा
अखाड़ों
की
धार्मिक
पहचान
है,
जो
दूर
से
दिखाई
देती
है.
माना
जाता
है
कि
सनातन
धर्म
की
रक्षा
के
लिए
आदि
शंकराचार्य
ने
इन
अखाड़ों
की
स्थापना
की
थी.
“भूमि
पूजन
और
धर्म
ध्वजा
कुम्भ
की
भूमि
में
स्थापित
करने
के
पीछे
हमारी
पुरानी
मान्यता
है.
कुम्भ
क्षेत्र
में
जाने
के
बाद
हम
सबसे
पहले
भूमि
पूजन
करके
धर्म
ध्वजा
लगाते
है.
ध्वजा
का
जो
दंड
होता
है
वो
बावन
हाथ
का
होता
है
जिसमे
जनेऊ
की
बावन
गांठे
होती
है
जो
प्रतीक
होती
है
अखाड़ों
की
बावन
मडियों
की.”
सुरेश गांधी
महाकुंभ : 2025 में आस्था और सनातन धर्म के विविध रंग निखरने लगे हैं। सनातन धर्म के शिखर संन्यासियों के अखाड़ों की धर्म ध्वजा एक-एक कर स्थापित होने से दिव्य और भव्य कुंभ की अनुभूति जीवंत हो चली है। महाकुम्भ में सनातन धर्म की भव्यता और परंपरा की झलक दिखाई दे रही है. महांकुभ में अखाड़े अपनी आध्यात्मिकता, साधना और सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के जरिए श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र होते है। उनकी उपस्थिति हिंदू धर्म की समावेशीता और विविधता को प्रदर्शित करेगी, जो भारतीय संस्कृति और परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। क्योंकि धर्म की रक्षा अखाड़े ही करते हैं और उसको साथ लिए बिना कोई भी धार्मिक लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल है। श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा और उसके भ्राता अखाड़े कहे जाने वाले श्री पंच दशनाम आवाहन अखाड़े और अग्नि अखाड़े के संन्यासियों ने पूरे विधि विधान के साथ अपने अपने अखाड़ों के इष्ट का आवाहन कर अपनी धर्म ध्वजा महाकुंभ क्षेत्र में फहरा दी है। धर्म ध्वजा की स्थापना अखाड़ों के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। कुंभ मेले का शुभारंभ होने पर सभी अखाड़ों की तरफ से धर्म ध्वजा की स्थापना की जाती है.
बता दें, सनातन
में धार्मिक चिन्ह और उनसे जुड़ी
कई मान्यताएं प्रचलित हैं. इन्हीं में
से एक है भगवा
ध्वज, जिसकी सनातन धर्म में विशेष
मान्यताएं हैं. भगवा त्रिकोण
ध्वज होता है. इसके
साथ पौराणिक और प्राचीन काल
में युद्ध के दौरान ध्वज
को विशेष महत्व दिया जाता है.
सनातन धर्म में भगवा
रंग का विशेष महत्व
है, क्योंकि इस रंग को
अग्नि और ज्ञान का
प्रतीक माना जाता है.
अग्नि अंधकार को नष्ट करता
और ज्ञान व्यक्ति के व्यवहार को
विनम्र बनाता है. मान्यता है
भगवा ध्वज ईश्वर के
संप्रभुता का प्रतिनिधित्व करते
हैं और त्रिकोण आकर
का ध्वज तीनों लोक-
स्वर्ग, धरती और पाताल
को दर्शाते हैं. साथ ही
यह तीन कोने तीनों
काल भूत, वर्तमान और
भविष्य के भी संकेतक
माने जाते हैं. हालांकि
सनातन में तीन रंगों
के ध्वज को प्रमुख
मान्यता दी गई है.
वह तीन रंग हैं-
गेरुआ, भगवा और केसरी.
लेकिन विशेष अवसरों पर अन्य रंगों
का भी प्रयोग किया
जाता है. वहीं विविध
संप्रदायों के अपने-अपने
ध्वज भी होते हैं.
ध्वज पर बने पताका
भी विशेष महत्व रखते हैं, जैसे
शैव संप्रदाय में नंदी ध्वज
को मान्यता दी जाती है.
