Saturday, 6 September 2025

संघ का शताब्दी वर्ष : समाज निर्माण और संस्कृति पुनर्जागरण का महायज्ञ

संघ का शताब्दी वर्ष : समाज निर्माण और संस्कृति पुनर्जागरण का महायज्ञ

संघ का शताब्दी वर्ष केवल उत्सव नहीं, बल्कि महायज्ञ है। यह स्मरण का अवसर है, बीते सौ वर्षों में संघ ने समाज को क्या दिया। यह संकल्प का अवसर है, आने वाले सौ वर्षों में भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए हमें क्या करना है। शाखाओं का विस्तार, सज्जन शक्ति का संगठन, परिवार प्रबोधन, पर्यावरण रक्षा, आत्मनिर्भरता, सांस्कृतिक संरक्षण और नागरिक कर्तव्य, ये केवल कार्यक्रम नहीं, बल्कि नवभारत के निर्माण की रूपरेखा हैं। संघ का शताब्दी वर्ष यही पुकार सुनाता है, “आओ, सज्जन शक्ति को एकत्रित करें, समाज को संगठित करें, और भारत को उसके गौरवपूर्ण भविष्य की ओर ले चलें।मतलब साफ है शाखाओं के जाल से लेकर परिवार प्रबोधन तक, सामाजिक सद्भावना से लेकर आत्मनिर्भरता तक, संघ का शताब्दी वर्ष केवल उत्सव नहीं, बल्कि आने वाले सौ वर्षों के लिए राष्ट्र निर्माण का संकल्प है

सुरेश गांधी

शताब्दी वर्ष किसी भी संस्था के लिए महज कैलेंडर का अंक नहीं, बल्कि इतिहास और भविष्य के बीच की कड़ी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जब अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश करता है, तो यह केवल संगठन का जश्न नहीं, बल्कि भारतीय समाज के पुनर्जागरण का महाआह्वान है। यह वह क्षण है जब हम स्मरण करें, बीते सौ वर्षों में संघ ने समाज को क्या दिया, और संकल्प लें, आने वाले सौ वर्षों में भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए क्या करना है। मतलब साफ है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपनी स्थापना (1925) से लेकर अब तक समाज को संगठित करने और राष्ट्रभावना जगाने का सतत प्रयास किया है। मतलब साफ है हेडगेवार मानते थे कि भारत की सबसे बड़ी समस्या असंगठित समाज है। उन्होंने शाखा की परंपरा शुरू की, जहाँ व्यायाम, खेल, गीत और प्रार्थना के माध्यम से अनुशासन और राष्ट्रभाव का संस्कार दिया जाता है।

प्रारंभिक दिनों में संघ छोटा था, लेकिन विचार विराट थे। आज जब शाखाएँ गाँव-गाँव और नगर-नगर में फैल चुकी हैं, तो यह हेडगेवार के उस बीज का वटवृक्ष बनना है, जिसे उन्होंने बोया था। ये सब बातें विश्व संवाद केन्द्र, लंका वाराणसी में पहुंचे सुभाषजी के साथ हुई सीनियर रिपोर्टर सुरेश गांधी की विशेष वार्ता के दौरान सामने आई। उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के संघ शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों की चर्चा विस्तार से की. सुभाषजी का मनना है कि ये आयोजन केवल विचार-विमर्श नहीं होंगे, बल्कि समाज की आत्मा को झकझोरने और नई चेतना जगाने का कार्य करेंगे. माता-पिता बच्चों को संस्कार और कर्तव्यबोध दें। संपर्क का अर्थ केवल औपचारिक मुलाकात नहीं, बल्कि समाज की पीड़ा को समझना और उसके समाधान का हिस्सा बनना है। संघ का शताब्दी वर्ष केवल शाखाओं की संख्या बढ़ाने या कार्यक्रम करने का अवसर नहीं है। यह उस दर्शन को पुनः प्रतिष्ठित करने का अवसर है जिसे एकात्म मानव दर्शन कहा गया, जहाँ व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सब एक-दूसरे से जुड़े हों। जहाँ मानव और प्रकृति का संतुलन बना रहे। जहाँ विकास केवल भौतिक होकर, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी हो।

शाखा : संघ का प्राण, समाज का आधार

डॉ. हेडगेवार ने 1925 में नागपुर से जो बीज बोया था, वह आज शाखाओं के वटवृक्ष के रूप में खड़ा है। शताब्दी वर्ष में संकल्प है कि हर मंडल, हर बस्ती, हर नगर और हर अधिष्ठान पर शाखा का आयोजन होगा। शाखा केवल खेल या व्यायाम की जगह नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण का विद्यालय है। यहां शारीरिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास एक साथ होता है। यहां से अनुशासन, सेवा और राष्ट्रभाव की चेतना पनपती है। शताब्दी वर्ष का सबसे बड़ा संकल्प है कि हर मंडल, हर बस्ती और हर आध्यात्मिक स्थल पर शाखा स्थापित की जाएगी।

सज्जन शक्ति और सामाजिक सद्भावना

भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी विविधता में एकता है। शताब्दी वर्ष का संदेश है, समाज की सज्जन शक्ति को संगठित करना, ताकि अच्छाई की आवाज़ प्रबल हो। प्रबुद्ध जन गोष्ठी, युवा सम्मेलन, हिन्दू सम्मेलन और सामाजिक सद्भावना बैठकें इसी उद्देश्य से होंगी। जाति, पंथ, भाषा, प्रांत की दीवारें तोड़कर समरस समाज का निर्माण ही संघ का असली संकल्प है। संघ मानता है कि समाज की सज्जन शक्ति को संगठित करना सबसे आवश्यक है।

परिवार प्रबोधन : संस्कृति की जड़ें मजबूत

भारतीय समाज का किला परिवार है। शताब्दी वर्ष में परिवार प्रबोधन कार्यक्रम चलेंगे। हर घर में पूजा का स्थान हो, परंपरा जीवित रहे, भाषा और भूषा का सम्मान हो। मां-बाप केवल शिक्षा ही नहीं, बल्कि संस्कार भी दें। संघ का विश्वास है कि संस्कारित परिवार ही राष्ट्र की आत्मा है।

पर्यावरण और स्वच्छता

आज मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है पर्यावरण संकट। संघ का दृष्टिकोण साफ है, प्लास्टिक का उपयोग कम करना और जल संरक्षण को बढ़ावा देना। वृक्षारोपण और स्वच्छता अभियान चलाना। प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखना। मतलब साफ है प्लास्टिक का बहिष्कार और जल संरक्षण शताब्दी वर्ष का प्रमुख संकल्प है. वृक्षारोपण और स्वच्छता अभियान को जीवनशैली का हिस्सा बनाने पर बल देना है. संघ का विश्वास है कि समाज और प्रकृति दोनों की रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है।

आत्मनिर्भरता : स्वाभिमान का आधार

शताब्दी वर्ष का प्रमुख संकल्प है, “हमारा स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता।यह केवल नारा नहीं, बल्कि शताब्दी का मंत्र है। ग्रामीण उद्योग, स्थानीय उत्पादन और कुटीर शिल्प का संरक्षण। स्वरोजगार और सेवा-भावना को प्रोत्साहन। आत्मनिर्भरता से ही भारत वैश्विक मंच पर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाएगा। या यूं कहे आत्मनिर्भर समाज ही आत्मनिर्भर राष्ट्र का आधार है।

सांस्कृतिक धरोहर और जीवन-मूल्य

संघ के लिए संस्कृति केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा है। मातृ भाषाओं का सम्मान और प्रयोग। पारंपरिक परिधान जीवनशैली का गर्व से पालन। भ्रमण और यात्राएं केवल पर्यटन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का साधन। पूजा-घर और भवन केवल ईंट-पत्थर नहीं, संस्कृति के संवाहक हैं।

नागरिक कर्तव्य : राष्ट्र प्रथम

संघ सदैव कहता है, अधिकारों से पहले कर्तव्य। अनुशासन, ईमानदारी और सेवा को नागरिक धर्म बनाना होगा। राष्ट्र प्रथम, स्वयं बाद में, यही संघ का संदेश है। आज समाज में अधिकारों की चर्चा अधिक है, पर कर्तव्यों की कमी है। अनुशासन, ईमानदारी और सेवा हर नागरिक का धर्म बने। राष्ट्र प्रथम, स्वयं बाद में, यह भावना प्रत्येक मनुष्य के जीवन में उतरनी चाहिए।

ऐतिहासिक प्रेरणाएं

डॉ. हेडगेवार : संगठन के प्रणेता। गुरुजी गोलवलकर : वैचारिक आधार और शाखाओं का विस्तार। नानाजी देशमुख : ग्रामीण विकास के आदर्श। दत्तोपंत ठेंगड़ी : श्रमिक और उद्योग जगत के मार्गदर्शक। सेवा भारती, विद्यार्थी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिंदू परिषदकृये सब संघ की प्रेरणा से खड़ी हुईं संस्थाएं हैं।

सेवा कार्यों का विस्तार

संघ केवल शाखा तक सीमित नहीं। 1947 के विभाजन में शरणार्थियों की सेवा, 1971 में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों की मदद, आपदाओं में राहत कार्य, भूकंप, बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओं में राहत कार्य। ये सब संघ की सेवा-भावना के उदाहरण हैं। शताब्दी वर्ष में इस सेवा को और व्यापक बनाने का संकल्प है।