वैष्णव धर्म में गरुड़
ध्वज को प्रमुख माना
जाता है. इनके साथ
सिंह ध्वज और चंद्र
ध्वज का हिन्दू धर्म
में विशेष मान्यता है. त्रिभुजाकार ध्वज
में दो त्रिकोण मिलाकर
ध्वज का निर्माण होता
है. ऊपर वाला त्रिकोण
नीचे वाले से छोटा
होता है. जबकि प्राचीन
काल में युद्धभूमि में
08 प्रकार के पताकाओं का
विशेष महत्व दिया गया है.
वह मुख्य ध्वज थे- विजय,
भीम, चपल, जय, वैजयंतिक,
विशाल, दीर्घ और लोल. जिनके
अपने विशेष प्रतीक हैं.
धर्म ध्वजा के नीचे ही सन्यासियों को दीक्षा देने की परंपरा है. कुंभ मेला समाप्त होने के बाद धर्म ध्वजा को पूरे विधि विधान के साथ उतारा जाता है. इस मौके पर कढ़ी पकौड़े का भोजन किया जाता है. अखाड़ों में लहराती धर्म ध्वजाएं महाकुंभ क्षेत्र में सहज ही आकर्षित कर लेती हैं. धर्म ध्वजा अखाड़ों की आन, बान और शान का प्रतीक हैं. अखाड़े किसी भी कीमत पर धर्म ध्वजा का झुकना स्वीकार नहीं करते हैं. अखाड़ों के साधु-संन्यासी महाकुंभ के अभिन्न अंग होते हैं. कोई साधु कई दशकों से एक पैर पर खड़ा है तो कोई सिर्फ जल पीकर ही जिंदा रहता है. धूनी रमाए, घनी जटाओं वाले ये साधु अपनी वेश-भूषा की वजह से लोगों को आकर्षित भी करते हैं. इनका मूल धर्म की रक्षा में ही निहित है. इसके साथ ही धर्म ध्वजा इनकी पहचान होते है, जो दूर से दिखाई देती है. कुंभ शुरू होने से पहले अखाड़े अपनी धर्म ध्वजा लहराते हैं. जिसके लिए एक विशेष कद-काठी के पेड़ के तने को जंगल से काटकर लाया जाता रहा है.
अखाड़ों की छावनियों में स्थापित होने वाली धर्म ध्वजाओं को लगाने के लिए 52 हाथ की लकड़ी का प्रयोग किया जाता रहा है. या यूं कहे धर्म ध्वजाओं को लगाने के लिए 108 फीट से 151 फीट तक की लकड़ी का प्रयोग किया जाता रहा है. हालांकि कछ अखाड़े छोटी लकड़ी पर भी धर्म ध्वजा स्थापित करते है. अलग-अलग अखाड़ों की धर्म ध्वजा अलग होती है. जैसे महानिर्वाणी अखाड़े की ध्वजा लाल रंग की होती है. वहीं दिगंबर अखाड़े की ध्वजा में पांच रंग होते हैं, जहां सबसे ऊपर लाल, फिर केसरिया, सफेद, हरा और सबसे नीचे काला रंग होता है. निर्मोही अखाड़े की ध्वजा केसरिया रंग की होती है. हर अखाड़े की ध्वजा का रंग ही उसकी पहचान है. कुंभ के मेले में सूर्योदय के साथ यह ध्वजा फहराई जाती है और शाम को सूर्यास्त के साथ इसे उतार दिया जाता है. निरंजनी अखाड़े की धर्मध्वजा में 52 बंध लगाए गए हैं, जो 52 मढ़ियों का प्रतीक हैं. इन बंधों में एक हाथ का अंतर होता है. शैव अखाड़ों की धर्मध्वजाओं का रंग भगवा होता है. शिव भक्त इन अखाड़ों ने अपनी धर्मध्वजा को चारों दिशाओं से बांध रखा है. शैव अखाड़ों जैसे महानिर्वाणी, निरंजनी, जूना, अग्नि, आनंद, आवाहन, और अटल अखाड़े में स्थापित धर्मध्वजाओं का रंग भगवा है.