एकात्म मानव दर्शन : भविष्य का पथ

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन संघ का मार्गदर्शन करता है। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र, सभी परस्पर जुड़े हों। मानव और प्रकृति का संतुलन बना रहे। विकास केवल भौतिक होकर, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी हो।

स्वतंत्रता संग्राम और संघ की भूमिका

अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ की क्या भूमिका रही? लवाब था संघ ने प्रत्यक्ष राजनीति से दूरी बनाए रखकर समाज को जागृत किया। 1942 केभारत छोड़ो आंदोलनमें अनेक स्वयंसेवक भूमिगत रहकर कार्य करते रहे। स्वतंत्रता संग्राम के अनेक सेनानी, जैसे नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी आदि संघ की शाखाओं से प्रेरित हुए। संघ ने यह विश्वास दिलाया कि स्वतंत्रता केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का माध्यम होना चाहिए। आज भी जाति, पंथ और भाषा के भेद मिटाकर, ‘एक समाज, एक राष्ट्रकी भावना को स्थापित करना शताब्दी वर्ष का प्रमुख लक्ष्य है। 

हिन्दू राष्ट्र : सनातन का अखंड दृष्टिकोण

हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को लेकर वर्षों से बहस चलती रही है। आलोचक इसे संकीर्ण और जातिवादी रंग देने की कोशिश करते हैं, जबकि सच्चाई इससे एकदम भिन्न है। दरअसल, हिन्दू राष्ट्र कोई राजनीतिक सत्ता का मॉडल नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति का जीवन-दर्शन है। यह वह दृष्टिकोण है जो जाति और वर्ग की सीमाओं से ऊपर उठकर समाज को एक सूत्र में पिरोता है। कुंभ और संगम इसका सबसे जीवंत प्रमाण हैं। जब 65 करोड़ लोग बिना किसी भेदभाव के पवित्र डुबकी लगाते हैं, तो यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता, बल्कि सनातन की उस विराट परंपरा का उत्सव होता है जिसमें सभी जातियाँ, सभी वर्ग और सभी प्रदेश एक साथ आते हैं। यही सनातन है, यही हिन्दू राष्ट्र की वास्तविकता है। आंकड़े बताते हैं कि देश की लगभग 75 प्रतिशत आबादी आज भी सनातन के तौर-तरीकों से अपना जीवन जीती है। इसका अर्थ स्पष्ट है, भारत का मूल चरित्र सनातन है। इस आधार पर जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू राष्ट्र की बात करता है तो वह किसी जातीय वर्चस्व या राजनीतिक प्रभुत्व की नहीं, बल्कि अखंड भारत की सांस्कृतिक आत्मा को पुनर्जीवित करने की बात करता है। स्वामी विवेकानंद ने भी स्पष्ट कहा था कि भारत का भविष्य वेदांत और सनातन मूल्यों के आधार पर ही सुरक्षित है। विवेकानंद के आदर्शों को आधार बनाकर संघ यह मानता है कि हिन्दू राष्ट्र का निर्माण केवल धर्म या राजनीति का विषय नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और आत्मनिर्भरता का संकल्प है। इसके ठीक उलट जातिवादी और विभाजनकारी शक्तियाँ समाज को जातियों में बाँटकर सत्ता हथियाना चाहती हैं। उनका लक्ष्य वोट बैंक और कुर्सी तक सीमित है, जबकि हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना समाज को जोड़ने, संस्कारों को सशक्त बनाने और भारतीयता को विश्वपटल पर प्रतिष्ठित करने की है। आज का भारत उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ सनातन ही एकमात्र आधार है जो समाज को स्थायी एकता दे सकता है। हिन्दू राष्ट्र का अर्थ है, जाति से परे, वर्ग से ऊपर और भेदभाव से मुक्त एक ऐसा समाज, जहाँ हर नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए संस्कृति और राष्ट्र को सर्वोपरि मानता है। मतलब साफ है हिन्दू राष्ट्र जाति का नहीं, बल्कि सनातन का पर्याय है। यह कोई संकीर्ण विचारधारा नहीं, बल्कि अखंड भारत का वह व्यापक दृष्टिकोण है जो हमें एक सूत्र में बाँधता है और भारत को विश्वगुरु बनने की दिशा में आगे बढ़ाता है।

 

No comments:

Post a Comment

त्योहारों में उपभोक्ता सेवा को प्राथमिकता, निजीकरण पर पाँच सवालों ने सरकार को घेरा

त्योहारों में उपभोक्ता सेवा को प्राथमिकता, निजीकरण पर पाँच सवालों ने सरकार को घेरा  283वें दिन भी बिजलीकर्मियों का संघर्ष जारी सुरेश गा...