जूना अखाड़े की धर्मध्वजा 52 हाथ ऊंची है और यह मढ़ियों का प्रतीक है. यह अखाड़ा चार मढ़ियों में विभाजित है, जो चारों दिशाओं का संकेत देती हैं. धर्मध्वजा का हर कोना किसी दिशा से जुड़ा हुआ है. धर्मध्वजा के पास भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित है. निरंजनी अखाड़े की धर्मध्वजा में 52 बंध हैं, जो दशनामी मढ़ियों का प्रतीक हैं. हालांकि, वर्तमान में इनमें से केवल 18 मढ़ियां शेष हैं. वैष्णव अनी अखाड़ों की धर्मध्वजाओं के रंग अलग-अलग हैं, लेकिन सभी के इष्टदेव हनुमान जी हैं. निर्वाणी अनी अखाड़े की लाल रंग की धर्मध्वजा पश्चिम दिशा का संकेत करती है और हनुमान जी का प्रतीक है. निर्मोही अनी की सुनहली धर्मध्वजा शांति और शुभता का प्रतीक है, जो पूरब दिशा का संकेत करती है. दिगंबर अनी अखाड़े की पंचरंगी ध्वजा अंगद का प्रतीक है और दक्षिण दिशा का संकेत देती है. उदासीन अखाड़ों की धर्मध्वजाओं में हनुमान जी और पंचदेव अंकित हैं.
नया पंचायती उदासीन अखाड़े की धर्मध्वजा में भगवान विष्णु का मोरपंख लगाया गया है. मोरपंख भगवान विष्णु के दर्शन कराने का प्रतीक है, जिसमें सभी रंग समाहित होते हैं. निर्मल अखाड़े की धर्मध्वजा का रंग पीला है और यहां के कार्य पंजाबी पद्धति से संपन्न किए जाते हैं.
श्रद्धालु विशाल मेला क्षेत्र में अपने तीर्थ पुरोहितों के शिविर की पहचान उनके झंडे को देखकर करते हैंऔर फिर वहां पहुंचते हैं। देश-विदेश से यहां पहुंचने वाले लाखों श्रद्धालु पूजा-पाठ और दान-पुण्य के लिएअपने पुरोहितों के पास जाते हैं। पुराहितों के पास पहुंचने के लिए न तो उन्हें फोन करते हैं और न ही किसी से पूछते हैं। श्रद्धालु अपने धर्म पुरोहितों के शिविर के झंडे को पहचान कर आसानी से वहां पहुंच जातेहैं। श्रद्धालुओं के लिए नाम या मोबाइल नम्बर का खास महत्व नहीं है। वे अपने-अपने पुरोहितों के शिविर के झंडे पहचानते हैं और उसी को देखकर इस भव्य मेला क्षेत्र में अपने पुरोहित को आसानी से ढूंढ लेते हैं।महाकुंभ मेला क्षेत्र में एक हजार से अधिक धर्म पुरोहितों के शिविर हैं। लेकिन सभी के झंडे अलग-अलग हैंऔर श्रद्धालु उन्हीं के जरिए उनकी पहचान करते हैं। किसी पुरोहित के झंडे का निशान राधा-कृष्ण, किसी का मर्यादा पुरुषोत्तम राम, किसी का हाथी-घोड़ा, किसी का शेर, किसी का त्रिशूल, किसी का सूर्य, किसी का कलश, किसी का सिपाही है। हर श्रद्धालु को अपने धर्म पुरोहित के झंडे का निशान पता है। धर्म पुरोहितों के झंडे के निशान वर्षो पुराने हैं और वे उसे कभी बदलनेका जोखिम नहीं उठाते, क्योंकि इससे उनके जजमानों को उन तक पहुंचने में मुश्किल होगी।
धर्म के संदर्भ
में, सर्वमान्य कथन है- ‘धर्मो
रक्षति रक्षतः’। धर्म उसकी
रक्षा करता है, जो
धर्म की रक्षा करते
हैं। यह सजग समाज
के संदर्भ में और भी
सटीक है। समाज की
उन्नति तभी है, जब
वह विधिमान्य नीतियों का पालन करे
यानि समाज धर्म ध्वजा
का अनुसरण करे। भारतीय इतिहास
में मुगलकाल एक ऐसा ही
चुनौती भरा कालखण्ड था।
अराजकता, अत्याचार, तलवार के बल पर
मतांतरण और महिलाओं के
साथ दुराचार चरम पर था।
इन मुगलिया अत्याचारों से लड़ने में
अखाड़ों ने महती भूमिका
निभायी थी। जब औरंगजेब
ने वाराणसी का काशी विश्वनाथ
मंदिर और मथुरा का
केशवराय मंदिर तुड़वाया, वीर छत्रपति शिवाजी
के राज्य को हड़पने का
प्रयास किया, हिन्दुओं पर जजिया कर
लगाया तो इन अखाड़ों
ने ही मुखर होकर
अपनी धर्म रक्षा के
लिए विरोध किया था। प्रयागराज महाकुंभ मेला 2025 एक ऐसा आयोजन
है जो श्रद्धा, आस्था,
और भारतीय संस्कृति का परिचायक है।
यह आयोजन न केवल धार्मिक
दृष्टि से महत्वपूर्ण है
बल्कि विश्वभर से आने वाले
करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए एक
आध्यात्मिक यात्रा है। यह मेला
भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा
का ऐसा विशाल दृश्य
प्रस्तुत करता है जो
अनंत काल तक लोगों
के दिलों में बसेगा। महाकुंभ
मेले में देशभर के
प्रमुख अखाड़ों की भागीदारी होती
है, जो इस आयोजन
की शोभा को और
बढ़ाते हैं। महाकुंभ मेला
में चारों दिशाओं से श्रद्धालु एकत्रित
होते हैं, जो पवित्र
गंगा, यमुना और सरस्वती के
संगम में स्नान कर
अपने पापों से मुक्ति की
आशा रखते हैं। इस
महोत्सव में संगम पर
स्नान करना और साधु-संतों का दर्शन करना
अत्यंत शुभ माना जाता
है। प्रयागराज में महाकुंभ की
दिव्यता हर बार श्रद्धालुओं
को अपनी ओर आकर्षित
करती है
महाकुंभ की धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता
महाकुंभ मेला न केवल
धार्मिक आस्था का संगम है,
बल्कि यह भारतीय संस्कृति
और परंपराओं का भी प्रतीक
है। यहाँ विभिन्न संप्रदायों
के साधु-संतों का
मिलन होता है और
धर्म की ध्वजा लहराते
हुए वे अपने अनुयायियों
को सत्मार्ग पर चलने का
संदेश देते हैं। महाकुंभ
मेले में सनातन धर्म
के विभिन्न अखाड़ों के साधु, संत,
नागा संन्यासी, और महामंडलेश्वर अपने
शिविरों में प्रवास करते
हैं और यहाँ आने
वाले श्रद्धालुओं के मार्गदर्शक भी
होते हैं।
कुंभ मेले का पौराणिक इतिहास
कुंभ मेले की
उत्पत्ति समुद्र मंथन की पौराणिक
कथा से जुड़ी हुई
है। मान्यता है कि देवताओं
और असुरों ने अमृत प्राप्त
करने के लिए समुद्र
मंथन किया, जिससे अमृत कलश प्रकट
हुआ। अमृत को लेकर
देवताओं और असुरों के
बीच युद्ध छिड़ गया। इस
संघर्ष के दौरान भगवान
विष्णु ने अपने वाहन
गरुड़ को अमृत के
घड़े की सुरक्षा का
दायित्व सौंपा। गरुड़ जब अमृत कलश
लेकर आकाश मार्ग से
उड़ान भर रहे थे,
तब अमृत की कुछ
बूंदें पृथ्वी पर चार स्थानों—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक—पर
गिरीं। ये स्थान तब
से पवित्र माने जाते हैं,
और यही कारण है
कि हर 12 साल में इन
स्थानों पर कुंभ मेले
का आयोजन होता है। कहा
जाता है कि देवताओं
और असुरों के बीच 12 दिवसीय
युद्ध हुआ, जो मानव
समय के अनुसार 12 वर्षों
के बराबर है। इसी पौराणिक
संदर्भ के कारण हर
12 वर्ष में कुंभ मेले
का आयोजन किया जाता है,
जो आध्यात्मिकता, आस्था और भारतीय संस्कृति
का अद्वितीय संगम है।
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